हमसफर

बुधवार, 9 सितंबर 2009

अहसानमंद हैं गाली नहीं दें

नहीं मालूम यह कौन सी हवा चली कि लोग अपने दौरों में कीर्तिमान स्थापित करनेवालों को गाली देकर अपनी कालर ऊंची कर रहे हैं। क्रिकेट या टेनिस से मेरी दिलचस्पी मैदान में भारत या भारतीय की मौजदूगी रहने तक सीमित है। लेकिन प्रभाष जी ने खेल पत्रकारिता को जो कलेवर, मिजाज और तेवर दिए वह किसी खेल पत्रकार के बूते की बात नहीं। विषय कोई भी हो, वो अपनी कंटेंट को जिस तरह खोलते हैं, जैसा रिदम पैदा करते हैं विषय की जटिलता या प्रसंग से वाकफियत की कोई जरूरत नहीं होती। आखिर हिंदी का कौन पत्रकार इसे मानने को तैयार नहीं। उन्होंने एक अखबार से/में जो कुछ किया वह हिंदी पत्रकारिता का मानक हुआ। परिदृश्य में उनकी मौजूदगी प्रसंग को अर्थवान बना देती थी। हिंदी पट्टी की नई बिरादरी जो अभी-अभी मीडिया में प्रवेश ही कर रही है, उसे इन चीजों को देखना-सुनना, परखना-गुनना, सीखना-समझना चाहिए। दुर्भाग्य ही है कि वह आंख बंद कर चीजों को मंजूर कर रही है या खारिज कर रही है। वह परिदृश्य से विस्मित है या मगन है। दोनों ही हालातों में आखें बंद हो जाती हैं। आखिर जिस साक्षात्कार को लेकर लोग वितंडा खडा कर रहे हैं, क्या उसे समग्रता से, विषय को समूचेपन में उन्होंने देखा है। उन्होंने ब्राह्मण की, ब्राह्मणत्व की चर्चा जरूर की, पर कहीं भी उसे स्थापित करने के लिए तर्क नहीं गढ़े। आखिर सदियों का अभ्यास शारीरिक संरचना, व्यवहार, कौशल व उसके बाद संस्कार को कैसे अप्रभावित रहने देंगे। यह ठीक है कि उन्होंने किसी के चुनाव प्रचार में सभा को संबोधित कर दिया। आखिर कोई तो बता दे कि इस दुनिया की किसी भी सभ्यता का नायक सभी मायने में आदर्श रहा। मेरा तो मानना है कि सभी नायक लात की पैदाइश थे। यदि उनकी सीमाएं लोगों को स्वीकार्य हैं तो प्रभाष जी तो वह मूर्ति नहीं बने। आखिर उनके दाय को देखते हुए, इन चीजों पर स्वस्थ चर्चा संभव नहीं थी। हमें जिनका कर्जदार होना चाहिए, हम उन्हें गरियाकर कालर ऊंची करके खुश हो लेते हैं। यह सब मैं इसलिए नहीं लिख रहा कि मुझे उनकी कृपा प्राप्त है, या कृपा की अपेक्षा है। मैंने 14 सालों तक कस्बे में पत्रकारिता की है। और बड़े अखबारों में प्रभावी पदों पर रहने का मौका मिला। चीजों को विकृत होते हुए, विकृति के कारणों को खुली आंखों देखा। अखबार नहीं आंदोलन का नारा बुलंद करनेवाले अखबार में समन्वयक व फीचर प्रभारी का साल २००५ में इसलिए छोड़ दिया कि प्रबंधन अपनी दिलचस्पी के अनुसार चीजों को चलाने की छूट पा गया था। आज खूब खूशी-खुशी मीडिया से विदा होकर सामाजिक कार्य के क्षेत्र में हूं।

मेरे कहने का मतलब यह भी नहीं कि आप श्रेष्ठों के कूड़ों को पचा लें, पर स्वस्थ विमर्श भी तो एक विकल्प है। क्या वे इतने दुश्मन हो गए कि वे अब फूटी आंखों नहीं सुहाते?

शनिवार, 5 सितंबर 2009

कौन लगाएगा बंदिश

मैं इस पचडे में नहीं पड़ता कि जसवंत सिंह की ऐतिहासिक दृष्टि क्या है, अप्रो़च क्या है ? लेकिन बंदिश लगाने वालों की परेशानी बेहद गैरजिम्मेदारी दिखा गयी। बंदिश के चाबुक चलानेवालों को पटेल की छवि की चिंता कितनी थी और वोट की फिक्र कितनी सता रही थी इसे सभी जान गए। वे भी, जिनसे यह छद्म रचने का बहाना करना था। गाँधी को पानी पी-पीकर गाली देनेवाले भी ये ही थे। देशप्रेम और राष्ट्रीयता इनके जहन में कितना था? उन्हें याद दिलाना होगा कि जिसे लोग झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई कहते हैं उसकी राष्ट्रीयता पर किसी ने सवाल उठाया भी तो वह इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह गया। संग्राम की किताबों की मानें तो १८५७ के संग्राम में अंग्रेजों को लक्ष्मीबाई ने साफ तौर पर संदेश दिया था कि यदि वे doctrine of lapse को वापस ले लेते हैं तो इस संग्राम में उनकी ओर से लडेगी। इस संदेसे में कौन सा देशप्रेम छिपा है और कितना सौदा छिपा है, ये भगवाधारी ही बता सकते हैं। कांग्रेस यदि झूठ का महिमामंडन कर रही है तो येही कितने पीछे हैं। संग्राम की किताबों को धोखें खंगालें।
दाल गलाने का यह कौन सा तरीका ?
मैं जसवंत सिंह के इतिहास अध्ययन पर सवाल नहीं उठा रहा, पर राजनीति के घिनौने तौर-तरीके पर यह सवाल तो कर ही सकता हूँ कि उन्होंने पार्टी से निकाले जाने पर जो सवाल दागे वह किस दृष्टि के थे ? उसका इतिहास के किस सोच से वास्ता था। किस सियासी सोच के थे? इस बुढौती में वे पापों को छिपाकर रखने की कीमत मांगते से दिखते हैं। पेट साफ पेट साफ करने वाली दाई तो फिर भी बेहतर है, क्योंकि वह घोषित रूप से ऐसा काम करती है और एवज में कुछ भी अतिरिक्त नहीं मांगती। ब्लैकमेल करना तो उसके पेशे में आता ही नहीं। वह तो साफ कहते हैं कि उन्होंने आडवाणी के नक्शे-कदम पर चलने की कोशिश की। उन्हें दृष्टि, अध्ययन आदि आदि से क्या लेना-देना। उन्हें तो सिर्फ पापों की परदादारी का लगान चाहिए।