हमसफर

रविवार, 31 अक्तूबर 2010

बाजार से फार्मूलाबाजी नहीं बचा सकती

मार्क्स, हीगेल, लोहिया, सुकरात, गांधी, काफ्का
सबपे भारी पड़ रहा है, फलसफा बाजार का।
- उर्दू शायर देवेंद्र गौतम
यह शेर अपने परिप्रेक्ष्य में बाजार की दिशा और उसकी सरपरस्ती की मंजूरी का आतंक बुनता है। अर्थ के विस्तार ने और फिर उसके दबाव ने चेतना को संकीर्ण किया। भोगवाद को बढ़ावा देनेवाले तंत्रों ने अपना हसीन जाल बुना। हम सिमटते गए उन जालों में। खोते गए खुद को। और इस तरह सांस्कृतिक तत्वों के लिए दुर्वह परिस्थितियों को हमने और हमारी उदासीनता ने मजबूत होने, हावी हो जाने दिया। सभी पढ़े-लिखे संवेदनशीलों ने इसे करीब से शब्दजगत में इस हलचल की रेकार्डिंग देखी-सुनी। सूचना के विस्फोट में संवेदनाएं बह गईं। आकस्मिक नहीं कि अखबार की तादाद बढ़ती गई और किताब सिमटती गई। गणित की भाषा में मस्तिष्क और हृदय, सूचना और संवेदना व्युत्क्रमानुपाती कही जाएंगी। इस दौरान संस्कृति के समक्ष भविष्य का संकट, अस्तित्व रक्षा का प्रश्न विकट वैताल बनकर खड़ा है। और एक फार्मूला विकसित हुआ कि बाजार में जगह बनाकर ही बचा जा सकता है। सर्वाइवल आफ द फिटेस्ट के दर्शन में फिटनेस की यह शर्त चस्पां कर दी गई। जितनी सहूलियतों के साथ बाजार की महाठगिनी अपने नखदंत लेकर प्रकट हुई है उसके मुकाबले दोगले मीडिया और सत्ता के दलाल मठाधीशों की नपुंसकता किसी काम की नहीं। यह तो बाजार के बेडरूम में सज-धजकर पहुंची हुई कालगर्ल है। और राजनीति हरपल किसी भी बोलीपर नीलाम को तैयार...और जिस साहित्य के पास पाठकों का रोना हो भला वह किस फौज को लेगा अपने साथ। साम्राज्यवादी ताकत जब कभी संकट में पड़ती है तो वह किसी न अबूझ से लगते मोहक-दुरूह-पहेलीनुमा दर्शन लेकर प्रकट होती है। इतिहास का अंत, नई विश्वव्यवस्था, उत्तरआधुनिकता... क्या इस पर लट्टू होनेवाले विमर्श कार? या कारपोरेट वामपंथी या सजावट के लिए ड्राइंगरूम में विचार रखनेवाली गाड आफ स्माल थिंग्स ? क्या किसी राष्ट्रीय समझ के बगैर भी आपका काम चल जाएगा। आखिर किस राष्ट्रीय समझ और इस समझ के किस सातत्य का परिचय वह दे रही है ?

(प्रभात खबर की ओर से ‘संस्कृति और बाजारवाद’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी (2004-5) के संचालन के क्रम में संबोधन पर आधारित। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि रामजी राय व विशिष्ट अतिथि संजीव थे। )

आखिर नामवर सठियाए तो क्या हुआ

(मोहल्ला में नामवर पर केंद्रित दिलीप मंडल के 9 जुलाई 2010 के पोस्ट यह कौन बोल रहा है? तोगड़िया या ठाकुर नामवर सिंह? पर प्रतिक्रिया – (29.10.2010) )
याद कीजिए जब निराला की कविताएं सिर्फ आलाप हुआ करती थीं, वह भी चूके थे। निराला की स्पर्द्धा में पंत की ग्रंथियां निराला की पैरोडी बनकर बहने लगी थी। हम बिहारी जिसे भसियाना कहते हैं उसे ही सठियाना भी कहते हैं। जब आप दुर्बल होते हैं तो छोटी-छोटी चीजों से परास्त होने लगते हैं। बैक्टीरिया से और आसक्ति से। आप रोगी होने लगते हैं, पर नहीं मानते कि इलाज की जरूरत है तो यहीं से हम भसियाते हैं। आखिर कितने दिनों तक नामवरीय कुहासा (यह संजीव का दिया हुआ शब्द है। याद हो कि न याद हो, उन्होंने कभी राष्ट्रीय सहारा में लिखा था) कायम रहेगा। फिलहाल याद कीजिए आचार्य प्रवर किसी भी व्याख्यान में अब विषय केंद्रित नहीं हो पाते। अध्ययन, अनुभव, दक्षता, मेधा पर कोई ऊंगली उठा नहीं सकता। पर ज्ञान के साथ संवेदना और विवेक की भी जरूरत पड़ती है। कम से कम उन्हें बताने की जरूरत नहीं। आखिर क्या वजह है कि अपने अंतरंग क्षणों में जिस विभूति नारायण राय के विवादास्पद बयान को वस्तुगत और सही ठहराते हैं, उसे सार्वजनिक रूप से कहने में उन्हें कौन रोकता है। इलियट की पंक्ति याद रहनी चाहिए प्रेजेंट इंफ्लुएंशेज द पास्ट। क्या इस बिना पर उन्हें नहीं कसा जाएगा कभी। याद है दूरदर्शन के सुबह-सबेरे कार्यक्रम में एक से एक गुलशन नंदा टाईप किताबों पर उनके अनमोल वचन प्रकटिया रहे थे। आखिर यह सब क्या है। मैं जानता हूं यह सब कहकर अपने कई मित्रों को नाराज कर रहा हूं, पर नाराजगी से बचने के लिए कोई गूंगा तो नहीं हो सकता ! कोई अपनी उपयोगिता खत्म हो जाने के बाद खुद को दुहराता रहता है या फिर खतरे – मुश्किल पैदा करता है। गांधी जी का हस्र हमारे सामने है। विवेकानंद अपनी भूमिका के बाद नहीं रहे। भगत सिंह नहीं रहे। सुभाष नहीं रहे। मंडेला रहे तो निर्लिप्त रहे। मान लीजिए कि आचार्य का समय अब नहीं रहा, लेकिन क्या इससे उनका अवदान कम हो जाएगा...लेकिन अपने अवदान की महत्ता बरकरार रखने की चिंता खुद में भी है, इससे कौन इनकार करेगा।
मुझे याद है और कोयलांचलवासियों को याद होगा कि नामवर के निमित्त की श्रृंखला में धनबाद के खनि विद्यापीठ में उनके सम्मान में एक आयोजन था। पूरे व्याख्यान में साहित्यकार की राजनीतिक प्रतिबद्धता को सर्वप्रमुख बताया था। उनकी कथनी का नतीजा में कहा जाना चाहिए कि राजनीति आगे और साहित्य पीछे। उनका स्पष्ट आग्रह था के लेखक पार्टी करे। उनकी नजरों में दुग्ध-धवल वामपंथी पार्टियां। उसमें संजीव और अरुण कमल भी पधारे थे। आचार्य प्रवर के व्याख्यान के बाद सवाल-जवाब का सत्र आय़ा। मैंने सहज जिज्ञासा की कि यदि लेखक राजनीति करेगा तो किसी न किसी पक्ष में होना उसकी बाध्यता होगी। ऐसे में क्या साहित्य दर्पण की भूमिका निभा पाएगा? घुमा-फिराकर उनकी बात राजनीतिक प्रतिबद्धता की अनिवार्यता पर टिकी थी। मैंने कहा कि साहित्य जब खुद ही प्रतिरोध की राजनीति है तो अलग से राजनीति की क्या जरूरत? छोटी सी जगह से उठा सवाल उनको कैसा लगा नहीं, पर उनका जवाब था कि अब तुम कुतर्क कर रहे हो।
इसी तरह अभी हिंदी के तर्पण (हिंदी दिवस व पखवाड़ा के लिए, यह उन्हीं की शब्दावली है, यह २९ सितंबर की बात है। मैंने १७ सितंबर के अपने पोस्ट में हिंदी दिवस की साठवीं बरसी पर मैंने हिंदी के पितरों को याद करनेके लिए पितृ पक्ष कहा था) में इस बार जब कोयलांचल आए तो मैंने किसी पल उनसे अपनी जिज्ञासा रखी कि आपने एक जगह अपने व्याख्यान में जिस रामविलास शर्मा को आचार्य कहकर संबोधित किया था उनके सिधार जाने पर 'इतिहास की शवसाधना नाम से रामविलास शर्मा की इतिहास चेतना को टार्गेट कर आलोचना पूरा एक अंक ही केंद्रित किया था। बात पल्ले नहीं पड़ी। इसपर उन्होंने कहा कि रामविलास जी चमरशौच कर रहे थे। हिदी में बहुत काम बाकी पड़ा था तो वेद पर अध्ययन करने लगे। जबकि संस्कृत का कोई खास अध्ययन उनका नहीं था। ठहरे अंग्रेजी के शिक्षक।
इसी तरह मैंने अपने ब्लाग में अजय तिवारी के बहाने टिप्पणी से एक अंश दे रहा हूं-
अपनी आलोचनाओं में अंतर्राष्ट्रीय रीडिंग रूम दिखानेवाले तो बहुतेरे हुए, पर पोलिश सौंदर्यशास्त्री जान पारांदोव्स्की वाला पन्ना किसी ने नहीं पलटा था। मुक्तिबोध ने बगैर किसी का हवाला दिए कला के जिन तीन क्षणों की बात की है, वह जान पारांदोव्स्की की अवधारणा है। ऐसा इस संदर्भ में इसलिए कह रहा हूं कि मुक्तिबोध पर गहन आलोचन-अध्ययन उन्होंने किया है। उन्होंने भी इस पर कुछ नहीं कहा।
ऐसा लगता है जैसे वर्ष 1957 में पुस्तक ‘नई कविता के प्रतिमान’ नहीं आती तो ‘कविता के नए प्रतिमान’ जैसा प्रतिमान गढ़ा भी जाता या नहीं, संदेह ही है।

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

....और आदमी को मार डाला

(हंस-राष्ट्रीय सहारा के ज्ञानरंजन के खिलाफ विषवमन वाले प्रकरण पर 25 मई-2003 को लिखा गया था)
संस्कृति (मीडिया समेत) और बाजार ये सत्ता के दो उत्तरआधुनिक खंभे हैं और ये खंभे जिनके पास हों तो वह अपनी सत्ता का दुर्ग बना ही लेता है। इन दिनों पहल पर आक्षेपों, आरोपों की जो बौछार हो रही है इन्हीं दुर्गों से। लेकिन ये बेहद सशंकित भी होते हैं और भयभीत भी अपनी सीमाओं और दुर्बलताओं के कारण। पूंजी के पोषक सत्ता प्रतिष्ठानों की इन्हीं मनोरचना के लिए बादल राग में बहुत पहले निराला ने कहा था – ‘अट्टालिका नहीं है रे, आतंक भवन’ में व्यापारियों के दाम और संस्कृति विभाग के खजाने के दम पर निकल रहे पत्र-पत्रिका व अलभ्य आयोजनों के प्रभुओं को अपना पीएफ झोंक कर कर्ज से लद कर तीन दशक से निकल रही पत्रिका पहल का मर्म समझ में न आए तो ताज्जुब क्या। वामपंथी आंदोलनों की जो ट्रेजेडी रही है, कुछ-कुछ वही वजह रही है ज्ञानरंजन पर इस हमले की पहल। हमलों के पीछे निहित मकसद तथा उसके संयोग से ही यह संगठित और सुनियोजित हो जाते हैं। पहल ने यदि राजेंद्र यादव घराने को छापा है तो मुद्राराक्षस को भी और समीक्षा पुरुष नामवर के लिए सदैव विशेष सम्मान भाव रखा। एक भारी-भरकम विशेषांक तक निकाला। प्रमुखता के साथ उनके व्याख्यान छापे। शायद ही किसी पत्रिका ने नामवर सिंह को केंद्रित कर ऐसा कोई आयोजन किया। यह अलग बात है कि उन्हें हिंदी का अंतिम आलोचक साबित करने वाले सिवाए उपाधि वितरण के और कुछ न किया। इसका मतलब यह नहीं कि पहल ने ऋणशोध की अपेक्षा करते हुए ऐसा किया है। हीन तो पहल ही रही। प्रगतिशील आकल्प में छपे जिस साक्षात्कार को बवाल का मूल बताया जा रहा है उसमें कहीं भी साथी पत्रिकाओं पर समझौतापरस्ती का आरोप नहीं। एक सहज अपेक्षाभाव के तहत ही वैसा कहा गया था कि उनसे अपेक्षा थी कि वे ऐसे नहीं करते। वैसे कथादेश का मंसूबा साफ था तो उसे पूरा साक्षात्कार साभार छाप देना था। परिप्रेक्ष्य से काटकर किसी के भी कथन के निहितार्थ विकृत किए जा सकते हैं। डालर में अपना शुल्क मांगना गुनाह है तो महामहिम अशोक वाजपेयी अपने बहुवचन और राजेंद्र यादव अपने हंस की कीमत डालर में क्यों छापते हैं। क्या बदनाम राकेश मंजुल की सोहबत से पहल या पहल संपादक की भूमिका या अवदान का अन्यथाकरण हो जाता है ? फिर तो जनाब मजदूरों के लिए समर्पित उस मार्क्स का क्या होगा जिनकी सोहबत अपने पूंजीपति फ्रेडरिख एंगेल्स से रही। कई कृतियों के तो वह सहलेखक रहे हैं। पिछड़ों के मसीहा लालू यादव का वंशवाद और मसखरेपन में निहित तानाशाही कहां छूट जाती है शिखर सम्मान लेते समय। अमूर्त लड़ाइयां लड़नेवालों के लिए ये पेचीदगियां बनी रहेंगी। बेहतर होता कि जिन हितैषियों को बदनामी का इलहाम रहता है वे साथियों को सतर्क किया करें बजाए कि छीछालेदर की स्थिति तैयार करने में हाथ बंटाएं। यदि सचमुच उनकी चिंता पहल को लेकर वाजिब होती तो वे आरोप-प्रत्यारोप से क्षोभ को घनीभूत नहीं होने देते। बेहतर होता कि दुश्मन ताकतों को हावी होने से रोकें संगठित होकर। अच्छा होता कि एक बार प्रायश्चित कर लेते। संस्कृति के सत्ता प्रतिष्ठानों पर काबिज ऐसे महाप्रभुओं के लिए राजेश जोशी की कविता ‘इन्होंने रंग उठाए’ के इस अर्थपूर्ण अंश को बार-बार गुनें-समझें –
उन्होंने रंग उठाए,
और आदमी को मार डाला
उन्होंने संगीत उठाया
और आदमी को मार डाला
उन्होंने शब्द उठाए
और आदमी को मार डाला।

बेहतर होता कि यह विवाद और कड़वाहट के पहले ही खत्म हो जाती।
(अगले पोस्ट में ज्ञानरंजन का पक्ष - सांस्कृतिक उपद्रव के उस्तादों का वितंडा)

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

हमारे दौर का जरूरी और भयावह आख्यान

पिछले दिनों जबलपुर में प्रगतिशील लेखक संघ के तत्वावधान में आयोजित प्रसिद्ध एक्टिविस्ट छायाकार रजनीकांत यादव की नर्मदा घाटी संस्कृति : छायाचित्र प्रदर्शनी एवं व्याख्यान के अवसर पर प्रसिद्ध कथाकार पहल संपादक ज्ञानरंजन के दिए गए महत्वपूर्ण वक्तव्य के जरूरी अंश हम दे रहे हैं। ये वक्तव्य भर नहीं, हमारे दौर का जरूरी आख्यान प्रस्तुत करते हैं। यह तो ज्ञान दा की अप्रतिम विरल खूबी है।
जिसे आज रेड कोरिडोर कहा जाता है और जो देश के सर्वाधिक अशांत इलाके हैं, अनेक राज्यों का जीवन, जिसकी चपेट में है, वे आदिवासी बहुल्य अंचल हैं। इस देश का सर्वोच्च खनन लकडी, बिजली, औषधि और शिल्प जिन इलाकों से आ रहा है, वहीं सर्वाधिक रक्तपात, हिंसा और युद्ध है। इसलिए नर्मदा घाटी का विपुल जीवन भले आपको रसिक, सुंदर, श्रद्धालु, शांत और समृद्ध दिख रहा हो, उस पर विकास के गिद्ध मंडरा रहे हैं। गरीबी, भोलेपन और सुंदरता को यह सेलेब्रट करने का समय नहीं है। हिंसा के अंखुए कभी भी फूट सकते हैं। ज्वालामुखी जो अभी ठंडा है, कभी भी गरम हो सकता है। नर्मदा घाटी के प्रति हमारा नया आचरण एक जिम्मेदार और चिंता प्रमुख नागरिक का होना चाहिए।
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यह जो हमारी तत्कालिक दुनिया है, उसमें कब पापुलर कल्चर ने सेंध लगा दी, यह हमें भी पता नहीं चला। संभवतः भू-मण्डलीकरण के दौर में ऐसा हुआ है। बाजार संगीत और शोर के कारण यह हुआ है और इसलिए कि सिनेमा, मीडिया की चमक ने भी इस मीना बाजार को समर्थन दिया है। मुझे याद है, वह दौर हाल ही का जब अखबार ब्लैक एंड व्हाइट से रंगीनी की तरफ पलटे थे, तो एक हल्की सी मुठभेड़ विचारों की हुई थी, पर फिर सब कुछ परास्त हो गया। हम उन लोगों को तो जानने लगते हैं, जो मीडिया में प्रतिदिन आते है, जाते हैं, रमते हैं, बोलते हैं, पर हर शहर के खंडहरों में कुछ खोए हुए लोग बचे हैं, जिन्हें हम स्वमेव नहीं पा लेते, उन्हें खोजना पड़ता है। अब हीरों के खोजी लोग दुर्लभ है, गायब हैं, इसलिए हीरों की तलाश भी खत्म हो गई है।
00000000000000000000000000000000विकास की अवधारणाओं पर हमारा देश बंटा हुआ है। बुनियादी तौर पर हम जिस ढांचे को निर्मित कर रहे हैं, वह हमारे देश में मिस फिट है। जिसके कारण असंखय समस्याएं पैदा हो रहीं हैं। हमारे वास्तविक सुर मंद पड़ गए हैं। हम इमारतों, बाजारों, मशीनों के विप्लव, हाईटेक जिंदगी को विकास मानते हैं। यह तेजी-मंदी की धारणा विनाशकारी है। जिस तरह से संसार के महान्‌ आदिवासियों, जन जातियों को मौत के कंसों ने निगल लिया है, हम उसके खिलाफ हैं। हम अल्पसंख्यक भी हों, पर हम उसके खिलाफ हैं।

यह तो होना ही था

ज्ञानरंजन के नाम को मानद उपाधि के लिए राजभवन से स्वीकृति न मिल सकी पहल के संपादक ज्ञानरंजन जी इस बात से न तो भौंचक हैं ओर न ही उत्तेजित जितना स्नेही साहित्यकार.इस घटना को बेहद सहजता से लिया.रानी दुर्गावती विश्व विद्यालय की प्रस्तावित मानद उपाधि सूची का हू-ब-हू अनुमोदित होकर वापस न आना कम से कम ज्ञानजी के लिए अहमियत की बात नहीं है. इस समाचार पर आज सुबह सवेरे ज्ञान जी से फोन पर संपर्क साधा तो समाचार को सहजता से लेने की बात कहते हुए ज्ञान जी ने कहा :-गिरीश अब तुम लोग ब्लागिंग की तरफ चले गए हो बेशक ब्लागिंग एक बेहतरीन विधा है किन्तु तुम को पढ़ना सुनना कई दिनों से नहीं हुआ.
हां दादा वास्तव में अखबारों के पास हम जैसों को छापने के लिए जगह नहीं है और मेरा मोहभंग भी हो गया है.
"तो तुम लोगों को सुनु पडूँ कैसे कम से कम एक बार महीने में गोष्ठी तो हो "
भारत ब्रिगेड वेबसाईट पर उक्त का अंश पढ़ने के बाद- --

याद है एक बार मैं एक दैनिक के साहित्यिक परिशिष्ट संपादन के क्रम में हिंदी के तीन दिग्गज कथाकारो भीष्म साहनी, अमरकांत तथा ज्ञानरंजन पर आठ पन्ने का एक परिशिष्ट निकालना चाह रहा था। उन्होंने साफ-साफ शब्दों में ऐसे आयोजनों से बचने को कहा था। फिर हरि भटनागर से संपर्क साधा उन्होंने कहा उनसे समय लेकर साक्षात्कार लेकर दूंगा। ज्ञान दा को भनक मिल गई होगी सो यह भी नहीं हुआ। परिशिष्ट निकला। चर्चा भी हुई। याद है एक बार मध्यप्रदेश शासन से वहां के संस्कृति परिषद का सचिव बनाया जा रहा था। माह भर के उधेड़बुन के बाद उन्होंने आफर को ठुकरा दिया। उन्हें लगा इससे महत्वपूर्ण है पहल का संपादन। इस पत्रिका को वह अपने खून-पसीने से सींच रहे थे। इसके प्रतिनिधित्व से जुड़े लोगों को अपनी पत्रिका के लिए विज्ञापन के अंबार रहते थे, पर पहल के नाम पर इनके पास टोटा होता था। एक बार कैसे न कैसे ज्ञानरंजन-नामवर का बड़ा बवेला मचा था। आचार्य नामवर के पक्ष के तरकश से एक से एक तीर दागे जा रहे थे। यह सब तब हुआ जब ज्ञान दा पहल में पहली बार नामवर पर बेहद महत्पूर्ण विशेषांक निकाल चुके थे। सालों से संचित उनके चरित्रहनन का भी प्रयास हुआ। उन्होंने बड़े ही बेलाग भाव में उसका स्पष्टीकरण भी दिया था। मैंने एक अंक में पूरे प्रकरण पर लिखते हुए उनके स्पटीकरण को छापा था। कभी किसी को पहल सम्मान देते तो सूचना होती थी, सम्मानित साहित्यकार से संबंधित कुछ रचनाएं और आग्रह (वे आदेश देने की हैसियत रखते थे) भी हो सके तो कुछ छाप दो। मैं अपने ज्ञान-विवेकानुसार उसे बरतता था। एक बार कवि अरुण कमल के पत्र से ज्ञात हुआ कि कवि राजेश जोशी अपने ऊपर केंद्रित अंक देखकर बहुत खुश थे। यह तो है यारबाश ज्ञान दा का मिजाज। यदि एक शासन ने उन्हें मानद उपाधि से वंचित ही कर दिया तो क्या ज्ञान दा का कुछ ले तो नहीं लिया। वह ऐसी चीजों के लिए बने भी नहीं हैं। मुझे संदेह है कि ऐसे शासन की अनुशंसा पर यह स्वीकार भी करते। लेकिन शासन के द्वारा यह बर्ताव ज्ञानानुरागियों के लिए ही नहीं, रचानाकार जमात के लिए घोर अपमानजनक है। इससे साफ दीखता है कि इस वटवृक्ष ने कैसी विचार-संस्कृति का बिरवा बोया है, शासन को इस ऐतिहासिक अवदान से कोई सरोकार नहीं। और ऐसे शासन का सरोकार होगा भी कैसे। इस शासन का यह व्यवहार अचरज का विषय नहीं। आखिर प्रतिरोधी चेतना शासन से सम्मानित भी तो नहीं होगी। चोर से सम्मानित होना कहीं न कहीं चोरी को मंजूरी तो देने के बराबर ही है। खुशी है कि ज्ञान दा एक धब्बे से बच गए। अन्यथा इसे शासन की अनुकंपा का रंग दे दिया जाता।

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

जोखिमों से खेलता हंगारीकवि : अतिला यूसूफ

मेरा कोई पिता नहीं, न माँ, न ईश्वर, न देश, न झूला, न कफन, न चुंबन और न ही प्यार। तीन दिनों से मैंने खाया नहीं, कुछ भी नहीं। मेरे २० साल एक ताकत हैं। मेरे ये बीस साल बिकाऊ हैं। यदि खरीदनेवाला कोई नहीं, तो शैतान उसे खरीद ले जाएगा। मैं सच्चे दिल से फूट पडूँगा। जरूरत हुई तो मैं किसी को भी मार डालूँगा। मैं कैद कर लिया जाऊँगा और जिस घास से मेरी मौत आएगी, विस्मयकारी ढंग से वह मेरे सच्चे दिल पर उग आएगी। ये पंक्तियाँ हैं-२०वीं शती के उस महान हंगरी कवि की, जिसके पिता ने तीन साल की उम्र में घर को छोड दिया, १४ साल की उम्र में माँ गुजर गयी, कविताओं के कारण स्कूल-कॉलेजों से निकाला गया, मारक आलोचना के कारण फैलोशिप जाती रही, प्रेमिकाओं ने दगा दिया, वैचारिक स्वतंत्रता ने कम्यूनिस्ट पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया। अतिला यूसुफ नाम के इस हंगरी कवि का जन्म ११ अप्रैल १९०५ को एक साबुन फैक्ट्री के मजदूर ऐरन यूसुफ और किसान की बेटी बोलबला पोज के परिवार में हुआ था। तीन साल की उम्र में पिता के घर त्याग देने के बाद, दो बेटियों और एक बेटे के निर्वाह में अक्षम माँ बोलबला ने बच्चों को अनाथालय में दे दिया। यहाँ अतिला को सूअर चराने तक का काम करना पडा। यहाँ के नारकीय जीवन से उकताकर बालक अतिला माँ के पास आ गया। लाचार और अशक्त माँ काम के बोझ और कैंसर से सिफर् ४३ साल की उम्र में चल बसीं। बीच के दिनों में, नर्वस ब्रेकडाउन के शिकार बालक अतिला ने नौ साल में ही खुदकुशी की कोशिश की थी। रोज-ब-रोज बचने के इस दौर की जद्दोजहद को याद करते हुए अतिला आत्मवृत्त में लिखते हैं कि कई बार ऐसा हुआ कि भोजन के लिए कतार में नौ बजे रात को लगने के बाद, दूसरे दिन साढे आठ बजे बारी आने पर पता चलता कि खाना ख्ात्म हो चुका है। जीविका में अपनी माँ की हरसंभव मदद की। विलाग सिनेमा में ताजा पानी बेचने का काम किया। जलावन के लिए कुछ भी न रहने पर लडकी और कोयला चुराया। अपनी उम्र के बच्चों के लिए रंगीन कागज के खिलौने बनाकर बेचे। टोकरी और पार्सल ढोये। अतिला के इन हालात के बरअक्स हिंदी कथाकार शैलेश मटियानी, पंजाबी के कज्जाक जहीर ही याद आते हैं। सामाजिक व्यवस्था में संतुलन की जिस चाहत से इन लोगों की आस्था समाजवाद या माक्र्सवाद से जुडती है, वह जीवन से उनका मानवीय सरोकार है। यह विचारणीय है कि लगभग ऐसी ही स्थिति से निकले दलित लेखकों में, वैसी आस्था की जगह प्रतिशोध और आवेश क्यों होता है ? भला ऐसी त्रासद व कारुणिक स्मृति की छाप अमिट कैसे न रहे। इन्हीं अनुभवों ने अतिला की रचनाशीलता का भावलोक तैयार किया। आकस्मिक नहीं कि लागोस हटवानी ने इनकी कविताओं को, पूरी युद्धोत्तर पीढी के लिए दस्तावेज कहा। यथार्थ के गहरे और सघन बोध के साथ वैचारिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की प्रखरता से जीवन कभी स्थिर और व्यवस्थित नहीं हो सका। मानसिक अवसाद के घोर दौर में रहते हुए, रचनाशीलता को अक्षुण्ण रखकर, उन्होंने विकट जीवन का उदाहरण प्रस्तुत किया। माँ की मृत्यु के बाद जीजा ने अभिभावकत्व निभाते हुए कवि को एक माध्यमिक विद्यालय में डाल दिया। बाद में उसने रोज विश्वविद्यालय में नामांकन के लिए आवेदन कर दिया। लेकिन शीघ्र ही, एक क्रांतिकारी कविता के कारण उसे वहाँ से निकाल दिया गया। इसी के साथ शिक्षक बनने का सारा ख्वाब जाता रहा। शिक्षक बनने के ख्वाब चूर होने का प्रसंग बेहद दुखद है, जिसका अतिला अपने आत्मवृत्त में उल्लेख करना भूला नहीं। तब तक उनकी कविता ’विद प्योर हर्ट‘ को काफी ख्याति मिल चुकी थी। उस पर सात अखबारों में आलेख छपे। प्रो. लाजोस डेजसी को बेहद गर्व के साथ याद करते हुए कहते हैं कि उनका विचार था कि मैं अपने ऊपर खुद ही शोध करूँ। लेकिन, जैसे ही प्रो. अंटाल होर्जर ने हंगरी भाषा की जाँच ली तो सारा भूत ही उतर गया। प्राथमिक विद्यालय के दो शिक्षकों के सामने, उन्होंने लगभग ताना देते हुए कहा कि तुम्हारी तरह की कविताएँ लिखने वालों को भावी पीढी की शिक्षा कत्तई सुपुर्द नहीं की जानी चाहिए। इतना ही नहीं, उस प्रोफेसर ने इसे मुद्दा बना दिया। उनका कहना था कि वह जब तक वहाँ रहेंगे, उन्हें शिक्षक नहीं बनने दिया जाएगा। यह विडंबना ही है कि तब कक्षा में मिलने वाले साप्ताहिक ५२ पाठों में से २० में अतिला को सर्वोत्तम श्रेणी मिली थी। प्रतिभाशाली होने के कारण छात्रावास का कोई शुल्क अदा नहीं करना पडता था। रहने का सारा खर्च उनकी कविताओं से मिलने वाले मानदेय निकाल ले रहे थे।प्रो. अंटाल होर्जर का वह ताना इतना जहरीला साबित हुआ कि हंगरी लौटने के बाद भी उन्होंने शिक्षक की परीक्षा फिर कभी नहीं दी। शिक्षक की नौकरी पाने पर तो जैसे भरोसा ही नहीं रहा। फिर उन्होंने विदेशी व्यापार संस्थान में हंगरी-फ्रांसीसी संवाददाता की नौकरी कर ली। यहाँ भी दुर्भाग्य ने उनका पीछा नहीं छोडा। कठोर जीवन-संघर्ष से अभी उबरना शेष था। नौकरी से बैठा दिये गये। सामाजिक सुरक्षा संस्थान ने उन्हें आरोग्यशाला भेज दिया। वहाँ चिकित्सा के दौरान् अतिला को ’न्यूरस्थेनिया ग्रैविस‘ नामक एक मनोरोग से ग्रस्त बताया गया। वहाँ उन्हें इस स्वीकृति के साथ कि वह संस्थान पर बोझ नहीं बनना चाहते, नौकरी छोड देनी पडी। उनके अनुसार, जीने की जद्दोजहद तो जैसे बालपन से ही शुरू हो गयी थी, पर एक कवि के अर्थ में यहीं से दुविधा, अंतर्द्वंद्व, जोख्ाम, असुरक्षा के रास्ते असंतुलन से होकर मनोविदलता (सिजोफ्रेनिया) तक उनकी यात्रा चलती रही। मनोचिकित्सा होने लगी। उन्होंने शादी तो कभी नहीं की, पर मनोचिकित्सा के क्रम में आने वाली महिलाओं से कुछ प्रेम-प्रसंग जरूर चले। अभिव्यक्ति में बेलौसपन और बेबाकी के साथ वैचारिक स्वतंत्रता के कारण कोई भी संफ भावनात्मक राग-रेशे की हद तक न आ सका। कवि, उपन्यासकार तथा आलोचक मिहाली बैबिट्स पर एक आक्रामक समीक्षा के कारण बामगार्टेन फाउंडेशन ने उनसे सहयोग का हाथ खींच लिया। वह इससे न तो तिलमिलाये और न उनके लिए यह अचरज का विषय बना। मानो वह इस हश्र के लिए पहले से ही तैयार बैठे थे। आख्ार, इस फाउंडेशन के अध्यक्ष भी तो बैबिट्स ही थे। अभिव्यक्ति के जोखिमों से खेलने की ठान लेने के बाद, कोई किसी की, किस हद तक मदद तक सकता है, इसे भारतीय उपमहाद्वीप निराला, मुक्तिबोध, मंटो, नजरूल, पाश के उदाहरण से अच्छी तरह समझ सकता है। विश्व-साहित्य में अतिला इसके निराले उदाहरण न हों, पर उस तरह से भुलाने लायक तो नहीं हैं, जिस तरह उन्हें उनके जन्म शती वर्ष में भुला दिया गया। १० अक्टूबर, २००६ को तो आत्महत्या पर नियंत्रण का दिवस ही घोषित कर दिया गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताजा रिपोर्ट तो कहती है कि दुनिया में प्रति घंटा १०४ लोग खुदकुशी कर रहे हैं। इसका कारण अति महत्त्वाकांक्षा, तनाव और हिंसा हैं, लेकिन अतिला के अंत को इस सरलीकृत खाँचे में नहीं बिठाया जा सकता है। उनका अंत तो अभिव्यक्ति के उस खतरे से खेलने के कारण हुआ, जिसके बिना उनकी रचनाशीलता बची नहीं रह सकती थी। पाश के शब्दों में, ’बीच का कोई रास्ता नहीं होता।‘ दूधनाथ सिंह के निराला ः आत्महंता आस्था के इस मार्मिक अंश से अतिला के द्वंद्व और नियति को सहजता से समझा जा सकता है ः कला रचना के प्रति अनंत आस्था एक प्रकार के आत्महनन का पर्याय होती है, जिससे किसी मौलिक रचनाकार की मुक्ति नहीं है। जो जितना अपने को खाता जाता है, बाहर उतना ही रचता जाता है। पर दुनियावी तौर पर वह धीरे-धीरे विनष्ट, समाप्त, तिरोहित तो होता ही जाता है। महान और मौलिक सर्जना के लिए यह आत्मबलि शायद अनिवार्य है। यह महान और मौलिक सर्जना कबीर की लुकाठी ही तो है, जिसे लेकर वह कहते फिरते हैं - जो घर जारै आपना चले हमारे साथ। यानी कबीर की तरह आत्मबलि का न्यौता। स्कूल-कॉलेज से निष्कासन, प्रेमिकाओं का तिरस्कार; अचानक उनके जीवन में नहीं आया। यह उनके चुनावों का नतीजा ही तो था। पर मनोविदलता के खतरनाक दौर में हों या अवसाद के घोर क्षणों में, उनकी क्रांतिकारिता कभी क्षीण नहीं हुई। स्कूल से निकाले जाने के बाद कॉलेज के दिनों में अध्ययन की तन्मयता और शोधवृत्ति इस कदर सुरक्षित थी कि इस दौरान् ऑस्ट्रिया और पेरिस में शिक्षार्जन करते हुए, उन्होंने १५वीं सदी के फ्रांसीसी साहित्य के एक विख्यात कवि फ्रैंकोइस विलन की खोज कर डाली। विलन कवि के साथ-साथ शातिर चोर भी था। विश्व विद्यालय से निष्कासन के बाद अतिला अपनी पांडुलिपियाँ लेकर विएना आ गये। यहाँ उन्हें आजीविका के लिए अखबार बेचने से लेकर होटल रेस्त्रां में सफाई तक का काम करना पडा। इसी दौरान् उन्होंने मार्क्र्स और हीगेल को पढ डाला। इनकी छाप भी उनकी विचारधारा और रचनाओं पर पडी। इस दौर की रचनाओं की सराहना तत्कालीन शोधकर्ताओं और नामी-गिरामी समीक्षकों ने भी की। १९७२ में कई फ्रांसीसी पत्रिकाओं ने उनकी कविताएँ प्रकाशित की। १९२९ में प्रकाशित कविता-संग्रह पर फ्रांसीसी अतियथार्थवाद की छाप देखी जाती है। अगले ही साल वे अवैध रूप से हंगरी कम्यूनिस्ट पार्टी में शामिल हो गये। इस दृष्टि से पाल हेलर का वह संस्मरण काफी दिलचस्प है जिसमें उन्होंने उनके साथ अपनी मुलाकात को याद किया है। तत्कालीन हंगरी में होनेवाले अत्याचार से व्यथित जोसेफ में इसकी जबरदस्त प्रतिक्रिया थी। इसे समझे बगैर आप उनकी कविताएं जो गरीब हैं या कितना बड़ा राजा जैसी कविताएं नहीं पढ़ सकते और न ही उसका अहसास कर सकते हैं। दुनिया भर में फैले अपने समकालीन तथा साथी कवियों की तरह वह भी 30 के दशक में कम्यूनिस्ट पार्टी में शामिल हुए। लेनिन उनकी अद्वितीयता को नहीं पचा सके और उन्हें पार्टी से निकाल – बाहर कर दिया। जोसेफ की तीव्र बौद्धिकता, तीक्ष्ण –मारक आत्मसजगता, अटूट-अडिग ईमानदारी, विरल थी। बुडापेस्ट के जिस कब्रिस्तान में जोसेफ अपने परिजनों के साथ दफनाए गए हैं, वहां उनकी मां नहीं हैं, जिसे उन्होंने अपनी मेरी मां में अमर कर दिया। हालांकि उनकी मां की मृत्यु उनके छुटपन में ही हो गई थी, फिर भी उनके लिए सिर्फ वही साफ-सुथरी रही। ताजिंदगी वे उनके साथ रहीं तथा कवि ने अपने संपर्क में आनेवाली जिस महिला को भी प्यार करना चाहा, उसमें मां को तलाशा है। गीत कविता इसकी ज्वलंत साक्ष्य है-


मैं तुम्हें प्यार करता हूं
जैसे एक बच्चा अपनी मां को प्यार करता है। ....

१९३१ में आया संग्रह जब्त कर लिया गया और ’साहित्य तथा समाजवाद‘ शीर्षक लेख के कारण उन पर अभियोग तक चला। १९३१ से १९३६ के दौरान् आये संग्रहों से उन्हें समीक्षा-आलोचना जगत् में व्यापक मान्यता मिली। इसी दौरान् भीषण अवसाद के कारण उन्हें अस्पताल में भरती होना पडा। ’मेरी आँखें उछल-कूद करती हैं, इसी बीच लिखी गयी कविता है। अपने मनोचिकित्सक की हौसला अफजाई से प्रोत्साहित होकर उन्होंने ’हवा की एक साँस‘ १९३६ में लिखी, जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं ः ’वे मेरे सभी टेलीफोन कॉल टेप कर सकते हैं/ (न जाने कब, कौन और किससे बातचीत का)/ मेरे सपनों और योजनाओं की उनके पास एक फाइल है/ और वे उसे पढते हैं/ और कौन जानता है कब उन फाइलों को खोदने के उन्हें पर्याप्त कारण मिल जाएँ/ जो मेरे हकों का उल्लंघन करें। भयंकर गरीबी और असुरक्षा से घिरे होने के बावजूद उन्होंने अपनी वैचारिक स्वतंत्रता को अक्षत रखा और अभिव्यक्ति की मौलिकता को अक्षुण्ण। उनकी वैचारिक स्वतंत्रता तथा फ्रायड में दिलचस्पी का नतीजा ही था कि वे फ्रायड के मनोविश्लेषण तथा माक्र्सवाद के संश्लेषण करने की योजना पर गंभीरता से काम करने लग गये थे। दरअसल, यह दोनों ही विचारधाराएँ जीवन में चरम भौतिकता की प्रतिष्ठा करने वाले सिद्धांतों पर टिकी हैं। अपने स्वाभाविक संस्कार के तहत ही कम्यूनिस्ट पार्टी इस नवीनता और मौलिकता की आँच को बर्दाश्त नहीं कर सकी और अतिला को निष्कासित कर दिया। पॉल हेलर ने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि उनकी विरल बौद्धिक मारकता और अटूट ईमानदारी से उपजी उग्र अद्वितीयता को पार्टी नहीं झेल सकी। निरंतर बढते अकेलेपन में भयंकर मानसिक असंतुलन और मनोविदलता से वह पार नहीं पा सके। ३ दिसंबर, १९३७ को सिफर् ३२ साल की उम्र में अतिला ने एक मालगाडी से कटकर अपनी जान दे दी। उनकी इस नियति को हिंदी के विख्यात कवि रघुवीर सहाय की इस पंक्ति से समझा जा सकता है ः सबसे मुश्किल और एक ही सही रास्ता है कि मैं सब सेनाओं में लडूँ, किसी में ढाल सहित, किसी में निष्कवच होकर-मगर अपने को अंत में मरने सिफर् अपने मोर्चे पर दूँ (’आत्महत्या के विरुद्ध‘ की भूमिका में)। अतिला ने इसी दशक के शुरू साल में खुदकुशी करने वाले विख्यात रूसी कवि मायकोव्स्की की कविता ’सेर्गेंई एसेनिन‘ को अपनी मौत से जैसे जीवंत किया ः तुम अगर मुझसे पूछो / मैं पसंद करूँगा पीकर मर जाना बनिस्बत मृत्यु की प्रतीक्षा में ऊबने/ या ऊबते हुए जीने से (सेर्गेनिन ने भी वर्ष १९२५ में खुदकुशी की थी।
(पहली बार वर्तमान साहित्य/ जून, 2007) दुबारा साक्षात्कार ने जनवरी 2008 के अंक में छापा। फिर WWW.KHABAR EXPRESS.COM में छपा।

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

डायरी के पन्ने से

सम्मान
विकास का अर्थशास्त्र में दुनिया का लोहा मनवानेवाले 64 वर्षीय अमर्त्य सेन को अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा भारत के लिए आह्लादकारी तो है ही, यह पूंजीवादी देश को दिया गया एक जवाब भी है जो मनुष्यमात्र के लिए उपलब्धि है। समाज कल्याण के क्षेत्र में श्री सेन के अर्थशास्त्रीय अध्ययन से गरीबी और भूख के आर्थिक तंत्र की जो गहरी समझ विकसित हो रही थी उसे और नजर अंदाज किया जाना संभव नहीं था। कल्याणकारी राज्य की संकल्पना तो थी, पर उसके लिए अर्थशास्त्र
नहीं था। निश्चय ही विकासात्मक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में किए गए कार्य के कारण श्री सेन के पुरस्कृत किए जाने से स्वतः ही कल्याणकारी अर्थशास्त्र को मान्यता मिल जाती है।
इतिहास, दर्शनशास्त्र के साथ अर्थशास्त्र के विद्वान श्री अमर्त्य सेन की दावेदारी पहले से ही नोबल पुरस्कार के लिए दस्तक दे रही थी। वर्ष 1995-96 में ही उन्हें पुरस्कार दिए जाने की जोर-शोर से चर्चा चल रही थी। कहा जा सकता है कि उन्हें पुरस्कार दिए जाने में देर ही हुई। उनके सिद्धांतों व स्थापनाओं को गरीब व पिछड़े मुल्कों में पहले ही अमल में लाया जाने लगा था। यही उनके कामों की असल मान्यता भी थी। पर नोबल पुरस्कार मिल जाने से श्री सेन के अध्ययन के लिए पश्चिमी जगत में व्यापक स्वीकार की स्थिति बनी है। पुरस्कार इसका भी प्रमाण है।
गरीबी किसी मुल्क विशेष की समस्या नहीं, यह एक मानव स्थिति है जो हर कहीं संभव है जैसे अखाल के लिए जरूरी नहीं कि खाद्यान्न की उपज में कमी ही एक वजह हो। जहां से खाद्यान्न के निर्यात हुए वहां भी अकाल पड़ा था। इसलिए श्री सेन के अध्ययन की महत्ता इसी में है कि यह सभी मुल्कों और अर्थव्यवस्थाओं के लिए समान रूप से उपादेय है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा भी है कि किसी समाज या अर्थव्यवस्था में हो रहे परिवर्तनों का आकलन केवल समृद्ध वर्ग को आधार बनाकर करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी है। इसके लिए गरीबों को भी देखना होगा। स्पष्ट है कि उनका आशय आर्थिक नीतियों में वंचितों को और वंचित करने के प्रतिरोध से है। जैसे एशियाई समाज की चेतना प्रतिरोध की चेतना है, उसी तरह श्री सेन के अध्ययन को प्रतिरोध का अर्थशास्त्र कहा जा सकता है।
जब विश्व भर में रीगन और थैचर की तूती बोलती थी, उस दौर में श्री सेन ‘रीगन-थैचर अर्थनीति
’ का जमकर और खुलकर विरोध किया था और इस काम में दुनिया भर के अर्थशास्त्रियों में श्री सेन अकेले थे। बाजार को सौ फीसदी खुले क्षेत्र को सौंपने की वकालत का उन्होंने सदैव मुखर विरोध किया। यह विरोध केवल विरोध के लिए विरोध होता तो उनके अध्ययन के निष्कर्षों की पुष्टि वैश्विक स्थितियों ने नहीं की होती। यह श्री सेन की प्रतिरोधी चेतना ही थी जो गरीबी, अपढ़, बेकारी बहुल समाज की प्राणशक्ति होती है। इसे श्री सेन ने अर्थशास्त्र के क्षेत्र में ले जाकर प्रतिष्ठित किया।
श्री सेन का अध्ययन अध्ययन के लिए अध्ययन नहीं था। यदि ऐसा होता तो उनके निष्कर्ष, स्थापनाएं उपभोक्तावादी नृशंस बाजार के उपकरण भर रह जाते। पर श्री सेन का एक रचनात्मक मकसद था, एक सार्थक कार्यक्रम था। अकाल और दुर्भिक्ष की विकट और एकांतिक समझदारी ने वह औरों की तरह संवेदनहीन ज्ञान के क्षेत्र में नहीं गए। यह निकटता ज्ञानात्मक संवेदन थी, जो अंततः संवेदनात्मक ज्ञान में तब्दील हुआ। यही कारण है कि गरीबी की कारक शक्तियां और गरीबी उन्मूलन के उपाय खोजने में उन्होंने अपनी जिंदगी लगा दी। यह नोबल सचमुच में अल्फ्रेड नोबल के मूल्यों और आदर्शों के सम्मान में इजाफा करता है।
(16.10.1998, एक हिंदी अखबार के संपादकीय टिप्पणी के रूप में लिखा गया।)

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

सबके अपने माफिया

हिंदी में मठाधीशी की अपनी परंपरा रही है। कभी यह परंपरा पत्रिका के कंधे पर चली तो कभी संपादक-आलोचक की उंगली पकड़ कर। इस परंपरा ने कई गुल खिलाए हैं। इसकी गंध हिंदी जमात में अब तक मौजूद है। पिछले दिनों जब एक प्रतिष्ठित समाचार पत्रिका ‘आउट लुक’ ने ओमप्रकाश श्रीवास्तव उर्फ बबलू श्रीवास्तव का अधूरा ख्वाब (उपन्यास !) का अंश छापा तो जैसे यह एक डान के ख्वाब को पूरा करने जैसा था। नहीं मालूम पत्रिका उसके अंडरवर्ल्ड की छवि से अवगत है या नहीं। हिंदी पट्टी ही नहीं, यह देश-दुनिया उसके इस रूप को, नेटवर्क को बखूबी जानती है। इस टिप्पणी का एकमात्र मकसद इससे पदै हुई हिंदी जमात की चिंता और आगामी खतरे की निशानदेही है।

माल इटली का हो या इंग्लैंड का, भारत में आकर बेहद सस्ता हो जाता है। भार और मात्रा में, गुण में और गण में। यह अलग मसला है कि यह जनवाद का असर है या जनतंत्र का। कुछ ऐसा ही हुआ है माफिया शब्द का। माफिया शब्द को लाच करना भर था कि माफियागीरी का बूम आ गया इस मुल्क में। जनजागरण के दौर से लेकर उत्तरआधुनिक दौर तक में। मुंबई से लेकर कोयलानगरी तक में। बनारस से लेकर दिल्ली तक। सबका अपना अर्थसंसार, सबका अपना अपराध संसार। इसलिए सबके अपने-अपने माफिया। जो जगह मुंबई ने दाऊद को दी, वही जगह कोयलानगरी में सूर्यदेव सिंह को। साहित्य के क्षेत्र में, संस्कृतिकर्म के क्षेत्र में जिन्होंने अपना आतंक संसार रचा, वे उस संसार के क्या कहे जा सकते हैं ?
बहुत कम लोग जानते होंगे कि एक दौर था जब इटली के द्वीप में यह पद डिराइव हो रहा था। तो एक और दौर था जब हिंदी के द्वीप में साहित्य के इतिहास निर्माताओं ने इस प्रवृत्ति को जन्म दिया। जाने-अनजाने जार्ज ग्रियर्सन से लेकर भारतेंदु हरिश्चंद्र और रामचंद्र शुक्ल तक इसमें शरीक रहे। महावीर प्रसाद द्विवेदी तो इसमें एक कड़ी के रूप में रहे। बेहद सचेत रूप में। नतीजा बड़ा ही विकट रहा इस घालमेल का। एक की भूल ने निराला को महिमामंडित करवा दिया, तो दूसरे के कारण निराला के पागलपन तक की नौबत आई। दरअसल मुक्तछंद की पहली कविता लिखनेवाले महेश नारायण श्रीवास्तव को कोई जानता तक नहीं। वह जगह नियंताओं की भूल की वजहसे निराला को मिल गई, सो मिल गई। बाद में तो 20 वीं सदी के ढलान पर कान पर हाथ रखकर आलोचकों, इतिहासकारों को आवाज लगाने का डा. चंद्रेश्वर कर्ण को किसी ने सुना तक नहीं। हिंदी सदी का 20 वीं सदी का इतिहास से लेकर हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, हिंदी जाति का इतिहास, हिंदी साहित्य व संवेदना का विकास तक न जाने कितनी पोथियां स्याही से पोत दी गईं। इतिहास की आलोचना और आलोचना का इतिहास रचनेवाले आचार्यों को इस ओर झांकने की फुर्सत तक नहीं। अभी कई ऐसे गाडफादर हैं जिन्होंने हिंदी की फजीहतें देखीं और जबान पर ताला जड़े रखा। किसी ने कदाचित महेश बाबू का जिक्र तक करना मुनासिब नहीं समझा। और यह बात कौन नहीं जानता कि आचार्य द्विवेदी ने निराला की कविता जूही की कली को छापने लायक नहीं समझा। निराला ने ‘सरोज स्मृति’ में इस दंश को बेहद मार्मिकता के साथ रेखांकित किया है। उन्हीं आचार्यों के मानस पुत्रों या वंशजों के कारण मुक्तिबोध को अपनी कविता ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ के लिए क्या नहीं देखना पड़ा। आज के दौर में यह प्रसंग नए सिरे से नया रूप ले रहा है। इसके एक नहीं कई उदाहरण मिले। एक प्रतिष्ठित साप्ताहिक समाचार पत्रिका ने इसका ताजा उदाहरण पेश किया है। कुल मिलाकर यह मीडिया का आतंक था। पहले सीमित अर्थों में जो शब्द मीडिया का काम कर रहे थे, वह इस इलेक्ट्रानिक दौर में एक व्यापक कारोबार कर रहा है। सूचना से लेकर संचार तक की सारी व्यवस्था तक इसके किरदार हैं।
सारी बातें बेसिर पैर की लगती हों, पर बात निकली है तो फिर दूर तलक जाएगी। एक प्रतिष्ठित साप्ताहिक समाचार पत्रिका (आउट लुक) ने अभी पिछले दिनों अंडरवर्ल्ड डान बबलू श्रीवास्तव का उपन्यास अंश छापा है। विचित्र यह नहीं कि पत्रिका ने इस अंडरवर्ल्ड को छापा है। विचित्र यह है कि उसके प्रलाप को उपन्यासा कहकर छापा गया है। इतना ही नहीं इसी पत्रिका ने हाल में हिंदी कहानी का विशेषांक निकाला है जिसमें हिंदी कहानी में स्त्री उसकी चिंता थी। मीडिया का वश चले तो वह प्रेमचंद का माडल खड़ा कर दे। किसी को लेखक और कवि करार दे। क्या एक कवि-कलाकार बनना मजाक है ? मजाक तो पहले भी हो रहा था। करनेवाले कोई और थे। फर्क यह हो गया कि अब हमीं में से निकल कर कोई हमें खलनायक करार दे रहा है और खलनायक को समाज के शीर्ष पर बैठा दे रहा है। कमोबेश हो भी यही रहा है। यह माडल किसी कुख्यात अपराधी से लेकर बलात्कारी तक कोई भी हो सकता है। कुछ दिनों पहले श्रीलंका में बलात्कार के एक सजायाफ्ता मुजरिम को वहां का श्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया। क्या इससे यही साबित करने की चेष्टा हुई न कि कला का संवेदना से कोई सरोकार नहीं, इस नाते कलाकार की कोई सामाजिक उपस्थिति नहीं बनती और कला का कोई सामाजिक हस्तक्षेप नहीं होता ? अगर हस्तक्षेप ही होता तो इसे नामांकन तक नहीं मिलता। खैर। ऐसा नहीं कि दलितों-वंचितों-दमितों को रचना के संसार में प्रवेश का हक नहीं, इजाजत नहीं। पहले भी हीरा डोम से लेकर शैलेश मटियानी जैसे उदाहरण हमारे सामने आ चुके हैं। पंजाबी विश्वविद्यालय के पंजाबी व अंग्रेजी के मानद प्रोफेसर रहे किरपाल कज्जाक से लेकर इस दौर में लक्ष्मण चायवाला और रामलखन यादव इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। कज्जाक का अतीत असामाजिक कृत्यों में लिप्तता का रहा तो रामलखन रात्रिप्रहरी रह चुके हैं। दोनों ही साहित्य में परिचय के मोहताज नहीं।
अभिव्यक्ति को विधाओं का नाम देना और वाचक को लेखक का दर्जा देने का कोई निकष न हो तो आम जीवन की धांधली से वह अलग कहां। माफिया किसी निकष पर नहीं चलता। उसका अपना संसार होता है। इसलिए उसके अपने निकष होते हैं। हां, ये निकष सामान्य व्यवस्था को उलट-पुलट कर देनेवाले होते हैं। पत्रकारिता जैसे गंभीर व जिम्मेवार कर्म में जिस गरिमा का निर्वाह इस पत्रिका ने किया है, इतने कम समय में यह बेहद मुश्किल है। खासकर तब, जब बाजार की लगातारा गलाकाट स्पर्द्धा अनाप-शनाप करवा रही है। सेक्स सर्वे के नाम पर लगातार जो गलीज चीजें परोसी जा रही हैं, उसे किस मानक के सहारे उचित ठहराएंगे आप ? कल को दाऊद यदि तहलका डाट काम को अपनी लंबी चिट्ठी भेजे तो यह उसकी प्राथमिकता और आजादी हो जाएगी कि वह उसे नए अंदाज की कहानी कहकर पेश करे। करीब डेढ़ दशक पहले इसी तरह साहित्य अकादमी ने अंडरवर्ल्ड से रिश्ता रखनेवाले किसी उर्दू लेखक के ‘आई कार्ड’ नामक उपन्यास को पुरस्कार से नवाजा था। यह भी एक माफियागीरी ही थी। लेकिन ऐसी माफियागीरी को जस्टीफाईड होने के लिए साहित्यिक जमात के आलोचना संसार से गुजरना पड़ता है। आखिर रचना को परखने का निकष क्या है। क्या यह कसौटी रचनाओं से स्वायत्त होती है या फिर पाठ के बाहर खड़े आलोचक के संसार से ? ये हादसे तब से घटित होने लगे जब से संपादक-प्रबंधक के काम में अदला-बदली हो गई। बाजार की दादागीरी से दरअसल संपादक का काम अब चीजों को बाजार के साथ मैनेज करना रह गया है। और मैनेजर का काम घराने के मकसदों को उसके बाजार को संपादित करना है। यहीं से परख की कसौटी पाठ के संसार से निकल कर बाजार की कोख से निकलने लगी। बाजार में सनसनीखेज मालों को लानेवालों, पहले लानेवालों में विचित्र होड़ मच गई है। परखनेवाले परखें, उसके शास्त्र की खींचतान करें। अपन तो पहले माल ला दिया है।

(एक समाचार पत्रिका 'माइंड' के साहित्य संपादन के क्रम में अक्तूबर 2005 में लिखी टिप्पणी)

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

अब कुछ किताबों की

भारतीय समाज के व्यामोहों का द्वंद्व यानी निन्यानबे


पात्र और तिथि को छोड़ इतिहास में कुछ भी सच नहीं होता और साहित्य में इसका उलट होता है, क्योंकि इतिहासविद के पास पात्रों के अंतर्जगत में प्रवेश का अवसर नहीं होता। जो इतिहासकार का कार्य नहीं वही उपन्यासकार का धर्म होता है। इसे हम लेस्ली स्टीफन की तरह भी नहीं देख सकते जिनका मानना था कि ऐतिहासिक उपन्यास साहित्यिक वर्णसंकर हैं। 1857 के काल से शुरू होकर 20 वीं सदी के अंतिम दशक की आहटों को सुनानेवाले उपन्यास निन्यानबे को देखकर ऐसा नहीं लगत। अपने साहित्यिक कौशल की छौंक से ऐतिहासिक उपन्यासों की रूक्षता को दूर रखने में सक्षम उपन्यासकार रवींद्र वर्मा का छठा उपन्यास है। बहुत बार विराट अध्ययन, शोध, चिंतन व व्यापक जीवनानुभव से संपृप्त के कारण ऐतिहासिक उपन्यास की मूल गलतियों पर भी उंगली रखने वाले साबित होते हैं। इतिहास की भूलों के परिर्माजन का ऐसा आह्वान इतिहासकारों के लिए चुनौती है। शायद इन्हीं कारणों से पाल ग्रेप ने ऐतिहासिक उपन्यासों को इतिहास का शत्रु बताया है। ग्रेप की इस पीड़ा को बखूबी समझा जा सकता है दिनकर की कविता ‘कलम आज उनकी जय बोल’ के जरिए जिसमें एक जगह उन्होंने कहा है –

जो अगणित लघुदीप हमारे
तूफानों में एक किनारे
जल-जलकर बुझ गए किसी दिन
मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल।
कलम आज उनकी जय बोल।
अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बिचारा
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य, चंद्र, भूगोल-खगोल
कलम आज उनकी जय बोल।

वैसे उपन्यास के प्रतिपाद्य से इसका कोई खास सरोकार नहीं, फिर भी रह-रहकर नायकों से आक्रांत – अभिभूत इतिहास के शोर में डूबे चीत्कार को निन्यानबे का पाठक सुने बगैर नहीं पाता। उपन्यास के केंद्रीय पात्र रामदयाल के अपनी शादी के बाद अपनी पत्नी से बयान इसका साक्ष्य है – तु्महें मालूम है गांधी जी ने अपनी पत्नी से टट्टी साफ करवाई थी। यदि मुझे अपनी शादी और आजादी में से एक को चुनना है तो मैं आजादी चुनूंगा। और तबसे इस किशोरी को लगातार रामदयाल के अचानक गायब हो जाने का राज समझ मे आने लगा। वह बहस नहीं करती। सुंदरकांड का पाठ करती। संकटमोचन का व्रत रखती। यह एक किशोरी की कथा नहीं। यह उन सभी किशोरियों की कथा है जिसके जीवन का खाद पानी पहले तो गुलामी की बैडियों को तोड़ने-काटने में सूखा और फिर आजादी के उपभोक्ताओं का निवाला बना।
करीब डेढ़ सदी के विस्तार में फैला यह उपन्यास उन अर्थों में ऐतिहासिक नहीं जिन अर्थों में प्रसाद के उपन्यास आते हैं या फिर गढ़कुंडार, रानी लक्ष्मीबाई, दिव्या, चित्रलेखा है। जिस तरह बड़े से बड़े सच का एक स्थानीय संदर्भ होता है, उसी तरह इतिहास भी निरपेक्ष नहीं रहता, वहीं हमारी जीवनदृष्टि इतिहासबोध से रूपाकार पाती है। रानी लक्ष्मीबाई लिखते समय वृंदावन लाल वर्मा के पास जो इतिहास उपलब्ध था, आज वह वहीं नहीं अंटका है। नए साक्ष्य और नए विमर्श इतिहास को गतिशील बनाए रखते हैं। काल का उत्खनन सतत जारी है और अनावृत्त परतों से उभरनेवाला सच इतिहास को गीता या कुरान नहीं रहने देता। स्मृति की सत्ता का जीवन की तात्कालिकताओं के सदैव संवाद चलता रहता है, जिसे युवा आलोचक ज्योतिष जोशी सामाजिकता-ऐतिहासिकता का द्वंद्व कहते हैं। काल का यह द्वंद्व व्यक्ति के सरोकारों प्रकट करता है और यही वह सरोकार है जिसने निन्यानबे को उपरोक्त की श्रेणी से बाहर रखा है। 1857 से 1993-94 तक के विस्तृत काल क्षेत्र का यह उपन्यास केंद्रीय पात्र रामदयाल की पांच पीढ़ियों के इर्द-गिर्द बुना गया है।
आंदोलनों और उसके स्वप्नों में ऊंघता एक कस्बाई जीवन है जिसे मूलतः समाज-राज का रूपक कह सकते हैं। स्वतंत्रता संग्राम के अवशिष्ट जो बदलती परिस्थितियों के साथ अपने आदर्शों को नहीं बदल पाते, जीवन की मुख्यधारा से उसी तरह दूर होते गए हैं जैसे तलछट, जहां कुछ भी आकर्षक व भोग्य नहीं रहता। वह पात्र है रामदयाल, जो नेहरू के स्वप्नों के भारत से इस कदर डूबता-उतरता है कि अपने निहायत निजी क्षणों में वैयक्तिक दबावों तक को नहीं समझ पाता। अपनी जरूरतों से दरकनिरा होता जाता है। पारलौकिक आसक्तियां भौतिक जीवन रुग्ण बना डालती हैं। ‘उस’ जीवन के लिए इस जीवन के लिए कुछ भी मोल नहीं समझने वालों की स्थिति हो जाती है रामदयाल की। भारत स्वप्नों के नायक के भ्रमजाल में उलझा यह पात्र अपने ही जीवन संदर्भों को वास्तविक जमीन नहीं दे पाता और स्वप्न में टहलते के रोग (सोम्नैंबुलिज्म) की स्थिति में आ जाता है। यहां राष्ट्रीय विकास के सांस्कृतिक आयाम के संदर्भ में व्यक्त प्रख्यात समाजशास्त्री पूरनचंद्र जोशी के विचारों को देखा जाना रोचक है – जिन मानसिक बेड़ियों की रचना भारतीयों को गुलाम रखने के लिए विदेशी शासकों ने की थी उनसे कहीं अधिक सशक्त वे बेड़ियां थीं जिन्हें भारतीयों ने गुलामी की कटु वास्तविकता के संदर्भ में मानसिक संतुलन और सामंजस्य बनाने के लिए सृजित किया था। (परिवर्तन और विकास के सांस्कृतिक आयाम) क्योंकि इसी धूर्तता और पाखंड से भरी वह चालबाजियां थीं, जो एक ओर लक्ष्मीबाई की वास्तविकता में डूबने नहीं देतीं और लेखक भी उसे महिमामंडित करने से नहीं चूकता। ‘सबको मालूम था कि रानी ने झांसी मांगी थी और उन्हें मौत मिली थी।‘ झांसी में डूब गया लेखक लक्ष्मीबाई की राष्ट्रीय निष्ठा को समझ नहीं पाता या समझना नहीं चाहता। विख्यात इतिहासकार विपिन चंद्र संपादित ‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’ की स्थापना के अनुसार विद्रोह के मौके पर उन्होंने अंग्रेजों से समझौते की पेशकश भी की
कि अगर उसकी मांगें मंजूर कर ली जाएं (राज्य वापस कर दिया जाए यानी डाक्ट्राईन आफ लैप्स खत्म कर दिये जाने की स्थिति में) वह अंग्रेजों का साथ देंगी और इस तरह झांसी की तरफ से अंग्रेजों को कोई खतरा नहीं रहेगा। वैसे राष्ट्रीय परिदृश्य में विश्वयुद्ध में अंग्रेजों का साथ देने के पीछे स्वराज्य की गुलाम लालसा-समझ काम कर रही थी। एक गुलामी की बजाए दूसरी गुलामी का चुनाव ही तो था यह। यही लालसा लक्ष्मीबाई के पास राष्ट्रविरोधी (अ-राष्ट्रीय) फार्मेट में थी। यदि नाजियों का त्रिगुट मानवविरोधी था तो अंग्रेजों का आधिपत्य कहां से मानवीय कहा जा सकता था। यही अमानवीय लालसा लक्ष्मीबाई के यहां राष्ट्रविरोधी (अराष्ट्रीय) के फार्मेट में थी या राष्ट्र के प्रति उदासीनता के रूप में थी। लेकिन नेहरू का इंद्रजाल था जिसकी वास्तविकता को संग्राम में शामिल पीढ़ी शायद देखना नहीं चाहती थी। रामदयाल की मनोदशा का ब्यौरा (लेखक के शब्दों में) इसका उदाहरण है – घर की क्या हालत थी? नेहरू जी नहीं रहे थे, बड़ा लड़का शराब पीने लगा था, छोटा सौर में था। बिलू मां जितनी लंबी हो गई थी। नेहरू के न रहने से कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक शून्य छा गया। अब आवडी स्वप्न का क्या होगा ? दरअसल इसके ठीक निचली सतह पर देखना होगा कि कहीं यह किसी को रिझाने का अंदाज तो नहीं।
ऐसे संजय की तरह तो अतीत जीवी था, एक सामंती समाज सृजन की पीड़ा और प्रफुल्लता से आधुनिक समाज में बदलता हुआ नजर आता है। अपनी सारी भीषण विफलताओं और विडंबनाओं के बाद भी, नई पीढ़ी फटती हुई आवाजों में अपनी माली हालत की प्रतिध्वनि तक नहीं सुन पाते। और आंखें ऐसी कि जिसमें विराट स्वप्न तो होते हैं, पर उसमें बेटे का पट्टीदार जांघिया होता है और न ही बेटी की कमर के नीचे वही जांघिया। 22 जनवरी 1955 के अखबार में ‘भारत समाजवाद की ओर’ शीर्षक से छपी कांग्रेस की आवडी सम्मेलन की रपट में खोए रामदयाल को पता भी नहीं चलता कि उसका बेटा बलराम दयाल कब आया और बैठक के दूसरी ओर बैठे-बैठे उकता रहा था। अपनी उकताहट में वह बाबू कहकर चिल्लाता है। पूरा संवाद लेखक के उपरोक्त आशय को प्रतिध्वनित करता है –
बाबा
हां उन्होंने अखबार से सिर ऊपर उठाया, लेकिन शायद अखबार की कोई पंक्ति अधूरी छूटी थी। उन्होंने तुरंत अपनी आंखें अखबार में गड़ा दीं।
बाबू
हां, बोलो, रामदयाल ने अखबार में आंखें गड़ाए पूछा।
मुझे रुपए चाहिए
कितने
पचास।
पचास रुपए का क्या होगा
डाक्टरी का फार्म भरना है।
ऐसा लगा जैसे अखबार के बहुत मसले हैं और रामदयाल के लिए सबसे जरूरी है कि वे चुपचाप अखबार पढ़ते रहें जैसे पहले पढ़ रहे थे। रामदयाल अखबार ऐसे पढ़ रहे थे जैसे बल्लों बैठक में न हो और न ही उसने कुछ बोला हो। यह स्थिति उस पिता की है जो अब भी स्वतंत्रता संग्राम में खोए अपने भाई की बलि को नहीं भूल पाया है। जबकि यह पुत्र आजादी के बाद के जीवन संघर्षों और उसके व्यामोहों में भटक रहा है। इसके भी तो खोने का भय है। यह व्यामोह हैं पराधीन व स्वातंत्र्योत्तर भारत का और व्यामोहों का द्वंद्व है जो उन्हें अपनी लालसाओं से मुक्त नहीं होने देता और अपनी जमीन को भी बंजर कर दे रहा है। यह एक उदाहरण भर है। ऐसी स्थितियां बारहा है उपन्यास में।
उपन्यास का नायक रामदयाल अपने एक पुत्र का नाम संग्राम में शहीद भाई के नाम पर हरि रखता है। यही हरि है जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अर्जित जीवन के उच्चतर मूल्यों को ध्वस्त करते हुए सपने की सौदागीरी तक करने लगता है। आपातकाल में संजय गांधी की अराजक टोलियों में शामिल होने से लेकर ठेकेदार बनने तक यह बेटा रामदयाल के आदर्श को तिलतिलकर मिट्टी में मिला देता है और रामदयाल को लगने लगता है कि इस सदी में हरि दो बार पेदा हुआ। पहली बार उसने आजादी के लिए घर छोड़ा। दूसरी बार उसने मारूति के लिए और तब रामदयाल का क्षोभ उसका व्यक्तिगत नहीं रह जाता। पहले हरि को देश की आजादी ढूंढ़ते हुए खो गया। अब हरि अपनी आजादी ढूंढ़ते हुए खो रहा है। अपनी आजादी आजादी नहीं होती, अपनी उठाईगीरी होती है। यह उन रामदयालों की मनःस्थिति है जो मोहभंग से गुजर चुका है ऐसा नहीं। इस दिग्भ्रमित बेटे के बारे में यह रामदयाल का ही मंतव्य नहीं हो सकता कि इसके पास नंगईका विकल्प खादी का कुर्ता पाजामा है। ऐसा नहीं कि आवडी पर रामदयाल को पूरा भरोसा था – भरोसा – भरोसा होता तो रामदयाल आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी छोड़ते ही क्यों।
निहायत निजी सुख-सुविधाओं के आपदग्रस्त होते गए मध्यवर्ग मध्यवर्ग में अपनी जमीन, सरकार के साथ एक उपभोक्तावादी सलूक शेष रह जाता है। रामदयाल का छोटा पुत्र कृष्णकुमार कला के बाजारू सरोकारों से जुड़कर ही एक दिन अजनबी निष्ठुर हो जाता। यह है हमारे समय की कला और उसका संवेदना से सरोकार। बहन की चिंता में डूबा परिवार उसे अपनी ओर नहीं खींचता और वह पेरिस जाने के लिए इसी घर से पैसे तक की अपेक्षा करने लग जाता है। अपने भाई के स्वप्न को बेटे (हरि) में जीवित करने की जिद/हसरत पाले रामदयाल बेबस, लाचार व ठूंठ से बने रह जाते हैं। निन्यानबे लाख तक पहुंचकर करोड़पति बनने का स्वप्न हरि में हहरा रहा है और दूसरी ओर रामदयाल जीवनृ-मृत्यु से जूझ रहे हैं। उनका सोचना कितना वाजिब लगता है – क्या करोड़पति होने के लिए दुनिया को भोग का चारागाह बना देना जरूरी है ? इस तरह रामदयाल के घात-प्रतिघात पर खड़ा जिन त्रासदियों का शिकार आज भारत है, उसी के अक्स यहां हैं।
अब जब कविता में गद्य का प्रवेश हो रहा है, वहीं गद्य में भी उसकी ही शर्तों पर कविता की आवाजाही भी दिखती है, जिसे निन्यानबे में प्रचुरता से देखा जा सकता है। गद्य में कविता की यह आवाजाही ही सूक्ष्मता, अर्थमयता, बिंबात्मकता व सारगर्भितता के धरातल पर जारी है। कविता में गद्य के प्रवेश के साथ सपाटबयानी के खतरे से बचने के लिए जिस सतर्क काव्य विवेक की जरूरत है, यहां भी यह प्रासंगिक है। भाषा के साथ जो क्रीड़ा वृत्ति कुरु कुरु स्वाहा, अठारह सूरज के पौधे, रागदरबारी में है, वह यहां नहीं। इन उपन्यासों में अपनी शैली से मुग्ध हो जाने के कारण वहां फार्मूलाबद्धता का खतरा (संकट) पैदा नहीं हुआ है। भले वह उनकी अन्विति को ग्रसता नहीं। वर्णन की फार्मूलाबद्धता के कारण बहुधा परिवेश की यथार्थता के साथ लेखक के संबंध विच्छिन्न से हो जाते हैं। वह विच्छिन्नता एक हद तक यहां भी दीखती है, पर इतर कारणों से।
डा सुरेश सिन्हा को अपनी रचना प्रक्रिया बताते हुए वृंदावन लाल वर्मा का लिखा पत्र यहां देखने योग्य है – ‘ऐतिहासिक उपन्यास लिखना एक दुःसाध्य कार्य है। जिस काल का उपन्यास लिखा जाता है, जब तक उस काल की राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थिति, मानवजीवन और इतिहास का स्पष्ट चित्र सामने न हो, तब तक यह कार्य सरल नहीं होता।‘ शायद इन्हीं कारणों से 200 पृष्ठों के इस उपन्यास का तीन चौथाई हिस्सा बीसवीं सदी के पांचवें-छठे दशक के बाद से जुड़ा हुआ है तो पिछले सौ साल को एक चौथाई में समेट लिया गया है।
( उपन्यास वाणी प्रकाशन से प्रकाशित)
(पहल-61,1999)

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

डायरी के पन्ने से

मानवीय ऊष्मा को बचाने की व्यग्रता

चिड़िया की चिट्ठी आई है
आसमान में उड़ूंगी
और गाऊंगी पेड़ पर बैठकर
पेड़ की चिट्ठी आई है
सबको दूंगा छाया
फल-फूल और सुगंध
चिड़ियों को घोंसला बनाने के लिए
मौसम की चिट्ठी आई है
बहुत जल्दी लौटूंगा
तुम्हारे उधर लेकर वसंत को
आदमी की ऐसी ही चिट्ठी का इंतजार है मुझे
जो अभी तक नहीं मिली।

चिड़िया, पेड़, मौसम के जरिए जीवन में जिस मानवीय संलग्नता की कवि को प्रतीक्षा है उसमें धैर्य की जगह एक अकुलाहट है। आज से दस साल पूर्व कमलेश्वर संपादित गंगा में प्रकाशित उक्त चिट्ठी शीर्षक कविता के कवि कमलेश्वर साहू की यह अकुलाहट अपनी काव्ययात्रा में देशकाल में अपने स्पेस को और भी विस्तार प्रदान करती हुई सघन और तीव्र होकर प्रश्नाकुल हुई है। विडंबनाबोध तक पहुंचा उनका स्वर है –

प्रभु
कल किसी ने
शहर को जलाकर
राख कर दिया
आग लगानेवाले की प्रभु
रक्षा करना ताकि अगली बार
तुम्हारे घर में चोरी हो !
तुम्हारा खून हो !!
तुम्हारे घर में आग लगे।

धर्मपरायण मध्यवर्ग की धार्मिक विश्वासों के प्रति बदली हुई दृष्टि को कविता में इस खतरनाक तरीके से अर्जित करना हमारे समय के ही कवियों को गवारा होगा। यह अलग बात है कि संप्रेषण के उनके अंदाज में वह कशीदाकारी नहीं जो आलोचकों का ध्यान खींचती, आलोचना की छवियों, परंपरा और प्रतिमान की तलाश में खोये आलोचकों की निगाह यदि कमलेश्वर की कविता पर नहीं गई तो अकारण नहीं।
अच्छी कविताओं की एक विशेषता और अनिवार्य विशेषता उसकी सहज संबोध्यता, काव्यशास्त्री जिसे संप्रेषण और अभिव्यंजना कहते हैं। यह कमलेश्वर के यहां प्रचुरता के साथ है। उनकी कविता गर्भवती स्त्री, कच्चा दूध, आंगन, अच्छा दिन, दादी की गुल्लक हो या मां की याद, प्रांगण उसका आत्मीय होकर भी आत्मग्रस्त नहीं। यहां रिश्तों के बीच गुम हो रही मानवीय ऊष्मा को बचाने की अजब व्यग्रता है।
(19.04.1998)

भावी परंपरा
मुक्त और उदार जैसे साथ-साथ चलनेवाले शब्द सभ्यता के इस दौर तक आकर विपरीत ध्रूवों पर चले गए हैं। बाजार की मुक्ति के साथ समाज अनुदार होता गया। हाल यह है कि मुक्त बाजार के इस सर्वग्रासी दौर में शब्द के अलावे सभी ने अपने – अपने भोजन, वस्त्र और आवास तलाश लिए हैं। असुरक्षा-संशय का अधिकाधिक घटाटोप टंगा-घिरा है तो शब्द पर ही। कारण भी है। जहां हमारे शब्देतर सरोकार अधिकाधिक भौतिक होते हैं, वहीं शब्द के सरोकार केवल और केवल अभौतिक। विचित्र सा लगता है कि जब कहते हैं, इस दौर की कविताएं सभी दौरों की अपेक्षा लौकिक अधिक हुई हैं। काव्य रीतियां भी पनपीं, पर वह रीति काव्य में तब्दील होने से रहीं। क्योंकि शब्द के सरोकार अभौतिक गोते हुए भी लालसाएं लौकिक ही थीं।
मुक् बाजार ने हमारे सभी सरोकारों को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य दिया है। और यह भी तथ्य है कि जटिलतर होते जा रहे समाज की चुनौतियों से जूझने के लिए हम जितने ही बड़े परिप्रेक्ष्य में अपने को उतारते हैं या खड़ा पाते हैं, हमारी सीमाएं उतनी ही खुलकर सामने आती हैं। कहें कि हम उतनी ही बड़ी सीमाओं से साक्षात करते हैं। ऐसे में हमारे दौर के शब्दकर्म को अपनी सीमाओं से साक्षात होने का झटका झेलना पड़ा है।
जिस तरह सभी दौर की काव्य परंपराएं अपनी प्रस्थानकालीन प्रवृत्तियों का विकसित रूप व परिमार्जित स्वरूप हैं, उसी तरह भावी काव्य परंपरा की नींव का काम करेंगी कुछ युवतम कवियों समृद्ध रचनाशीलता। निलय उपाध्याय, कुमार अंबुज, विनय सौरभ, बद्री नारायण, एकांत आदि कुछ ऐसे ही नाम हैं। समय व सभ्यता के संकट व समाज की चुनौतियों से इनका साक्षात कैसा है व उसकी अभिव्यक्ति का स्थापत्य कैसा है, यह तय करेगा इनका काव्य विवेक। संवेदन तंत्र की जटिलता बढ़ी है, पर यदि लेखक उसके लिए अपेक्षित भावलीन व्यवस्था विकसित नहीं कर पता तो चीजें खंडित नजर आती हैं या एकरैखिक (सतही)। अभिव्यक्ति के किन औजारों का युवा रचनाशीलता कैसा इस्तेमाल कतरती है यह यथार्थ से उनके मुठभेड़ या रिश्ते से तय होना है। फिलहाल तो युवा रचनाशीलता को देखकर कहा जा सकता है कि यथार्थ से उनके सरोकार महज दर्शक के नहीं रहे। यथास्थिति से एक तरह का क्षोभ – असंतोष उनकी रचना को शांत और करुण नहीं नहीं रहने देता। सामाजिक बेहतरी के सपने, बाजारवादी व्यवस्था के घटाटोप में सामाजिक-सांस्कृतिक संकटों से जूझने की बेबसी से इनकी रचनाशीलता अछूती नहीं रहती। भाव-विचार का सांद्रण, वस्तुरूप की ताजगी और सबसे ऊपर सहजता और सूक्ष्मता को अपनी रचनाओं में साध रही यह पीढ़ी निश्चय ही कहीं की भी थाती हो सकती है।
(11.10.1998)

एक सजग यायावर
हिंदी के बाबा नागार्जुन, मैथिली के यात्री और मिथिला जनपद के वैद्यनाथ मिश्र। जीवन भर यायावरी की, देह छोड़ी अपने ठौर। स्वामी सहजानंद का किसान आंदोलन हो या लोकनायक का छात्र आंदोलन, सबमें मौजूद रहे। और इसी तरह वह वामपंथी आंदोलन की सांस्कृतिक एकता के प्रतिनिधि भी रहे। इस मौजूदगी में सदैव वैचारिक प्रतिबद्धता उनके साथ रही, पर जनता को पीछे छोड़कर पार्टी की विचारधारा नुमा डस्टबिन बनकर नहीं। जनपक्षधरता की प्रतिबद्धता अपनी पूरी उग्रता के साथ उनमें मौजूद थी, इसलिए ऐसा संभव हुआ। मुझे उनमें औरों की तरह विचलन नहीं दीखता तो इसीलिए। लोगों को कभी-कभी दीखनेवाला विचलन दरअसल यही जनपक्षधरता थी। यह जनपक्षधरता भारतीय समाज में रूढ़ नहीं। वह अपनी मूलवृत्तियों में वामपंथी तो थे, पर वामपंथ की रूढ़ियां उनके यहां नहीं थीं। क्योंकि प्रतिबद्धता जीवन से सीधे जीवन से जुड़ने नहीं देती। जीवन और व्यक्ति के बीच विचारधारा का हस्तक्षेप होता है, जबकि नागार्जुन के काव्य संसार में एक प्रत्यक्ष व सघन जीवनदर्शिता है। यही प्रत्यक्ष जीवनदर्शिता उन्हें अपनी वैचारिकता की पूरी निर्मम चीरफाड़ में मदद करती है, जो सनातनी वामपंथियों को गवारा नहीं। इसीलिए उन्होंने एक जगह कहा है - करूं मैं उद्दंडता के काम। यही है जो आभासी अराजकता का भेद खोलती है। इसके लिए उन्हें आक्षेपों का शिकार होना पड़ा है और उपेक्षाओं का भी। बावजूद इसके संघर्ष का विसर्जन कहीं नहीं हुआ है। जीवन से सीधे जुड़ने की यह अविरल विकलता है –
प्रिय मुझे है जलन
प्रिय संताप।
संघर्ष में टिके रहने का विकट जीवट निराला में भी ऐसा ही था –
कौन फिर मुझको वरेगा
जो न तू उस पथ मरेगा।
छात्र आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका में होने के बावजूद उसके हासिल से उनका मोहभंग भी हुआ और ‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने’ कहकर उन्होंने एक तरह से अपनी संलिप्तताओं पर भी करारा प्रहार किया। न तो उन्हें राजनीति का भटकाव गवारा था और न ही साहित्यिक भटकाव। वाम के नाम साहित्य की राजनीति करनेवाले प्रलेस तक को उन्होंने नहीं बख्शा था-

रहा उनके बीच मैं
था पतित मैं, नीच मैं।
दूर जाकर गिरा, बेबस उड़ा पतझड़ में।
धंस गया आकंठ कीचड़ में।

आत्मभर्त्सना की इस सीमा तक जाने के लिए जिस नैतिक बल व आत्मत्याग की जरूरत होती है, भला उसके प्रहारों को दूसरा कौन बर्दाश्त करता। यही कारण था कि राज्य के सबसे गंदे मोहल्ले में उचित देखरेख व इलाज के अभाव में वह तीन सालों से मृत्युशैया पर पड़े रहे। इस साल भले उनके जन्म दिन को उनके यहां पर्व की तरह मनाया गया, फिर भी कवि के लिए उसमें चिंता नदारद ही रही। क्या इस उत्सवधर्मी माहौल में यह समाज अपने अन्यायों पर आत्मचिंतन कर पाएगा।

(22.11.1998)

दीन-दुनिया को टटोलती कारुणिक पुकार

बड़े विचित्र तरीके से हिंदी कविता को इन दिनों दुर्भाग्यों और सौभाग्यों से गुजरना पड़ रहा है। दुर्भाग्य इस अर्थ में कि आलोचना इन दिनों अतिक्रमण हटाने के उस बुल्डोजर की तरह हो गई जो किसी आदेश-निदेश की यांत्रिकता से संचालित है, मानवीय विवेक से नहीं। और सौभाग्य इस अर्थ में कि सड़क से विस्थापित कविताओं में सभी तलछट ही नहीं। पिछले डेढ़ दशकों से सक्रिय कवि जयप्रकाश मिश्र की कविता से गुजरते हुए कहीं भी दृष्टि और संवेदना की वैसी फिसलन नहीं दीखती जिसे अनगढ़ शिल्प करार दिया जाए। कवि जयप्रकाश का ‘कविता का खूबसूरत संसार’ (कवि की ही शब्दावली में) खोये को बटरने के प्रयास से बना है। इसके साथ ही बने हुए के खोने की विकट आहट भी मौजूद है उनकी कविता में। आज जब चोट पर मरहम लगाने तक के लिए राजनीतिक चोंचलेबाजी देखने को मिलती है, वैसे में रचना – विरचना के दाब से गुजरते हुए उनकी कविता बड़े ही संयत व अराजनीतिक किस्म का भावतंत्र खड़ा करती है। सारतः यह कविता दीन-दुनिया को टटोलती एका कारुणिक पुकार है।
(दिसंबर 1998 का कोई दिन)

तन्मयता व तरलता के कवि राजेश

पूंजीवादी व्यवस्था के उत्तर आधुनिक चोंचले के रूप में बाजारवाद के रूप में इस दुनिया की नियति को हिंदी काव्यजगत ने इधर पकड़ने की अच्छी कोशिश की है। देखने की बात यह है कि जहां तन्मयता है वहां तरलता नही। क्योंकि चौंकन्नापन और संवेदनशीलता बहुधा एक साथ नहीं होते। यह चौंकन्नापन और तरलता दोनों ही राजेश जोशी में ही। यह उनकी शुरुआती रंगत का अद्यतन फैलाव है। ‘मिट्टी का चेहरा’ (1985) से लेकर ‘नेपथ्य में हंसी’ (1994) तक यह सूक्ष्म से होकर गहन और विस्तृत होती गई।
क्या यह सुनने को बैठा रहूं धरती पर
कि पालक मत खाओ ! मेथी मत खाओ !
मत खाओ हरी सब्जियां!
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मैं वहीं उगाऊंगा हरी सब्जियां और
तंदूर लगाऊंगा
देखना एक रात
मैं उड़ जाऊंगा
(मिट्टी का चेहरा)

कई बार बाजार जब चीजों से लद जाते हैं
समाज में पैदा होने लग जाते हैं
नए उपद्रव
- वस्तुओं के बारे में एक वक्तव्य (नेपथ्य में हंसी)

राजेश जोशी के यहां मौजूद स्थानीयता की रंगत को महज एक प्रतिबद्ध कवि के जीवंत मनानवीय लगाव का साक्ष्य (परमानंद श्रीवास्तव) भर नहीं कहा जा सकता है क्योंकि यहां प्रतिबद्धता के साथ एक काव्यचातुर्य भी है जिसके कारण उनके यहां फंतासी का काव्यविवेक दीखता है।

नदियों का नहीं
समु्द्रों का नहीं
पेड़-पहाड़ों का नहीं
बाजारों का है यह समय।

‘मिट्टी का चेहरा’ संग्रह की ‘आठ लफंगों और एक पागल औरत का गीत’ कविता जैसे भविष्य के समस्त काव्य संसार पर बाजार के दबाव को रिफ्लेक्ट कर रही हो। यह उदघोषणा जैसे विद्रोही कवि मायकोवस्की के उस घोषणापत्र की याद दिलाता है जो उन्होंने सुरुचि के गाल पर तमाचा शीर्षक से भविष्यवाद के घोषणापत्र के रूप में पेस किया था। (यह अलग बात है कि राजेश ने मायकोव्स्की की कविताओं का अनुवाद भी किया है और वह संग्रहाकार छपा है – पतलून पहना बादल नाम से)

कोई दस-बारह वर्ष पहले शंभूनाथ ने ‘परिवर्तन’ में ‘मिट्टी का चेहरा’ के संदर्भ में राजेश की काव्य प्रवृत्ति को आत्मगत जड़ता में हस्तक्षेप की व्यापक उत्कंठा के रूप में चिह्नित किया था तो अकारण नहीं। वीरेन डंगवाल के संदर्भ में मैंने साक्षात्कार और इंद्रप्रस्थ भारती में लिखा था कि सामयिक हुए बगैर सार्वकालिक नहीं हुआ जा सकता और स्थानीय हुए बगैर सार्वभौमिक नहीं। इसे यहां कह सकते हैं कि सरलता अर्जित किए बगैर वैशिष्ट्य हासिल नहीं हो सकता। आरंभिक दौर में जो स्थानीय रंगत विरल थी अब वह सांद्र व सूक्ष्म होकर और गहन व सघन हुई है जोशी के यहां। यही इनका वैशिष्ट्य है। क्योंकि जीवन को सूक्ष्मता और गहनता देखे बगैर स्थायी प्रभाव छोड़नेवाली जोशी जी जैसी कविताएं लिख पाना मुमकिन नहीं।
(13.12.1998)


हिंदी गद्य के कबीर के लिए

अक्खड़ता सादगी और साहस से आती है। भाषा में यह नैतिक चेतना कबीर से हिंदी गद्य को यदि मिली है तो वह काशीनाथ सिंह में देखने को मिलती है। कहानी हो या उपन्यास या फिर कथा रिपोर्ताज। कविता में चरित्रों की अमूर्तता और निर्वैयक्तिकता उसके फार्म की उपज है, पर कहानी में इसके होने का कारण यही नहीं। यहां विस्तार है, विवरण है और पर्याप्त अवसर भी। फिर भी एक हिचक है, और यदि कहानी में चलते – फिरते, रोजनामचा की आवाजाही हूबहू हो तो होठ बिचकाते हैं, लेकिन यह तबतक नहीं होता जब तक कि निर्मम बेलागपन न हो। दूसरों की तस्वीर साफ – साफ रखने के लिए अपनी जिस चीरफाड़ की जरूरत है व काशीनाथ सिंह में है। काशीनाथ सिंह (की रचनाशीलता) पर कुछ बोलने में सकुचाने के पीछे कदाचित वही सीमा आड़े आ जाती हो नामवर सिंह को भी। काशीनाथ पर कुछ भी लिखने-बोलने का मतलब है उन लोगों – समयों पर बोलना – लिखना, जिनके साथ सक्रिय सदेह रिश्ते हैं। कितने लोग बरत पाते हैं इस ईमानदार साहस को। सामाजिक संबंधों को परिभाषित करना लेखन है तो आलोचना भी इससे बरी नहीं। क्योंकि आलोचना भी एक रचना है, काशीनाथ का यह जुमला ही नहीं उनकी एक एक किताब का भी नाम है और आलोचना की रचनाधर्मिता को उनकी नजर से देखना भी। क्या सप्राण भाषा। जैसे श्रेष्ठ कवियों के प्राणवान गद्य।
‘’लालटेन हमारी चुप्पी को प्रकाशित कर रहा है’’ (आखिरी रात कहानी) से लेकर ‘’नियम विज्ञान के होते हैं जिंदगी के नहीं। जो जिंदगी को नियम से चलाते हैं वे चुतिया है। - संतवाणी ‘’ (संतों, असंतों और घोंघा वसंतों का अस्सी) जैसी अभिव्यक्तियों के बीच काशी के विकास की छाया देखी जा सकती है।
(24।10.2001)

दिल को सुकून रूह को आराम आ गया

कोलकाता की हिंदी जमात में जब नामवर के निमित्त के आयोजनों का सिलसिला, अलका सरावगी को साहित्य अकादमी के उपलक्ष्य में पार्टी का दौर चल रहा था, ठीक उसी समय हिंदी का विख्यात कथाकार इसराइल अनाम की तरह आखिरी सांसें गिन रहे थे।
साहित्य अकादमी पुरस्कार देने के निर्णय के अंतिम दौर में जब निर्णायक मंडली उधेड़बुन में रही होगी, ऐन तभी हिंदी के कथाकार इसराइल जिंदगी और मौत से जूझ रहे थे। कोलकाता की ही अलका सरावगी को पुरस्कृत किया जाना था, कोलकाता में ही साहित्य मेला लगा था और इसी बीच कोलकाता के एसएसकेएम अस्पताल में पड़े पिलिया से पीड़ित इसराइल की किसी को सुध नहीं थी। क्योंकर होगी। वे साहित्य के कोई सेलिब्रिटी भी तो नहीं थे। और सेलिब्रिटी तो मटियानी और नागार्जुन भी थे, पर किसे कितनी सुध रही। 12 दिसंबर 2001 से भरती होने के दो सप्ताह तक बीमारी से लंबी जद्दोजहद के बाद 26 दिसंबर की मध्याह्न रात उन्हें हम सबसे छीन कर ले गई।
बिहार के गोपालगंज जिले के एक छोटे से गांव मुहम्मदपुर से जब कोलकाता आए होंगे तब से भी कहीं अधिक अनजाने हो गए थे हिंदी जगत के लिए अपनी मौत के क्षणों में। पिता की तरह चटकल मजदूर के रूप में जीविका शुरू की, प शीघ्र ही अपनी साहित्यिक रुझान व मार्क्सवादी समझ के कारण बीटी रणदिवे और नीरेन घोष के प्रिय बन गए। अब इन्हें माकपा के मुखपत्र ‘स्वाधीनता’ का संपादक-प्रकाशक बना दिया गया तो वे आजीवन रहे। वे पार्टी के होलटाइमर थे। माकपा के जनवादी लेखक संघ के संस्थापकों में एक इसराइल जलेस की केंद्रीय समिति के सचिव तथा पश्चिम बंगाल इकाई के अध्यक्ष भी थे।
एक कथाकार के रूप में पश्चिम बंग हिंदी अकादमी, मध्य प्रदेश सरकार तथा बिहार सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया था। वामपंथी रुझान के कथाकारों में आमतौर पर मजदूर वर्ग को लेकर उनकी वर्गीय चेतना ईमानदार कम हमदर्द अधिक हो जाती है। गैरवाजिब भावुकता और उत्साह के अतिरेक के शिकार हो जाते हैं वे। पर इसराइल इससे अलग थे। इन्हीं विशेषताओं के मद्देनजर शिव कुमार मिश्र उन्हें शेखर जोशी के सिवा पहले कहानीकार मानते थे।
(दिसंबर 2001 का कोई दिन)

यह तो होता ही रहता है

थोक के भाव में लिखे हिंदी साहित्य के इतिहास शायद ही एक भी ग्रंथ हो, जिसने इतिहास लेखन की अकादमिक सीमाओं और मठाधीशी को त्यागा हो। यह परंपरा रामचंद्र शुक्ल से ही शुरू हो जाती है। हिंदी साहित्य मौलिक रूप से जितना ही समृद्ध और जीवंत है, उसका इतिहास लेखन उतना ही दुहराव व अनुकरण से भरा। हिंदी साहित्य के इतिहास लेखकों में अपने समकालीनों को लेकर पाई जानेवाली कुंठा ने उन्हें भले ही तात्कालिक आनंद दिया हो, तृप्ति दी है, पर हमेशा – हमेशा के लिए हिंदी जाति को उसके मूल संस्कार और वाजिब गौरव से काटा है। साहित्य स्रोत है और इतिहास परिप्रेक्ष्य, यह बात जानना इतिहास लेखकों के लिए जितना ही जरूरी, उससे कम जरूरी नहीं साहित्येतिहास लेखकों के लिए भी। लेकिन समाज से कटे लेखकों में मूल दृष्टि का ही अभाव नहींहोता, बल्कि स्रोत की विश्वसनीयता की परख भी नहीं होती। यह अकारण नहीं है। पारिवारिक सर्वेक्षण करने निकले लोगों के उस जत्थे की कल्पना कीजिए जो मोहल्ले की किसी बैठकी में शामिल होकर पूरे मोहल्ले या गांव के ब्योरे इकट्ठे कर लेता है। क्या सारा का सारा इतिहास लेखन इसी तरह बरता गया नहीं लगता है।
वास्तविक नायक तो मुख्यधारा के खिलाफ होने के कारण उपेक्षित और वंचित होता है विभिन्न प्रतिष्टानों की कृपा से। मुखालफत के साथ ही उसकी नियति अभिशप्त हो जाती है। इतिहास लेखक तो आक्रांत होता है सत्ता के तिलिस्म से या सफलता और लोकप्रियता से। दिनकर ने लेखक को इस ग्लानियुक्त कर्म से उबरने के लिए ही कदाचित लिखा था –
क्या जाने इतिहास बिचारा,
अंधा चकाचौंध का मारा।

(कलम आज उनकी जय बोल)।

अपने समय के घोर उपेक्षित जर्मन यहूदी लेखक वाल्ट बेंजामिन को ठौर के लिए ताजिंदगी भटकते-भागते रहना पड़ा और अंत में खुदकुशी का दामन थामना पड़ा। व्याख्याता बनने से वंचित कर दिए गए बेंजामिन के दर्शन और विचार का लोहा भले ही अब दुनिया में माना जाने लगा हो। स्पेन के गुमनाम कस्बे में उनकी कब्र पर उनकी ही एक पंक्ति खुदी है – ‘यशस्वी लोगों की बजाए अनाम लोगों की स्मृति को सम्मान दिना ज्यादा कठिन है।‘ इतिहास का निर्माण ऐसे लोगों की स्मृति में ही हुआ है। दिनकर सर्वनाम ‘उनकी’ बेंजामिन का अनाम लोग को ही रिप्लेस करता है। मुक्तिबोध का संघर्ष बेंजामिन से अलग नहीं। इतिहासकारों की वर्चस्ववादी सत्ता की प्रताड़ना की जो अजब पीड़ा बेंजामिन की इस उक्ति में है। वैसा ही कुछ हुआ हिंदी में मुक्तछंद प्रथम प्रयोक्ता महेश नारायण श्रीवास्तव के साथ। अमेरिकी कवि वाल्ट ह्विटमैन ने 1855 में छंद को तोड़कर ‘लीव्ज आफ ग्रास’ लाया तो उसके 15-16 सालों बाद महेश नारायण श्रीवास्तव ने हिंदी में वही उद्यम किया। जिस तरह वाल्ट ह्विटमैन की ‘लीव्ज आफ ग्रास’ को अपने दम पर उनके प्रायः सभी समकालीनों ने धज्जियां उड़ाईं, उसी तरह महेश नारायण श्रीवास्तव की मिश्र बंधु से लेकर डा. रामविलास शर्मा ने जी भर अनदेखी की। कविता के इन क्रांतिकारी अध्यायों की एक झलक साहित्य की वर्चस्ववादी सत्ता और उसकी निरंकुशता से मिल जाती है।
(22.02.2002)

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

सेर्गेई एसेनिन: रूसी कविता का अमर लोकगायक

(21.09.1895-28.12.1925)
‘इस जीवन में मरण कहीं से भी नया नहीं

लेकिन जीवन, सचमुच और भी नया है’

यह अथाह जीवन राग जिस विद्रोही कवि का है उसने यह पंक्तियाँ आत्महत्या से दो दिन पहले अपने लहू से लिखी थीं. मृत्यु से दो दिन पहले अपने लहू से लिखे इस विदा गीत से कवि के अपार जीवन राग को समझा जा सकता है, तीस साल के जीवन में पाँच शादियां, छह प्रेम और दो दर्जन से अधिक किताबें, हाँ, छोटे से जीवन को मस्ती के राग में जीनेवाला यह कवि सेर्गेई अलेक्सांद्रोविच येसेनिन सिर्फ 23 साल में राष्ट्र की ऐसी हस्ती हो जाता है कि पार्टी नेता तथा साम्यवादी आलोचकों को उनकी ‘जुबान पर ताला’ लगाने की ओछी हरकत करने को मजबूर होना पड़ता है. उन्होंने अपनी आलोचना और हैसियत का इतना इस्तेमाल तो किया ही कि किसानी राग और ग्राम्य संवेदना में रची-बसी कविता के सर्जक को देश छोड़ देना पड़ता है. अपने समकालीनों की घोर उपेक्षा, उनके असहयोग और रचनाओं पर दशकों लंबे प्रतिबंध के बाद किसी की रचना किस तरह जिंदा रहती है सेर्गेई एसेनिन इसके अन्यतम उदाहरण हैं. ऐसेनिन ने 1917 में लिखी अपनी एक कविता में एक जगह कहा भी है ‘आनन्द की भीख मांगनेवाला कमजोर होता है/ सिर्फ गर्व ही मजबूती से जीता है’. सचमुच आत्मसम्मान और जीवन का आनन्द जैसे उनकी फिलासोफी थी. वैसे उनकी नियति आत्महंता कवयित्री मारीना और कुछ-कुछ मायाकोव्स्की से जरूर मिलती है. मारीना ने 49 वर्ष की आयु में आत्महत्या की थी. हाँ, मायकोव्स्की को अपने समय में अल्पकालिक ही सही, पर थोड़ी मान्यता जरूर मिली थी. वैसे 1918 तक महज 23 साल की उम्र में मैरिंगोफ (एसेनिन के जीवन पर आधारित विख्यात व विवादास्पद संस्मरण ‘ए नोवेल विदाउट लाइज’ के लेखक) से मुलाकात के समय तक वह एक राष्ट्रीय हस्ती जरूर बन गये थे.

रूस के नियोजन क्षेत्र के कोस्टेटिनो (अब येसेनिनो) के एक गाँव में किसान परिवार में जन्मे एसेनिन बालपन से ही बाबा-दादी के पास भेज दिए गए. अपनी आत्मकथा में एसेनिन ने बचपन को याद करते हुए बर्बर चाचाओं के दुर्दांत खिलंदड़ेपन का    लोमहर्षक ब्यौरा दिया है (भारत में दलित लेखकों की जीवनी में ही ऐसे ब्यौरे मिलते हैं)। उसके एक चाचा थे जो उसे तीन साल की उम्र में अकेले घोड़ा पर बैठा कर सरपट दौड़ा देते थे। ऐसे में बालक एसेनिन पागल की तरह चिल्ला पड़ता था। फिर उसे तैरना सिख्या गया। एक चाचा साशा तो उसे नाव पर बिठाकर तट से बहुत दूर निकल जाते थे। इसी दौरान बालक एसेनिन के सारे कपड़े खोलकर उसे नगी में फेक देते थे। वह नन्हा बालक कीचड़ में फंसकर जब तड़फड़ाने लगता तो वे उसे नीच-अभागा कहते हुए फटकार लगाते। इसी तरह कवि ने अपने किशोर वय के दुर्दांत अनुभव संसार का भी पट खोला है। कवि जब आठ साल का था तो उसके एक अन्य चाचा उसका इस्तेमाल शिकारी कुत्ते की तरह करते। मारे गए बत्तख को पकड़ने के लिए वे उसके पीछे पानी तैरकर जाने को मजबूर करते। पेड़ पर चढ़ने में वह माहिर था। आस-पड़ोस के बच्चों के बीच उस किशोर को एक कुशल साईस तथा लड़ाकू के रूप में जाना जाता था। यही कारण है कि उसके चेहरे पर हमेशा ही खरोंचें रहतीं। इस दुर्दांत अनुभव से गुजरते हुए मुक्ति के लिए भटकते एसेनिन को देखकर रूसी कथाकार मैक्सिम गोर्की के मां उपन्यास के नाना की याद जीवंत हो उठती है। अपनी आत्मकथा में वे कहते हैं कि सिर्फ ही दादी थी जो उसे दुष्टताओं के लिए फटकारती, डांट पिलाती। बहुत ही स्वाभाविक ढंग से चाचाओं की क्रूरताओं के बीच बालक एसेनिन में दुष्टता पलने लगी थी। दादी के इस प्रतिरोध का उसके दादा यह कहकर विरोध करते कि ऐसे ही यह बालक मजबूती के साथ विकास करेगा और कायदे का इंसान बनेगा। दादा दादी को इसके लिए कोसते थे। वे तो दादी को बालक एसेनिन के पास फटकने तक से रोकते थे। बेइंतहा नजाकत से भरी दादी इस बालक को हद से ज्यादा प्यार करती थी। हर शनिवार को वह इस बालक के नाखुन काट देती और खास तरह के तेल लगाकर उसके केश काढ़ देती थी, घुंघराले होने के कारण उसके केश में कंघी करना मुश्किल होता था। नौ साल की अल्पवय में ही एसेनिन ने कविता लिखनी शुरू कर दी. साहित्यिक विलक्षणता से संपन्न एसेेनिन 1912 में मास्को आ गये और प्रकाशन व्यवसाय से जुड़े प्रतिष्ठानों में प्रूफरीडिंग का काम करने लगे. अगले साल मास्को स्टेट यूनिवर्सिटी में बतौर बाहरी छात्रा दाखिला ले लिया और यहाँ डेढ़ साल तक पढ़ाई की. उनकी शुरुआती कविताएँ, रूसी लोककथाओं, पौराणिक आख्यानों से प्रभावित रहीं. 1915 में वे सेंट पीटर्सबर्ग चले आये, जहाँ उनका परिचय अलेक्जेंडर ब्लाक, सेर्गेई गोरोदेत्स्की, निकोलाई क्लूयेव तथा आंद्रे बेली जैसे समकालीन कवियों से हुआ. साहित्यिक हलके में यहीं पर वे एक सुपरिचित हस्ताक्षर बन गये, बतौर कवि आजीविका चलाने में शुरुआती दौर में ब्लाक की काफी मदद रही.

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अपनी आत्मकथा में एसेनिन ने कबूला भी है कि बेली से उन्हें रूप की समझ मिली, जबकि ब्लाक तथा क्लूयेव की सोहबत ने प्रगीत का संस्कार दिया. 1915 में एसेनिन का पहला काव्यसंग्रह ‘रादुनित्सा’ प्रकाशित हुआ और इसके बाद ‘मृतक के लिए संस्कार’ 1916 में आया. मार्मिक व तीखी कविताओं (जो कि प्रेम और आम जीवन सरोकारों को लेकर है) के कारण आज वह रूस के सर्वाधिक प्रिय कवियों में गिने जाने लगे हैं. एक दौर था जब इन्हीं मार्मिक और किसानी राग में डूबी कविताओं से तत्कालीन आलोचक और पार्टी नेता बुरी तरह भयभीत हो उठे थे. इस तबके का मानना था कि एसेनिनवाद कहीं युवाओं की नागरिक निष्ठा को कमजोर न कर दे. सत्ता प्रतिष्ठान में इस सुगबुगाहट ने उन्हें लंबे समय तक राजनयिक अनुग्रह से वंचित रखा. सुदर्शन और रोमांटिक व्यक्तित्व के धनी एसेनिन के एक के बाद एक कई प्रेम प्रसंग चले और बेहद कम उम्र में उन्होंने पाँच शादियाँ रचायीं. पहली शादी 1913 में प्रकाशन गृह की सहकर्मी अन्ना इज्र्याद्नोवा से हुई. इससे उन्हें यूरी नाम का बेटा हुआ (स्टालिन शासन काल में इसकी गिरफ्तारी हुई और 1937 में गुलग श्रमिक शिविर में इसकी मौत हुई.)
1915 में वे सेंट पीटर्सबर्ग चले गये, जहाँ उनकी मुलाकात क्यूयेव से हुई (बाद में दो साल दोनों में गहरी छनी, वे साथ रहे, साथ में संग्रह निकाला, क्यूयेव के नाम अज्ञात को संबोधित उनके तीन प्रेमपत्र भी पाए गये हैं.) 1916-17 में वह सैन्य कार्य में लगा दिए गये, लेकिन 1917 की अक्टूबर क्रांति के बाद जल्द ही रूस प्रथम विश्व युद्ध से बाहर हो गया.

क्रांति से जीवन की बेहतरी के भरोसे पर कवि ने इसका समर्थन किया, पर जल्द ही यह भ्रम साबित हुआ तथा कहीं-कहीं उन्होंने बोल्शेविक शासन की आलोचना भी की है (निष्ठुर अक्टूबर क्रांति ने मुझे छला.) लगभग यही दौर रहा होगा जब मायकोव्स्की ने भी बोल्शेविक वालों से निराश होकर ‘बेडबग’ नामक व्यंग्य लिखा. एसेनिन द्वारा अपने मित्र अलेक्सांद्र बोरिसोविच कुसिकोव को पेरिस से लिखे एक पत्र में यह दर्द, गुस्सा, नफरत का सैलाब बनकर उभरा है: ‘जब मनमुटाव और चुगली के अलावे क्रांति में कुछ नहीं बचा, जब अपने पूर्व के दुश्मनोें (जिसे वह गोली मारा करते थे) से हाथ मिलाने लगे हों तो मेरे लिए यह साफ हो चुका है कि शिकार को निकले लोगों के लिए हम लोगों (तुम और मैं) की बिसात महज सुअर की होकर रह गयी है. मेरे दोस्त, सुनो जब हम मास्को में थे तो वे हमें बैठने को कुर्सी तक नहीं देते थे. लेकिन अब मैं बुरी तरह हताश हूँ. मैं किस क्रान्ति की पैदाइश हूँ, मैंने यह सोचना छोड़ दिया. मैं सिर्फ यह देखता हूँ कि वह न तो फरवरी क्रांति थी, न ही अक्तूबर क्रांति. वह हमारे दिल में सिर्फ छद्म नवंबर क्रांति थी और आज भी है.’ पेरिस में रहते हुए उन्हें रूस से जिस बात की अपेक्षा थी उसे उन्होंने अपना दुर्भाग्य कहा था ‘यह दुर्गति ही है कि मैं भाग्य की प्रतीक्षा करता हूँ’ बहुत पहले लिखी ‘एक औरत के नाम खत’ कविता में उन्होंने जब कहा कि ‘सच्चाई को सिर्फ फासले से देखा जा सकता है’ तो जैसे वह अपने संदर्भ में रूस को संबोधित कर रहे थे. गोया उनके गुजर जाने के बाद रूस को उनकी अहमियत का अहसास होगा. और हुआ भी.

अगस्त 1917 में अभिनेत्री जिनैदा राइख (बाद में त्सेवोलोद होल्ड की बीवी हो गयी). से दूसरी शादी रचाई. इससे उन्हें तात्याना नाम की बेटी हुई तथा कांस्टंेटिन नामक बेटा पैदा हुआ. कांस्टेंटिन आगे चलकर विख्यात फुटबालर स्कोेरर हुआ. 1918 में कवि ने खुद का प्रकाशन व्यवसाय शुरू किया. प्रकाशन गृह का नाम रखा ‘मास्को लेबर कंपनी आफ द आर्टिस्ट आफ बल्र्ड’. 1921 में चित्रकार अलेक्सेई याकोव्लेव की स्टूडियो में आवाजाही के क्रम में उनकी मुलाकात अमरीकी मूल की पेरिस में रहनेवाली नर्तकी इसाडोरा डंकन से हुई. 17 साल बड़ी इसाडोरा नाम मात्रा की रूसी जानती थी. 2 मई 1922 को शादी रचाई. नवविवाहित दंपत्ति के यूरोप तथा अमरीका प्रवास के दौरान निर्णायक मुकाम आया. यहाँ वे बुरी तरह नशे के आदी हो गये. नशे में हमेशा धुत्त रहते. इस अवस्था में उनके उत्पात से रेस्त्रां के कमरों में टूट-फूट होती रहती. रेस्त्रां के लोग भी परेशान रहने लगे थे. इससे प्रकाशन जगत में उनकी प्रतिष्ठा को भयंकर आघात पहुँचा. डंकन के साथ उनका दांपत्य थोड़े ही दिनों टिका. (60 सालों तक प्रतिबंधित रहे अनातोली मेरिंगोफ के एक संस्मरणात्मक गं्रथ ‘झूठ के बगैर एक उपन्यास’ में यह सम्बन्ध काफी विस्तार और मौलिकता के साथ प्रकट हुआ है) वे 1923 में मास्को आ गये, यहाँ आते ही उन्हें अभिनेत्री आगस्टा मिक्शीश्खेव्स्काया मिल गयी. उसके साथ भी कुछ दिनों का दांपत्य रहा. हालाँकि इसाडोरा से उन्होंने कभी तलाक नहीं लिया. इसी दौरान उनका चक्कर गैलिना बेनिस्लाव्स्काया के साथ भी चला. इसने एसेनिन की मौत के एक साल बाद उन्हीं की कब्र के पास खुदकुशी कर ली.

एसेनिन के व्यवहार में लापरवाही बढ़ती गयी और इन्हीं सालों में कवयित्राी नादेइदा वोल्पिन से अलेक्जेंडर नामक बेटा हुआ. वैसे एसेनिन की जानकारी में यह बात कभी नहीं आ सकी, लेकिन बड़ा होकर यही अलेक्जेंडर एसेनिन वोल्पिन का विख्यात कवि हुआ था तथा सोवियत संघ में 1960 के दशक में आंद्रेई सखारोव व अन्यों के साथ असंतुष्टों के आन्दोलन का नेता बना. बाद में जाकर उसे अमरीकी उदारवादी गणितज्ञ के रूप में ख्याति मिली.

जीवन के आखिरी दो साल पूरी तरह अस्थिरता में बीते तथा इस दौर में सारा वक्त नशा सेवन में डूबा रहा. इस सबके बावजूद इसी दौरान उन्होंने अपनी कुछ विख्यात कविताएँ रचीं. 1925 में चंचल चित्त के एसेनिन की भेंट सोफिया तोल्सताया (लेव तोल्सताय की पोती) से हुई और उससे पाँचवीं शादी हुई. तोल्सताया ने हरसंभव संभालने की कोशिश की. पर पूरी तरह मानसिक रुग्णता के बाद कुछ भी नहीं किया जा सका और उन्हें अस्पताल में माह भर के लिए भर्ती होना पड़ा. अस्पताल से रिहाई के दो दिन बाद ही उन्होंने अपनी कलाई काट ली. इसी खून से उन्होने अपनी अंतिम कविता विदाई लिखी. अगले दिन एंग्लेटेरे के होटल के अपने कमरे की छत गर्म करनेवाली पाइप से टंगकर खुदकुशी कर ली. इस समय उनकी उम्र सिर्फ 30 साल की थी. वैसे कहा तो यह भी जाता है कि उनकी हत्या जीपीयू के एजेंटों ने कर दी थी और उसे खुदकुशी का रूप दे दिया. 1925 में एसेनिन से हुई आकस्मिक मुलाकात के बाद मायकोव्स्की ने लिखा था: ‘...काफी मुश्किल से मैंने एसेनिन को पहचाना. पीने की उसकी जिद बेहद मुश्किल से टाल सका. उसने जिद करते हुए नोटों की गड्डी लहराई थी. दिन भर की उसकी छवि मेरे लिए काफी निराशाजनक लगी. शाम को मैंने अपने संगी-साथियों से उसकी मुमकिन मदद पर विचार-विमर्श किया. दुर्भाग्य से इस दिशा में कोई भी बात नहीं की जा सकी.’ यही कहीं कुछ-कुछ इसी लहजे में इल्या एहरबुर्ग ने भी अपने संस्मरण (‘जनता वर्ष व जीवन’) में एक जगह लिखा है ‘वह सदैव पिछलग्गुओं से घिरे रहते थे. सबसे बुरी बात तो यह होती थी कि इनमें से शायद ही किसी की दिलचस्पी साहित्य में थी. लेकिन इनमें कोई किसी का वोदका पीना चाहता तो कोई किसी की शोहरत के मजे लूटना चाहता और दूसरों की पहचान की ओट में सब कुछ करता. हालाँकि वे तो गुजर गये, पर उन्होंने खुद में उनलोगों को डुबोया. एसेनिन को उनकी कीमत मालूम थी, लेकिन तुच्छ लोगों के साथ होकर वे सहज रहते.’ अनातोली मेरिंगोफ ने अपने विस्तृत संस्मरण में एक जगह लिखा है कि ‘यदि उसने हमलोगों को छोड़ने का फैसला किया है तो इसका मतलब है कि उसने अपनी रचनाशीलता पर से भरोसा खो दिया. उसकी मौत का और कोई कारण हो ही नहीं सकता. क्योंकि कविता को बचाने के सिवा उसके जीवन का कोई मकसद ही नहीं था.’ एसेनिन की रचनाशीलता पर यह मेरिंगोफ का अकेला भरोसा नहीं था. जनप्रतिरोध के साथ खड़े उस दौर के लगभग सभी सर्जकों का उनपर ऐसा ही भरोसा था. मायाकोव्स्की ने ‘सेर्गेई एसेनिन’ शीर्षक अपनी कविता में लिखा है: ‘काश! थोड़ी-सी स्याही उस होटल एंग्लेटेरी में/ तो कोई कारण नहीं था/ नस काट डालने का.’ इस कदर किसी की रचनाशीलता पर भरोसा उसी का हो सकता है जिसने डूबकर उसे देखा हो. ऐसा लगता है जैसे उन्होंने एसेनिन के इस अंत में अपनी नियति देखी थी...नहीं तो फिर क्या कारण था कि वह इस कविता में आगे जाकर कहते: ‘लेकिन सुनो/ क्यों चाहते हो बढ़ाना/ आत्म्हत्याओं की संख्या?’ (पतलून पहना बादल/ अनु. राजेश जोशी). विरल और दुर्भाग्यजनक संयोग है कि मायाकोव्स्की (1893) और मारीना त्स्वेतायेवा (1892) ने भी क्रमशः 1930 में तथा 1934 में आत्महत्या की. कवि ओसिप मंदेलश्ताल ने भी आत्महत्या की कोशिश की थी.

हालाँकि वे अत्यधिक लोकप्रिय रूसी कवियों में शुमार रहे तथा शासन की ओर से राजकीय सम्मान के साथ उन्हें दफनाया गया. लेकिन जोसेफ स्टालिन तथा निकिता खु्रश्चेव के शासनकाल में उनकी अधिकांश रचनाएँ प्रतिबंधित रहीं. इस प्रतिबंध में निकोलाएव बुखारिन की आलोचना का अहम रोल रहा. आसिप मंदेलश्ताम, बोरिस पास्तरनाक, मायाकोव्स्की, मारीना की तरह ही स्टालिन शासन के बाद ही उनकी रचनाओं का पुर्नप्रकाशन संभव हुआ. 1966 में उनकी अधिकांश रचनाएँ प्रकाश में आयीं.

आज एसेनिन की कविताएँ बच्चों की जुबान पर हैं, इनमें से कई तो संगीतबद्ध हैं और लोकप्रिय हो चुकी हैं. असमय मृत्यु, अभिजातों-साहित्यिकों की संवेदनशून्यता, आज जनता का सम्मान, संवेदनशील व्यवहार, इन सबने मिलकर इस रूसी कवि को एक शाश्वत तथा करीब-करीब मिथकीय छवि प्रदान की. जहाँ तक साहित्यिकों की संवेदनशून्यता की बात है तो उसे ओसिप मंदेलस्ताम के उस बयान के आईने में देखना दिलचस्प होगा जिसमें उन्होंने युवा कवियों की रचनाओं को अथक रुदन कहते हुए मायाकोव्स्की की कविता को बचपना तथा मारीना त्स्वेतायेवा की कविता को बेस्वाद हुआ कहा था. ऐसे में उनकी निगाह में एसेनिन की कविता के लिए कौन-सी जगह बचती है. लेकिन एसेनिन अपनी कविताओं के किसानी भावतंत्र को अपनी रचनाशीलता का संस्कार देकर राष्ट्र के भविष्य का सार गढ़ रहे थे. उनके भाष्य में गाँव का चरित्रा पैतृक भूमि के चरित्रा में ढल गया. 1920 में आया उनके एक संग्रह का नाम ‘मैं गाँव का आखिरी कवि हूँ’. इसमें कवि का बड़बोलापन लग सकता है, लेकिन कवियों की प्रौढ़ व सत्ताश्रयी जमात पर नयी पीढ़ी द्वारा फेंके गये हथगोले के रूप में देखना मौजूं होगा. उनके दौर के नये कवि एक तरफ जहाँ अक्मेइज्म व भविष्यवाद में अपने को ढालने को बेताब थे, वहाँ एक कवि का गाँव की ओर रुख करना निश्चय ही उपेक्षा के दंश को आमंत्रित करने की तरह था.

एसेनिन की नयी कविताएँ तो रूसी लोकगीतों की परंपरा में शामिल हो गयी है.
(कथादेश, जुलाई 2010)