हमसफर

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

यह तो होना ही था

ज्ञानरंजन के नाम को मानद उपाधि के लिए राजभवन से स्वीकृति न मिल सकी पहल के संपादक ज्ञानरंजन जी इस बात से न तो भौंचक हैं ओर न ही उत्तेजित जितना स्नेही साहित्यकार.इस घटना को बेहद सहजता से लिया.रानी दुर्गावती विश्व विद्यालय की प्रस्तावित मानद उपाधि सूची का हू-ब-हू अनुमोदित होकर वापस न आना कम से कम ज्ञानजी के लिए अहमियत की बात नहीं है. इस समाचार पर आज सुबह सवेरे ज्ञान जी से फोन पर संपर्क साधा तो समाचार को सहजता से लेने की बात कहते हुए ज्ञान जी ने कहा :-गिरीश अब तुम लोग ब्लागिंग की तरफ चले गए हो बेशक ब्लागिंग एक बेहतरीन विधा है किन्तु तुम को पढ़ना सुनना कई दिनों से नहीं हुआ.
हां दादा वास्तव में अखबारों के पास हम जैसों को छापने के लिए जगह नहीं है और मेरा मोहभंग भी हो गया है.
"तो तुम लोगों को सुनु पडूँ कैसे कम से कम एक बार महीने में गोष्ठी तो हो "
भारत ब्रिगेड वेबसाईट पर उक्त का अंश पढ़ने के बाद- --

याद है एक बार मैं एक दैनिक के साहित्यिक परिशिष्ट संपादन के क्रम में हिंदी के तीन दिग्गज कथाकारो भीष्म साहनी, अमरकांत तथा ज्ञानरंजन पर आठ पन्ने का एक परिशिष्ट निकालना चाह रहा था। उन्होंने साफ-साफ शब्दों में ऐसे आयोजनों से बचने को कहा था। फिर हरि भटनागर से संपर्क साधा उन्होंने कहा उनसे समय लेकर साक्षात्कार लेकर दूंगा। ज्ञान दा को भनक मिल गई होगी सो यह भी नहीं हुआ। परिशिष्ट निकला। चर्चा भी हुई। याद है एक बार मध्यप्रदेश शासन से वहां के संस्कृति परिषद का सचिव बनाया जा रहा था। माह भर के उधेड़बुन के बाद उन्होंने आफर को ठुकरा दिया। उन्हें लगा इससे महत्वपूर्ण है पहल का संपादन। इस पत्रिका को वह अपने खून-पसीने से सींच रहे थे। इसके प्रतिनिधित्व से जुड़े लोगों को अपनी पत्रिका के लिए विज्ञापन के अंबार रहते थे, पर पहल के नाम पर इनके पास टोटा होता था। एक बार कैसे न कैसे ज्ञानरंजन-नामवर का बड़ा बवेला मचा था। आचार्य नामवर के पक्ष के तरकश से एक से एक तीर दागे जा रहे थे। यह सब तब हुआ जब ज्ञान दा पहल में पहली बार नामवर पर बेहद महत्पूर्ण विशेषांक निकाल चुके थे। सालों से संचित उनके चरित्रहनन का भी प्रयास हुआ। उन्होंने बड़े ही बेलाग भाव में उसका स्पष्टीकरण भी दिया था। मैंने एक अंक में पूरे प्रकरण पर लिखते हुए उनके स्पटीकरण को छापा था। कभी किसी को पहल सम्मान देते तो सूचना होती थी, सम्मानित साहित्यकार से संबंधित कुछ रचनाएं और आग्रह (वे आदेश देने की हैसियत रखते थे) भी हो सके तो कुछ छाप दो। मैं अपने ज्ञान-विवेकानुसार उसे बरतता था। एक बार कवि अरुण कमल के पत्र से ज्ञात हुआ कि कवि राजेश जोशी अपने ऊपर केंद्रित अंक देखकर बहुत खुश थे। यह तो है यारबाश ज्ञान दा का मिजाज। यदि एक शासन ने उन्हें मानद उपाधि से वंचित ही कर दिया तो क्या ज्ञान दा का कुछ ले तो नहीं लिया। वह ऐसी चीजों के लिए बने भी नहीं हैं। मुझे संदेह है कि ऐसे शासन की अनुशंसा पर यह स्वीकार भी करते। लेकिन शासन के द्वारा यह बर्ताव ज्ञानानुरागियों के लिए ही नहीं, रचानाकार जमात के लिए घोर अपमानजनक है। इससे साफ दीखता है कि इस वटवृक्ष ने कैसी विचार-संस्कृति का बिरवा बोया है, शासन को इस ऐतिहासिक अवदान से कोई सरोकार नहीं। और ऐसे शासन का सरोकार होगा भी कैसे। इस शासन का यह व्यवहार अचरज का विषय नहीं। आखिर प्रतिरोधी चेतना शासन से सम्मानित भी तो नहीं होगी। चोर से सम्मानित होना कहीं न कहीं चोरी को मंजूरी तो देने के बराबर ही है। खुशी है कि ज्ञान दा एक धब्बे से बच गए। अन्यथा इसे शासन की अनुकंपा का रंग दे दिया जाता।

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