हमसफर

सोमवार, 16 अगस्त 2010

यशवंत जी ऐसी नहीं होती पत्रकारिता!

भड़ास 4 मीडिया पर साईट के कर्ताधर्ता यशवंत ने 10 अगस्त 2010 के अपने पोस्ट में जिस तरह राघवेंद्र जी के भास्कर ज्वाइन करने पर भड़ास निकाली है, उससे लगता है उनका निवाला छिन गया, अन्यथा कोई कारण नहीं कि एक वस्तुनिष्ठ मुद्दे को निहायत निजी खुन्नस भरे अंदाज में पेश किया है – ‘एक संपादक की बेवफाई’ शीषक से। वैसे भी यशवंत जी की इस पत्रकारिता का जवाब निकलना चाहिए। महानगरों में बैठे ब्लागर और साइटकार इसमें कुछ नहीं कर सकते। मैं इस मसले को लेकर पाठकों की राय आमंत्रित करता हूं। ऐसी छापामार पत्रकारिता के खिलाफ एक माहौल बनना चाहिए।

नहीं मालूम यशवंत जी कौन सी पत्रकारिता कर रहे हैं। क्या मकसद है और कोई मर्यादा भी है या नहीं इस छापामार पत्रकारिता का। कम से कम खबरों के बीच छूट रहे स्पेस की अंतर्कथाओं को तो गुनते। आपको पत्रकारों की पैरोकारी करनी है या प्रबंधन का पक्ष रखना है कुछ भी स्पष्ट नहीं। गुस्ताखी के साथ यह बात कहनी पड़ रही है। पत्रकारिता की खुफियागीरी या सेंधमारी से कौन सी पत्रकारिता क्या हासिल कर लेगी। आखिर ऐसी रिपोर्टो-प्रतिक्रियाओं की जिम्मेवारी कौन वहन करेगा जो अनाम छपती हैं। आखिर कौन सी पत्रकारिता को वे बढ़ावा दे रहे हैं।
कुछ दिनों पहले जिस हरिवंश जी और प्रभात खबर की जमकर खिचाई यशवंत जी ने की थी, 10 अगस्त के उक्त पोस्ट में उन्हें डिफेंड करने के लिए अपने हिसाब से एक पत्रकार को नंगा करने की कोशिश की। नहीं मालूम, पत्रकार बिरादरी के लिए यशवंत जी ने कितना क्या किया है, पर राघवेंद्र हैं कि प्रभात खबर से बाहर होकर उन्होंने उनका साथ निभाने के अपराध में जिन लोगों को बेघर किया गया उनके लिए अपने निहायत निजी जीवन को संकट में डालकर जी-जान लगाई। यह अलग बात है कि फिनांसर कमजोर निकला और पत्रिका अधिक नहीं चल सकी। इन पंक्तियों को लिखनेवाला प्रभात खबर से निकाला नहीं गया था, पर अनप्रोफेशनल एटीच्यूड के प्रति मुख्यालय की संपादकीय लापरवाही से आजीज आकर प्रभात खबर की नौकरी छोड़ी। राघवेंद्र जी के छोड़ने के बाद की बात है यह। फिर उनके साथ उनकी पत्रिका में हो लिया। पत्रिका से उनकी रुखसती के बाद मैंने पत्रिका चलाई और अपनी असहायता और दुर्दशाओं से पीडि़त होकर पत्रिका में राघवेंद्र जी के खिलाफ छापा भी। हरिवंश जी के प्रति मेरी श्रद्धा कभी कमी नहीं। प्रभात खबर को छो़ड़ने के बाद दुबारा मुझे बुलाकर मेरी परीक्षा (लिखित के साथ हर तरह की) ली गई। और परीक्षा उस व्यक्ति ने ली जो कभी मेरे समांतर कलकत्ते में था। बहुत छिछोरे अंदाज में वह (जिसने हरिवंश जी के बेतहाशा भरोसे को तोड़ा) मुझे अन्यत्र भेजने को तैयार हो गए। मैं नहीं गया। फिर हरिवंश जी के बुलावे पर मैं गया और क्विंटल भर की आश्वस्ति-प्रशस्ति लेकर लौटा। इस बार उन महोदय को हिदायत दी गई कि इस बार यह (मैं) हाथ से जाए नहीं। जहां भी दो, प्रभारी बनाकर दो। लेकिन सज्जन को मुझसे न जाने कौन सी खुन्नस थी, उन्होंने कोई रुकावट डाल दी।
मैं यह सब इसलिए बोल रहा हूं कि मैं राघवेंद्र जी का दलाल नहीं और हरिवंश जी का अंधभक्त नहीं। देश में क्षेत्रीय पत्रकारिता के मान-मूल्य रचनेवालों में बहुत ऊपर हैं वह। पर हरिवंश जी ने जिन चार-पांच पत्रकारों को सींचा, वे सब आज उनके साथ नहीं। नहीं मालूम यह सेलेक्शन का दोष है या...आज मैं सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय हूं, खुश हूं। मीडिया में वापसी नहीं चाहता।
प्रभात खबर की दूसरी पारी से पहले राघवेंद्र जी को कम से कम तीन बार आफर मिल चुके थे। लेकिन अपनी तरह की धार की पत्रकारिता (आक्रामकता का) करने वाले राघवेंद्र जी को अपने लायक माहौल बनता नहीं दीखा। उनकी खासियत को उनके विरोधी खेमे के पत्रकार भी कबूलते हैं कि बिहार-झारखंड में इस मजबूती के साथ अपनी पत्रकार टोली-बिरादरी का साथ देनेवाला कोई और नहीं। प्रभात खबर को जो छवि और प्रसार उस दौर में मिला फिर वह सपना रहा। उसके बाद से धनबाद संस्करण में चार साल में छह प्रभारी-संपादक आ गए। रही बात प्रभात खबर छोड़कर चुपके-चुपके भास्कर जाने की, तो यह आपके भड़ास में नहीं समाया हो, पर वे भास्कर की प्राथमिकता में बहुत दिनों से थे। और क्षेत्र में लोग यह जानते थे। उच्च पदों पर आसीन लोगों की फजीहत अखबारों में किस तरह हो रही है इसे यशवंत जी बखूबी जान रहे हैं। दर्जनों उदाहरण है कि प्रावधान के बावजूद बगैर पूर्व सूचना के मुअत्तली की नोटिस थमा दी जा रही है। यदि प्रोफेशनलिज्म की भाषा में यह टेकनिकल स्किल है और तर्क है कि बाजार में उपलब्ध बेस्ट आप्शन से वह वंचित क्यों रहे। तो यह व्यक्ति के तौर पर पत्रकार भी हक मिलना चाहिए। यह प्रतिष्ठान के लिए तो चलेगा, पर एक पत्रकार जब अपने भविष्य को लेकर ऐसा कोई फैसला लेता है तो क्यों नागवार हो जाता है? एक अखबार के लिए संपादक या पत्रकार का आप्शन पाना मुश्किल नहीं, पर एक संपादक या पत्रकार के लिए अखबार का आप्शन ढूंढ लेना बहुत मुश्किल है। ऐसे में न्यायसंगत क्या है। यदि राघवेंद्र जी बताकर चले जाते तो प्रतिबद्धता और ईमानदारी बची रह जाती और बिना बताए चले गए तो सारी प्रतिबद्धता और ईमानदारी पल भर में छूमंतर हो गई। यह कैसी छुईमुई शुचिता है। दरअसल बाजार में निष्ठा का कोई मोल नहीं है। जिस कारपोरेट हथकंडा से पत्रकारीय बिरादरी को उजाड़ा जा रहा है, उसके खिलाफ खड़े नहीं हुए तो किस जगह खड़े हो उजाड़ का नजारा देखेंगे, वह भी नहीं मिलेगी। लड़ाई में बने रहने के लिए सर्वाइल का सवाल बड़ा है। इसे समझना होगा। यह मैं हरिवंश जी के विरोध में नहीं कह रहा। वह एक पत्रकार के दर्द को जिस तरह समझ रहे हैं बहुत कम लोग होंगे इसे समझनेवाले। वे बाजारवाद के दौर में वे खुद बदलाव की बात व अपेक्षा करते हैं। यह दुष्कर और क्रूर हो रहे तंत्र के खिलाफ खड़े होने की बात है। आखिर आप इतने सशक्त नहीं कि खुलकर लड़ने की स्थिति हो। आप इतने ताकतवर नहीं कि कंपनी से लड़कर सौ पत्रकार को रोजी रोटी दिला दें। आखिर कोई रास्ता तो निकालना ही होगा। किसी को आगे आना ही होगा। धारा के खिलाफ चलनेवाले गाली खाएंगे ही। यदि अखबार कहता है कि उसे कुछ पता नहीं था तो यह उसका भोलापन है। और भोलेपन का कोई जवाब नहीं।
आज कितने संपादक हैं जो प्रभात खबर की प्रिंटलाईन में हरिवंश जी धार को कुंद करने का काम कर रहे हैं और और निरंतर उसके मान मूल्यों को गिराने का काम कर रहे हैं। कोई माफिया के महिमामंडन में सपरिवार प्रभात खबर के पन्ने रंग रहा है तो कोई प्रभात खबर से बनी साख की सीढ़ी से खेल का खेल कर रहा है। वह भी सपरिवार। सूचना आयोग में जगह पाने में कैसे के लिए घराना काम आता है और कैसे किसी को हतोत्साहित किया गया, किसी से छिपा नहीं रहा। इसके दर्जनों उदाहरण हैं। हर तरह की दलाली में संलग्न हैं। शायद यशवंत जी भी जान रहे हों।
यशवंत जी इसमें क्या जायज होना चाहिए आप चुनें। किसी जमाने के नामचीन पत्रकार विनोद कुमार, दिग्गज शायरों के साथ मंच शेयर करनेवाले और कमलेश्वर की ‘गंगा’ पत्रिका में अंधविश्वास को गंगास्नान करानेवाले अच्छे-खासे पत्रकार देवेंद्र गौतम, नवोदित जुझारू पत्रकार दीपक शर्मा, धनबाद के नामचीन खेल पत्रकार विजय सिन्हा का कौन सा दोष था कि उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। और किसी ने अकुशल प्रबंधन की मनमानी पर ब्रेक नहीं लगाई। प्रबंधकीय या संपादकीय स्वेच्छाचारिता के कारण जब दर्जनों पत्रकार सड़क पर आ जाते हैं तो आप किसी प्रबंधन को इस अंदाज में कोसते हैं? राघवेंद्र जी के संदर्भ में आपने जिस भाषा का इस्तेमाल किया है, वह कहीं से शालीन नहीं कही जा सकती। हां, ऐसे रुख से एक खेमा को खुश जरूर किया जा सकता है। लेकिन इसका हासिल क्या होगा। किस पत्रकारीय सरोकार को बल मिलेगा ?

मीडिया का रीतिकाल

(एक पत्रकार की डायरी के धुंधले पन्ने से)

(यह पिछले पोस्ट का आंशिक संशोधित रूप है।)
यह सही है कि इस बाजारवादी दौर की स्पर्द्धा में टिके रहने के मकसद से अखबारों के लिए अधिकाधिक विज्ञापन बटोरना ही एक मात्र ध्येय रह गया है। समाचार की गुणवत्ता और पत्रकारिता के मानक से इस पत्रकारिता का कोई सरोकार नहीं रह गया है। कोई भी अखबार घराना चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, यह उसके सर्वाइवल के सवाल से जुड़ गया है। अच्छी खबर और असरदार खबर एक दुर्घटना की तरह सामने आता है। विषहीन खबरें ही एक्सक्लूसिव का दर्जा पा रही हैं। खबर का पहला और आखिरी मानक यही है कि खबर से अखबार या अखबार के संरक्षक-पोषक का वित्तीय हित जोखिम में नहीं पड़ रहा हो। और ऐसे में वह एक्सक्लूसिव हो रही हो तो हो जाए! किसका क्या बिगड़ता है। इस रस्ते चलकर अखबार के ऐड सर्वर बन कर यल्लो पेज बन जाने का खतरा बढ़ जाएगा। फिर सवाल उठेगा कि यल्लो पेज ही क्यों नहीं ? अखबार की क्या जरूबरत?

आए थे हरिभजन को ओटन लगे कपास
इसी के साथ आहिस्ते-आहिस्ते एक चुनौती भी प्रवेश करेगी, जिसकी चिंता फिलहाल हिंदी प्रिंट मीडिया को नहीं है। अद्यतन तकनीकों के इस्तेमाल के साथ निकलनेवाले अखबार आज जिन बाजारवादी हथकंडों को अपना रहे हैं, विदेशी अखबार बाजार ने कब का उसे तौबा कर दिया है। विज्ञापन की रेट बढ़ाने के लिए अखबार के प्रसार को बढ़ाने जो तरीका है पीसीसी के जरिए, स्कीमों के जरिए वह अखबार को मीडिया प्रोडक्ट से हटाकर उपभोक्ता सामान बनाकर छोड़ेगा। अब पाठकों को ग्राहक बनाया जा रहा है तरह-तरह के पैकेज में बांधकर। यह सब इसलिए ठीक कहा जा सकता है कि यह एक व्यवसाय हो चुका है। पर इसे अखबार घराने घोषित रूप से कबूलते नहीं। ढिंढोरा पीटते हैं मानक और पत्रकारीय सरोकार और मान-मूल्यों का। यहां विज्ञापन की चिंता और बाजार को लुभाने की जितनी चिंता होती है उतनी चिंता कारपोरेट लेवल पर खबरों के लिए समाचारधर्मिता की नहीं होती। जैसे एसाईनमेंट पत्रकारों को या संपादकों को दिए जा रहे हैं वे लाइजनिंग और नेटवर्किंग के होते हैं और ठेठ में कहें तो दलाली के होते हैं। इस दरम्यान विचार-चिंतन का स्पेस मरता जा रहा है या फिर धीरे-धीरे मारा जा रहा है। स्वाभाविक है कि हिंदी अखबारों ने सोचना लगभग छोड़ दिया है। शायद यही कारण है कि विचार अब अखबार के लिए गैरजरूरी हो गए हैं। क्या समाचार संपादक, राजनीतिक संपादक और विचार संपादक की पृथक सत्ता इसे साबित नहीं करती।


न ये चांद होगा न तारे ये होंगे यानी पत्रकार-संपादक जैसे शब्द खो जाएंगे
बाजार अपने प्रयोजन के लिए जिस अंदाज में सारे उपक्रम कर / करवा रहा है इसे संपादकों की विद्वदमंडली नहीं समझ रही है, ऐसा नहीं। बस कारपोरेट मकसद को पूरा करने का एक तामझाम भर रह गया है। सभी अपने कारपोरेट मकसद साधने के यज्ञ में लगे हुए हैं। जिस दूरी तक यह यज्ञ मकसद साध रहा है, साथ हैं। और दूसरी बात लाख-दो लाख (प्रधान संपादकों के वेतन) किसे बुरा लगेगा। इसमें अपना क्या जाता है। करवा लो जो करवाना है। ... बाजारवाद के जिस मारक दौर में अखबार व्यावसायिक घरानों के व्यापार संपादन (बिजनेस एडिट) के लिए निकलते हैं और समाचार प्रबंध किए जाने लगे हैं, उसे देखकर कहना बुरा नहीं कि संपादक का काम समाचार का प्रबंधन (मैनेज) और मालिक का काम व्यवसाय का संपादन (बिजनेस एडिट) करवाना रह गया है। नहीं मालूम बड़े घरानों के मुख्य / प्रधान संपादक का काम इससे इतर रह भी गया है ? डिगनिटी को भूलकर इसका थोड़ा सरलीकरण कर कहें तो संपादक का काम खबरों का इंतजाम (न्यूज को मैनेज) और मालिक का काम बिजनेस को एडिट करवाना भर रह गया है। इस तरह संपादक न्यूज मैनेजर तथा मालिक बिजनेस एडिटर हो गया है। धंधा हो प्रबुद्धों का और विचार गायब हो तो क्या हो सकता है !! पेशा हो चिकित्सा का और स्किल सिर्फ और सिर्फ मैनेजमेंट का ही खोजा जाए तो क्या हो सकता है (बड़े-बड़े अस्पतालों में जाकर देखा जा सकता है इसे)। विचार की सत्ता (विजनरी दीमाग) के कमजोर होने से ऐसा होता गया है। यहां सतर्क रहना जरूरी हो गया है, क्योंकि इसी तरह राजनीति में मूल्य के धागे टूटे तो अपराध की गांठें बढ़ती गईं। जिस पीसीसी या गिफ्ट स्कीम के सहारे प्रसार बढ़ाया जाता है, उसकी दीवार बेहद भंगुर होती है। ऐसे में खर्च एक स्तर पर जाकर अनुत्पादक कहा जाए तो बुरा नहीं। दरअसल जिस विज्ञापन बाजार को लुभाने के लिए प्रसार के सारे तामझाम खड़े किए जाते हैं, वे अपनी चमक बहुत जल्द खो देंगे। विज्ञापन संपादक, प्रसार संपादक की शब्दावली आखिर क्या दर्शाती है। आनेवाले दिन में आपसे संपादक व पत्रकार जैसे शब्द भी छीन लिए जाएंगे। इसका होमवर्क तो शुरू हो ही गया है।

खुंटियल दाढियों के नीचे पिज्जा-बर्गर यानी मीडिया का सोशल आडिट हो तो कितना बेहतर

अब जब कारपोरेट घराना मशीनरी के हाथों पत्रकार को एक टूल की तरह इस्तेमाल करेगा तो इसकी गारंटी मानिए कि वह सिर्फ और सिर्फ उसीका टूल नहीं बना रह जाएगा, वह अपने हित भी साधेगा। वह मशीन नहीं कि आप जितना और जैसा काम लेना चाहें, उतने काम के बाद उसे ठप कर दें। बाप के लिए बीड़ी-ताड़ी-दारू लानेवाला बेटा सिर्फ बीड़ी पीकर ही रह जाए ऐसा कैसे होगा। कभी तो वह भी चखेगा। लसत लगेगी और फिर दारू में मिलावट और फिर खरीद में उलटफेर और दारू में गिरावट लाकर वह भी अपने पीने का जुगाड़ कर तो लेगा ही। ए राजा को संचार मंत्री बनाने के वास्ते बिजनेस घरानों के लिए लॉबिंग करने वाली नीरा राडिया की दलाली करनेवाले दिग्गज और पूज्य पत्रकारों के नाम जिस तरह सामने आए, वह इसीकी फलश्रुति है। और जो बिका हुआ हो, उसे खरीदनेवाला कोई नहीं होता। आज पत्रकारों का कद गिरता जा रहा है तो उसमें छुटभैये पत्रकारों का जो भी हाथ हो, बड़े और नामी-गिरामी लोगों ने गिरावट को जिस तरह इंस्टीच्यूशनलाइज कर दिया, वह उन्हें अंततः गिरा रहा है। हम जानते हैं कि
भ्रष्टाचार की शक्ल पिरामिड की होती है। ऊपर की एक बुंद नीचे कितनी बुंदों में तब्दिल हो जाएगी तय नहीं। और इसके लिए पत्रकारीय पेशे में तरह-तरह के सुधार के नाम पर उन्हें बांधने की कोशिश हो रही है। पत्रकार की आलोचकीय धार व मेधा को कुंद करके सारा काम किया जा रहा है। यही कारण है कि जिस बाजारवाद के खिलाफ मीडिया को मोर्चा संभालना चाहिए था, वह उसका चारण-भाट बना फिर रहा है। भाटों की खुली स्पर्द्धा में वह नंबर एक के लिए भिड़ा हुआ है। कारपोरेट संस्कृति ने अपने प्रोफेशनलिज्म की जबान में इसे टेकनिकल स्किल का नाम दे रखा है। एलपीजी (उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण) के द्वार से जो सामाजिक अनुदारता प्रवेश कर गई, मीडिया घरानों ने भी उसे कम प्रश्रय नहीं दिया है। श्रमिक अधिकार और सूचनाधिकार के लिए भोंपू लगाकर चीखनेवाले अखबारों में श्रम कानूनों का सर्वाधिक उल्लंघन हो रहा है। सूचनाओं की गोपनीयता भी वहीं बरती जा रही है। किस मकसद से किसी मसले को लेकर अखबार आक्रामक तेवर अपना रहा है और किस मकसद से अभियान की टें बोल जाती है, पत्रकार को इन वजहों से दूर ही रखा जाता है। मुंह की खाता है पत्रकार तो खाए। खबरों के बाजार में न तो संपादक या मालिक को कसरत करने पड़ते हैं। इसलिए मजे से स्विच आन-आफ करते रहते हैं ये बंदे।
एक चिकित्सक, इंजीनियर, वैज्ञानिक, शिक्षक, खिलाड़ी आदि अपने पेशे के धुंरधर हों यह तो अपेक्षा होती ही है और वाजिब भी है, पर वे उनके अपने सामाजिक दायित्व हैं इसे वे नहीं भूलते। ऐसा इसलिए कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। लेकिन कोई बताए कि आज मीडिया का कोई सामाजिक दायित्व रहा गया क्या। वैसे राजनीति भी सामाजिक दायित्व से कट गई है। (इस पर बाद में कभी।) किन सामाजिक अपेक्षाओं – जिम्मेवारियों से मीडिया को बंधा होना चाहिए और आज जिस किसी भी स्थिति में पहंचा है वह किन अपेक्षाओं और जिम्मेवारियों को पूरा करते हुए। और यह सब करते हुए इस क्रम में उनके यहां काम करनेवाले पत्रकारों ने कितने बनाए यह जानना बेहद जरूरी है। आखिर जब आप इस समाज से कुछ लेते हैं तो समाज को क्या दे रहे हैं और जो दे रहे हैं, क्या वही समाज का प्राप्य भी है। यह सब तब तक नहीं जाना जा सकता है जब तक कि मीडिया का सोशल आडिट नहीं होता। सवाल यह हो सकता है कि व्यवस्था उसे देती क्या जो सोशल आडिट की बात हो। तो व्यवस्था न दे, पर समाज उससे कहीं अधिक दे रहा है। और व्यवस्था कैसे नहीं दे रही है आखिर मंदी के दौर के दौर में रियायत इसी व्यवस्था ने दी थी। और जो भी वह पा रहा है वह इस तंत्र से सहूलियत पाने के ही कारण है न। यदि मीडिया का सोशल आडिट नहीं होता तो छुट्टा सांढ़ हो जाएगा। आज वह पत्रकारीय मानक को तोड़ रहा है, भाषा को गंदी कर रहा है। आगे जाकर स्लैंग जबान में अखबार निकालने की बात करेगा। कल को वह नए सांस्कृतिक संकट खड़े करेगा।

अपने ही खून का स्वाद मजे से चख रहे हैं पत्रकार

रही बात पेशा के चौगीर्द पत्रकारीय सरोकारों से दूर प्रबंधन को अपने इस्तेमाल की खुली छूट देकर बंधुओं ने अपना जो नुकसान किया है उसीकी फलश्रुति है कि आज उनसे अखबार बेचने को कहा जा रहा है तो कहीं विज्ञापन बटोरने का काम दिया जा रहा है। चुपचाप शिरोधार्य करने का नतीजा है कि आज ‘चुनाव’ खबर के लिए कोई विषय ही नहीं रहा। हिंदी क्षेत्र विशेषकर बीमारू राज्यों में कहीं भी चुनाव को कवरेज नहीं दिया जाता। जो दीखता है वह पैकेज की शर्तों के तहत होता है। इस पर तो दिल्ली की एक संस्था बड़ा अध्ययन भी करवा रही है। इसका एक अपना ही किस्सा है। प्रभाष जोशी जी ने अखबारों की इस प्रवृत्ति के खिलाफ अभियान ही छेड़ दिया था। इस अभियान को वैसे भी अखबार हाथों-हाथ ले रहे थे, जिन्होंने चुनाव के दौरान न्यूज स्पेस बेचने का काम किया था। सिर्फ इस एक कारण से दैनिक जागरण ने अपने सभी संस्करणों में जोशी की मौत को उपेक्षणीय अंदाज में छापने की हिदायत दे डाली थी। जोशी जी के अभियान से घेरे में तो ढेरों अखबार आते, पर यह रुख किसी ने नहीं अपनाया। अब यह अलग बात है कि दैनिक जागरण तो फिर भी खबर छापी, पर जिस जनसत्ता को उन्होंने हिंदी पत्रकारिता का मानक बनाया और जिसके मरते दम तक सलाहकार संपादक रहे, उसी जनसत्ता से उनकी मृत्यु की खबर छूट गई। यह रिकार्ड में है। अब उसके कारण घराने अंतर्विरोध था या अभियान को ठेंगा दिखाना था, इसका अलग ही किस्सा है। कुल मिलाकर पत्रकारीय भूल या फिर चूक पत्रकारों के ही खिलाफ गई न। रावण का विरोध करते-करते कोई रावण हो जाए, ठीक वहीं बात हुई। इसका ठीकरा किसी एक पर नहीं फोड़ा जा सकता है।

पत्रकार एक सोलर सिस्टम में रह रहा है

कोई संपादक कहीं न तो अकेला जाता है और न ही अकेला निकाला जाता है। वह एक सूर्य की तरह अंतरिक्ष में चक्कर काटता है। सूर्य का अस्त होते ही उसके विश्वासपात्रों (योग्यता कोई आधार नहीं होती) के दिन ही नहीं लदते, नए महानुभाव यह जाने बगैर उसे निकाल बाहर करते हैं कि अब उनका क्या होगा जिसने अपनी उम्र का दो तिहाई-आधा हिस्सा उस अखबार को दिया है। संपादक तो फिर भी संपादक या एक-दो इंच के अंतर से अपनी जगह पा लेगा, पर वह पत्रकार जो सड़क पर धकेल दिया गया वह पत्रकारिता में रह भी पाएगा, इसकी फिक्र किसी को नहीं। अखबार मालिक और उसके दलाल प्रधान संपादकों को इससे कोई सरोकार नहीं। लेकिन तय मानिए एक दौर आएगा जब इस प्रवृत्ति के कारण विप्लव भी मच जाए। यह अलग बात है कि सारे खेल उपलब्ध आप्शंस के कारण होते हैं। तर्क हो सकता है कि मानवीय होकर वह अखबार को बाजार में उपलब्ध बेस्ट से वंचित क्यों रखे। लेकिन सारे खेल बेस्ट के लिए नहीं होते। नए दलाल के लिए स्पेस बनाने के लिए घरानों को यह वाजिब लगता है।

क्या से क्या हो गया, बेवफा हो गया...
यह ठीक है कि विकासक्रम में कोई भी क्षेत्र अंतरअनुशासनिक (interdisciplinary ) हो जाता है। यह भी ठीक है कि सब कुछ सीधे मूल विषय से जुड़ा नहीं दीखता, पर विषय के एप्रोच और ट्रीटमेंट से उसका सरोकार जुड़ा होता है। पर मीडिया के धंधे में बहुत कुछ ऐसा जुड़ा है जो सिर्फ और सिर्फ मीडिया से बाजार के हित साधने के लिए। ऐसा नहीं कि कारपोरेट ढांचा या एचआर पालिसी का सीधे-सीधे पत्रकारिता से कोई सरोकार हो। यहां तक कि इस सबके बाद मीडिया हाऊसों में पत्रकारों का कद गिरा है। विजनरी पत्रकार कमजोर हुए हैं। इस गिरावट को शिखर पर बैठे प्रधान संपादकों को मंजूर है तभी तो विज्ञापन प्रबंधक, प्रसार प्रबंधक आदि-आदि के सामने संपादक प्रत्यय लग गया है। विज्ञापन संपादक, प्रसार संपादक आदि का चलन और क्या इंगित कर रहा है ?
आखिर ऐसा इसीलिए हुआ है न कि पत्रकारिता को पत्रकारिता की तरह नहीं लेना है। इसलिए भी यहां निवेश शब्द जुड़ा है। निवेश सीधे किसी को भी बाजार में ला बैठाता है। और दूसरी बात कोई भी निवेश किसी की क्रांतिकारिता के लिए नहीं करेगा। अखबार नहीं आंदोलन कहकर खुश जरूर हुआ जा सकता है। और सवाल तो यह है कि पूंजीपति के पैसे से चल रहे आंदोलन का चरित्र कैसा होगा ? क्या पूंजीपति सामाजिक सरोकारों से जुड़ी क्रांतिकारिता के लिए अपना धन बहाएगा ? वह जब भी करेगा तो निवेश, दान या अनुदान नहीं। दान या अनुदान एक बार, दो बार हमेशा के लिए नहीं। यहां धन और पूंजी को समझ लेना जरूरी है। हां, आंदोलनकारियों को आंदोलन के मूल्य के इस क्षरण को समझना होगा। आंदोलन के अवमूल्यन को सबल करने के इस मिशन से दूर रहने की जरूरत है। आखिर आंदोलन ही होता तो कारपोरेट हित के लिए अखबार का इस्तेमाल नहीं होने देता। हां, यह माना जा सकता है कि आंदोलन पूंजीपति के हित को जिलाए रखने का आंदोलन है। भ्रष्ट नेताओं मंत्रियों पर तबतक निगाह नहीं पड़ती जब तक कि कोई डील रुक न जाए। झारखंड से बाहर रहकर प्रभाष जोशी या वीरेन दा जब किसी अखबार की पीठ ठोकते हैं तो उन्हें नहीं मालूम कि अनजाने वे किस पत्रकारीय आचरण को अनुमोदित कर रहे हैं। आखिर इस अनुशंसा से किसका भला हो रहा है। यह अनुशंसा कारपोरेट घराने की ब्रांडिंग से जुड़ी हुई है या पत्रकारिता की ठाठ के पक्ष में खड़ी होती है। सर्वाधिक पत्रकारों की बलि यदि किसी ने ली है तो इस एक अखबार ने। कोई झारखंड में आकर देखे कि किस तरह इसने कारपोरेट हित की रक्षा में दर्जनों तेज-तर्रार पत्रकारों की एक फौज को सड़क पर लाकर छोड़ दिया। यहां आकर देखा जा सकता है कि इस हाउस के चुनाव कैसे थे ! यह बात तो परिप्रेक्ष्य के विस्तार की है, पर हम एक बार फिर से संदर्भ पर आएं। जिन क्षेत्रों में प्रसार बढ़ाए जाते हैं, दरअसल उन क्षेत्रों में साधनहीनता व पिछड़ापन के कारण आधुनिक जीवनशैली के साजोसामान दुर्लभ हैं। जब इन क्षेत्रों के पाठक ऐसे उत्पाद के उपभोक्ता नहीं हो सकते हैं तो विज्ञापन देने का फायदा क्या होगा? यह भी शीघ्र ही उन कारपोरेट घरानों को समझ में आने लग जाएगी जिनके सहारे अखबार घरानों के बजट बनते हैं। जाहिर है कि यह बात उनकी समझ में आ भी रही है, पर यहीं मीडिया अपनी धौंसपट्टी से अपनी दाल गलाती है। यहां उसके कारपोरेट उसूल ताख पर रखे रह जाते हैं।


दो कदम तुम भी चलो, दो कदम हम भी चलें....

दो स्थितियां बचती हैं –
1. गुणवत्तापूर्ण प्रसार
2. प्रसार के लिए ग्रामीण इलाकों में आधार

1.
शहरी क्षेत्रों में शिक्षा, रोजगार, समृद्धि, सुरुचि के कारण वैचारिक स्थैर्य होता है। वहां के पाठक मनुश्किल से टूटते हैं। ये क्वालिटी कांशस होते हैं। इसीलिए इन्हें व्यावसायिकता के साथ मूल्य व वैचारिक स्तर की समृद्धि जरूर बांधती है। चौबिसों घंटे चलनेवाले चैनलों के कारण राष्ट्रीय व महत्व की बड़ी खबरें अखबारों में इन्हें नहीं बांधतीं। सुबह अखबार में पढ़ने से पहले वे कई बार इसे देख चुके होते हैं। इसीलिए समाचार को यह ध्यान में रखकर तैयार किया जाए कि हमारे पाठक पहले दर्शक हैं। वह खबरों में विजीबिलिटी खोजेगा। अब पाठक की लालसाएं, जरूरतें, दिलचस्पियां पहले जैसी नहीं रही। इसके साथ ही यह भी तय है कि नवधनाढ्य तबका अभिजात तबके में शामिल होने को आतुर व दरिद्र सांस्कृतिक चेतना से लैस जिस गैर जिम्मेवार नई पीढ़ी के हाथों में चैनलों की बागडोर है, वह कई बारहा समाचारों की प्रस्तुति को हास्तास्पद बना देती है। इसलिए खबरों में इन तत्वों की भरपाई से खबरों में पठनीयता का प्रभाव लाया जा सकता है। संवेदना और सगजता के स्तर पर खबरों में दृश्य संवेदना को प्रमुखता देनी होगी। इसके लिए बौद्धिकता के छींटों के साथ कल्पनाशीलता की छौंक की भी जरूरत है। शहरी क्षेत्रों में पाठकीय आधार तभी फैलाए जा सकते हैं। बहुत दिन नहीं हुआ है जब लिखित शब्दों की महत्ता भरे दौर में किताबों का एक पन्ना, तो समीक्षा का एक पन्ना हुआ करता था (जनसत्ता में अब भी मौजूद है)। बदलते दौर में दर्शक की मरती समीक्षा चेतना को जगाए रखने के लिए हर हाल में चैनलों, इंटरनेट, ब्लाग, यू ट्यूब, ट्विटर आदि पर एक पन्ना देना चाहिए। इनकी रफ्तार और समाज पर इसके बढ़ते-फैलते शिकंजे को देखते हुए हिंदी समाचार पत्र जितनी जल्द इसे अपना ले, सेहत के लिए बेहतर होगा। शायद फिलहाल किसी हिंदी अखबार ने ऐसा नहीं किया है। नया पन्ना पाठकीय आधार बढ़ाने में बहुत जल्द फर्क लाएगा। अखबार जिस संचार क्रांति का हिस्सा है, उस फ्रेम की शेष चीजों से उसका रिश्ता दूर-दूर का होकर रह गया है। असंख्य साइट पर भटकने के बजाए विवेकवान पथ ढूंढ़ने के अलावे चैनलोंम के प्रवाह में चयन का विवेक पैदा करना भी मीडिया का धर्म है। यह प्रयोग एक तरह का माइंड सेट तैयार करेगा।
2.
प्रसार के ग्रामीण आधार को व्यापक करने में किसी पीसीसी (पब्लिक कंटैक्ट कंपैनिनयन) का सर्वे नहीं करेगा। स्वभाव से संकोची, प्रकृति से भावुक व चरित्र के भोले इन पाठकों को अपना समाज बहुत बांधता है। गरीबी, निरक्षरता-अशिक्षा, अंधविश्वास, बेकारी के कारण इनमें भावुकता तो होती ही है, पर साथ ही एक ग्राहक के रूप में ये प्राइस कांशस होते हैं, वैल्यू (कंटेंट) कांशस नहीं। इन्हें बांधने का बेहतर काम क्षेत्रीय रिपोर्टर से ही लिया जा सकता है। क्षेत्रीय रिपोर्टर बहुत बड़े प्रचारक साबित हो सकते हैं। वे हमारी ब्रांडिग बेहतर कर सकते हैं। उन्हें थोड़ा सम्मान और थोड़ी आत्मसंतुष्टि मिले तो उनकी माउथ पब्लिसिटी हमारे बहुत काम आ सकती है।
उपरोक्त दोनों स्थितियों में खबरों का उत्खनन शहरी क्षेत्रों में बेहद चुनौती भरा है। आज यदि अपने परिशिष्टों में हिंदी अखबार हिंग्लिश का इस्तेमाल करने लगा है तो उसी प्रभाव (चुनौती) का नतीजा है, पर बेहद नकारात्मक ढंग से। यह भी साबित होता है कि हम बढ़ने के अपने प्रयोगों में पिछड़ेपन का संकेत देते हैं। यह प्रयोग उपभोक्तावाद की निरंकुश विलासी और लंपट आदतों को प्रतिष्ठित करने जैसा है। एक दरिद्र सांस्कृतिक चेतनावाले अर्द्धशिक्षित समाज में ही यह रब क्ष्मय / संभव है हम इसे ही साबित करते हैं। नई पीढ़ी को भाषा की तमीज के जरिए सांस्कृतिक चेतना के प्रति गंभीर व जिम्मेवार बनाने के बजाए उसे मूल्यों से लापरवाह करने की भयंकर भूल कर रहे हैं। हमें समझना चाहिए कि भाषा एक सामाजिक-सांस्कृतिक युक्ति (socio-cultural device) है। उसके स्रोत समाज-संस्कृति में वनिहित होते हैं। दरअसल जहां समस्या होती है, वहीं रोग के लक्षण हों, यह जरूरी नहीं। बाजार से लड़ने के बजाए मीडिया उसके सामने नतमस्तक है तो इसे समझना मुश्किल नहीं। इसलिए यह मीडिया से भूल नहीं हो रही है, सारी अपसंस्कृति में वह इरादतन एक उपक्रम रच रहा है। जौंडिस का लक्षण आंख में जरूर होता है, पर इलाज आंख से शुरू नहीं करते। पर हिंदी अखबार ने यही किया है। उपभोक्तावादी संस्कृति के जो सांस्कृतिक खतरे हैं और तज्जन्य सामाजिक जोखिम सबकुछ को यह मीडिया आसान कर दे रहा है।

बच्चू कहां जाओगे बचकर

पाठकों में गिफ्ट के लिए अखबार खरीदने की लत पकड़ने लगी है। ऐसी तरकीबों से पाठक पहले उपभोक्ता बनने लगा है, बाद में वह पाठक होता है। और जब वह उपभोक्ता होता है तो उसे विज्ञापन के मायाजाल अधिक बांधते हैं। बाजार बहुत मोहक अंदाज में हमें माया की तरह फांसता है। इलेक्ट्रानिक मीडिया की फंतासी भरी दुनिया अधिक मोहती है उसे। एक तरह से हम अखबारों के प्रति वितृष्णा ही पैदा करने का काम करते हैं। इस तरह अखबार अपनी तरकीबों से पाठकीय चेतना पर प्रहार करने लगा है। पाठक अतिरिक्त रूप से सजग रहता है तय अवधि के पूरी होने के प्रति। गिफ्ट के लिए। लेकिन क्या यह पाठक जो उपभोक्ता बनकर रहा है, उसे संतुष्टि दर्शक बनकर है या पाठक बनकर ? इसलिए हमें सोचना चाहिए कि क्या अखबार इन हथकंडों को अपनाकर अखबार बना रह सकता है ? लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि अखबार अखबार बनकर ही जिंदा रह पाएगा। दरअसल हिंदी अखबार को अपना स्पेस उपभोक्ता व दर्शक के बीच ही लोकेट करना होगा।
इन चीजों पर चलने के लिए स्पष्ट नीति, मारक रणनीति और लंबी योजना की जरूरत है। यह सर्वथा नवजात के अनुभव व विचार हैं।
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मारक प्रतिस्पर्द्धा भरे बाजार में टिकना प्रतिद्वंद्विता में आगे निकलने की पृष्ठभूमि है। आंध्रा में नंबर वन इनाडु को पछाड़ने के लिए राजशेखर रेड्डी ने एख साथ 22 संस्करण वाला साक्षी दैनिक शुरू किया, प्रतिदिन एक करोड़ घाटे का बजट लेकर। ऐसे में जंग कई स्तरों पर चलानी होती है। संपादक को समाचार प्रबंधन से लेकर व्यवसाय संपादन तक के कौशल से लैस होना होगा।
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बाजार के दबाव के साथ सामाजिक प्राथमिकताओं और व्यक्ति की दिलचस्पी में आ रहे बदलाव को उनके आस्वादन के स्तर (ऐंद्रिक संवेदना में आए बदलाव) पर पकड़ना होगा। खबरें हार्ड हों या साफ्ट या फिर ह्यूमन स्टोरी, उनमें जीवंतता और सचित्रता जरूरी है। पाठकीय आस्वादन (टेस्ट) तक पहुंचने के लिए। प्रसार बढ़ाना शहरी क्षेत्रों की तुलना में कस्बों में ज्यादा मुमकिन है और अभी के बाजार में इसकी काफी गुंजाइश है।
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बाजार के दबाव में समाचार पत्रों में घटती जगहों ने खबरों की तादाद और आकार को प्रभावित किया है। ऐसे में खबरों के प्रवाह को बरकरार रखने के लिए विशेष नीति अपनानी होगी। स्वरूप के स्तर से हटकर वस्तु के स्तर पर भी।
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ब्रांडिंग से तात्पर्य वह नहीं जो बाजार से हमें मिला है, बल्कि वह जो जनता हर हाल में हमें देती है। इसीलिए किसी चले हुए अखबार के रिपोर्टर को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह बासी खबरें परोस रहा है। उसके लिए महत्वपूर्ण है कि वह अपने पाठक को जो दे रहा है, पहली बार दे रहा है। पाठक ने स्वीकार भी किया है। इसी पाठकीय स्वीकार्यता को सोशल ब्रांडिंग कहते हैं। बाजार से जो ब्रांडिंग मिली है वह बेहद अस्थिर और चंचल है। इसकी कोई गारंटी नहीं जो आज आपके पास है और कल प्रतिद्वंद्वी के पास न हो। हर्षद मेहता को भी इसी बाजार की ब्रांडिंग मिली था। लेकिन उस ब्रांडिंग का बाजार के स्थायी तत्वों से कोई सरोकार नहीं था। आईपीएल, शशि थरूर, ललित मोदी इसी फिनोमेना के हिस्से हैं। इसे एकाधिकारवाद भी कह सकते हैं। लेकिन बाजार में जहां प्रतियोगिता पूर्णता की ओर बढ़ती है वहां उपभोक्ता की सार्वभौमिकता (consumer soveriegnty अर्थशास्त्र का महत्वपूण सिद्धांत है जो जाज आर्वेल के विख्याक उपन्यास नाइंटीन एटी फोर के मशहूर जुमले Big brother will watch you से मेल खाता है) से इनकार कर कितने दिन बचा सकता है।

(साल 2008 में एक बड़े अखबार में काम करते हुए लिखी हुई टिप्पणी। इसे अखाबर के संपादक ने भी विचारार्थ लिया था। कुछ बातों को मैं निजी स्तर पर लागू करके देख चुका था। उसी टिप्पणी का अपडेट रूप।)


टिप्पणियां

5 टिप्पणियाँ: :
भगीरथ ने कहा…
corporate interest is the highest priority in all the fields. so the alternative is to replace the corporate interest with public interest &in doing so
the whole system has to be changed
२७ अप्रैल २०१० ६:०५ पूर्वाह्न

Babli ने कहा…
बहुत बढ़िया लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! उम्दा प्रस्तुती!
३ मई २०१० ६:०२ पूर्वाह्न
रंजीत ने कहा…
I think, BHAGIRAH jee is right,but we can not do it becauze we are in nation where dual'ism is prevailing by the people with the people for the politician.
we expect best but can not accept someone who is really Best.
९ मई २०१० ६:२२ पूर्वाह्न
सृजनगाथा ने कहा…
भाषा, साहित्य और संस्कृति की प्रतिष्ठित पत्रिका www.srijangatha.com में आपके ब्लॉग का समादरण हुआ है । कृपया अवलोकन कीजिए ।
१२ मई २०१० ९:०१ अपराह्न

Amitraghat ने कहा…
"आप कहाँ गायब हो गये...? वापस आईये...."
२२ जून २०१० १०:३३ अपराह्न
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शनिवार, 14 अगस्त 2010

उधार

(इस स्तंभ में हम आपको ब्लागों की दुनिया में घटित हो रही चीजों के पास तो नहीं ले जाएंगे, पर वहां घटित हो रही विचारणीय और अदभुत चीजों पर आपसे बातचीत करेंगे।।


तो पहले आईना (www.aaeena.blogspot.com/) के ब्लागर कवि ध्यानेंद्रमणि त्रिपाठी की कविता पर कुछ बात हो जाए। साभार उधार।
पहले आप कविता पढ़ लें।

हमनी के जिनगी में
गुस्ताखी के साथ जिंदगी को स्लैंग में सुधारा है।)

(हजूर हमरा के खड़ी बोली कहे में भारी परशानी होखेला,
लेकिन कोशिश करत बानी कि तिपहिया जिन्दगी के कुछ बात राउर लो से कहीं।)

धनेसरा बोला है कि
हम रेक्सा चलाने वाला लो का
जिनगी से चउथा पहिया
हेरा गया है,

रेक्सा का एगो जानकार
बाताया है के बाबू
रेक्सा में पाछे के दुइ पहिया में
दाहिना फ्री होता है
बांया चेन से चलता है,

तभे हमरे समझ में आया
के हमरा शरीर बांयी तरफ
काहे झुका है?
और कि हमरा बांया कंधा से
बांयी जाँघ तक
एतना दर्द काहे रहता है?

दुमका से बनारस
औरी बनारस से दिल्ली
का तिकोना सफर
इहे तिपहिया चलाने के लिए
किये हैं हजूर
चकाचक और एक्जाई
मन्टेन रखते हैं
हम अपना रेक्सा
सेवाभाव में एसप्रेस है
हमार रेक्सा
मखमली मसनंद
और हवाई जहाज है
हमार रेक्सा,

एगो बात अखरता है हजूर
हमरा आधा समय
सवारि से मोल भाव में
जाता है
गरीब लो से ज्यादा
अमीर सवारी को रेक्सा का
केराया कम कराने में
मजा आता है

एक दिन बड़े भाग से
सरकार खुदे हमरे रेक्सा
पे बैइठ गई
और सड़क से सीधे
संसद में पहुँच गई,
उहाँ पहुँच के ऊ हमें
टा टा बाय बाय कइ दिहिस
और दस रुपया में
संसद तक पहुँचावे का
हमार मेहनताना तय
कइ दिहिस,

दस रुपया मे
हजूर आपे बताइये
कतना बीड़ी मिलेगा?
राशन का हाल
राउर को पता है
ई बाजरे के आटा से
सिरिफ कब तक
पेट भरेगा?

हजूर
इतना दर्द भुलाने के लिए
हमरा मन तनी
माल्टा पीने का हुआ
पाउच का दाम देखे
तो सूँघे के काम चला लिया,

हजूर ई कइसा
अभिसाप है कि
रेक्सा में
चउथा पहिया पाप है?
कउन भरोसा
इहे सड़कवा पे चल पायेंगे
जहाँ पंचाइत खाप है?

हजूर
हम लो मेहनत से नहीं डरते
दर्द हैं दिन रात सहते
पसीने की नदी मे हैं बहते
और पुस्ता कि झोपड़पट्टी मे है रहते
किसी से कुछ भी नही कहते,

लेकिन हजूर
राउरे बताइए
कि इ चउथा पहिया
हमपे नजर कब डालेगा?
ई देश का संसद
हमको कब देखेगा?
ई सब सवाल
हमको बहुत परेशान
करता है
हमरा रेक्सा का घण्टी
घनघनान
करता है,

जब हजूर
छीन लेते हैं
आप अपना रेक्सा
तब हमको
बिसवास नही होता
रेक्सा हमरे भीतर
और गोड़े के नीचे
जमीन नही होता,

हजूर
हम आज एगो
गुस्ताखी किये हैं
सपना में अपना रेक्सा लेके
द्वारिका सेक्टर पाँच पे
खड़े हैं,

नोयडा से
मेट्रो आयेगा
खूब सवारी लायेगा
हमरा रेक्सा
कइयो चक्कर लगायेगा,

लेकिन ए हजूर
सपनवा टूट गया है
सरकार का चउथा पहिया
छूट गया है
बदनसीब हैं हम हजूर
हमरा सपना टूट गया है
बाँयी जाँघ पे हुआ था
एगो फोड़ा
रेक्सा चलाने से ऊ
फूट गया है॰॰

-ध्यानेन्द्र मणि त्रिपाठी

‘हमनी के जिनगी में’ (वैसे ब्लागर यानी रचनाकार ने ‘जिंदगी’ शब्द लिखा है।) साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों को देखनी चाहिए। कविता के भाष्यकारों को देखना चाहिए कि लुच्चे बाजार की लंपटता और उसकी सहुलियतें कितनी भारी पड़ रही हैं जिनसे यह मुल्क बनता है उनके ऊपर। यह मुल्क टाटा-बिरला का नहीं है। अंबानी और जिंदल का भी नहीं है। उनका क्या वे तो एक सीमाहीन देश में रहनेवाले हैं जिनके लिए लंपट बाजार की रासलीला किसी अवतारी से कम नहीं। अंगीभूत सत्ताएं किस तरह रिक्शावाले के भावसागर में ऊभचूभ करते हुए एक पिघलती चादर तान देता है पाठक के ऊपर। इस मुल्क में आठ करोड़ ऐसे लोग है जिनकी रोजाना की आय 20 रुपए भी नहीं। लेकिन दिल्ली विधान सभा में विधायकों के लिए एक लाख मासिक वेतन (भत्ता) करने की मार हो रही है। जीवन के माल असबाब पर इठलाते हुए ये रिक्शावाले अमीरों की हरकत को कैसे देखते हैं उसे ध्यानेंद्र ने काफी गहरे में जाकर देखा-गुना है। यह कविता इसकी मिसाल है कि कविता के लिए सरोकारों का होना कितना जरूरी है। धूमिल की कविता ‘लोहे का स्वाद’ बरबस याद आ जाती है जिसमें कविता की रचनाशीलता के लिए उपजिव्य के संसार से तादात्मय स्थापित करने की बात की है उन्होंने – शब्द किस तरह कविता बनते हैं, इसे देखो, अक्षरों के बीच गिरे आदमी को पढ़ो....
इस दर्द को सुनने के लिए बहुस्तरीय दृश्यों को भेदना होगा। लेकिन यह कवि के सरोकारों से तय होता है। ध्यानेंद्र की कविता में हम देखते हैं कि संवेदना की तरलता में ऊबड़खाबड़ यथार्थ किस तरह पिघलकर मार्मिक धुन में हमें रुलाता है, सोचने पर मजबूर करता है। विचार का ठोसपन यहां वोलाटाईल हो जाता है। कविता के तानेबाने की आग में यथार्थ का तिलिस्म झुलस जाता है। रोजमर्रे के कामकाज किस तरह बाडीलैंग्वेज बनाते हैं रचनाकार की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि इसमें जो भूमिका अदा करता है वह कहीं से भी तथ्यों को बताने के इरादे से नहीं, काव्यात्मक प्रयोजनों का भीतरी अवयव हो जाता है। कवि व्यक्तित्व जब रचनाशीलता को जज्ब कर लेता है तभी इस तरह की रचना सामने आती है।

इस अनोखी कविता को पढ़ाने के लिए धन्यवाद भाई।

सप्ताह का मुद्दा

(सोचना-विचारना और फिर अभियानों में सहभागिता सामाजिक बदलाव के लिए जरूरी तो है, पर इसका असर एक माहौल के रूप में दीखना चाहिए। भाषण झाड़े जा रहे हैं, ब्लाग लिखे जा रहे हैं, साईट सजाए जा रहे हैं। अपने जैसे लोगों को / से पढ़ाया-लिखाया जा रहा है। दायरा बहुत सिमटा हुआ है। असहमतियों को लेकर सहिष्णुता यहां भी कम ही दिखती है। ऐसा लगता है कुछ मूल सवालों और जिज्ञासाओं को लेकर एक बहसतलब माहौल तैयार करना जरूरी है। इसके लिए माडरेटर ने आसानी से उपलब्ध माध्यम एसएमएस का सहारा लेना वाजिब और जरूरी समझकर एक पहल करने की कोशिश की है। )

नक्सल आंदोलन खेतिहार समुदाय में व्याप्त लंबे शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ असंतोष-आक्रोश से उपजा था। सत्ता प्रतिष्ठानों से ऐसे अन्याय के प्रतिकार की उम्मीद नहीं बची थी। जब निरपराध होकर भी राज्य सत्ता का निवाला बने तो हथियार उठाकर अपराधी की कतार में शामिल होना उन्हें शोषक तंत्र के सामने चुप रहने से कम खतरनाक लगा। विकासक्रम में इस लड़ाई की बेसलाईन आदिवासियों-दलितों के बीच सिमट गयी। दरअसल जो क्षेत्र विकास से दूर या अछूते रहे या रखे गए वहां शोषण की चक्की फ्रिक्शनलेस हो आसानी से चली। जंगलों या सुदूर पिछड़े इलाकों में इस आंदोलन के जाने का कारण एक तो यह था, दूसरे माओ की थियरी भी गांव से शहर की ओर बढ़ने की थी। शोषण व अन्याय को नियति न मानकर जिन्होंने सामाजिक व्यवस्था में उसकी वजह देखी, उनकी लड़ाई तो व्यवस्था के खिलाफ होगी ही। वर्गीय चेतना जगाते हुए वर्ग संघर्ष तक पहुंचने की जमीन उन्हीं इलाकों में उर्वर थी। सामाजिक चेतना से जुड़ाव के लिए आदिवासी-दलित होना जरूरी नहीं, सरोकार और संवेदनशीलता की जरूरत है। चारु मजूमदार, विनोद मिश्र, महेंद्र सिंह, कानू सान्याल आदिवासी तो नहीं थे, पर शोषण को सिस्टम में दोष का नतीजा मानते थे। वे इस आंदोलन को समर्पित थे तो इसीलिए कि बदलावकारी लड़ाई के व्यापक सरोकार से यह जुड़ा हुआ था। जातियों में सामाजिक बिखराव समतामूलक बदलाव की सोच को डाइल्यूट करते हुए इंटिग्रेट होने से रोकते हैं और आंदोलन को क्रांतिकारी तेवर अख्तियार नहीं करने देते। रूस में तो क्रांति की बजाए तख्तापलट की लड़ाई हुई। हां. चीन ने जरूर लड़ाई का जो माडल अपनाया वही क्रांति की वजह बनी।
दरअसल मुसलमान या तो नेशनलिस्ट हो सकते हैं या फिर एंटी नेशनलिस्ट हो सकते हैं। कट्टर देशभक्त भी रहे हैं और हैं। सिस्टम बदलने की ऐसी लड़ाई का हिस्सा वे कैसे हो सकते हैं जो सोच के सेट पैटर्न (यथास्थितिवाद) से बाहर नहीं झांक सकते। ये कहा जा सकता है कि वे कम्युनिस्ट तो हैं, लेकिन ऐसा इसलिए है कि इसमें उनके लिए कई सहूलियतें हैं। जैसे रा्ष्ट्रीयता के कुछ मान-मूल्यों के खिलाफ उनकी तुष्टि वहां हो पाती है। इस मुल्क में अल्पसंख्यक अराजकता को हवा देने के लिए कांग्रेस और वाम ने काफी हिफाजत से खुद को डिजाईन किया है। (तसलीमा के बहाने वाली टिप्पणी इसी ब्लाग में देखें। वैसे भी एक बार माओ के बाद वाली टिप्पणी देख लें।) बहस का हिस्सा यह हो सकता है कि ईसाई, पारसी, सिख भी तो नक्सली नहीं होते। दरअसल इनका फैलाव मुल्क में उस तरह नहीं है जिस तरह मुसलमानों का है। एक सिख, एक पारसी, एक ईसाई की जड़ उन समाजों में क्योंकर होगी जहां उनके सामाजिक सरोकार ही नहीं। लेकिन यह बात मुसलमानों पर लागू नहीं होती। वे मुल्क के इस छोर से उस छोर तक सभी बीहड़ से बीहड़ और कस्बाई इलाकों के वासी हैं।

और अब बहस का सवाल

सोचा है कभी मुसलमान नक्सली क्यों नहीं हुआ करते। जो हैं वे अपवाद है।

13 अगस्त 2010 को एसएमएस से मिले जवाब–

नहीं, लेकिन यह खोज की अच्छी दिशा है। क्या कारण है आप ही बताएं।
-कृष्णकांत, सचिव, अभिव्यक्ति फाउंडेशन, गिरिडीह (झारखंड)।

धार्मिक कट्टरता खुदा के विरुद्ध सोचने का हक नहीं देता। वह क्रांतिकारी होने से रोकता है। 90 फीसदी नक्सली आदिवासी है। हमला आदिवासी पर ज्यादा होगा तो मुसलमान क्यों नक्सली बनें।
पुष्पराज, पटना। (घुमंतू पत्रकार तथा नंदीग्राम डायरी के लेखक।)

क्यों।
विनोद सिंह, भाकपा माले विधायक, बगोदर, गिरिडीह (झारखंड) ।

दलित आदिवासी अधिक शोषित हैं। मुसलिम लेफ्टिस्ट हैं। टेररिस्ट भी हैं। नक्सली बीच का मामला है। अब एक सवाल यह भी है कि आदिवासी मुसलिम क्यों नहीं होता।
आप सही हो सकते हैं।
(कामरेड, जनजाति और आदिवासी एक ही हैं। और मुसलमान तो एक कौम है और आदिवासियों का अपना ही कौम है। हिंदू आदिवासी और ईसाई आदिवासी जैसा कुछ नहीं है। जिनका अंतरण हो गया है वे उस समुदाय से बाहर हो गए हैं।)
रामदेव विश्वबंधु, सामाजिक कार्यकर्ता, ग्राम स्वराज के झारखंड समन्वयक, गिरिडीह (झारखंड)।

मुसलमान लड़ाकू संस्कृति की उपज हैं। नक्सली वे होते हैं जो अपनी बात खुल कर नहीं कह सकते। इसलिए दलित नक्सली होते हैं। लादेन इंडिया में हो सकता है क्या।
आकाश खूंटी, झारखंडी भाषा-संस्कृति के सक्रिय कार्यकर्ता, खोरठा पत्रिका लुआठी के संपादक, बोकारो (झारखंड)।


अच्छा आयडिया।
संदीप भट्टाचार्य, एजीएम, बालासोर इस्पात एलायज, बालासोर (उड़ीसा)।


व्यापक रूप से नक्सली संघर्ष जनजातियों और आदिवासियों का आंदोलन है। मुसलमान ना तो जनजातियों में गिने जाते हैं और ना ही आदिवासियों में। वैसे भी मुसलमान जिहाद में विश्वास रखते हैं, ना कि किसी क्रांतिकारी आंदोलन में।आप सही फरमाते हैं भाई, नक्सल आंदोलन की शुरुआत जरूर पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से हुई और कानू सान्याल, चारु मजूमदार आम किसान थे, लेकिन ये शक पहले हुआ। उसकी प्रासंगिकता हम आज के दौर में कैसे देख सकते हैं? क्या कानू की आत्महत्या उनकी इस आंदोलन से पूरी तरह टूट जाने की कहानी नहीं कहती है। हथियार लिट्टे, आईएसआई से मिल रहे हैं? सरकार की और हमारी जिम्मेवारी भी तय होनी चाहिए।
मुसलमान नक्सली नहीं होते क्योंकि वो किसान कम और दस्तकार, जुलाहा, कसाई, चर्मकार और बिजनेसमैन ज्यादा थे। उनका संघर्ष ज्यादा व्यापक और सबके लिए ना होकर सिर्फ मुसलमानों के लिए होता है। सवाल ये नहीं कि किन आदर्शों, मुद्दों और आब्जेक्टिव्स पर नक्सल संघर्ष चल रहा है, सवाल ये है कि क्या वास्तव में ये प्रासंगिक हैं जब नक्सलियों को ...(अधूरा)
भूमि सुधार एक दिशाहीन सशस्त्र संघर्ष में कैसे बदला और जंगलों में क्यों फैला ? ये बड़े सवाल हैं। किसी आंदोलन का आगाज जो आज से कई द....(अधूरा)
(भाई जनजाति और आदिवासी एक ही हैं। और मुसलमान तो एक कौम है और आदिवासियों का अपना ही कौम है। हिंदू आदिवासी और ईसाई आदिवासी जैसा कुछ नहीं है। जिनका अंतरण हो गया है वे उस समुदाय से बाहर हो गए हैं।)
ध्यानेंद्रमणि त्रिपाठी, आईना (www.aaeenaa.blogspot.com), दिल्ली।


लड़ाई अब सिर्फ लेवी की है। झारखंड में सामाजिक अंतर्विरोध की कोई लड़ाई नहीं चल रही है। वर्गमित्र और वर्गशत्रु भी चिह्नित नहीं हैं। राजनीतिक नियंत्रण के अभाव में सशस्त्र दस्तों का अपराधीकरण हो चुका है। आंदोलन भटक चुका है।
उनके लिए आईएसआई है न ?
देवेंद्र गौतम, वरिष्ठ पत्रकार और नामचीन शायर,www.ghazal.blogspot.com रांची (झारखंड)।
( इस बार सभी टिप्पणी एसएमएस से।)

14 अगस्त 2010 को एसएमएस से मिले जवाब–

क्योंकि अल्लाह मियां की डायरी में नक्सलिज्म की चर्चा नहीं है।

रंजीत, सीनियर कापी एडिटर, पब्लिक एजेंडा, रांची (झारखंड) http://koshimani.blogspot.com

तिलक राज कपूर ने कहा…
"कभी मुसलमान नक्सली क्यों नहीं हुआ करते?" का उत्‍तर देने के पहले यह जानना जरूरी है कि नक्‍सली कौन होते हैं? क्‍या नक्‍सलवाद का कोई संबंध जाति धर्म अथवा संप्रदाय से है? क्‍या नक्‍सलवाद मात्र एक उत्‍तेजना का रूप है? क्‍या नक्‍सलवाद वास्‍तव में एक आंदोलन है? बहुत से प्रश्‍न हैं इसकी जड़ों में। वास्‍तव में नक्‍सलवाद की जड़ों में एक सोच है जो कभी शोषित सर्वहारा की रही होगी अब यह सोच नेतृत्‍व और नियंत्रित के बीच की बात रह गयी है। कुछ लोगों को लगता है कि जो हो रहा है वह ठी‍क नहीं है और उसे इस प्रकार बदला जा सकता है और वे यही सोच अन्‍य ऐसे लोगों में भर पाते हैं जो आज में इतने उलझे हुए हैं कि आने वाले कल के बारे में सोच ही नहीं सकते।
जब सभी प्रश्‍नों पर समग्र रूप से सोचा जायेगा तो यह स्‍पष्‍ट हो जायेगा कि अन्‍य समुदायों की तरह बहुत से मुसल्‍मान स्‍वयं सक्षम हैं सोचने में और जीवन का मार्ग चुनने के लिये और जो नहीं हैं उनपर पूर्व से ही अन्‍य शक्तियों का कट्टर नियंत्रण है। खुली सोच वाला, किसी भी जाति संप्रदाय अथवा समुदाय से हो, नक्‍सली नहीं हो सकता। नकसली होने के लिये एक अलग ही मानसिकता चाहिये जो किसी में भी हो सकती है इसमें एक धर्म विशेष का संदर्भ उचित नहीं है।


१४ अगस्त २०१० ११:०७ अपराह्न
Gobar Pattee ने कहा…
कोई समुदाय या वर्ग क्यों नहीं नक्सली हुआ करते,यह कोई बहसतलब मुद्दा हो सकता है,मुझे नहीं लगता.ऐसे सवाल दूसरे वर्गों और समुदायों के बारे में भी पूछे जा सकते हैं.मसलन,आमतौर पर सवर्ण क्यों दलितों,आदिवासियों,पिछड़ों या गरीबों के किसी भी तरह के आंदोलन,चाहे नक्सवादी आंदोलन हो या सामाजिक न्याय का आंदोलन, के खिलाफ क्यों होता है ? दरअसल,कोई भी वर्ग या समुदाय पूरा का पूरा किसी एक विचारधारा अथवा आंदोलन का समर्थक या विरोधी नहीं हुआ करता.ऐसा नहीं है कि तमाम आदिवासी नक्सलवादी आंदोलन के साथा हैं.यह भी सच नहीं है कि सभी मुसलमान आतंकवादियों के जेहाद का समर्थन करते हैं.आप नहीं कह सकते कि सभी हिन्दू आर एस एस या भाजपा के समर्थक हैं.ऐसा भी नहीं है कि सभी हिन्दू अयोध्या में मस्जिद की जगह मंदिर चाहते हैं या सभी मुसलमान मस्जिद ही चाहते हैं.किसी का किसी विचारधारा अथवा आंदोलन के साथ होना य़ा न होना,कई नियामकों पर निर्भर करता है.सबसे प्रभावकारी परिस्थितियां होतीं हैं.परिस्थितियां सबसे पहले आदमी के मन को आंदोलित करती हैं.आदमी परिस्थितियों को बदलना चाहता है.लेकिन यहां भी जरुरी नहीं कि सभी का मन आंदोलित हो और यथास्थिति के खिलाफ उसके मन में उथल-पुथल मचे.यहां आदमी की व्यक्तिगत समझदारी उसे निर्णय लेने में सहायता करती है.अब समझदारी आती कहां से है ? कुछ मामलों में व्यक्ति की समझदारी उसके अंदर से आती है.कुछ मामलों में उसकी शिक्षा उसकी समझदारी को बढा़ती है.अब शिक्षा का मतलब क्या ? शिक्षा का मतलब यह नहीं कि आपके पास कितनी बड़ी डिग्री है.डिग्रियों का भी महत्व है,परन्तु डिग्रीधारी की समझदारी ही अव्वल हो,ऐसा भी नहीं है. बहुधा ऐसा देखा गया है कि एक पढ़ा-लिखा या डिग्रीधारी समस्याओं की जटिलताओं को उस स्तर तक नहीं समझ पाता है,जहां से समाधान का रास्ता निकल सकता है.परन्तु,एक अनपढ़ व्यक्ति भी दूर की कौड़ी ले आता है.ऐसा इसलिए कि उसके पास किताबी ज्ञान तो नहीं है,परन्तु उसका अनुभव संसार किसी भी डिग्री पर भारी पड़ता है.
नक्सलवाद नक्सलबाड़ी से चला तो बिहार में सबसे पहले शाहाबाद(अब भोजपुर) के सहार,संदेश और पीरो में अपना डेरा जमाया था.इसके मौजूं कारण भी थे.मध्य बिहार के इस इलाके में सामंतों का डंका बजता था.हरिजन और पिछड़ों का जीना दुभर था.देश तो आजाद हो गया था लेकिन ये सामंतो के गुलाम थे.इनका कोई सुनने वाला नहीं था.पंचायत से लेकर विधान सभा और संसद तक कहीं इनका कोई नहीं था.बिल्कुल असहाय.सामंतों के उत्पीड़न को अपनी नीयति मान चुके थे.इसके बावजूद,उनके बीच ऐसे लोग भी थे,जो अनपढ़ थे,लेकिन वे इस परिस्थिति को बदलना चाहते थे.वे भी आजादी चाहते थे.इसीलिए,जब नक्सलियों ने हरिजनों और पिछड़ों को विश्वास दिलाया कि वे उन्हें सामंतों की गुलामी से मुक्ति दिलाने में उनकी मदद करेंगे,तब दबे-कुचले लोगों ने नक्सलियों को हाथों-हाथ लिया था.उन्हें लगा कि चलो,कोई तो मिला जो उनकी मुक्ति की बात तो करता है. धीरे-धीरे विश्वास का दायरा बढ़ता गया और बिहार में नक्सलवादियों के सहारे हरिजनों ओर पिछड़ों को मुक्ति की राह दिखने लगी. बाद में इन्हें सामंतों से बहुत हद तक मुक्ति मिली.
यहां भी ऐसा नहीं था कि तमाम हरिजन और पिछड़े नक्सलवादी हो गए थे.और ऐसा भी नहीं कि तमाम सवर्ण सामंत और उत्पीड़क ही थे.आज भी छत्तीसगढ़ में कहा जाता है कि वहां के आदिवासी नक्सली हो गए हैं.लेकिन वहीं सलवाजुडुम में भी आदिवासी हीं है, जो नक्सलियों के खिलाफ बंदूक उठाए हुए हैं.
किसी व्यक्ति या समूह का किसी विचारधारा या आंदोलन के पक्ष या विपक्ष में होना परिस्थिति,परिवेश,संवेदनशीलता और विवेक पर भी निर्भर करता है.किसी बच्चे को जैसे माहौल में रखा जाएगा.बड़ा होकर वह वैसा ही करेगा.यदि किसी बच्चे को आर एस एस संचालित विद्यालय में डाल दिया जाए तो वह वहां से एक कट्टर संघी बनकर ही निकलेगा.इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बच्चा आदिवासी है ,हरिजन है या ब्राह्मण.
इसलिए किसी एक समुदाय पर सवाल नहीं उठाया जा सकता कि वह नक्सलवादी क्यों नहीं है या तालीबानी क्यों नहीं है या संघी क्यों नहीं है

-गिरिजेश्वर,मैथन,धनबाद..


१६ अगस्त २०१० ६:५३ पूर्वाह्न
aatmahanta ने कहा…
कामरेड, चीजों को थोड़ी दूरी बनाकर देखने से उसकी समग्रता समझ में आती है। मैं आपकी समझदारी पर सवाल नहीं खड़े करता, पर यह भी उतना ही सच है कि हम जहां तक देख सकें दुनिया वहीं तक नहीं होती। मैंने समुदाय-कौम की बात की है, जाति की नहीं। जाति तो मुसलमान में भी हैं और अन्यत्र भी। लेकिन कोई प्रवृत्ति जब किसी जाति विशेष में या कौम विशेष में बहुतायत से पाई जाए तो निश्चय ही यह विशेष अध्ययन को आमंत्रित करता है। कभी कोई बीमार अपने को बीमार नहीं कहना चाहता। पर डाक्टर के पास जाने से भी नहीं घबड़ाता। और रही बात बहस के लायक मुद्दा का तो किसी भी गंभीर मसले को अमूर्तता का लबादा ओढाकर उसे बहस के दायरे से खारिज किया जा सकता है। और बहस में शिरकत की जिम्मेवारी से बाहर से आ सकते हैं। क्या आपको नहीं लगता कि इस मामले में एक बहसतलब मसले को इसलिए खारिज किया जा रहा है कि वह किसी 'वाद' या पार्टी लाईन के खिलाफ पड़ती है।
कामरेड चीजों को उसके वास्तविक रंगों-आभा में देखने के लिए अपनी आंखों से चश्मा हमें आंखों से उतारना होगा। हो सकता है बहस का विषय किसी चश्मे को पहन कर तैयार किया गया हो, पर बहस में आकर ही इसे देखा जा सकता है। मेरा इरादा किसी कौम को नीचा दीखाना नहीं था, सिर्फ यह परखना था कि मेरी जिज्ञासा सचमुच बहसतलब है या नहीं, या बस सिरफिरापन?

शनिवार, 7 अगस्त 2010

शिबू को आज भी विश्वास से देखते हैं सर्जक

- सरकार के लिए जोड़तोड़ के बीच कथाओं के नायक

फणीश्वरनाथ रेणु ने वास्तविक जीवन से चलित्तर कर्मकार तथा बावनदास जैसे पात्रों को उठाकर अपने ऐतिहासिक आंचलिक उपन्यास ‘मैला आंचल’ के कथानक में पिरोया। इसी तरह भैरव प्रसाद गुप्त, राही मासूम रजा, नागार्जुन ने भी वास्तविक जीवन से पात्रों को उठाया, पर हू ब हू रखने की बजाए, काल्पनिक कलेवर प्रदान किया है। उल्लेखनीय यह नहीं है कि किसने वास्तविक पात्रों को किस रूप में चित्रित किया है। उल्लेखनीय यह है कि ऐसे पात्र जब वास्तविक जीवन में मूल्यों व व्यवस्थाओं की टकराहट के बीच कृतियों से हटकर मौजूद दिखाई पड़ते हैं तो सर्जक अपने पात्र को कैसे देखते हैं। यह मामला फिलहाल इसलिए मौजूं हो गया है कि कई कथाकारों की कृतियों में ईंट-गारे की तरह रचे-बसे शिबू झारखंड के राजनीतिक परिदृश्य में एक बार फिर चर्चा की धुरी में हैं। चर्चा की धुरी ही नहीं, बल्कि झारखंड की राजनीतिक कुंडली के प्रभावी घर में बैठे हैं। गुरु जी को अपना औपन्यासिक नायक बनानेवाले कथाकार कुर्सी की उठापटक में शामिल अपने नायक को कैसे देखते हैं? उनकी भूमिका को राजनीतिक मूल्यों की गिरावट की स्वाभाविक परिणति मानते हैं या शिबू का निजी पतन या फिर समग्र भारतीय चरित्र की विकृतिका हिस्सा ? हम यहां बात कर रहे हैं ‘गगन घटा घहरान’ के लेखक मनमोहन पाठक व ‘समर शेष’ के सर्जक विनोद कुमार की।

परिवर्तन जीवन का नियम है – पाठक

अपने चर्चित पहले उपन्यास ‘गगन घटा घहरान’ में शिबू सोरेन को चित्रित करनेवाले हिंदी कथाकार मनमोहन पाठक गुरु जी की स्थिति को कतई अजीबोगरीब नहीं मानते। उनका साफ कहना है कि अब न तो यह शिबू का पतन या न ही उनकी चारित्रिक गिरावट है। इसे वह अपने पात्र की वास्तविक जीवन में विकृति या विचलन भी नहीं मानते। श्री पाठक कहते हैं कि परिवर्तन जीवन का नियम है। यह अजूबा तब लगता है जब हम किसी पात्र या चरित्र से अदभुत आकांक्षाएं पाल लेते हैं। इस महान सभ्यता के मूल्य, परंपरा, संस्कृति को अपनी पीठ पर लादे प्रभु वर्ग या श्रेष्ठ जाति के नेताओं में जब विचलन या विकति दिखाई पड़ते हैं तो यह सवाल नहीं उठता। दर्जन भर भाषाओं के ज्ञाता नरसिम्हा राव या मनमोहन सिंह या डा. जगन्नाथ मिश्र अपने वास्तविक रूप में दीखते हैं तो सवाल वहां उठना चाहिए, पर ऐसे सवाल वहां नहीं उठते है। जनसंघर्षों की बदौलत जिस राजनीतिक मुकाम पर आज सोरेन दीखते हैं, वहां उस वर्ग के नेता के लिए पहुंचना दुर्लभ है। कथाकार मनमोहन पाठक स्वीकारते हैं कि शिबू आज जैसे दीखते हैं वैसे नहीं थे। इसका मतलब यह नहीं कि अपने कथानक के पात्र को वास्तविक जीवन में हटकर देखने पर उसे खारिज कर दें। हमारा वश तो अपने कथानक व उसके घटनाक्रम पर होता है। जहां तक बदले स्वरूप को लेकर कथा को पिरोने की बात है तो यह चरित्र में निहित आग के कारण संभव होता है। कोई चरित्र कथाकार को अपने जीवन में उपस्थितियों के कारण खीचता है। यह आग तब तक शिबू में थी, हमने उन्हें अपनी कृति में लिया। यह भी सच है कि समकालीन राजनीति में शिबू के पास आज भी बहुत कुछ ऐसा है जो बहुतों के पास नहीं है। वैसे यह गौर तलब है कि आज से 18 साल पहले जब यह उपन्यास छपा था तभी अपने लेख में कथाकार नारायण सिंह ने उपन्यास के साल भर में अप्रासंगिक हो जाने की बात कही थी। (उपन्यास कतार प्रकाशन से प्रकाशित)

पोखरिया के गुरु जी नहीं लग रहे – विनोद

‘समर शेष है’ नामक अपने उपन्यास में शिबू सोरेन को अपना नायक बनाने वाले पत्रकार कथाकार विनोद कुमार बहुत सपाट और बेलाग भाव में कहते हैं कि आज समर्थन के लिए लोगों के पास जानेवाले गुरु जी पोखरिया के गुरु जी नहीं लगते। उन्होंने अपने उपन्यास का हवाला देते हुए कहा कि जिस कालखंड पर आधारित गुरु जी का चरित्रांकन हुआ, उस समय वे वैसे थे। कुर्सी की जोड़तोड़ में लगे अपने नायक को देखकर वे कहते हैं कि समर्थन वापसी तो ठीक थी, लेकिन अब वे जो कुछ कर रहे हैं ठीक नहीं लगता। उन्हें धीरज और साहस का परिचय देना चाहिए था। एक अल्पायु सरकार के लिए भागमभाग में लगे गुरु जी को देखकर धक्का लगता है। वे कहते हैं कि पोखरिया से निकलने के बाद उन्होंने दुबारा टुंडी का रुख तक नहीं किया। वे बहुत दूर चले गए हैं। ऐसा नहीं कि उस कालखंड में चलाए गए अपने संघर्ष को वे भूल गए हैं, पर संसदीय राजनीति अब काजल की कोठरी हो गई है, जहां से बेदाग निकलना मुमकिन ही नहीं। वे भलीभांति जानते हैं कि कांग्रेस ने उनको छला ही है। कहीं न कहीं, वे कांग्रेस के बगैर सरकार चलाना चाहते थे, पर परिवार से मोहग्रस्त हो जाने के बाद राजनीति में उनके निकट के लोग उनसे दूर होते गए। वे जो कर रहे हैं राजनीति में होने के कारण ऐसी कामना कर सकते हैं, पर उनके साथ भला नहीं होगा। ऐसा लगता है कि दिक्कू राजनीति का विरोध करते-करते वे भी दिक्कू हो गए है। (उपन्यास प्रकाशन संस्थान दिल्ली से प्रकाशित।)