हमसफर

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

घिसे-पिटे पार्टी लेखन का कोई मतलब नहीं

बाबरी मस्जिद मामले में मालिकाने को लेकर आये फैसले पर एक नज़्म...

मुकुल सरल

दिल तो टूटा है बारहा लेकिन

एक भरोसा था वो भी टूट गया

किससे शिकवा करें, शिकायत हम

जबकि मुंसिफ ही हमको लूट गया

ज़लज़ला याद दिसंबर का हमें

गिर पड़े थे जम्हूरियत के सुतून

इंतज़ामिया, एसेंबली सब कुछ

फिर भी बाक़ी था अदलिया का सुकून

छै दिसंबर का ग़िला है लेकिन

सितंबर तो चारागर था मगर

ऐसा सैलाब लेके आया उफ!

डूबा सच और यकीं, न्याय का घर

उस दिसंबर में चीख़ निकली थी !

आह ने आज तक सोने न दिया

ये सितंबर तो सितमगर निकला

इस सितंबर ने तो रोने न दिया

(इंतज़ामिया- कार्यपालिका, एसेंबली- विधायिका, अदलिया- न्यायपालिका, चारागर- इलाज करने वाला,चिकित्सक)

जनज्वार डाट काम के ६ अक्तूबर के उक्त पोस्ट को देखने के बाद १५ अक्तूबर को प्रतिक्रिया -

मैं नहीं कहता कि मैं कोई वाम का झंडाबरदार हूं। विचारधारा की प्रतिबद्धता एक हद के बाद के बाद अवाम को , जीवन को पीछे छोड़ देती है और पार्टी आगे आ जाती है। लब्बोलुआब यह कि मुसलमान को इस जनतांत्रिक देश में वे सब हक हैं जो इसके नागरिक को। इसी तरह उसका फर्ज होता है कि वह राष्ट्रीय मूल्यों को आम नागरिक की तरह मंजूर करे और अमल में लाए। यह इस मुल्क की महानता नहीं तो और क्या कि कभी के आक्रांता (क्योंकि उनको उनपर गौरव है) के वंशजों को यहां के धार्मिक प्रतीक बन चुके राम को अपनी जन्मभूमि से बेदखल करने का हक मिला हुआ है। अदालत है कि सभी पुरातात्विक सबूतों को किनारे करते हुए आस्था के आधार पर फैसला सुना देता है। अपनी जन्मभूमि तलाशने के लिए राम को दर-दर भटकने को छोड़ दिया जाता है। अदालत के सामने सबूत हैं कि हिंदू ढांचे पर ही मस्जिद बनी है। कुरआन के मुतल्लिक हवाला भी दिया गया है कि हड़पी या गैर स्वामित्व वाली जमीन पर इबादत करना नापाक है। दारूल-उलूम से लेकर देवबंद और कांग्रेस के कासिम अंसारी तक कह चुके हैं कि मस्जिद एक किमी दूर भी बने तो हर्ज क्या (शायद उन्होने यह तंजिया कहा हो)। ऐसे में साहबान हम किस बात को प्रोमोट कर रहे हैं। क्या मुल्क के बंटवारे में आगे रहनेवाली मुस्लिम लीग के साथ आजाद मुल्क में उसके सहारे चुनाव लड़नेवाली कांग्रेस ऐसे में कहां गलत है। ऐसे में कहां गलत है कि आजादी की लड़ाई में कम्यूनिस्टों ने मुल्क के साथ घात किया। क्या बुरा है कि इस मुल्क के लिए आजादी की लड़ाई में हीरो माने जानेवाले सुभाष चंद्र बोष को अंग्रेज को सुपूर्द करने की संधि कर ली युद्ध का भगोड़ा मानकर। हंसुआ-हथौड़ा के बल पर मुट्ठी-भर लोग संसद पहुंचकर करोड़ों की जनता को सांप्रदायिक कहने को आजाद हैं। वाम के परदे में प्रगतिशीलता के फार्मूले में भारतीयता को, यहां के आदर्श-मूल्य, जनभावना को जमकर कोसने की आजादी जिस वाम में थी, उसी की राह चलकर सेकुलरवाद का मोर्चा मजबूत हुआ है। आप मेरे ब्लाग ww.aatmahanta.blogspot.com पर जाएं और कहें कि क्या मैं केसरिया हूं या लाल? हार्वर्ड फास्ट से लेकर माओ तक को खंगाल लें क्या उन्होंने कभी घिसे-पिटे पार्टी लेखन की वकालत की। आप अपनी साइट पर यह क्या कर रहे हैं। कोई बताए आज तक किसी प्रगतिशील दल या संगठन के झंडाबरदार ने कश्मीर के अल्पसंख्यकों पर कुछ भी बोला। इस पर वे ठीक उसी तरह चुप रहे जैसे अफगानिस्तान व पाकिस्तान के अल्पसंख्यक उत्पीड़नों पर चुप रहते हैं। मैं यहां के अल्पसंख्यकों को पीड़ित-शासित रहने को शापित नहीं मानता, पर इतनी तो खुद्दारी होनी ही चाहिए कि आपमें से कोई खुलकर इन मसलों पर बोले। इस तरह की बकवासों को छाप कर किस तरह की काव्य समृदि दे रहे हैं और कैसी जागरुकता और संवेदना के पक्ष में चीजों को ले जा रहे हैं।

सोमवार, 22 नवंबर 2010

डाल से तोड़े गए पत्ते का पुनर्वास नहीं होता

(देश भर में औद्योगीकरण के नाम पर विस्थापन का जो खेल चल रहा है, नर्मदा, सिंगूर व नंदीग्राम उसके ज्वलंत उदाहरण हैं। इस क्रम में भरी-पूरी आबादी को अमानवीय उत्पीड़न से गुजरना पड़ रह है। मानवता के नाते और भावी चुनौतियों के बरक्स विस्थापित हो रहे लाचार लोगों के दर्द को सुनना-समझना जरूरी हो जाता है। इसी आलोक में हम हिंदी कवि कुमार अंबुज का एक पत्र दे रहे हैं। ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के क्रम में हिंदी कवि कुमार अंबुज ने मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री को एक मार्मिक पत्र लिखा था। बेहद यादगार यह पत्र किसी राजकीय रिकार्ड में हो कि न हो, पर माडरेटर को लगता है कि यह 20 वीं सदी के खूबसूरत पत्रों में शुमार किया जा सकता है। विकास के निर्बंध-स्वेच्छाचारी माडल में बड़े बांधों से हो रहे विस्थापन के खिलाफ एक करुण आवाज है यह।
इस पत्र के मिलने का एक प्रसंग पाठकों के साथ शेयर करना चाहता हूं। ज्ञान दा (पहल संपादक और कथाकार ज्ञानरंजन) एक-एक चीज का बड़ा ही सार्थक इस्तेमाल करते हैं। उन्होंने मुझे एक पत्र कुमार अंबुज के किसी पत्र के पीछे के सादा हिस्से में लिखा गया था। पत्र के इस मार्मिक अंश से पूरे पत्र को पाने की इच्छा हुई। पत्र में लिखे पते पर संपर्क करने पर कुमार अंबुज का बड़ा ही आत्मीयता भरा पत्र मय इस अनुरोध के मिला कि अखबार में छापूं तो उसकी प्रतियां ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’, मेधा पाटेकर, वाणी प्रकाशन को भी भेजूं। मैंने वैसा ही किया। इस बात को कम से कम 11 साल हो गए। - माडरेटर)

परछाईं,13 राधा कालोनी, गुना, मध्य प्रदेश
17.08.1999

आदरणीय श्री दिग्विजय सिंह जी,
मुझे एक लेखक के रूप में यह पत्र इसलिए लिखना पड़ रहा है कि मेरी यह जिम्मेवारी है कि मैं समाज और जनता के बीच उस आवाज को तेज करूं जिसकी आप लगातार अनसुनी कर रहे हैं। इसलिए आपको याद दिलाने की धृष्टता कर रहा हूं कि आप शासन प्रमुख और जनतांत्रिक प्रक्रिया के जरिए जनप्रतिनिधि होने के नाते, नर्मदा बचाओ आंदोलन और बड़े बांधों के संदर्भ में समुचित जिम्मेवारी और संवेदनशीलता से काम नहीं ले रहे हैं।
कोई भी आदमी राजनीतिक होने या तकनीकी होने से पहले एक मनुष्य होता है और वही उसकी सबसे बड़ी जरूरत है। आप सहमत होंगे कि तमाम राजनीतिक उपादान और विकास के नियम भी अंततः अपनी श्रेष्ठता और सफलता इसीमें निहित पाते हैं कि एक मनुष्य का मनुष्य और उसकी प्राकृतिक स्वतंत्रता को उजाड़े बिना ही एक विकसित समाज का, राष्ट्र का निर्माण कर सकें।
एकलेखक के नाते मेरी दिलचस्पी बांध की तकनीक में नहीं, बल्कि इस बात में है कि उससे मनुष्य तो नहीं उजड़ जाएगा। बड़े बांधों से जिन लोगों तक लाभ पहुंचेगा उसकी गणना को मैं नहीं जानता, बांध के सवाल पर पीछे हटने से सरकारों को कितना नफा-नुकसान होगा उसे भी मैं नहीं जानता और न ही जानना चाहता हूं क्योंकि मैं मनुष्य को जानता हूं। मेरा सारा सरोकार जनता से है। जानना होगा तो जानना चाहूंगा कि क्या बड़े बांध बनने से एक आदमी भी विस्थापित नहीं होगा ? एक आबादी भी डूब में नहीं आएगी ? इसलिए एक मनुष्य की तरह से, उसीकी तरफ से मैं यह पूछने के लिए विवश हूं कि उजाड़ फैलाकर आप कैसी हरियाली चाहते हैं ? क्या आप गांव-शहर बसने की ऐतिहासिक प्रक्रिया और परंपरा के बारे में जराभी विचार करना चाहते हैं ? एक गांव बसने में जितना मानवीय प्रयास, कष्ट, उल्लास और जिजीविषा शामिल होती है उसकी तौल में आप विकास का कौन पक्ष पलड़े में रखना चाहते हैं ? प्रश्न यह भी है कि एक मनुष्य की भावुकता, उसकी संवेदना, आत्मीयता और उसके संताप को आप किस निगाह से देखते हैं ? और आप विकास को किस तरह से देखते हैं ? विनाश के साथ विकास कैसे हो सकता है ? तकनीकों को, विकास के औजारों को मनुष्यों के शवों के ऊपर स्थापित नहीं किया जा सकता है। यह सभ्यता के विनाश का रास्ता है।
एक न्यायाधीश, एक वैज्ञानिक और एक यंत्री क्या कहता है, इसके बरक्स यह कम महत्वपूर्ण नहीं है कि यह सुना जाए कि एक विस्थापित हुआ आदमी क्या कहता है। उसकी आवाज से प्रामाणिक कुछ नहीं हो सकता। यह संसद, प्रशासन और न्यायालय यदि उजड़ते हुए आदमी की आवाज को कैद करने के लिए काम करेंगे तो यह हमारे समय की सबसे बड़ी अमानवीयता और ऐतिहासिक भूल होगी।
एक गांव, एक आदमी और एक शहर जब डूब में आता है तो वह मानचित्र पर एक निशान मिट जाने भर की घटना नहीं है। इसके साथ वे गलियां भी डूबती हैं जो कई आदमियों के, कई सालों तक एक साथ चलने से, व्यवहार करने से बनती हैं। वे पेड़, वे वनस्पतिय़ां डूब जाती हैं जो आपसे एक जीवित मनुष्य की तरह बर्ताव करती रहीं और दुख, सुख रोग-शोक में काम आती रहीं। वह चंद्रमा, वे तारे और वह सूर्य भी डूब जाता है जो सिर्फ उसी गांव से, उसी कोण से और उसी जगह से इतना आत्मीय और सुंदर दीख सकता था। दिशाएं डूब जाती हैं और वे घर डूब जाते हैं जिनमें जन्म हुआ, जिनकी खिड़कियों से दुनिया को देखने का काम शुरू हुआ और जिनमें गाने गाए गए, उत्सव मने, जिनकी छाया में विपत्तियां झेलीं जिनके सीने से लग रोना रोया, जिनकी मुंडेरों पर सुबह का स्पर्श देखकर सुंदरता का पहला सबक सीखा और जिनमें विलाप हुआ और जिनकी दीवारों के सहारे फिर से खड़े होकर जीवन में वापसी हुई। एक गांव जब डूबता है तो मनुष्यों केवे तमाम संबंध और एक परंपरा ही डूब जाती है जो गांव में पीढ़ियों तक रहकर ही संभव हो पाती हैं। कुओं, खेतों, ढूहों और चौपालों का डूब जाना क्या सिर्फ अजीवित चीजों का डूब जाना है ? क्या हमारी स्मृतियों का डूब जाना एक साधारण और उपेक्षणीय घटना हो सकती है?
सवाल ये भी है कि क्या आप एक आंदोलन को सिर्फ एक विरोध की तरह देखते हैं ? क्या कोई आंदोलन आपके लिए महज एक सामाजिक बाधा है? जब आंदोलनकारी चढ़ते हुए पानी में मृत्यु की परवाह किए बिना खड़ा रहता है तो क्या यह एक जिद भर है ? जो बुद्धिजीवी और समाजसेवी लोग आंदोलन का हिस्सा बन गए हैं क्या यह उनके लिए शगल है ? क्या नर्मदा और नदियों को बचाने का जिम्मा आंदोलनकारियों और समाजसेवियों का ही है, शासन का नहीं ? सरकार का प्रमुख होने के नाते इन सवालों पर चलताऊ तरीके से निष्कर्ष निकाल लेना घातक होगा। संभव है कि आंदोलन की ऊष्मा और उसकी ताकत को शासन-प्रशासन के जरिए एक दिन परास्त भले ही कर दिया जाए लेकिन उसके बीज मर नहीं सकते। मनुष्य की निराशा सबसे ताकतवर और दुस्साहसिक होती है। सबसे ज्यादा हिंसक और सबसे ज्यादा विध्वंसक। आपको चाहिए कि आपके राज्य में कोई मनुष्य इतना निराश न हो जाए कि वह सृजनात्मकता का, प्रेम का रास्ता छोड़कर अन्य किसी नकारात्मक रास्ते पर चला जाए, यह हार-जीत का, जय-पराजय का मामला नहीं है। और यदि है भी तो जनता की जीत में ही लोकतंत्र की राज्य की जीत शामिल है। बातचीत के लिए प्रस्तुत होने और समाधान के लिए प्रस्तुत होने में गहरा फर्क है।
एक डूबते हुए गांव के निवासी का विस्थापित होना, गांव से शहर में पढ़ने-लिखने, नौकरी करने गए आदमी के विस्थापित होने जैसा नहीं है। डूब में आ रहे गांव के निवासियों के लिए, यह प्रलय आने जैसा है। उनके संसार को नष्ट किए जाने जैसा है। उसे देशनिकाला देने जैसा है। उसीकी अनुभूति और कष्ट को शब्दों में अभिव्यक्त करना लगभग असंभव है है। इसलिए उसे राजनीतिक चेष्टाओं और कानूनी शब्दावली से समझने का प्रयास भी हास्यास्पद भी है और दारुण भी। पुनर्वास का अर्थ इतना सीमित नहीं हो सकता कि आप एक बीघा जमीन की जगह एक बीघा जमीन दे दें। क्या डाल से तोड़ दिए गए पत्ते का पुनर्वास संभव है ? जबकि हद यह कि हजारों परिवार उजड़ चुके हैं। उनकी बलि दे दी गई है। उनका न्यूनतम पुनर्वास भी नहीं हुआ है। और हजारों परिवार इन्हीं हालातों का शिकार होनेवाले हैं।

मैं कहना चाहता हूं कि आप विकास के वैकल्पिक माध्यमों और तरीकों पर ध्यान दें। अभी सिर्फ धन की बर्बादी हुई है जिसका मूल्य मनुष्यों के जीवन के आगे कुछ भी नहीं है। यह घोषणा अविलंब की जाए कि बड़े बांधों का निर्माण तत्काल रोका जाएगा और अन्य विकल्पों को सामने लाकर, विचार कर अमल किया जाएगा। जो लोग बेघर, बेगांव हो चुके हैं उनकी पुनर्वास समस्या का तुरंत हल किया जाए और आगे इस बर्बादी को एकदम रोक दिया जाए। यह कितना भयावह और क्रूर दृश्य है कि संपन्न, खाते-पीते खुशहाल लोगों को एक विपन्न, नारकीय जीवन में धकेल दिया जाए।
इस बात की तरफ भी ध्यान दिलाना चाहूंगा कि जब-जब जनपक्षधरता के आंदोलन को नकारा जाता है, उसकी उपेक्षा की जाती है उनकी उग्रता विकट हो जाती है। इतिहास ऐसे ही उदाहरणों से भरा पड़ा है। जब शासनतंत्र गफिल होने लगता है तो यह समाज में एक बड़े संकट की सूचना होती है। आप एक विचारशील व्यक्ति की तरह इन बिंदुओं पर विचार करें और अविलंब बड़े बांध बनाने, ऊंचे बांध बनाने की शासकीय प्रतिज्ञा को तोड़ दें। यही एक बेहतर विकास का रास्ता होगा।
हमारे प्रदेश के पड़ोसी राज्यों, महाराष्ट्र और गुजरात शासन से बात करने के लिए आपसे अधिक सक्षम व्यक्ति कौन हो सकता है। यदि आप बड़े बांधों और विस्थापन के कष्ट को समझते हैं तो इससे अधिक सौभाग्य, डूब में आ रहे लोगों का और क्या हो सकता है ? क्योंकि तब आपकी दूरदर्शिता, संवेदनशीलता और कूटनीतिक निपुणता का लाभ विनाश के कगार पर खड़े लाखों लोगों को मिल जाएगा। और इसकी उम्मीद आपसे करना उचित ही है क्योंकि आप जिस जगह हैं वहां आपसे संरक्षण की अपेक्षा सहज और अधिकारपूर्ण है।
मुझे आशा है कि आप इस पत्र को जिम्मेवारी और गंभीरता से लेने की कृपा करेंगे।

शुभकामनाओं के साथ,

कुमार अंबुज,

सेवा में,
श्री दिग्विजय सिंह,
मुख्यमंत्री,
म.प्र. शासन, भोपाल। (सौजन्य पत्र लेखक)

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

सामाजिक सरोकार कहीं भी निभाए जा सकते हैं – विनोद सिंह

-एक युवा विधायक के सरोकार-
(राजनीति का मतलब ही सत्ता से लिया जाता है और कला का मतलब ही साधना से लिया जाता है। एक क्षेत्र निहायत बहिर्मुखता से होकर भोग की ओर चला गया है तो दूसरा क्षेत्र सर्वथा अंतर्मुखताकी गली से होकर उदासी में निर्लिप्तता में चला जाता है। इस घोर बाजारवादी दौर में दोनों ही क्षेत्र में विपरीत उदाहरण देखने को मिलेंगे। लेकिन यह सोचना थोड़ा अचरज लग सकता है कि क्या कोई एक ही साथ दोनों कर्मों को साध सकता है। हमारे दौर में पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्या बांग्ला के नामचीन कवि हैं और कभी कर्नाटक के मुख्यमंत्री रह चुके तथा फिलहाल में केद्र में कानून मंत्री वीरप्पा मोइली कन्नड़ के कवि है। हम यहां कविता और राजनीति को एक साथ साधने की बात तो नहीं करेंगे, पर हमारा मकसद इसी से थोड़ा आगे चलकर यह देखना-जानना है कि कैसे कोई संस्कृतिकर्मी एक साथ अपनी कला व राजनीति को साध रहा है। ऐसे ही एक संस्कृतिकर्मी झारखंड विधानसभा में भाकपा माले के विधायक विनोद सिंह हैं। उनकी कला चेतना देखनी हो तो कोई शहीद महेंद्र सिंह की पुण्यतिथि के मौके पर बगोदर में (झारखंड के गिरिडीह जिला का हजारीबाग से सटा एक विधानसभा क्षेत्र) उनके कविता पोस्टरों को देखे। इसी संदर्भ में बेहद संभावनाशील मूर्तिकार रहे माले विधायक विनोद सिंह से हुई बातचीत का अंश प्रस्तुत है। )

झारखंड में सरकार के भविष्य को लेकर इन दिनों उहापोह तो नहीं रही, पर यह भी तय है कि जिंदा मेढ़क को लेकर कोई अधिक दिनों तक बहुमत में नहीं रह सकता है। जब पूरा सियासी माहौल सरकार गिराने-बनाने की जद्दोजहद से गंधा रहा हो तो वैसे में एक विधायक से संस्कृतिकर्म पर बातचीत के लिए मोहलत लेना एक ज्यादती कही जाएगी। ज्यादती राजनीतिक प्रतिबद्धता के संदर्भ में। सदन की गहमा-गहमी भरे माहौल में कैसे कोई एक विधायक से कला-संस्कृति, सामाजिक सरोकार और नागरिक चेतना पर बात करने के लिए वक्त लेने की सोचे। यह तो सिर्फ लेनिन ही हो सकते थे जो मजदूरों की बैठक में भी किसी कविता का सविस्तार जिक्र छेड़ देते और उसके निहितार्थों और सामाजिक अर्थवत्ता से लोगों को अवगत कराते। लेनिन तो नहीं, पर भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (माले) के कर्मठ और प्रतिबद्ध विधायक के रूप में महेंद्र सिंह ने जैसा जीवन जीया पूरे राजनीतिक परिवेश के लिए संदेश से भरा है। उनकी राजनीतिक-सामाजिक सक्रियता और उसकी परिणतियां इतिहास हो गई हैं। बुद्धिजीवियों के बीच स्व. सिंह अपनी गंभीर सांस्कृतिक-साहित्यिक चेतना के लिए विशेष रूप से जाने जाते रहेंगे। हम यहां उन्हींके विधायक पुत्र विनोद सिंह की बात कर रहे हैं जो अपनी कला-संस्कृति संबंधी सक्रियताओं के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं। उनके विधायक पिता की जब गिरिडीह में नक्सलियों ने हत्या की थी, तबवे कला कम्यून में थे और कश्तूरी नाम की फिल्म के निर्माण में व्यस्त थे। आज भी वे अपने साथ के लोगों-परिचितों को कला-कम्यून में ले जाते हैं। दूसरों की तरह कला के नाम पर दोहन के लिए नहीं, वहां उनमें आम जीवन की कला के संस्कार से भरने के लिए। ऐसा इसलिए कि उनमें लोगों को कला-संस्कृति की चेतना से जोड़ने की भूख है। वे वहां तलाशते हैं आमजन की कला-संस्कृति की चेतना। अपने पिता से विरासत में मिले प्रतिरोध के संस्कार से लैस होकर विनोद सिंह जनता के बीच अपनी कला से प्रतिरोध की चेतना को एक नया आयाम दे रहे हैं। कविता पोस्टर और मूर्तिशिल्प से उन्होंने अपने गांव दुर्गीधवैया को लगभग पाट दिया है। गांव का एक हिस्सा तो जैसे कलाग्राम के अहसास से भर देता है। विरासत में पाया बौद्धिक संस्कार किन-किन रूपों में फल-फूल रहा है और कला चेतना की गहनता के साथ यथार्थ से उनके सरोकारों की सघनता का आज क्या हाल है, इसे जानने के लिए हमने उनसे बातचीत की। 2007 में पार्टी लाईन से हटकर विनोद सिंह संप्रग सरकार को बचे रहने के विरोध में थे। इससे जाहिर है कि उन दिनों विनोद काफी शिद्दत के साथ उधेड़बुन में थे। जाहिर है कि राजनीतिकर्म में वे काफी गहरे उतर चुके हैं। दूसरी बार जब वे विधान सभा के लिए चुन लिए गए तो पार्टी के एक हल्के में चर्चा थी बगोदर से किसी और को टिकट दिए जाने की और विरोधियों में भी इसे लेकर रणनीति बन रही थी। लेकिन जमीनी काम को दरकिनार किया जाना मुनासिब नहीं हुआ और जीत उसका प्रमाण बनी। कभी-कभी लगता है जैसे जनसरोकारों को लेकर वे किसी भी हद तक जा सकते हैं और विधायकी या गंभीर अनुशासनात्मक कार्रवाई की उन्हें परवाह नहीं।

राजनीति बाध्यता है या अभियान, इस पर उनका कहना है कि राजनीति में आने से पहले मैं भले ही कला-संस्कृति में सीधे सक्रिय था, पर इसका मतलब यह नहीं कि वहां मेरा कोई सामाजिक सरोकार नहीं था। हां, यह अलग बात है कि सीधे राजनीति की तरह नहीं। कहीं न कहीं जो वैचारिक प्रतिबद्धता और सामाजिक सरोकार थे, शायद उन्हीं कारणों से राजनीति में भी रह गया। हां, यह बात जरूर है कि राजनीति में हमारे सामाजिक सरोकार सीधे हमारे कर्म को प्रभावित करते हैं। यहां प्रत्यक्षतः सामाजिक सरोकार राजनीति को प्रभावित करते हैं। कला में यह काम घुमाफिराकर होता है। और चूंकि इस सारी प्रक्रिया में शिल्पगत कौशल का बड़ा हाथ होता है, इसलिए बहुत बार कलाकार के सामाजिक सरोकार को रेखांकित करना अपेक्षाकृत मुश्किल होता है। फिर भी मेरा मानना है कि राजनीति सामाजिक सरोकारों को सिद्ध करने का सीधा जरिया नहीं। आप कला में अपने सरोकारों को लेकर सीधे प्रवेश करते हैं, अभिव्यक्ति के लिए रूपों के चुनाव में, युक्तियों के चुनाव में सरोकार थोड़ा दब जाते हैं। रूप-वस्तु के द्वंद्व में यह अंडरकरेंट रह जाता है।

वे अपनी बात के विस्तार में जाकर कहते हैं कि राजनीति में आपकी संलग्नता बहुत बार सीधे नहीं हो पाती। तंत्र की बाध्यताएं आड़े आती हैं।

कला-संस्कृति, वैचारिक बहस की गुत्थम-गुत्थी में डूबे रहनेवाले विनोद सिंह क्या कुछ मिस नहीं कर रहे? इस पर विनोद जी का कहना है कि अब राजनीति में सीधे जुड़ने के बाद तो तरह-तरह की व्यस्तताएं और सक्रियताएं आ जाने से समय की घोर कमी आ गई है। पहले की तरह सक्रिय होकर उस क्षेत्र के लिए कुछ नहीं कर पाने की कसक तो है, पर उसकी भरपाई के लिए सृजनात्मक कार्यों में लगे रहने से खुशी मिलती है।

कला की गहन चेतना और यथार्थ के सघन सरोकारों से जुड़ा एक गंभीर कलाकार राजनीति में एलिएन (विजातीय) तो नहीं ? विनोद जी कहते हैं कि लगभग सभी लोग राजनीति को गाली देते हैं। कुछ लोग इसे एक गंदी नाली तक कह ते हैं। एक हद तक यह बात सही भी है और यह भी कि उसमें रहनेवाले कुछ लोग उसे और भी गंदी करते हैं। कभी-कभी शातिर सियासी कलाबाजियों से तो कभी बेहद फूहड़ता और टुच्चई से गंधा रहे इस माहौल में ऊब भी होती है। लेकिन ऊब कर वहां से निकल जाना इसका कोई उपाय नहीं। लगता है यह पलायन होगा और इससे अवांछितों को आसानी से जगह मिल जाएगी। वे कहते हैं कि अपनी प्रतिबद्धताओं और सरोकारों को बचाकर रखते हुए कुछ भी कर सका तो पाजिटिव ही होगा।

कला के प्रति आपकी जैसी गंभीर दिलचस्पी थी, क्या उसे देखते हुए अब आप उसके साथ न्याय कर पा रहे हैं (वह पैशन फैशन में तो कन्वर्ट नहीं हो गया?) छूटते ही विनोद जी कहते हैं पहले भी मैं कला के क्षेत्र में कोई बड़ा काम नहीं कर रहा था। कुछ साथी थे, जिनके प्रयास में मैं भी शामिल था। जहां तक कला के सरोकार की बात है तो आप जिस किसी भी क्षेत्र में हों वहां एक हद तक तो आपका सामाजिक सरोकार होता ही है। उन्हीं सरोकारों से प्रेरित होकर कलाकार भी अपना काम करता है। इसलिए राजनीति में आने के बाद ऐसी कोई बात नहीं कि यहां आते ही हमारे सरोकार बदल जाते हैं। जहां तक समाज के लिए कुछ करने की बात है, तो वह कहीं भी किया जा सकता है। यह तय होता है आपकी प्राथमिकता से।

राजनीति से सीधे जुड़ाव के बाद कला के क्षेत्र में पहले की तरह सक्रिय न रह पाने की कसक तो है ही, पर अभी भी कुछ न कुछ कर ही लेता हूं। यह अलग बात है कि पहले सी निरंतरता उसमें नहीं रही। इन दिनों राजनीति से हटकर क्या कुछ कर रहे हैं, इस जिज्ञासा पर वह अपने पढ़ने की भूख के बारे में बताते हैं। उन्होंने कहा कि पिछले दिनों नेपाल पर लिखी एक किताब का हिंदी अनुवाद पढ़ा। जब कभी वक्त मिलता है उसे खंगाल लेता हूं।
क्या आप इसे मानेंगे कि कला (किसी भी संस्कृति कर्म ) के बजाए राजनीति सामाजिक बदलाव लाने के लिए एक कारगर जरिया है ? क्या यहीं कारण तो नहीं कि इसने शिद्दत से आपको बांध रखा है।

‘कश्तूरी’ का अनुभव कैसा रहा ? क्या इसे आप विस्तार देने की सोच है ?
फिल्म निर्माण बस एक अनुभव के लिए था। बहुत कुछ सीखा, जाना। लेकिन ऐसा नहीं कि यहां फुलस्टाप हो गया। इससे मिली सीख के आधार पर आगे भी कुछ करेंगे। यह फिल्म निर्माण के लिए फिल्म निर्माण कम और कलाकर्म के अनुभव के लिए अधिक था।