हमसफर

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

तहखाने से

मेरे पाकेट में पैसा



सेठ के गल्ले में पैसा
खून से लथपथ
हड्डियों से घिरा लगता हो
पर मेरे पाकेट में आते ही
इस पर
टाफी को रोता बच्चा होता है
क्लिप-सिंदुर को कुनमुनाती बीवी होती है
सूनी अंगीठी, लुढ़की शीशी, खाली कनस्तर,..
पूरी गरमी के साथ पाकेट जलाते हुए।
यहां वो मक्खियां नहीं होतीं
सेठ के गल्ले में चौगिर्द
जैसे कोढ़ पर।

पैसा
पाकेट में नहीं
पैसे पर बैठ
हिचकोले खाने लगता हूं
और लू पीते हुए भी मुझे
आईसक्रीम नहीं दिखती इस पर
कुल्फी नहीं, लस्सी नहीं, पिक्चर भी नहीं

हां
बहते हुए पैसे में
लाचारगी के लहू जरूर देखता हूं

मेरे पाकेट में पैसा
पैसा नहीं
अनब्याही इच्छाओं से
बुढ़ाई जरूरतों का बलात्कार रह जाता है
रोशनी का गर्भपात
दबे पांव आकर
लौटते सपने...
मेरे पाकेट में पैसा
पैसा नहीं रहता सिर्फ।
(राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका मधुमती/ अक्तूबर 1988 )



डरना



डरे हुओं के पास
जहर होता है खिलाने को
खाने/ फिर खिलाने को

डरते हैं
जो करोड़ों पेट पर लात रखते हुए बढ़ते हैं
और सौंपते हैं नदी को
सैकड़ों टन अनाज

डरते हैं
जो सैकड़ों अनमोल खिलखिलाहट के बदले
एक सर्पाकार हंसी रखते हैं जेब में।

डरते हैं
जो संघर्ष की कीमत में
फाहे सा फफूंद लगा मरहम सुझाते हैं
डरें कैसे नहीं
जो जीते हैं
लाखों – करोड़ों के बदले !

डरते हैं उनसे
जो जानते हैं
हवा को ठूंसकर,
आकाश को लपेटकर
नहीं भरा जा सकता है
चमचमाती सुनहली पेटियों में

डरते हैं उनसे
जो बाईबिल- कुरान में
रामायण- पुराण में
निस्पंद लेटने को तैयार नहीं

डरें कैसे नहीं
जो राक्षस बन चुके पूरी तरह।

राक्षस डरते हैं उनसे
जो खुद पकते हैं / सीझते हैं / जाने कितनी आग पर
पकाने को चावल न होने पर

डरें वो सच से
जिसे भगवान के भौंडेपन की निस्तेज निगाहें
झेल तो नहीं पातीं
मगर जरूर दिखाती हैं
खूनी गुफा की ओर बढ़े रास्ते
दिल में दीमकों का ढेर हो तो
डरना ही पड़ता है सूरज से
डरना लाजिमी है उनसे
जिनकी झोली में डर नहीं
डरना निहायत जरूरी है
राक्षस बने रहने के लिए।

(राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका मधुमती/ अक्तूबर 1989)


पर्दे पर




पर्दे पर छाया है थूक एक स्त्री का
लहू के तालाब हैं चारों ओर
पर मांसल और उत्तेजक स्त्री होने के कारण
उसके थूक पर मुग्ध है कैमरामैन
और फोकस में वह तालाब गायब हो जाता है

दुःख के नाड़े से जो दुनिया बंधी है
वह एक धागे – सी दिखती है और नहीं भी
जब उसकी स्कर्ट पर फोकस जाता है
तो वह आसमान बन जाती है पर्दे पर


वह ब्रह्मांड सुंदरी, विश्व सुंदरी और न जाने
क्या-क्या रह चुकी है
और उसके लिए एक गठीला नायक पागल हो चुका है
और एक अपराधी

वह माल बन चुकी है पर्दों के लिए
पागल यदि पड़ोस में लड़ता है
तो छा जाती है वह पर्दे पर
अपराधी कहीं उलझता है
तो कैमरा अंधा हो जाता है उसे खोजते-खोजते

कैमरा उसके आंसू और पसीना नहीं देखता
वह नहीं देखता उसके क्षत-विक्षत सपने
वह सिर्फ अंगों की गोलाई देख पाता है
पर्दे पर उसके लब धमाके शक्ल में फुसफुसाते हैं
कि इराकियों का मर्सिया और चीत्कार और
बगदाद की झोपड़ी की किलकारी
चींटियों की तरह रेंगती लगती है
उसके प्रहार से बचने के लिए
रास्ता तलाशते हैं कराहते दुःख
खून से लथपथ इराक से जब सन गई आतंकित दुनिया
और सिनेमा के सारे दुःख उतार दिए गए पर्दे पर
तो आईमैक्स कि विशाल पर्दे पर वह तिल रखने की जगह नहीं ले पाता
जो दिखता है जीवन में हर जगह
नहीं दिखता उस पर्दे पर जहां
उस मांसल और उत्तेजक स्त्री की गाड़ी से टकराता पेड़
दिखाई देता है


दुखों के सागर में डूबती दुनिया
उस स्त्री के घाव, उसका पसीना
कुछ नहीं दिखता जब उसके अंगों की गोलाई
और उघड़ी जांघें मिल जाती है केमरे को

(कथादेश/नवंबर 2004)

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

तहखाने से

जीवन

जीवन तब भी था
जब हमारे पास आग नहीं थी
पहिया भी नहीं
और नहीं थी खंड-खंड करती इच्छाएं

नदी-पोखर, खेत-खलिहान, पुरखों की गांठ
इतनी ढीली नहीं पड़ी थी
कि बिलबिलाते इथोपियाओं को छोड़
अमरीका की तरह दुरगम परदेश में बिला जाते

रहस्य की तलाश में
आदमी से कटकर
भटक गए समय का
मंगल अभियान नहीं था जीवन

जब बांझ गुस्से का इजहार हो चुकी हो संसद
जहां मेरी ही मुट्ठी व बटुए
इस्तेमाल किए गए
तमाचे की तरह मुझपर
धकियाया गया था जिसे
कुर्सी उसे मिली
यह भी जीवन है
भ्रष्टाचार के संरक्षण में
जी रहे समय का

यह भी जीवन है कि
रिमोट पर जीता शयन-कक्ष
कुर्सी का गुरुत्वकेंद्र बनता है
और बन जाता है
युद्ध का संचालन केंद्र

जीवन किवाड़ है
मानवी खोहों के बीच अंटका

अपने-अपने अगले मौसम के लिए
जीते हैं जैसे ऊंट, कछुआ, मेढ़क
जीवन भी पोषण के इंतजार में
धैर्य नहीं खोता।


रोटी

(एक)

रोटी हमारे हाथ में आने से पहले
गुजर चुकती है हम में से
गुस्सैल पराजित नदी-सी

चूल्हों पर चढञने से पहले
छा जाती है घर पर
स्वप्नवाही गंध की तरह

रोटी खाने से पहले
खा चुका होता है बच्चा
अपने हिस्से का वसंत

गटक जाता है युवक
चिलचिलाती धूप में
सूखते सपनों का सागर

पी जाती है पीड़ाओं का गंगाजल
रोटी तोड़ती औरतें

रोटी तोड़ती औरतें
टूट-टूट जुड़ती हैं
झेलती हैं देह भर
रोटियां मन-मन

(दो)

दुनिया, बाजार, लोग,...
सारी चीजें रिसती हैं बूंद-बूंद
रोटी के सुराख से इस तरह
कि दीवार ढहने के भय के साथ
चेहरों के प्लास्टर भरभरा जाते हैं

फटते हैं रोटी पर लिपटे गणित के पन्ने
रोटी पर तैनात रहते हैं
भरपूर गोचर-अगोचर संगीनधारी
जो निर्वस्त्र भूख में मरते हैं
दागदार रोटियां घर करती हैं उन में

रोटी खाते हुओं को चबा जाती है रोटी
सरहदें कुतर जाने के बाद
रोटी का सिलसिला खत्म नहीं हो जाता
रोटी खा लेने भर से
रोटी की रेल नींद में भी दौड़ती है
जैसे बुढ़ापे में बचपन
अगली सदी की करवटें
ऊंघती सदी में।


(समकालीन भारतीय साहित्य/मार्च-अप्रैल 1998 में प्रकाशित)

लड़की

जैसे हम अपने तलुए देखते हैं
उसकी जांघें सहलाते हैं
नितंबों को थपथपाते हैं खुले में
अपने स्तन का घाव का दर्द
उसकी आंखों दिखना तो दूर
पीठ के खरोंच तक नहीं देख सकती

खुले में यह सोचकर वह सिहर उठती है वह
क्योंकि मल्लिका सेरावत और राखी सावंत नहीं,
अपनी पीठ की खरोंच तक देखने के लिए
खिड़की दरवाजे बना लेती है अंगोपांग को
और आंखें चिपक जाती हैं दसों दिशाओं पर
‘खतों में कलेजा’ को झोंककर चूल्हों पर रसोई बनाती है
तो धुआं और चेहरे के बीच
पिघलती बर्फ नहीं दिखती, अपनी नागरिकताओं से वंचित
वह नहीं बोल पाती अपनी जबान
अपनी हंसी नहीं हंस पाती
कबका भूल चुकी है अपना रोना
अकेले में खुद को खटखटाकर
खौफनाक गलियों में गुजरती है वह।

मां की शिक्षा

मांओं ने हमें
कलम, कमल और न जाने कितने शब्द
खाने को भूलकर, नहाने को टालकर
इसलिए नहीं सिखाए होंगे कि
हम किसी के दिलो-दिमाग में सुराख करें कलम से
कमल से हम किसी मूरत को खरोंचें
और दूध पीकर खूल बहाएं,

मांओं ने नहीं सोचा होगा
त्याग और धैर्य, कष्ट और तप से सींचे गए असंख्य शब्द
उसी के शरीर पर कोड़े की तरह पड़ेंगे
अपने खून से सींचे गए, पोसे गए शब्दों को
जब आग में झुलसते देखती होगी मांएं
तो क्या गुजरता होगा, मांएं ही जानती हैं।
पढ़े-लिखे बड़े हो गए बच्चों को यह समझ न आएगी।

हमारे छुटपन में सिखाए शब्द ही हैं
कभी हिजड़े उसे ले जाते हैं अपनी गली
उससे खेलते-ठठाते हैं

तो कभी खद्दरधारी मसखरा करते हैं
उन शब्दों का गला घोंटते हैं
जैसे मूक मजदूरों का बोनस, तनख्वाह हो

मांएं किस तरह अबूझ लगने वाले शब्दों को
हमारे स्मृतिगर्भ में डालती हैं
यह उसके आंसू, हंसी या मौन में छिपा है
चुप्पी की गहराई में तैरते
खुशी की हवा में लहराते
अबूझ शब्दों ने खोली
अपनी अर्थपेटियां
मांओं के सिखाए गए असंख्य शब्द
उनके ही बदन पर कोड़े की तरह बरसते हैं
तो मांएं ही हैं जो
आज भी हमें कलम, कमल, प्रेम और न जाने कितने शब्द
सिखाने में लगी हैं।


काबुल से बगदाद

काबुल और बगदाद से खुली गाड़ी
कहां रुकेगी
यूएनओ के ढहते गुंबदों से आती है फुसफुसाहट

बहुत भोले हैं वे जिन्हें इस गाड़ी का धुआं
दूसरे किसी देश के किसी प्रांत के किसी गांव में नहीं दिखता
कुली का काम पा जाने की लालच में
उस धुएं का प्रदूषण नहीं दिखता
नहीं जानते कि यह गाड़ी
रेडियो वेव के वेग से चलती है

शायद यह धुआं ही इतना छा गया कि पार का नजारा
नहीं दिखता कमजोर आंखों को

वे नहीं जानते कि यह गाड़ी पटरी पर नहीं चलती
इसलिए जितना डर बैंकों को लुट जाने क है
उतनी ही आशंका खेत-खलिहानों के रौंदे जाने की भी है
कभी भी कुचली जा सकती है पेड़ के नीचे चलती पाठशाला
और कभी भी पांच सितारा होटल मिट्टी के ढेर में बदल सकता है
हारमोनियम और मृदंगों पर हांफते
चैता और रउगपति राघव...कभी भी गुम हो सकते हैं सिंथेसाइजर में
और कभी भी जेनिफर लोपेज, ब्रिटनी स्पीयर बनती बालाएं
मिट सकती हैं
खतरा जब एक जैसा हो हर जगह
तो बचने के अलग-अलग रास्ते
और भी खतरनाक हो जाते हैं।

(पटना से प्रकाशित गणादेश साप्ताहिक के वार्षिक अंक 2009 में प्रकाशित)


जो बचा है खत्म होने से


(एक)
जहां मूर्तियां खरोंचने वाले हाथों में कूंचियां हैं
हमारे दुधमुंहें सपने छटपटाते हैं वहीं-कहीं
भोजन, वस्त्र और आवास के बिना
छोटी होती हुई ओझल हो गई पृथ्वी
अपने चांद-सितारों के साथ हमारी नजरों में
कि हम इतने ऊंचे उठ गए
हम वहां पहुंच गए हैं
खुरदुरी त्वचा वाली सभ्यता को लेकर
जहां सात आसमान पर जीवन की खोज जारी है
और जीवाश्मों में पूर्वजों की
जहां के पर्यावरण के ताप-दाब
द्रवों को रहने की इजाजत नहीं देते
फूट-फूटकर रोने की स्थिति में
हमारे आंसू नहीं रहे हमारे साथ
प्रकाश वर्षों की इस यात्रा में बिछुड़ गए आंसू
कहीं गड्ढे में अपना सागर तलाश रहे।

( दो )
सेकेंड की सुई पर सवार इस समय ने
दिन और महीने के हिसाब छीन लिया
ऋषि-मुनियों की कामनाएं उदरस्थ कर गए हे सभ्यता पुरुषों !
कुछ करो उपाय
कि पृथ्वी ही पृथ्वी रहे हमारे स्वप्नों में
गाएं हम गीत तो पृथ्वी के
देखें हम स्वप्न तो पृथ्वी के हे कलाकार !
रंगो पृथ्वी को पृथ्वी से !


2006 में कच्चू और शकरकंद

अब कच्चू को कच्चू की तरह नहीं देख सकते आप
नहीं कह सकते – कच्चू खाएगा ?
शकरकंद कहकर गाली भी नहीं दे सकते किसी को
बाजार के सिरमौर हो गए सब
कैसे न हो, बीवी को भरोसा न पानेवाले
अब दुनिया को शीतल पेय की गारंटी देते फिर रहे हैं
रौनक हो गए हैं गल्ले की
अब ये हाट से आ गए बाजार में
हो सकता है पाउचों में समा जाएं नया भेस लेकर

गदहा कहें तो पीटे जा सकते हैं
यह एक विजयी उम्मीदवार का चुनाव चिह्न है
उनके टामी को कुत्ता कहकर देख लें
बोलना भूलकर भौंकने लग जाएंगे
उतना ही खतरनाक हो गया है
कच्चू और शकरकंद लगाकर गाली देना
मेमें अपने हाथों से छीलती हैं कच्चू और शकरकंद
ठीक ही तो बाबू लोग अब ले जाने लगे हैं शकरकंद
अपने बास को खुश करने।

अब तो हाट की चीफ गेस्ट हो गए हैं
बड़े नाज-नखरे हो गए हैं इनके
पटल 16 रुपए, कच्चू 14 रुपए
टमाटर 16 रुपए, शकरकंद 18 रुपए
किसी का भी कान काट दें ये

अब आप ही कहें भला
कौन कहेगा कच्चू को कच्चू
और कौन शामत मोल ले शकरकंद की गाली देकर
अब आप किसी को लल्लू भी तो नहीं कह सकते।

समाचारों की दुखद घड़ी

बिग बी के बीमार पड़ जाने से
पूरा बालीवुड आईसीयू में भर्ती है
मंत्रियों की फौज अपना मुंह दिखाने में लगी है
नेताओं की कतार गुलदस्ता लेकर खड़ी है
भीषण दुःख की इस घड़ी में पूरा देश स्वास्थ्य कामना में
एक पांव पर खड़ा है
कैमरामैन को फुरसत नहीं, रिपोर्टर किनकी बाईट ले
बस आज का समाचार इतना ही।

ऐश्वर्या के गले में खराश है
ऐसे में आज समाचार पढ़ना शिष्टाचार के खिलाफ होगा।

इन खबरों के प्रायोजन में
विज्ञापनों की झड़ी लग गई
यह कंपनियों की ओर से शुभकामना और हमदर्दी है।
इसे बटोरने में कैमरे का शीशा टूट गया
और रिपोर्टर के बीमार पड़ जाने से
आत्महत्या करनेवाले किसानों के घर
और परिजनों की पीड़ा नहीं दिखाई जा सकी
इस भारी अफसोस में डूबे चैनलों पर
सारा दिन फैशन शो की बाढ़ रही।

(समकालीन भारतीय साहित्य माच-अप्रैल 2009 में प्रकाशित)

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

टिप्पणियों से

औचित्य

सामाजिक चिंताओं अपेक्षाओं से मुक्त संस्कृतिकर्म अंततः वायवी होकर विलास में तब्दील हो जाते हैं। कला की स्वायत्ता के नाम पर भी इस हद को लांघने की इजाजत नहीं होनी चाहिए। और धर्म जैसी नाजुक चीजों से छेड़छाड़ तो तभी संभव है जब वह अपनी गलित संलग्नताओं, संलिप्तताओं व संकीर्णताओं से उबरने के लिए आत्मसंघर्ष को हम स्वीकारें। मकबर फिदा हुसैन की मिथकों से छेड़छाड़ की पुरानी शगल रही है। टोटलिटी में देखने से स्पष्ट होता है कि यह कला की स्वच्छंदता नहीं, यह उनकी स्वेच्छाचारिता और स्वैर है।
आजकल जिसके औचित्य को सिद्ध करने के लिए पेशेवर नैतिकता प्रोफेशनल मोरेलिटी को ढाल की तरह इस्तेमाल किया जाता है, कला भी इसी हथियार का इस्तेमाल करने लगी है। जब वह विकृतियों को ढोने का डस्टबिन बनना स्वीकार कर लेती है तो उसकी बाध्यता हो जाती है अपने वायवी सरोकारों की रक्षा करना।
एमएफ हुसैन यूं ही ‘माधुरी फिदा हुसैन’ नहीं बने। अपनी कला के लिए जिन सरोकारो के निष्कर्ष से वह ‘माधुरी सौंदर्य शास्त्र’ तक पहुंचते हैं, वही कला को मित्तलों की वाल पेंटिंग बनना मंजूर कर सकते हैं। दीवार की पपड़ियों जितनी जिस कला की उम्र हो वह यदि कौड़ियों के लिए अपनी कला को समर्पित करे, तो उसकी सामाजिक अपेक्षाएं कैसी भी हों इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। संस्कृतिकर्म यदि साधना नहीं बने तो हमारे संस्कार को परिमार्जित करने की क्षमता उसमें नहीं आती। और जब कलाकार तक के संस्कार परिमार्जित न हों तो उससे उच्चतर जीवन मूल्यों की निष्ठा की अपेक्षा ही फिजूल है।
कोई मंदिर में प्रवेश करते समय चप्पल यूं ही नहीं खोल देता है, यह सांसारिक लालसाओं, लिप्तताओं, संलग्नताओं से मुक्ति की उसकी भौतिक चेष्टा है. जो प्रतीकवत है। लेकिन अस्सी साला हुसौन कला की साधना करते – करते फूहड़ प्रतिमाओं के सान्निध्य से अपने को धन्य मानने लगें तो कला की खैरियत नहीं।
कला की इस दुर्दशा पर जहां बुद्धिजीवियों व संस्कृतिकर्मियों को उत्तेजित होना चाहिए था, वहां राजनीति को शिरकत करनी पड़ी। और शिवसेना का यह हस्तक्षेप बुरा लगता है तो सिर्फ इसलिए कि ‘समाज’ के उस तबका का चुप रहना, निष्क्रिय रहना हमें बुरा नहीं लगा। राजनीति यूं ही सर्वग्रासी नहीं बनी। सबने मिलकर उसके लिए माकूल अवसर बनाए। यही कारण है कि सत्ता का समीकरण बना रही राजनीति किसी भी विवाद का राजनीतिकरण करने से बाज नहीं आती। यह समय है इन्हीं तथाकथित प्रबुद्धों के छद्म आभिजात्य के प्रपंचों, तिलिस्मों को जानने-गुनने का।
हुसैन ने जब मिथकों का उपहास उड़ाया तो उनकी यह विलास दृष्टि इस्लामी गलित मिथकों-परंपराओं के गुहांधकारों में क्यों नहीं गई ? वहां भी कई गलित परंपराएं- संस्कार आज भी पूरी ताकत के साथ मौजूद हैं। वहां हुसैन की निगाह नहीं जाती। वह भारतीयों की सहिष्णुता, उदारता का बाजारू इस्तेमाल की मंशा कला में प्रयोग (उपभोग) करते हैं। उन्होंने जब ‘सरस्वती’ के साथ ऐसा सलूका किया था तब भी हाय-तौबा मचा था, लेकिन माफीनामे का राग तब सुनने में नहीं आया। लेकिन उन्होंने आज यदि ‘सीता’ के साथ बदसलूकी को कबूला है और माफी मांगी है तो तो इसमें कहीं भी कलाकार के सामाजिक धर्म के नाते नहीं, बस एक बाजारू दबाब सक्रिय था। ‘माधुरी’ केंद्रित अपनी फिल्म गजगामिनी की शूटिंग ठप पड़ी थी शिवसेना की बंदिशों से। और उनकी माफी से शूटिंग का वह बंद द्वार खुल गया। जीवन की परिवर्तनशील सरोकारों से जुड़कर कला क्या ऐसी ही क्रांतिधर्मी चेतना से युक्त होगी, जिसकी कोई सामाजिक अपेक्षाएं न हों। हो तो बस व्यक्तिगत स्वेच्छाचारी लालसाएं और बर्बर कुंठाओं का विस्फोट।


(1995 में बिहार आब्जर्वर के लिए लिखी टिप्पणी)