हमसफर

सोमवार, 5 जुलाई 2010

आत्महंता ही क्यों

एक नौकर जब मालिक से लड़ता है तो वह एक चुनाव के तहत यह करता है.। इसलिए नहीं कहा जा सकता है कि अनजाने भविष्य की ओर वह बढ़ रहा है। उसे अपना भविष्य मालूम है क्योंकि वह जो कुछ करता है उसका नतीजा भी उसे पता है। आत्महंता कवियों के संदर्भ में भी यही कहा जा सकता है कि असहमतियों से होते हुए अभिव्यक्ति से लेकर सत्ता के विभिन्न प्रतिष्ठानों तक के विरोध तक आने में उसने यह जाना होगा। असहमतियों की तीव्रता विरोध को और उग्र और प्रखर करती है। परिवर्तनकामी शक्तियां समाज व व्यवस्था से संरक्षण व प्रोत्साहन की अपेक्षा नहीं करती।
उपेक्षा की गर्त में जाकर जोखिमों की अंधेरी गुफा के हवाले जिंदगियों की तबाही परिवर्तनविरोधी तथा यथास्थितिवाद की पोषक व्यवस्था के लिए चिंता का सवाल नहीं। सवाल यह है कि यह सब कुछ समाज में बचे-खुचे संवेदनशील प्रबुद्ध लोगों के प्रभावी तबके के होते हुए होता है। क्या जब 18 साल की उम्र में थामस चैटर्टन को लगातार भूखे रहने के बाद जहर की गोली खानी पड़ी (1770 में) तो इंग्लैंड के ब्रिस्टल के इस कवि को आक्सफोर्ड का होरेस वालपोल नहीं जानता था ? और स्वाभिमान ऐसा कि मकान मालकिन ने खाने की पूछी तो उसने अनमने भाव से उसकी बात को टाल दिया। यह उस कवि का हाल है कि जिसे अंग्रेजी रोमांटिक कविता संसार में प्रवर्तक की हैसियत से देखा जाता है। रूस में युवाओं के बीच हीरो की तरह देखे जाने वाले सेर्गेई एसेनिन को तीस साल की उम्र में (1925) तथा मारीना त्स्वेताएवा (1937) को क्रमशः उपेक्षा और भुखमरी में आत्महत्या करनी पड़ी तो उस समय तत्कालीन रूस में अख्मातोवा, लेनिन, स्तालीन, एए फादीव कौन नहीं थे और किसे उनके हालों की जानकारी नहीं थी ? उनका मजाक उड़ानेवाले ओसिप मंदेलश्ताम नहीं थे ? हस्र देखिए कि लेखकों की दुनिया में तानाशाह की तरह रहा लेखक संघ का अध्यक्ष फादीव बाद में अपने को गोली मारता है तथा मंदेलश्ताम को खुदकुशी की कोशिश करनी पड़ती है और गुमनाम मौत होती है। हंगरी में तबाही झेलते हुए अतीली जोसेफ को जब 32 साल की उम्र में रेलगाड़ी से कटकर जान देनी पड़ी तो क्या हंगारी साहित्यिक हलके में खासी हैसियत रखनेवाले प्रो. अंटाल होर्जन और आलोचक मिहाली वैबेट्स की उपेक्षा और नफरत को भुलाया जा सकता है ? एक यदि जोसेफ को एक अदद शिक्षक तक की नौकरी से दूर रखने के लिए वे हाथ धोकर पड़ गया था तो दूसरे ने मिली हुई फेलोशिप के फाउंडेशन से उन्हें बाहर कर दिया। और अंततः वे इसमें सफल भी रहे। अंग्रेजी कवयित्री सिल्विया प्लाथ को अपने कवि पति डेट ह्यूग्स के कुचक्रों और दुर्व्यवहारों तथा तत्कालीन प्रकाशक समुदाय की उपेक्षा से आजीज आकर नींद की गोलियां खाकर मौत की आगोश में जानी पड़ी तो अमेरिका में उस वक्त कौन नहीं था ? एलेन गिंसबर्ग नहीं थे या डेवियन थामस और 1960 के उस दौर में कौन नहीं था ? प्लाथ की कविताओ में मिलने वाले अवसाद, आत्महंता प्रवृत्तियां, हताशा की सघनता ने एक काव्य प्रवृत्ति ही विकसित कर दी जिसे अंग्रेजी कविता में सिल्विया प्लाथ इफेक्ट के नाम से जाना जाने लगा। कंफेशनल पोएट्री का एक घराना निकल पड़ा। 28 साल के अफ्रीकी कवि आर्थर नार्ट्ज को जब खुदकुशी करनी पड़ी तो सारी स्थितियों के साक्षी उसके गुरु रहे विख्यात अंग्रेजी कवि डेनिस ब्रूटस क्या कर रहे थे ? और अपने ही मुल्क में जिन लांछनों और स्थितियों से गुजर कर क्रातिकारी प्रगतिवादी कवि गोरख पांडेय ने सिजोफ्रेनिया में आत्महत्या की इसकी परिस्थितियां भी किसी से छुपी नहीं रहीं। हिंदी समाज के तथाकथित प्रगतिशील तबके में उनके प्रति उपेक्षा व नफरत का अंदाजा इसीसे लगाया जा सकता है कि उनके गुजर जाने के बाद भी उनपर कहानियां-किस्से नामी –गिरामी पत्रिकाओं में छपते रहे। और पाकिस्तान की सारा शगुफ्ता और अफगान कवयित्री नादिया अंजुमन के साथ हुई ज्यादतियों तथा भारत में मलयाली कवयित्री टीए राजलक्ष्मी (1965) को जिन स्थितियों में मौत को गले लगाना पड़ा उसकी जवाबदेह क्या वे ही सिर्फ थीं ? जिन स्थियों के हवाले निराला गए, क्या हिंदी जमात उसकी जवाबदेही से अपने को पूर्णतः मुक्त रख सकता है ? धूमिल, मुक्तिबोध के लिए रचे गए कुचाल-जाल भी किसी छुपे नहीं रहे। हिंदी के लड़ाकू कथाकार शैलेश मटियानी को अवसाद के दौर में जिन लांछनों और अवमाननाओं की बारिश झेलनी पड़ी, हिंदी की सिरमौर पत्रिका हंस के पन्ने जिस तरह रंगे गए, क्या इसकी जवाबदेहियों से वे अपने को परे रख सकते हैं ? उर्दू शायर शकेब जलाली, मीराजी का अंत जिन कवि आलोचकों के दौर में हुआ उनमें कई तो आज मजे और मस्ती के हैसियत-ओहदे में हैं। क्या जिन अंतों को सिर्फ नियतिवाद के हवाले कर चुप मार जाना होगा ? क्या जवाबदेह परिस्थितियां रचने के गुनहगारों में अपने को शामिल कर लेना नहीं है यह ? आखिर इस संक्रमण का कीटाणु तो कहीं होगा ? क्या इसका कीटाणुनाशक (एंटी बायोटिक्स) संभव नहीं ? इसीलिए मेरा मानना है कि खुदकुशी हमेशा सिर्फ यह नहीं कि फांसी पर झूल गए या नदी में छलांग लगा ली या गाड़ी से कट गए या फिर नींद की गोलियां गटक लीं। अपने हिसाब से और सचमुच रचनाशीलता से भरे अच्छे मकसद (सृजन से लेकर सामाजिक बदलाव के लिए आंदोलन तक सभी हैं इसमें) के लिए दीवानगी निजी जीवन के प्रति लापरवाही या उदासीनता भर देती है। उन बड़े मोहक लक्ष्यों के सामने निजी जिंदगी का कोई मोल नहीं देते। यह प्रवृत्तियां जीवन को अराजक करते हुए असुरक्षाओं के हवाले कर देती हैं और मौत को करीब ले आती हैं। महात्मा गांधी, रामकृष्ण, विवेकानंद, (तीनों के मन में आत्महत्या के प्रकट विचार तक आने के साक्ष्य हैं) पाश, धूमिल, राजकमल, रेणु, निराला, मंटो, मटियानी, चारु मजुमदार, विनोद मिश्र, महेंद्र सिंह (दोनों माले नेता), अरुंधती राय, ज्यां द्रेज आदि का जीवन इसका उदाहरण हैं। यह अलग बात है कि इनके अंतों (जो जीवित हैं उन्हें छोड़) को स्थुल रूप से भिन्न ठहराया जा सकता है।
ईसा पूर्व पांचवीं छठी सदी में प्लेटो ने जिन कवि-कलाकारों को समाज बहिष्कृत करने की बात कही थी, मैं उन्हीं को बचाने की बात कर रहा हू। 21 वीं सदी की प्रातःवेला में मेरा मानना है कि संस्कृतिकर्म जीवन की जड़ताओं के खिलाफ सामाजिक हलचल के पहल से लेकर मौजूदा सामाजिक हलचल में दखल भी है। और कवि इसी दखल के साथ अपनी रचना के माल-असबाबों, रचना के उपक्रमों के बहाने श्रेष्ठ जीवन मूल्यों के लिए परचम लहराता है। एक तरह से वह मानवीय सरोकारों के जीवित रहने के लिए वातावरण निर्माण के अभियान में शामिल हो जाता है। और पर्यावरण बच गया तो मिट्टी, पानी, हवा को बचाने की लड़ाई अलग-अलग नहीं लड़नी होगी। इन्हीं अर्थों में मैं संभावनाशील भविष्य के कवियों-कलाकारों को बचाने की एक मुहिम देखना चाहता हूं। ‘ अपारे काव्य संसारे, कविरेकः प्रजापति ...’ तो ध्वन्यालोक के आनंदवर्द्धन के स प्रजापति ब्रह्मास्वरूप कवि को असुरक्षित कर आप भला कौन सी दुनिया बचा लेंगे। और जो दुनिया बचा लेंगे उसमें करुणा, कोमलता, जीवटता, प्रेम विभिन्न जीवन राग कुछ भी तो नहीं होगा। पूंजी के क्रेडिट कार्ड और स्मृति के चिप्स लेकर आप कहां भागेंगे ?
(आत्महंताओं पर केंद्रित राजकमल प्रकाशन से प्रकाश्य लेखक की पुस्तक से)