हमसफर

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

सामाजिक सरोकार कहीं भी निभाए जा सकते हैं – विनोद सिंह

-एक युवा विधायक के सरोकार-
(राजनीति का मतलब ही सत्ता से लिया जाता है और कला का मतलब ही साधना से लिया जाता है। एक क्षेत्र निहायत बहिर्मुखता से होकर भोग की ओर चला गया है तो दूसरा क्षेत्र सर्वथा अंतर्मुखताकी गली से होकर उदासी में निर्लिप्तता में चला जाता है। इस घोर बाजारवादी दौर में दोनों ही क्षेत्र में विपरीत उदाहरण देखने को मिलेंगे। लेकिन यह सोचना थोड़ा अचरज लग सकता है कि क्या कोई एक ही साथ दोनों कर्मों को साध सकता है। हमारे दौर में पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्या बांग्ला के नामचीन कवि हैं और कभी कर्नाटक के मुख्यमंत्री रह चुके तथा फिलहाल में केद्र में कानून मंत्री वीरप्पा मोइली कन्नड़ के कवि है। हम यहां कविता और राजनीति को एक साथ साधने की बात तो नहीं करेंगे, पर हमारा मकसद इसी से थोड़ा आगे चलकर यह देखना-जानना है कि कैसे कोई संस्कृतिकर्मी एक साथ अपनी कला व राजनीति को साध रहा है। ऐसे ही एक संस्कृतिकर्मी झारखंड विधानसभा में भाकपा माले के विधायक विनोद सिंह हैं। उनकी कला चेतना देखनी हो तो कोई शहीद महेंद्र सिंह की पुण्यतिथि के मौके पर बगोदर में (झारखंड के गिरिडीह जिला का हजारीबाग से सटा एक विधानसभा क्षेत्र) उनके कविता पोस्टरों को देखे। इसी संदर्भ में बेहद संभावनाशील मूर्तिकार रहे माले विधायक विनोद सिंह से हुई बातचीत का अंश प्रस्तुत है। )

झारखंड में सरकार के भविष्य को लेकर इन दिनों उहापोह तो नहीं रही, पर यह भी तय है कि जिंदा मेढ़क को लेकर कोई अधिक दिनों तक बहुमत में नहीं रह सकता है। जब पूरा सियासी माहौल सरकार गिराने-बनाने की जद्दोजहद से गंधा रहा हो तो वैसे में एक विधायक से संस्कृतिकर्म पर बातचीत के लिए मोहलत लेना एक ज्यादती कही जाएगी। ज्यादती राजनीतिक प्रतिबद्धता के संदर्भ में। सदन की गहमा-गहमी भरे माहौल में कैसे कोई एक विधायक से कला-संस्कृति, सामाजिक सरोकार और नागरिक चेतना पर बात करने के लिए वक्त लेने की सोचे। यह तो सिर्फ लेनिन ही हो सकते थे जो मजदूरों की बैठक में भी किसी कविता का सविस्तार जिक्र छेड़ देते और उसके निहितार्थों और सामाजिक अर्थवत्ता से लोगों को अवगत कराते। लेनिन तो नहीं, पर भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (माले) के कर्मठ और प्रतिबद्ध विधायक के रूप में महेंद्र सिंह ने जैसा जीवन जीया पूरे राजनीतिक परिवेश के लिए संदेश से भरा है। उनकी राजनीतिक-सामाजिक सक्रियता और उसकी परिणतियां इतिहास हो गई हैं। बुद्धिजीवियों के बीच स्व. सिंह अपनी गंभीर सांस्कृतिक-साहित्यिक चेतना के लिए विशेष रूप से जाने जाते रहेंगे। हम यहां उन्हींके विधायक पुत्र विनोद सिंह की बात कर रहे हैं जो अपनी कला-संस्कृति संबंधी सक्रियताओं के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं। उनके विधायक पिता की जब गिरिडीह में नक्सलियों ने हत्या की थी, तबवे कला कम्यून में थे और कश्तूरी नाम की फिल्म के निर्माण में व्यस्त थे। आज भी वे अपने साथ के लोगों-परिचितों को कला-कम्यून में ले जाते हैं। दूसरों की तरह कला के नाम पर दोहन के लिए नहीं, वहां उनमें आम जीवन की कला के संस्कार से भरने के लिए। ऐसा इसलिए कि उनमें लोगों को कला-संस्कृति की चेतना से जोड़ने की भूख है। वे वहां तलाशते हैं आमजन की कला-संस्कृति की चेतना। अपने पिता से विरासत में मिले प्रतिरोध के संस्कार से लैस होकर विनोद सिंह जनता के बीच अपनी कला से प्रतिरोध की चेतना को एक नया आयाम दे रहे हैं। कविता पोस्टर और मूर्तिशिल्प से उन्होंने अपने गांव दुर्गीधवैया को लगभग पाट दिया है। गांव का एक हिस्सा तो जैसे कलाग्राम के अहसास से भर देता है। विरासत में पाया बौद्धिक संस्कार किन-किन रूपों में फल-फूल रहा है और कला चेतना की गहनता के साथ यथार्थ से उनके सरोकारों की सघनता का आज क्या हाल है, इसे जानने के लिए हमने उनसे बातचीत की। 2007 में पार्टी लाईन से हटकर विनोद सिंह संप्रग सरकार को बचे रहने के विरोध में थे। इससे जाहिर है कि उन दिनों विनोद काफी शिद्दत के साथ उधेड़बुन में थे। जाहिर है कि राजनीतिकर्म में वे काफी गहरे उतर चुके हैं। दूसरी बार जब वे विधान सभा के लिए चुन लिए गए तो पार्टी के एक हल्के में चर्चा थी बगोदर से किसी और को टिकट दिए जाने की और विरोधियों में भी इसे लेकर रणनीति बन रही थी। लेकिन जमीनी काम को दरकिनार किया जाना मुनासिब नहीं हुआ और जीत उसका प्रमाण बनी। कभी-कभी लगता है जैसे जनसरोकारों को लेकर वे किसी भी हद तक जा सकते हैं और विधायकी या गंभीर अनुशासनात्मक कार्रवाई की उन्हें परवाह नहीं।

राजनीति बाध्यता है या अभियान, इस पर उनका कहना है कि राजनीति में आने से पहले मैं भले ही कला-संस्कृति में सीधे सक्रिय था, पर इसका मतलब यह नहीं कि वहां मेरा कोई सामाजिक सरोकार नहीं था। हां, यह अलग बात है कि सीधे राजनीति की तरह नहीं। कहीं न कहीं जो वैचारिक प्रतिबद्धता और सामाजिक सरोकार थे, शायद उन्हीं कारणों से राजनीति में भी रह गया। हां, यह बात जरूर है कि राजनीति में हमारे सामाजिक सरोकार सीधे हमारे कर्म को प्रभावित करते हैं। यहां प्रत्यक्षतः सामाजिक सरोकार राजनीति को प्रभावित करते हैं। कला में यह काम घुमाफिराकर होता है। और चूंकि इस सारी प्रक्रिया में शिल्पगत कौशल का बड़ा हाथ होता है, इसलिए बहुत बार कलाकार के सामाजिक सरोकार को रेखांकित करना अपेक्षाकृत मुश्किल होता है। फिर भी मेरा मानना है कि राजनीति सामाजिक सरोकारों को सिद्ध करने का सीधा जरिया नहीं। आप कला में अपने सरोकारों को लेकर सीधे प्रवेश करते हैं, अभिव्यक्ति के लिए रूपों के चुनाव में, युक्तियों के चुनाव में सरोकार थोड़ा दब जाते हैं। रूप-वस्तु के द्वंद्व में यह अंडरकरेंट रह जाता है।

वे अपनी बात के विस्तार में जाकर कहते हैं कि राजनीति में आपकी संलग्नता बहुत बार सीधे नहीं हो पाती। तंत्र की बाध्यताएं आड़े आती हैं।

कला-संस्कृति, वैचारिक बहस की गुत्थम-गुत्थी में डूबे रहनेवाले विनोद सिंह क्या कुछ मिस नहीं कर रहे? इस पर विनोद जी का कहना है कि अब राजनीति में सीधे जुड़ने के बाद तो तरह-तरह की व्यस्तताएं और सक्रियताएं आ जाने से समय की घोर कमी आ गई है। पहले की तरह सक्रिय होकर उस क्षेत्र के लिए कुछ नहीं कर पाने की कसक तो है, पर उसकी भरपाई के लिए सृजनात्मक कार्यों में लगे रहने से खुशी मिलती है।

कला की गहन चेतना और यथार्थ के सघन सरोकारों से जुड़ा एक गंभीर कलाकार राजनीति में एलिएन (विजातीय) तो नहीं ? विनोद जी कहते हैं कि लगभग सभी लोग राजनीति को गाली देते हैं। कुछ लोग इसे एक गंदी नाली तक कह ते हैं। एक हद तक यह बात सही भी है और यह भी कि उसमें रहनेवाले कुछ लोग उसे और भी गंदी करते हैं। कभी-कभी शातिर सियासी कलाबाजियों से तो कभी बेहद फूहड़ता और टुच्चई से गंधा रहे इस माहौल में ऊब भी होती है। लेकिन ऊब कर वहां से निकल जाना इसका कोई उपाय नहीं। लगता है यह पलायन होगा और इससे अवांछितों को आसानी से जगह मिल जाएगी। वे कहते हैं कि अपनी प्रतिबद्धताओं और सरोकारों को बचाकर रखते हुए कुछ भी कर सका तो पाजिटिव ही होगा।

कला के प्रति आपकी जैसी गंभीर दिलचस्पी थी, क्या उसे देखते हुए अब आप उसके साथ न्याय कर पा रहे हैं (वह पैशन फैशन में तो कन्वर्ट नहीं हो गया?) छूटते ही विनोद जी कहते हैं पहले भी मैं कला के क्षेत्र में कोई बड़ा काम नहीं कर रहा था। कुछ साथी थे, जिनके प्रयास में मैं भी शामिल था। जहां तक कला के सरोकार की बात है तो आप जिस किसी भी क्षेत्र में हों वहां एक हद तक तो आपका सामाजिक सरोकार होता ही है। उन्हीं सरोकारों से प्रेरित होकर कलाकार भी अपना काम करता है। इसलिए राजनीति में आने के बाद ऐसी कोई बात नहीं कि यहां आते ही हमारे सरोकार बदल जाते हैं। जहां तक समाज के लिए कुछ करने की बात है, तो वह कहीं भी किया जा सकता है। यह तय होता है आपकी प्राथमिकता से।

राजनीति से सीधे जुड़ाव के बाद कला के क्षेत्र में पहले की तरह सक्रिय न रह पाने की कसक तो है ही, पर अभी भी कुछ न कुछ कर ही लेता हूं। यह अलग बात है कि पहले सी निरंतरता उसमें नहीं रही। इन दिनों राजनीति से हटकर क्या कुछ कर रहे हैं, इस जिज्ञासा पर वह अपने पढ़ने की भूख के बारे में बताते हैं। उन्होंने कहा कि पिछले दिनों नेपाल पर लिखी एक किताब का हिंदी अनुवाद पढ़ा। जब कभी वक्त मिलता है उसे खंगाल लेता हूं।
क्या आप इसे मानेंगे कि कला (किसी भी संस्कृति कर्म ) के बजाए राजनीति सामाजिक बदलाव लाने के लिए एक कारगर जरिया है ? क्या यहीं कारण तो नहीं कि इसने शिद्दत से आपको बांध रखा है।

‘कश्तूरी’ का अनुभव कैसा रहा ? क्या इसे आप विस्तार देने की सोच है ?
फिल्म निर्माण बस एक अनुभव के लिए था। बहुत कुछ सीखा, जाना। लेकिन ऐसा नहीं कि यहां फुलस्टाप हो गया। इससे मिली सीख के आधार पर आगे भी कुछ करेंगे। यह फिल्म निर्माण के लिए फिल्म निर्माण कम और कलाकर्म के अनुभव के लिए अधिक था।

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