हमसफर

सोमवार, 9 नवंबर 2015

वर्चुअल संसार के नायकों के लिए सबक


आज जिस असहिष्णुता को लेकर तांडव मचा हुआ है, उसकी जवाबदेही कहीं न कहीं मुल्क की बौद्धिक जमात की है. सवाल यह मौजूं नहीं है कि बीते दौर में उसने क्या किया और क्या नहीं किया. सवाल यह है कि राजनीति में विचार की अहमियत को वह अब भी नहीं समझना चाहता. यही कारण है कि विचार शून्य राजनीति में नायक की तरह उभरे नरेंद्र मोदी मीडिया ट्यूनर बने हुए हैं. इस इक्वलाइजर से वह जब जैसी जरूरत सुर-स्वर छेड़ते हैं. किस आवास को उभारना है, किसे दाबना है, इक्वलाइजर यही तो करता है. बिहार विधान सभा के चुनाव परिणाम ने जिस तरह बिहार के वोटर की परिपक्वता सामने आयी है, वह इन बोद्धिकों के लिए एक सबक है. ये पुरस्कार लौटानेवाले बौद्धिक मुल्क के समक्ष असहिष्णुता का एक कृत्रिम परदृश्य बनाने में लगे रहे. उन्हें दाल, तेल, गैस जैसे मसले से कोई सरोकार नहीं. आभासी दुनिया के नायक और कर ही क्या सकते हैं.
समय-समाज की बजाय अपनी मर्जी से बात करना पसंद करनेवाले मोदी भी लगभग एक आभासी संसार ही बना रहे हैं. इसीलिए मन की बात फैशन में भी आ गयी. दाल-तेल की कीमत भले ही मुल्क के गरीब के सहने से बाहर हो, पर बौद्धिकों के लिए यह सहिष्णुता के दायरे में है. आजादी के बाद से छात्र आंदोलन को छोड़ न तो भाषा, न रोटी, न शिक्षा और न ही सेहत को लेकर यह बौद्धिक जगत कभी उद्वेलित-आंदोलित हुआ. प्रधानमंत्री के खेल का ही नतीजा है कि आज दाल बहस के परिदृश्य के बाहर सर पटक रही है और बौद्धिक जमात असहिष्णुता का माला जप रही है.
ठीक इसी तरह हुआ था चार साल पहले. तहरीर चौक का मामला हुए थोड़े ही दिन हुआ था. मुल्क में टू जी के मामले में एक से खुलासे हो रहे थे और फिर मीडिया स्टार इसमें घिरने लगे थे. और तब लोकपाल को लेकर उद्धारकर्ता की तरह अण्णा हजारे का परिदृश्य में आगमन हुआ. देश के सौ से अधिक चैनल के संपादकों ने रातों-रात अम्णा हजारे के आंदोलन के कवरेज की रणनीति बनायी। और फिर चाह कर भी टू-जी के मामले में पत्रकारों की शिरकत का मामला दब गया तो दब गया. और तकदीर के उन सांढ़ों की प्रोन्नति होती चल गयी. बाद में उन्हीं में से एक महिला पत्रकार ने सियासी हस्ती को पकड़ लिया.

बहुत हो गयी मन की, अब जन की बात करें

नरेंद्र मोदी की राजनीतिक सफलता ने उन्हें भले ही विकास के गुजराती मॉडल की ब्रांडिंग का मौका दिया, लेकिन बिहार में महागंठबंधन ने इसकी कलई खोल कर रख दी. लोस चुनाव में जिस विकास को उन्होंने चुनावी मुद्दा बनाया था, बिहार विस चुनाव में दूर-दूर तक वह नहीं दिखा. गो-मांस के नाम पर वितंडा, नीतीश के डीएनए का सवाल, आरएसएस द्वारा छेड़े गये आरक्षण का जिन्न और जंगलराज पार्ट टू ने मिल कर जैसे बिहार की जनता को झुंझला दिया-झल्ला दिया. नीतीश के सुशासन को अपनी आंखों से देखनेवाले बिहारी मतदाता ने महंगाई से भटकानेवाले असहिष्णुता के मुद्दे को कीमत नहीं दी. भले ही देश भर के बुद्धिजीवी मीडिया ट्यूनर नरेंद्र मोदी के बहकावे में आकर असहिष्णुता का राग अलापते रहे और पब्लिक की पॉकेटमारी (दाल, पेट्रोल, गैस,...) से आंख मूंदे रहे. इसलिए कि महंगाई उनकी सहिष्णुता की हद में थी. लेकिन बिहार के लोगों ने पॉकेट में हाथ डालनेवाले के हाथ काट डालेंगे उन्हें भी नहीं पता था.

दरअसल ब्रांडिंग और इवेंट के भरमा दी गयी जनता की बदौलत दिल्ली की बादशाहत पाये नरेंद्र मोदी पर बहुत जल्द कामयाबी आवेग बन कर सवार हो गयी. बड़बोलापन उसी नशे से निकला है. यदि भाजपा के कैलाश विजयवर्गीय ने भाजपा के वरिष्ठ सांसद शत्रुघ्न सिन्हा की तुलना कुत्ते से की है तो आकस्मिक नहीं. हो सकता है यह हार से उपजी खीझ हो, पर है तो उसी पार्टी के नेता का बयान जिसके दुलारे नायक मोदी ने चुनाव से पूर्व डीएनए के दोष की बात की थी. साक्षी महाराज, भाजपा की सांसद साध्वी निरंजन ज्योति उसी घराने के हैं. सफलता के इसी नशे की उपज मन की बात है. जब जो जी में आये वह बोलेंगे. कितना भी जरूरी हो, जी नहीं तो जुबान नहीं खोलेेंगे.