हमसफर

शुक्रवार, 9 मार्च 2012

संगीत की मठाधीशी का जवाब है भारती बंधु का सूफियाना अंदाज

                सूफी गायक की कबीर की अनूठी प्रस्तुति


बाजारवाद की सहूलियतों ने कई तरह से दौर को रिझाकर अंधा किया है। उसकी हसीन गोद में बैठकर मीडिया से ले लेकर राजनीति, विज्ञान से लेकर संस्कृति तक सभी अपने को धन्य मान रहे हैं। यह नए तरह का रीतिकाल है। सभी पैबस्त हैं किसी न किसी फार्मेट में। सभी के लिए कोई न कोई लकीर है। और सब के सब बिकाऊ। सभी भरोसा तो करते हैं – जो दीखेगा वह बिकेगा, पर वे क्यों भूल जाते हैं जो चीज बिकती है वह टिकती नहीं। रीतियों (ढर्रों-पाखंडों) पर प्रहार करनेवाले कबीर तो बाजार को और भी कभी नहीं सुहाए। और ऐसे में किसी ने कबीर को अपना ओढ़ना-बिछौना कर लिया हो तो यह दौर उसे सिरफिरा ही कह सकता है। और सिरफिरा जब कबीर को गाने लगे तो आप माथा ही धुन सकते हैं न। लेकिन नहीं, आप जहां भी हों एक बार स्वामी जीसीडी भारती उर्फ भारती बंधु को सुन लें, कई भ्रांतियां वैसे ही छिन्नमूल हो जाएंगी जैसे कबीर का जीवनदर्शन करता है। पिछले 45 सालों से सूफियाना अंदाज में कबीर को गानेवाले भारती बंधु की करीब छह हजार प्रस्तुतियां हो चुकी है।

प्रस्तुतियों के वैशिष्ट्य ने कबीर गायन की भारती बंधु शैली को ही जन्म दे दिया। कबीर की सीख और कबीर का मर्म, कबीर का वैभव और कबीर का फक्कड़पना, कबीर का गांभीर्य और कबीर की अल्हड़ता के अलावे भारतीय काव्य का वैभव व शास्त्रीय संगीत का वैविध्य, सब कुछ एक साथ दिखे पिछले दिनों झारखंड की कोयला राजधानी में जब 3 जनवरी को जांबाज पुलिस अधिकारी रणधीर प्रसाद वर्मा की 21 वीं पुण्य तिथि पर उनको सुनने का मौका मिला। शास्त्र और लोक, चाहे वह संगीत के पैमाने पर हो या कविता के संसार का, सबकुछ सहज ही भारती बंधु दिखा गए। कबीर के यहां राग-रागीनियों में बंधे पद हैं तो समाज-धर्म की जड़ताओं पर प्रहार भी। मिश्र शिवरंजनी राग पर ही आधारित कबीर का पद जरा धीरे-धीरे गाड़ी हांको, मोरे राम गाड़ी वालेगाना शुरू किया तो क्रमशः शांत रस की इस रचना को श्रोताओं की भागीदारी तक ले जाकर उन्होंने फक्कड़पना और अल्हड़ता से पूरे माहौल को कबीरमय कर दिया। दुनिया से विदा हो रहे शव का अनुरोध है कि श्मशान थोड़ा धीरे-धीरे ले चलो, ताकि संसार में रहने का और मौका मिल जाए। संगीत का वैभव अर्थ-विन्यास को विखंडित करते हुए जब आगे बढ़ता है तो पूरे मजमा जैसे करुणा की एक उदास चादर (मर्म) से बाहर मस्ती में रम जाता है। कबीर का जीवन राग बनता है ठाठ और मस्ती से। भारती बंधु यहां इसे ही साबित करते हैं अपने अंदाज में। शास्त्रीय संगीत की बंदिश टूटेगी तभी वह लोक का कंठहार बनेगी, यह भी साबित कर दिखाया है इन्होंने।

जड़ों की तलाश में निकला साधक जमीन तोड़ेगा ही। भारती बंधु ने अपने अंदाज में शास्त्रीय संगीत की जमीन तोड़ी है। उनकी सगभग सभी प्रस्तुति में संगीत के वैभव का नजारा साहित्य की गंभीर समझ के साथ है। प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने यूं नहीं कहा होगा कि भारती बंधु भारतीय संगीत की नई खोज हैं। यह वह आलोचक है जो खुद कबीर के मर्मज्ञ है। कबीर के अनन्य अध्येता और अनुसंधाता हजारीप्रसाद द्विवेदी से उनकी जो परंपरा बनी वह दूसरी परंपरा की खोज से आगे बढ़कर डा. पुरुषोत्तम अग्रवाल तक आती हुई आग बढ़ रही है। और कबीर पर जब भारती बंधु बोलते हैं, तो यह आलोचक एकटक देखता रह जाता है (भारती बंधु के हवाले) । बकौल भारती बंधु उन्होंने कबीर का शास्त्रीय अध्ययन नहीं किया है। उन्हें नामवर की भी सलाह थी कि समीक्षकों को पढ़कर मौलिकता आहत होगी। 

कबीर को दुर्लभ अंदाज में तो कुमार गंधर्व ने भी गाया है। और वह संगीत के लिए मील का पत्थर भी है। संगीत के इस मूर्तिभंजक का गायन चुनिंदे श्रोताओं को रिझाता है। लेकिन दुर्लभ कबीर को यानी कबीर के बहुत विरल पहलू या अनदेखे पहलू का उदघाटन जिस अनोखे अंदाज में भारती बंधु करते हैं, वह एक अदभुत संसार हमारे सामने खोलता है। यह भारतीय संगीत के लिए प्रयोग भी हो सकता है और शास्त्रियों के लिए विकार भी। आखिर कबीर को ही इसकी परवाह कहां थी, जो साहेब की बंदगी करनेवाले साधक को होगी। यही कारण है कि कबीर के रस्ते इनके यहां अमीर खुसरो भी धड़ल्ले से पहुंच जाते हैं। राग कल्याण में जब खुसरो की रचना छाप-तिलक सब छीनीको उन्होंने पेश किया तो यह प्रस्तुति यह साबित कर रही थी कि कबीर गायन की भारती बंधु शैली शैलियों का समागम और प्रयोगों के वैभव से समृद्ध है। जहां संगीत का वैविध्य और काव्य वैभव एक साथ है।

अभी पंडित शिवकुमार, वसुंधरा कोमकली, प्रहलादसिंह टिपानिया भी कबीर को गाते हैं। पर कबीर को इस तरह से गाना किसी मर्मज्ञ के लिए ही संभव है। उनको सुनकर आप बरबस कह पड़ेंगे कोई परम विद्वान हो सकता है, कोई संगीत का मर्मज्ञ हो सकता है, पर एक विद्वान गा भी सकता है तो यह भारती बंधु संभव करते हैं। उनका पूरा परिवार कबीरमय है। 45 सालों से वे कबीर को गाते हैं। कबीर पर ही उन्होंने अपनी पीएचडी पूरी की है। बड़ी बात यह नहीं, बड़ी बात यह है कि शास्त्रीय संगीत को जिस खिलंदड़ेपन से वे लोक तक पहुंचाते हैं, वह बड़ी बात है। कबीर से जुड़ा कोई भी उपक्रम लकीर का फकीर नहीं हो सकता। उनकी प्रस्तुति आत्मसात करने लायक है। और यही टिकता है। जो चीज बिकती हैं, वह टिकतीं नहीं। नामवर से लेकर अशोक वाजपेयी तक उन्हें चाहनेवालों में हैं। वाजपेयी ने उनमें कबीर की जीवंतता पाई है। कबीर को जब वे गाते हैं तो जैसे किसी शोधयात्रा में शामिल होने जैसा लगता है।

श्रोताओं में बैठे उपन्यासकार मनमोहन पाठक को बरबस लगने लगा कि कबीर के पद और साखी को सूफियाना फार्मेट में पेश करने का उनका अंदाज बाजारवाद के गिरफ्त में सिसकते भारतीय संगीत के लिए जैसे नया बिहान है। वो कहते हैं उनका संगीत शास्त्रीय संगीत की यात्रा को दीखाता है। जो कबीर अपनी अक्खड़ता और फक्करपना के लिए मशहूर हैं वीर रस की उनकी विरल रचना जो लड़े दीन के हेत सूरा सोई,...” को मिश्र सारंग में पेश किया तो ओज के इस अदभुत रस में श्रोता बरबस झूम उठे। सूरा सोई, सूरा सोई... का बहुआयामी दुहराव ओज और शांत तक श्रोताओं को पहुंचाता है। अहं को तिरोहित कर करुण रस की ओर ले जाने वाली कबीर की रचना मन फूला-फूला फिरे जगत मेंको उन्होंने पहाड़ी राग में पेश किया।

और यह सब हो रहा था शहर के हृदयस्थल रणधीर वर्मा चौक पर। चौक पर दोपहर के तीन बजे तक श्रोताओं की उमड़ी पड़ी भीड़ छंटने का नाम नहीं ले रही थी। पूरे चार घंटे चौक पर शास्त्रीय संगीत में भीड़ यदि बंधी रही तो यह इस बात का सबूत है कि लोकरंजन सिर्फ फूहड़ गीतों और उत्तेजक संगीत से ही नहीं किया जा सकता है। कुर्सी कम पड़ गई, सदर अस्पताल की छत पर श्रोता टिके रहे। यह तो चूके हुए बिकाऊ लोग हैं जिनका तर्क है कि शास्त्रीय संगीत आज नहीं चल सकता। यह उस शहर की बात है जहां संस्कार निर्माण की अल्पवय में ही पैसे का चस्का लग जाता है। यहां भी मल्टीप्लेक्स और माल हैं, अपार्टमेंट के कंक्रीटी जंगल यहां भी हैं, और यहां मुल्क में पहली बार चला शब्द माफिया का तंत्र है। लेकिन भारती बंधु ने कबीर को सूफियाना अंदाज में पूरी मस्त भीड़ को झूमने पर बेबस कर दिया। भारती बंधु की टोली में तबले पर संगत कर रहे थे अनुभव भारती, डफली पर साथ दे रहे थे लक्की भरती तथा मुख्य कोरस में भूषण भारती, दूसरे और तीसरे क्रमशः इरफान खान व नीतेश भारती।

Kabir Bani -"Zara Dheere Dheere Gaadi Haanko" by Bharti Bandhu near Somnath Temple
http://www.youtube.com/watch?v=DfnmoORv0zU

MANN LAGO MERO YAAR FAKIRI MEIN--BY--BHARTI BANDHU
http://www.youtube.com/watch?v=M_Iooz5RmDI

SAB DIN HOTA NA EK SAMANA BY BHARTI BANDHU
http://www.youtube.com/watch?v=2d3t6Es9xJA

CHHAP TILAK BY BHARTI BANDHU
http://www.youtube.com/watch?v=QPpPppYRZAA

MANN FULAA FULAA FIIRE JAGAT MEIN BY BHARTI BANDHU
http://www.youtube.com/watch?v=rnZrzb83X9s

BHAJAN MEIN LAGE RAHNA BHAI--BY BHARTI BANDHU
http://www.youtube.com/watch?v=DMNnsJdux44

MORE RAM GADI WALE PART-II BY BHARTI BANDHU
http://www.youtube.com/watch?v=AwMn8AQZGiE

CHUNRI KAHE NA RANGOULI GORI BY BHARTI BANDHU
http://www.youtube.com/watch?v=veZbn1iHg3Q

SADHO RE SADHO BY BHARTI BANDHU
http://www.youtube.com/watch?v=KAiXDagFpto


 

2 टिप्‍पणियां:

  1. आलेख
    भारतीय साहित्य , कला और दर्शन के प्रति
    आपकी सम्बद्धता और समर्पण की भावनाओं को
    रेखांकित कर गया है ...
    आपने कहा ...
    जड़ों की तलाश में निकला साधक जमीन तोड़ेगा ही
    फिलहाल ,
    यही रुक रहा हूँ
    दिल और दिमाग़ का समन्वय
    आवश्यक भी है और महत्वपूर्ण भी ..

    नमन स्वीकारें .

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    1. धन्यवाद, साधुवाद।
      अपने ब्लाग पर पहली बार पधारने के लिए। आपको गजलगंगा पर देखा करता था। आज ही देवेंद्र जी की नयी गजल पर एक प्रतिक्रिया पोस्ट की है। देखें और बताएं।

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