हमसफर

बुधवार, 21 सितंबर 2011

नीतीश जी आप पाकिस्तान में होते तो बेहतर होता

फेसबुक पर अपनी टिप्पणी के कारण अरुण नारायण के निलंबन पर

देश को नए बिहार से रू ब रू कराने के लिए धन्यवाद, नीतीश जी ! आपका यह बिहार होर्डिंगों व अखबारों में जगरमगर करता है। कौन नहीं जानता कि आउटडोर मीडिया (होर्डिंग, बैनर) व प्रिंट मीडिया (अखबार-पत्रिका) से झल्लाई जनता ने इन होर्डिंगों को किस तरह जलाया। निर्मल ग्राम की धूम जिस प्रदेश में मची हो और प्रधानमंत्री ग्रामसड़क योजना से चप्पे-चप्पे को सड़क से जोड़ने की सुविधा हो गई हो उस बिहार के झंझारपुर विधानसभा क्षेत्र में कोई आकर बताए कि यह किस प्रदेश में आता है। यहां की लाखों की आबादी सड़क के दोनों ओर मलमुत्र विसर्जित करती है। आप उन इलाकों से गुजर जाएं तो लगेगा कि बहुत बड़ा किला फतह कर लिया आपने। सैकड़ों गांव हैं जहां बारिश में आप किसी भी वाहन से नहीं जा सकते। खरंजा (सिर्फ ईंटों बिछी सड़क को कहते हैं) की जो ईंट बीस साल पहले निकली थी, वहां कोई नई ईंट नहीं लगी, भले ही दस ईंट और भी खाली हो गई। कोई पोल झुकी थी तो वह गिर गई या बिला (लुप्त हो) गई, पर माथे पर तार नहीं टंगा। बिजली को विकास के माथे का सिंदुर कहा जाए तो ऐसे सैकड़ों गांव हैं जो अभी भी विधवा हैं। यहां बिजली क्या, उसके पोल तक नहीं बिछे। और एक बार ट्रांसफार्मर के कारण बिजली गई तो फिर इसकी सुनवाई कहीं नहीं। इस विधान सभा क्षेत्र के विधायक उन्हीं के समनाम डा. नीतीश मिश्रा जी हैं। रामदेव भंडारी वहीं के हैं और दो बार राज्य सभा सदस्य रहे। ऐसे इलाके बिहार में भरे होंगे। चूंकि मैं इस इलाके से आता हूं, तो यहां की जानकारी है।

पटना के नाला रोड में जन समस्याओं को लेकर सड़क पर उतरे प्रदर्शनकारियों पर हुआ बर्बरतापूर्ण लाठी प्रहार किसी पटनावासी को भूला नहीं होगा। ठकुरसुहातियों के बीच विजातीय स्वर को बर्दाश्त नहीं कर पाने का लक्षण है यह नीतीश जी। उत्तेजित होना ताकत की निशानी कहीं भी कभी नहीं समझी गई। बीमार, बूढ़ा और कमजोर ही उत्तेजित होते हैं, गाली देते हैं। मारपीट पर उतारू होते हैं। स्वस्थ व्यक्ति तो जवाब देगा। तर्क देगा नीतीश जी।

नीतीश जी अपनी छवि को लेकर कितने चौकन्ने हैं वह तो बाढ़ को लेकर गुजरात सरकार द्वारा बिहार सरकार को भेजी गई राशि के लौटाने से जगजाहिर हो ही चुका है। सरकार मोदी की होती या फिर बाघेला की, राहत तो आनी ही थी। मोदी ने बिहार की जनता को भाजपा के कोष से वह रकम नहीं दी थी। और मोदी ने वह राशि नीतीश जी आपको को नहीं दी थी। अखबार में छपे कटआउट वाले गुजरात के विज्ञापन पर छिड़े चर्चा से घबड़ाकर नीतीश जी आपने यह कदम उठाया था। इसे भी कौन नहीं जानता। क्या यह तानाशाही का एक रूप नहीं।

बिहार सरकार ने विधान परिषद कर्मी अरुण नारायण को जिस आधार पर बगैर कारण बताओ नोटिस के निलंबित किया है, वह राज्य सत्ता की तानाशाही को ही प्रकट करता है। और रही बात फेसबुक पर सरकार और अधिकारी के खिलाफ टिप्पणी करने की बात तो उसे कौन रोक सकता है।

चेकबुक से फेसबुक तक

मैं आता हूं, पहले आरोप पर। मैं अरुण को डेढ़ दशक से जानता हूं जब वह बोरिंग रोड तरफ रहते हुए स्नातक की पढ़ाई करते हुए साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में हाथ बंटा रहे थे। समकालीन भारतीय साहित्य व पहल जैसी पत्रिकाओं में मेरी रचनाओं को पढ़कर संपर्क में आए थे। आज के कवि कुमार मुकुल तब होमियोपथी की डाक्टरी कर रहे थे। मैं दावे के साथ कह सकता हूं पूरे हिंदी संसार में कोई भी सामने आकर कहे कि कभी-भी अपने सामने आए मौके को अरुण ने भुनाया है। एकाध होंगे तो वे निजी खुन्नस पाले लोग ही होंगे। हां, इतना जरूर है कि दिल्ली से लेकर पटना तक दर्जनों लोग होंगे जिन्होंने इस अरुण का इस्तेमाल (शोषण की हद तक) किया। मैं अपने को इससे अलग नहीं मानता। एक दैनिक में फीचर संपादन के क्रम में उन्होंने मेरे दिए कई एसाईनमेंट पूरे किए। मेरा अनुमान है कि हिंदी जगत अरुण को इतना तो जानता ही है।
सुविधा न होने के कारण बगैर किसी पारिश्रमिक के। डाक विभाग की गलती से हमनाम अरुण कुमार का चेकबुक यदि लेखक अरुण नारायण (इसका भी औपचारिक नाम अरुण कुमार ही है) तो डाक वालों का फर्ज क्या होना चाहिए। और मान्यवर अरुण कुमार (सिंह) जी आपने तो आवेदन दिया होगा न चेकबुक के लिए ? चेकबुक नहीं मिल पाने की स्थिति में आपने बैंक से शिकायत की या नहीं ? बैंक ने चेक आने पर क्या किया ? क्या नहीं माना जा सकता है कि सबकुछ साजीशन अरुण नारायण को फंसाने के लिए रचा गया हो। आखिर एक पैसे की भी गलत निकासी जब उस खाते से नहीं हुई तो अरुण कुमार सिंह जी कुछ भी नहीं कर सकते। और बैंक को अरुण नारायण ने अपना हस्ताक्षर करके चेक दिया था। नादान अरुण की गलती सिर्फ यह है कि अपने पते पर आए चेकबुक को अपना मान बैठा बगैर यह देखे कि इस पर किसकी खाता संख्या अंकित है। आखिर फर्जीवाड़ा ही करना होता तो वह अपने हस्ताक्षर से बैंक में चेक क्यों जमा करता ? बैंकिंग विशेषज्ञों की मानें तो ऐसे मामले में बैंक सिर्फ उस चेक को खारिज करने के और कुछ नहीं कर सकता है। क्या उलट मामला अरुण कुमार सिंह, बैंक, डाक विभाग पर मिलजुलकर साजिश रचने का मामला नहीं बनता है।
रही बात फेसबुक पर विधान परिषद के सभापति और सरकार के खिलाफ असंवैधानिक टिप्पणी की तो सरकारी सेवा आचार संहित के दायरे में पहले तो कारण बताओ नोटिस देनी चाहिए थी। यह ठीक है कि सभापति को विशेषाधिकार प्राप्त है, पर सवाल है कि यह विशेषाधिकार ऐसे ही मामलों के लिए विवेकाधीन है क्या। क्या ेक भी आपराधिक पृष्ठभूमि के विधान पार्षद के मामले में उन्होंने कोई फरमान जारी किया है ?
मिस्र के तहरीर चौक पर छिड़ी जंग फेसबुक की आग थी और वहां की सरकार ने तो अपने सुरक्षा तंत्र तक को फेसबुक के सहारे युवाओं के संपर्क में रहने को कहा था। वित्तीय झंझावात के कारण 2008 से भीषण उथल-पुथल का सामना कर रहे आईस लैंड में इन दिनों संविधान संशोधन की कवायद चल रही है। नीतीश जी, आपको पता ही होगा कि वहां 25 सदस्यीय परिषद के जिम्मे संविधान संशोधन का उपक्रम चल रहा है। इसीके साथ इंटरनेट के जरिए सभी आईसलैंडवासियों को संशोधन की प्रक्रिया में आनलाईन भागीदारी का विकल्प दिया गया है। और शासन का आदेश था कि जून के अंत तक आई वाजिब सलाह को परिषद द्वारा अनुमोदित कर प्रारूप में शामिल कर लिया जाए। लेकिन नीतीश जी आप फेसबुक पर असहमति का धीमा स्वर भी बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं हैं। क्या मायावती का ‘प्रतिमा’ प्रेम और आपका ‘छवि’ प्रेम कहीं से भी अलग है? हालांकि सबकुछ होते हुए भी मायावती ने अभी तक ऐसा रुख तो नहीं अपनाया है। क्या फेसबुक को फेस नहीं कर पाना आपको कठमुल्लावादी पाक हुकूमत के करीब नहीं ले जाता जहां अभी-अभी लाहौर उच्च न्यायालय ने प्रशासन को फेसबुक पर बंदिश लगाने का आदेश दिया है। फेसबुक समेत वैसे सभी सोशल नेटवर्किंग साईट की पहुंच पर आईटी मंत्रालय को रोक लगाने का फरमान दिया गया है जो मजहबी नफरत फैलाने में शामिल हैं। (मजहबी नफरत को देखिए- फेसबुक पर पैगंबर मोहम्मद की आकृतियों वाली स्पर्द्धा आयोजित करने का आरोप है। याचिकाकर्ता वकील मुहम्मद अजहर का मानना है कि इससे इस्लाम बदनाम होता है) फरमान देनेवाले न्यायाधीश शेख अजमत सईद ने छह अक्तूबर तक इस बाबत रिपोर्ट देने को कहा है। नीतीश जी, बहुत कोसते होंगे आप यहां की व्यवस्था को जिसमें आपको पाकिस्तान जैसी वह आजादी नसीब नहीं। क्या आपको मालूम नहीं कि प्रेमकुमार मणि को लेकर जो भी विवाद हुआ उसने कितनी खिन्नता पैद की है। क्या आप इससे उत्पन्न परिदृश्य से अनजान हैं। कौन सी वजह है कि कोई यह न माने कि मुसाफिर या अरुण के मामले से आप अलग हैं। नीतीश जी राज्य सत्ता की सुविधा है तो आप आक्सीजन के सिलिंडर को आऊट आफ मार्केट कर सकते हैं, पर हवा पर बैन नहीं लगा सकते।

शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

लेखक भाषा का आदिवासी है, लेकिन उदय प्रकाश जी आप ?

(उदय प्रकाश के ब्लाग पर 22 जुलाई के पोस्ट "लेखक भाषा का आदिवासी है" को पढ़कर लिखा गया। दरअसल यह साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए स्वीकार वक्तव्य था। यह पोस्ट उनके ब्लाग पर 24 अगस्त को किया था।)
पहले तो यह कह दूं कि मैं जिस उदय प्रकाश को जानता हूं वह अबूतर-कबूतर से शुरू होता है, जबकि इससे पहले कविता ‘सुनो कारीगर’ से काफी चर्चित हो चुके थे। और उसके बाद तो तिरिछ, और अंत में प्रार्थना, मोहनदास, मेंगोसिल, वारेन हेस्टिंग्स का सांड़ और भी न जाने कहां-कहां किन-किन गलियों और राजमार्ग होते हुए हमारे उदय प्रकाश का सृजन हुआ। हम जिस उदय प्रकाश को जानते हैं वह किसी भी साहित्य अकादमी से ऊपर है। उदय प्रकाश जी आप तो खुद हिंदुस्तान दैनिक के साथ एक साक्षात्कार में कह चुके हैं- आप कैमरा जहां रखते हैं, वहीं से उसका फ्रेम तैयार हो जाता है। तो फिर उस राज्य सत्ता के लिए प्रशंसा के शब्द कैसे निकले जिस राज्यसत्ता को आप भी आततायी मानते हैं। प्रतिबद्धता सिर्फ रचनाओं से ही नहीं दीखाने की चीज नहीं, जीने की चीज है। आखिर अशोक वाजपेयी ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दिया जानेवाला सम्मान ठुकराया तो ? यह अलग बहस का विषय हो सकता है कि उन्होंने अपने इस कदम से क्या खारिज किया है और किसे आवाज दी है। पर इतना तो है ही कि संस्कृतिकर्मी अपनी स्वायत्तता खुद ही सिरजता है। ऐसे में व्यावहारिक तौर पर प्रतिबद्धता दीखाने के मौके गंवाना हमारी विचारधारा को ही व्यक्त्त करता है। आपने खुद ही ‘मोहन दास’ को दिए गए सम्मान के लिए अपने वक्तव्य में कहा है - कोई भी पुरस्कार किसी भाषा और भूमि में किसी मनुष्य का पुनर्वास तो नहीं कर सकता। क्या इस मौके पर औपचारिक वक्तव्य देने के लिए आपकी असमंज और दुविधा का हिस्सा यह भी तो रहा होगा। राज्यसत्ता से नाखुश संस्कृतिकर्मी इससे संरक्षण की अपेक्षा जैसे ही पालता है, वैसे ही संस्कृति की स्वायत्तता का खंडन करता है। गाली भी दें और कहें शाल भी ओढ़ाओ। यह कैसे हो सकता है। इस शासन का यह व्यवहार अचरज का विषय नहीं। आखिर प्रतिरोधी चेतना शासन से सम्मानित भी तो नहीं होगी। चोर से सम्मानित होना कहीं न कहीं चोरी को मंजूरी देने के बराबर ही है। मैं कवि नहीं हूं। इधर कथादेश के जून (2011) अंक में मेरी कुछ कविताएं है। उनमें से एक कविता ‘यह वक्त’ देखना बड़ा मौजूं होगा।