हमसफर

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

डायरी के पन्ने से

अजय तिवारी के बहाने
करीब 13 साल पहले हिंदी कविता और उसके भाष्यकार को अजय तिवारी ने उनके कुलीनतावादी चेहरे को तार-तार करने का दुस्साहसिक कृत्य किया था। समकालीन कविता और कुलीनतावाद में सिर्फ कुलीनतावादी चेहरे को काटने-पीटने का सवाल नहीं था, बल्कि इसी बहाने उन्होंने हिंदी पट्टी की साहित्यिक-सांस्कृतिक मठाधीशी को भी तार-तार किया था। यह तिवारी जी की आलोचना ही थी जहां मुक्तिबोध की उधारी दिखी थी। अपनी आलोचनाओं में अंतर्राष्ट्रीय रीडिंग रूम दिखानेवाले तो बहुतेरे हुए, पर पोलिश सौंदर्यशास्त्री जान पारांदोव्स्की वाला पन्ना किसी ने नहीं पलटा था। (मुक्तिबोध ने बगैर किसी का हवाला दिए कला के जिन तीन क्षणों की बात की है, वह जान पारांदोव्स्की की अवधारणा है।)
ऐसा लगता है जैसे वर्ष 1957 में पुस्तक ‘नई कविता के प्रतिमान’ नहीं आती तो ‘कविता के नए प्रतिमान’ जैसा प्रतिमान गढ़ा भी जाता या नहीं, संदेह ही है। लेकिन अजय तिवारी की इस किताब के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। हिंदी पट्टी जैसा आत्ममुग्ध समाज है, उसे यथास्थिति में बने रहना पसंद है। ऐसा लगता है जैसे निर्बंध लूट के लिए सियासी सुराज ही उसका एकमात्र मकसद था, अन्यथा सर्वाधिक हलचल और हिलकोरों से भरा यह समाज आजादी (कथित) के बाद इस कदर निस्पंद नहीं रह जाता। उसे शासक वर्ग भाने लगा है। प्रतिरोध की चेतना से लबालब भरे रहनेवाले इस समाज की भाषा-संस्कृति से ठसक यूं ही गायब नहीं हो जाती। वहां की क्षेत्रीय राजनीति देखिए, भोजपुरी, मैथिली, खोरठा, छत्तीसगढ़ी बोली-बानी की कला-संस्कृति में आहट सुनिए। बालीवुड के थूक-पेशाब से सना हुआ है सब कुछ। न ही बालीवुड की प्रतिकृति है, न ही क्षेत्रीय संस्कार। हम फिर आते हैं गायब हो गई उसकी सांस्कृतिक ठसक पर। वह व्यवस्था का विरोध सिर्फ अपने हितों को बरकरार रखने या इसका इजाफा करने के वास्ते ही करता है। चालाकी से चमकती खुंटियल दाढ़ियों के पीछे का बर्बर-हिंस्र जंगल आपको नहीं दीखेगा। इस खुंटियल दाढ़ी में रहनेवाले समाजवादियों के विभिन्न संस्करण (मीडिया, एनजीओ, राजनीति) को बुरा नहीं लगना चाहिए कि लोहियावाद का गैरकांग्रेसवाद किन सिमेंटिंग फैक्टर्स की बदौलत चला। कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ने के लिए आया लोहियावादी समाजवाद जातिवाद का खुंखार चेहरा लेकर हाजिर हो गया। सांप्रदायिकता की काट में आया सामाजिक न्याय व सेकुलरवाद उग्र इस्लामियत का संरक्षक हो गया। वहां जब आलोचना प्रशंसा-अनुशंसा करने लगी हो, तो उससे तटस्थता की उम्मीद खतरनाक नादानी से अधिक कुछ नहीं कही जा सकती। तटस्थता की अनिवार्य परिणति निर्मम आत्मालोचना में होती है और आज सत्ताकामी आलोचक (विभिन्न क्षेत्रों में) यह नहीं कर सकता। वह वहां नहीं जा सकता है, जहां पहुंचकर तिवारी जी ने कविता की कुलीनता की खबर लेते हुए उन सबको भी औकात बताई थी, जो आलोचना के शीर्ष पुरुष बने फिरते हैं या फिर फैंटेसी के गुहांधकार में प्रगतिवाद का परचम धरे हुए हैं। वह 70-80 साल की उम्र में भी राज्य स(भा)त्ता में घुसने, वीसी की कुर्सी पर पीठ धरने या शिक्षण संस्थाओं में पीठासीन होने की लार टपकाते गली-कूचियों में फिर रहा है। वह आलोचना करके अपनी हैसियत को जोखिम में नहीं डालना चाहता। हमें यह याद रहनी चाहिए कि साहित्य की भूमिका प्रतिपक्ष की भूमिका होती है। इसकी चेतना प्रतिरोध की होती है। चित भी मेरी, पट भी मेरी जैसी बात नहीं होती यहां। पर वह तो अब प्रतिरोध शब्द मात्र से परहेज करने लगा है। इसकी आवाज मात्र से भड़कने लगा है। साहित्य में सत्ता पिपासुओं की केंद्रीयता से साहित्य की भूमिका खतरे में पड़ती है।
तिवारी जी ने अपनी उस किताब में आलोक धन्वा की कविताओं पर चुप्पी पसार दी। क्या कन्फ्यूसियस की शब्दावली में इसे निगेशन माना चाए। उसने मौन को भी एक भाषा कहा है। उनकी कविता हिंदी आलोचना में विचलन को समझने का पैरामीटर देती है। आमतौर पर उनकी कविताएं विवरणात्मक उतनी नहीं होतीं (जैसी कि दीखती हैं), जितनी कि रूपकों की मनोरम पर्वत चोटियां। रूपकों की सवारी पर उड़ान भरती उनकी कविताएं बाद के दिनों में क्रमशः छोटी होती हुई, अमूर्तता में पनाह लेने लगी। ‘दुनिया रोज बनती है’ में परिवर्तन की शाश्वतता का आख्यान मनोहारी तो है, पर उसके फलितार्थ (समूची कविताओं को पढ़ने के बाद सिर्फ धूम मचाई कविताओं के आधार पर नहीं) आलोक के प्रशंसकों के लिए खतरनाक संकेत है। दूसरी ओर कविता को लगभग गरिया के अंदाज तक जाकर साहित्य की रजनीशी करते राजेंद्र यादव पर तिवारी जी की चुप्पी अखरती है। वैसे अपने जमाने में सार्त्र भी कविता को साहित्य होने से खारिज करते रहे। जिन तार्किक परिणतियों के बूते राजेंद्र यादव (मन्नू भंडारी की भाषा में छलात्कारी) का विचार संसार खड़ा है, तो मैं उन्हें साहित्य का रजनीश पाता हूं। एक बार पीएल पीकाक ने काव्य की निष्प्रयोजनीयता साबित करने के लिए एक पुस्तिका ही लिख डाली। इसमें उन्होंने कहा था कि तर्क और विज्ञान के युग में काव्य केवल बर्बरता का ही अवशेष है। लगभग यही अंदाज था अरस्तु का जब उन्होंने कहा था कि कवि-कलाकार को समाज में नहीं रहने देना चाहिए। यह अलग बात है कि अरस्तु ने यह यूनान की सामरिक पृष्ठभूमि में कहा था। बावजूद इसके हम उसे जायज नहीं ठहरा सकते। पीकाक को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए प्रसिद्ध कवि पीबी शेली ने द डिफेंस आफ पोएट्री नामक निबंध ही लिख डाला। शेली की यह परंपरा आज भी अंग्रेजी कविता में जिंदा है। पोएट्री इंटरनेशनल वेब हर साल इसी विषय पर एक व्याख्यान रखता है। वेब जाकर हर साल दिए गए व्याख्यान को देखा जा सकता है। हमारा सवाल है कि इतनी बड़ी पट्टी में साहित्य की रजनीशी का कोई जवाब नहीं है ?
मुझे ऐसा लगता है कि जनतंत्र की आत्मा असहमति की आजादी के जिस सम्मान पर टिकी है, वह इन दिनों जोखिम (नुकसान) में है। यह सिर्फ हिंदी पट्टी की ही बात नहीं। पूरे देश में हम पाते हैं कि प्रबुद्ध वर्ग, बुद्धिजीवी तबका सबसे पहले तो मध्यवर्गीय लालसाओं से भरा पड़ा है। फिर वह सत्ता के पीछे लार टपकाता फिरने लगा है। दरअसल बुद्धिजीवियों का प्रपंच तब तार-तार होने लगा, जब से वह पार्टियों में सेंधमारी करने लगा है। वह पार्टियों की सारी गलाजत को मुकुट की मानकर चलता है और सारे तर्क-तीर उसकी रक्षा में तलाशता-चलाता फिर रहा है। कमोबेश साहित्यकार भी उसी बिरादरी में जाने लगा है। सभी भारतीय भाषाओं की देशज पत्रकारिता तबसे खतरे में पड़ गई है जब से वह कारपोरेट सत्ता के व्यूहचक्र में अपने को रखने लगा है। पत्रकारिता का उत्पात पूंजी की अटखेलियों और बाजार की गोद में हो रहा है। जनतंत्र व मानवाधिकार के हनन के सोते से वह प्यास बुझा रहा है। यही कारण है कि मुल्क में श्रम कानूनो का सर्वाधिक उल्लंघन करनेवाले प्रिंट मीडिया एक दोगली लड़ाई और घुटी आवाज में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के विरोध में मुंह खोलता है तो बाजार के मल उसमें प्रवेश पाने लगते हैं। बाजारवाद के उपद्रव और खतरों को पार करने के लिए खड़ा उपक्रम (मीडिया) कैसे सांस्कृतिक संकट बनकर खड़ा है, यह भी विचारणीय होना चाहिए। अब यह सिर्फ मीडिया नहीं रहा।

(अजय तिवारी को लिखे पत्र पर आधारित) 03.01.2007

बुधवार, 9 सितंबर 2009

अहसानमंद हैं गाली नहीं दें

नहीं मालूम यह कौन सी हवा चली कि लोग अपने दौरों में कीर्तिमान स्थापित करनेवालों को गाली देकर अपनी कालर ऊंची कर रहे हैं। क्रिकेट या टेनिस से मेरी दिलचस्पी मैदान में भारत या भारतीय की मौजदूगी रहने तक सीमित है। लेकिन प्रभाष जी ने खेल पत्रकारिता को जो कलेवर, मिजाज और तेवर दिए वह किसी खेल पत्रकार के बूते की बात नहीं। विषय कोई भी हो, वो अपनी कंटेंट को जिस तरह खोलते हैं, जैसा रिदम पैदा करते हैं विषय की जटिलता या प्रसंग से वाकफियत की कोई जरूरत नहीं होती। आखिर हिंदी का कौन पत्रकार इसे मानने को तैयार नहीं। उन्होंने एक अखबार से/में जो कुछ किया वह हिंदी पत्रकारिता का मानक हुआ। परिदृश्य में उनकी मौजूदगी प्रसंग को अर्थवान बना देती थी। हिंदी पट्टी की नई बिरादरी जो अभी-अभी मीडिया में प्रवेश ही कर रही है, उसे इन चीजों को देखना-सुनना, परखना-गुनना, सीखना-समझना चाहिए। दुर्भाग्य ही है कि वह आंख बंद कर चीजों को मंजूर कर रही है या खारिज कर रही है। वह परिदृश्य से विस्मित है या मगन है। दोनों ही हालातों में आखें बंद हो जाती हैं। आखिर जिस साक्षात्कार को लेकर लोग वितंडा खडा कर रहे हैं, क्या उसे समग्रता से, विषय को समूचेपन में उन्होंने देखा है। उन्होंने ब्राह्मण की, ब्राह्मणत्व की चर्चा जरूर की, पर कहीं भी उसे स्थापित करने के लिए तर्क नहीं गढ़े। आखिर सदियों का अभ्यास शारीरिक संरचना, व्यवहार, कौशल व उसके बाद संस्कार को कैसे अप्रभावित रहने देंगे। यह ठीक है कि उन्होंने किसी के चुनाव प्रचार में सभा को संबोधित कर दिया। आखिर कोई तो बता दे कि इस दुनिया की किसी भी सभ्यता का नायक सभी मायने में आदर्श रहा। मेरा तो मानना है कि सभी नायक लात की पैदाइश थे। यदि उनकी सीमाएं लोगों को स्वीकार्य हैं तो प्रभाष जी तो वह मूर्ति नहीं बने। आखिर उनके दाय को देखते हुए, इन चीजों पर स्वस्थ चर्चा संभव नहीं थी। हमें जिनका कर्जदार होना चाहिए, हम उन्हें गरियाकर कालर ऊंची करके खुश हो लेते हैं। यह सब मैं इसलिए नहीं लिख रहा कि मुझे उनकी कृपा प्राप्त है, या कृपा की अपेक्षा है। मैंने 14 सालों तक कस्बे में पत्रकारिता की है। और बड़े अखबारों में प्रभावी पदों पर रहने का मौका मिला। चीजों को विकृत होते हुए, विकृति के कारणों को खुली आंखों देखा। अखबार नहीं आंदोलन का नारा बुलंद करनेवाले अखबार में समन्वयक व फीचर प्रभारी का साल २००५ में इसलिए छोड़ दिया कि प्रबंधन अपनी दिलचस्पी के अनुसार चीजों को चलाने की छूट पा गया था। आज खूब खूशी-खुशी मीडिया से विदा होकर सामाजिक कार्य के क्षेत्र में हूं।

मेरे कहने का मतलब यह भी नहीं कि आप श्रेष्ठों के कूड़ों को पचा लें, पर स्वस्थ विमर्श भी तो एक विकल्प है। क्या वे इतने दुश्मन हो गए कि वे अब फूटी आंखों नहीं सुहाते?

शनिवार, 5 सितंबर 2009

कौन लगाएगा बंदिश

मैं इस पचडे में नहीं पड़ता कि जसवंत सिंह की ऐतिहासिक दृष्टि क्या है, अप्रो़च क्या है ? लेकिन बंदिश लगाने वालों की परेशानी बेहद गैरजिम्मेदारी दिखा गयी। बंदिश के चाबुक चलानेवालों को पटेल की छवि की चिंता कितनी थी और वोट की फिक्र कितनी सता रही थी इसे सभी जान गए। वे भी, जिनसे यह छद्म रचने का बहाना करना था। गाँधी को पानी पी-पीकर गाली देनेवाले भी ये ही थे। देशप्रेम और राष्ट्रीयता इनके जहन में कितना था? उन्हें याद दिलाना होगा कि जिसे लोग झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई कहते हैं उसकी राष्ट्रीयता पर किसी ने सवाल उठाया भी तो वह इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह गया। संग्राम की किताबों की मानें तो १८५७ के संग्राम में अंग्रेजों को लक्ष्मीबाई ने साफ तौर पर संदेश दिया था कि यदि वे doctrine of lapse को वापस ले लेते हैं तो इस संग्राम में उनकी ओर से लडेगी। इस संदेसे में कौन सा देशप्रेम छिपा है और कितना सौदा छिपा है, ये भगवाधारी ही बता सकते हैं। कांग्रेस यदि झूठ का महिमामंडन कर रही है तो येही कितने पीछे हैं। संग्राम की किताबों को धोखें खंगालें।
दाल गलाने का यह कौन सा तरीका ?
मैं जसवंत सिंह के इतिहास अध्ययन पर सवाल नहीं उठा रहा, पर राजनीति के घिनौने तौर-तरीके पर यह सवाल तो कर ही सकता हूँ कि उन्होंने पार्टी से निकाले जाने पर जो सवाल दागे वह किस दृष्टि के थे ? उसका इतिहास के किस सोच से वास्ता था। किस सियासी सोच के थे? इस बुढौती में वे पापों को छिपाकर रखने की कीमत मांगते से दिखते हैं। पेट साफ पेट साफ करने वाली दाई तो फिर भी बेहतर है, क्योंकि वह घोषित रूप से ऐसा काम करती है और एवज में कुछ भी अतिरिक्त नहीं मांगती। ब्लैकमेल करना तो उसके पेशे में आता ही नहीं। वह तो साफ कहते हैं कि उन्होंने आडवाणी के नक्शे-कदम पर चलने की कोशिश की। उन्हें दृष्टि, अध्ययन आदि आदि से क्या लेना-देना। उन्हें तो सिर्फ पापों की परदादारी का लगान चाहिए।

बुधवार, 29 जुलाई 2009

उदय प्रकाश के बहाने

महंत योगी ने जो भी किया वह हिन्दी पट्टी के स्वनामधन्य बाप-दादाओं के सामने किया है। अब जो गाली पर उतरे हैं तो यह उनकी खीझ है। फिसलने या पिछड़ने पर तो खीझ होगी ही। हिन्दी पट्टी की विसंगति रही है की जब उन्हें मोर्चा लेना होगा तो वे पीछे रहेंगे। ऐसे में ग़लत आदमी हमेशा मोर्चा लेता रहा है। चित्रकार रजा, एम् ऍफ़ हुसैन, तसलीमा इसके उदहारण हैं कि कैसे ग़लत लोगों को आगे आने का मौका मिलता रहा है। हिन्दी पट्टी के करता-धरता ख़ुद से सवाल करें कि क्या योगी ने ग़लत आदमी को सम्मानित किया है? आख़िर जब उदय रो रहे थे तो किनके हाथों में रुमाल था। ऐसे में एक आदमी आगे आया है तो कहाँ से ग़लत है वह। क्यूँ नहीं कहते कि पिछड़ने का गम बर्दास्त नहीं होता। इस हाय-तौबा में वे सबसे आगे हैं जिन्हें उदय की रचनाशीलता से कई सरोकार नहीं। क्या व्प और रस वाले ऐसा ही नहीं करते?