हमसफर

रविवार, 31 अक्तूबर 2010

आखिर नामवर सठियाए तो क्या हुआ

(मोहल्ला में नामवर पर केंद्रित दिलीप मंडल के 9 जुलाई 2010 के पोस्ट यह कौन बोल रहा है? तोगड़िया या ठाकुर नामवर सिंह? पर प्रतिक्रिया – (29.10.2010) )
याद कीजिए जब निराला की कविताएं सिर्फ आलाप हुआ करती थीं, वह भी चूके थे। निराला की स्पर्द्धा में पंत की ग्रंथियां निराला की पैरोडी बनकर बहने लगी थी। हम बिहारी जिसे भसियाना कहते हैं उसे ही सठियाना भी कहते हैं। जब आप दुर्बल होते हैं तो छोटी-छोटी चीजों से परास्त होने लगते हैं। बैक्टीरिया से और आसक्ति से। आप रोगी होने लगते हैं, पर नहीं मानते कि इलाज की जरूरत है तो यहीं से हम भसियाते हैं। आखिर कितने दिनों तक नामवरीय कुहासा (यह संजीव का दिया हुआ शब्द है। याद हो कि न याद हो, उन्होंने कभी राष्ट्रीय सहारा में लिखा था) कायम रहेगा। फिलहाल याद कीजिए आचार्य प्रवर किसी भी व्याख्यान में अब विषय केंद्रित नहीं हो पाते। अध्ययन, अनुभव, दक्षता, मेधा पर कोई ऊंगली उठा नहीं सकता। पर ज्ञान के साथ संवेदना और विवेक की भी जरूरत पड़ती है। कम से कम उन्हें बताने की जरूरत नहीं। आखिर क्या वजह है कि अपने अंतरंग क्षणों में जिस विभूति नारायण राय के विवादास्पद बयान को वस्तुगत और सही ठहराते हैं, उसे सार्वजनिक रूप से कहने में उन्हें कौन रोकता है। इलियट की पंक्ति याद रहनी चाहिए प्रेजेंट इंफ्लुएंशेज द पास्ट। क्या इस बिना पर उन्हें नहीं कसा जाएगा कभी। याद है दूरदर्शन के सुबह-सबेरे कार्यक्रम में एक से एक गुलशन नंदा टाईप किताबों पर उनके अनमोल वचन प्रकटिया रहे थे। आखिर यह सब क्या है। मैं जानता हूं यह सब कहकर अपने कई मित्रों को नाराज कर रहा हूं, पर नाराजगी से बचने के लिए कोई गूंगा तो नहीं हो सकता ! कोई अपनी उपयोगिता खत्म हो जाने के बाद खुद को दुहराता रहता है या फिर खतरे – मुश्किल पैदा करता है। गांधी जी का हस्र हमारे सामने है। विवेकानंद अपनी भूमिका के बाद नहीं रहे। भगत सिंह नहीं रहे। सुभाष नहीं रहे। मंडेला रहे तो निर्लिप्त रहे। मान लीजिए कि आचार्य का समय अब नहीं रहा, लेकिन क्या इससे उनका अवदान कम हो जाएगा...लेकिन अपने अवदान की महत्ता बरकरार रखने की चिंता खुद में भी है, इससे कौन इनकार करेगा।
मुझे याद है और कोयलांचलवासियों को याद होगा कि नामवर के निमित्त की श्रृंखला में धनबाद के खनि विद्यापीठ में उनके सम्मान में एक आयोजन था। पूरे व्याख्यान में साहित्यकार की राजनीतिक प्रतिबद्धता को सर्वप्रमुख बताया था। उनकी कथनी का नतीजा में कहा जाना चाहिए कि राजनीति आगे और साहित्य पीछे। उनका स्पष्ट आग्रह था के लेखक पार्टी करे। उनकी नजरों में दुग्ध-धवल वामपंथी पार्टियां। उसमें संजीव और अरुण कमल भी पधारे थे। आचार्य प्रवर के व्याख्यान के बाद सवाल-जवाब का सत्र आय़ा। मैंने सहज जिज्ञासा की कि यदि लेखक राजनीति करेगा तो किसी न किसी पक्ष में होना उसकी बाध्यता होगी। ऐसे में क्या साहित्य दर्पण की भूमिका निभा पाएगा? घुमा-फिराकर उनकी बात राजनीतिक प्रतिबद्धता की अनिवार्यता पर टिकी थी। मैंने कहा कि साहित्य जब खुद ही प्रतिरोध की राजनीति है तो अलग से राजनीति की क्या जरूरत? छोटी सी जगह से उठा सवाल उनको कैसा लगा नहीं, पर उनका जवाब था कि अब तुम कुतर्क कर रहे हो।
इसी तरह अभी हिंदी के तर्पण (हिंदी दिवस व पखवाड़ा के लिए, यह उन्हीं की शब्दावली है, यह २९ सितंबर की बात है। मैंने १७ सितंबर के अपने पोस्ट में हिंदी दिवस की साठवीं बरसी पर मैंने हिंदी के पितरों को याद करनेके लिए पितृ पक्ष कहा था) में इस बार जब कोयलांचल आए तो मैंने किसी पल उनसे अपनी जिज्ञासा रखी कि आपने एक जगह अपने व्याख्यान में जिस रामविलास शर्मा को आचार्य कहकर संबोधित किया था उनके सिधार जाने पर 'इतिहास की शवसाधना नाम से रामविलास शर्मा की इतिहास चेतना को टार्गेट कर आलोचना पूरा एक अंक ही केंद्रित किया था। बात पल्ले नहीं पड़ी। इसपर उन्होंने कहा कि रामविलास जी चमरशौच कर रहे थे। हिदी में बहुत काम बाकी पड़ा था तो वेद पर अध्ययन करने लगे। जबकि संस्कृत का कोई खास अध्ययन उनका नहीं था। ठहरे अंग्रेजी के शिक्षक।
इसी तरह मैंने अपने ब्लाग में अजय तिवारी के बहाने टिप्पणी से एक अंश दे रहा हूं-
अपनी आलोचनाओं में अंतर्राष्ट्रीय रीडिंग रूम दिखानेवाले तो बहुतेरे हुए, पर पोलिश सौंदर्यशास्त्री जान पारांदोव्स्की वाला पन्ना किसी ने नहीं पलटा था। मुक्तिबोध ने बगैर किसी का हवाला दिए कला के जिन तीन क्षणों की बात की है, वह जान पारांदोव्स्की की अवधारणा है। ऐसा इस संदर्भ में इसलिए कह रहा हूं कि मुक्तिबोध पर गहन आलोचन-अध्ययन उन्होंने किया है। उन्होंने भी इस पर कुछ नहीं कहा।
ऐसा लगता है जैसे वर्ष 1957 में पुस्तक ‘नई कविता के प्रतिमान’ नहीं आती तो ‘कविता के नए प्रतिमान’ जैसा प्रतिमान गढ़ा भी जाता या नहीं, संदेह ही है।

1 टिप्पणी:

  1. कैलाश
    भाई आपने जिस अंदाज में बखिया उधेड़ी है, वह मर्यादित नहीं लगती। यह ठीक है कि चौथेपन में ऐसे लोग कुछ कर जाते हैं जो उनकी फजीहत का कारण बन जाती है, पर हमें उनकी ऊंचाई का ख्याल तो करना ही चाहिए। उन्होंने कम नहीं दिया। पूरा हिंदी का वातावरण उनसे जगमग और समृद्ध है। हां, उनसे चूकें हुई हैं। पर यह कौन कह सकता है कि सारी चूकों के बाद भी कौन पीछ मुड़कर देखता है। यह सजा सिर्फ आचार्य नामवर सिंह को ही क्यों। आप तो अध्ययनशील व प्रगतिशील लगते हैं। यह ओछापन हो जाता है। ब्लाग अपने नाम के अनुकूल ऐसा न करने लगे कि वह अपराध की श्रेणी में आ जाए। आखिर आत्महत्या भी तो अपराध है।

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