हमसफर

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

राजभाषा हिंदी की साठवीं बरसी पर

भाषा एक सांस्कृतिक उपक्रम है, इससे कौन मुकरेगा। इतिहास इसका गवाह है कि सांस्कृतिक मूल्यों के छीजन के साथ राष्ट्रीय गौरव और चेतना मद्धिम पड़ती जाती है। फिर इससे फर्क नहीं पड़ता है कि हम किसके देश हित और राष्ट्रीय गौरव को अपना गौरव मान रहे हैं। आपको इस पर आपत्ति नहीं होती कि आपका सम्मानित विदेशी अतिथि अपने कुत्ते – बिल्लियों के नाम पर इंडिया रखे। और यही रास्ता है गुलामी का। आज तो बाजारीकरण ने अपनी सहूलियतों के जाल से इसे और भी आसान कर दिया है। हम बहुत फख्र के साथ कहते हैं कि आज हिंदी का महत्व एक बार फिर बढ़ गया है। लेकिन क्या यह ठीक उसी तरह नहीं जैसे ‘बुच्ची और दाइ’ तथा नेपालियों को बहादुर कहकर काम निकालते हैं। हिंदी कहां पा रही है प्रतिष्ठा। राज्य सत्ता के प्रतिष्ठानों में, शैक्षणिक संस्थानों में या सांस्कृतिक उपक्रम में या फिर सियासत के चकलाघर में ? पता नहीं आपकी निगाह में वह कहां है। हिंदी किसके लिए गौरव का मसला है, हिंदी किसको रोटी देती है। जो रोटी कमाते हैं उनका हिंदी से कैसा लगाव है। हमने हमेशा हिंदी के सवाल को बेहद सतही ढंग से देखा है। हिंदी की गलाजत को लोग किस तरह देखते हैं पता नहीं। अभी भारतीय परंपरा के अनुसार पितृपक्ष चल रहा है और संयोग से हिंदी (राजभाषा) पखवाड़ा भी। ऐसे में रसमी तौर पर ही सही मैं हिंदी के पितरों को याद करते हुए यह टिप्पणी कर रहे हूं।
किसे इस बात की फिक्र है कि सिख कटार रखें तो वह आत्मक्षार्थ कहा जाएगा और दूसरे रखें तो पाकेटमार कहे जाएंगे। यहां कानून धार्मिक स्वतंत्रता कहकर अराजकता को संरक्षण देता है। क्या भाषाई मसले पर हिंदी इसी सलूक का शिकार नहीं हो रही है।
हिंदी की आत्मरक्षा का सवाल वह सरकार कैसे भूल जाती है जो हिंदी की पक्षधरता के नाम पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस, महात्माा गांधी, विनोबा भावे, नेहरू का हवाला देकर इसकी वकालत का ढिंढोरा पीटती नहीं थकती। जिस देश में राष्ट्रीय तिरंगा, राष्ट्रीय फल, राष्ट्रीय पक्षी, राष्ट्रीय पेड़, राष्ट्रीय खेल और यहां तक कि राष्ट्रीय पशु (जानवर) तक है, पर कोई राष्ट्रीय भाषा नहीं। संस्कृति-सभ्यता की आदि जननी का देश कहलाने का गौरव लूटनेवाले इस देश की सांस्कृतिक गैरजिम्मेदारी और राष्ट्रीय बेशरमी का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है आजादी के 63 सालों और संविधान बनने के 60 सालों बाद भी भाषाई गरिमा का ख्याल किसी को नहीं। हमें याद नहीं कि विश्व हिंदी सम्मेलन में शिरकत को लेकर और पुरस्कार को लेकर तो कई विरोध हुए, प्रदेश के नाम पर कुरबानी के कई आंदोलन हुए, परछोटे से देश बांग्लादेश की तरह भाषाई अस्मिता के सवाल पर मर-मिटनेवाले एक भी संस्कृतिकर्मी, भाषाविद, लेखक या कवि सवा अरब वाले इस देश में नहीं हुए। यही वह देश है जिसके प्रधानमंत्री जी जी - 20 के सम्मेलन में विदेशी भाषा में सभा को संबोधित करनेवाले एकमात्र विभूति होते हैं।
याद कीजिए 28 अक्तूबर 1923 को सवा छह सौ साल के ओटोमन साम्राज्य की सल्तनत के खात्मे के बाद मुस्तफा कमाल पाशा की ताजपोशाी हो रही थी और राष्ट्रभाषा का सवाल था कि कौन सी भाषा हमारी राष्ट्रभाषा हो। अधिकारियों ने इसके फैसले के लिए एक दिन की मोहलत मांगी, लेकिन अंत में पाशा ने बारह बजे रात में घोषणा कर दी कि आज से तुर्की की राष्ट्र भाषा तुर्की होगी।
अरबी, बोसनियाई, कुर्दिश, सरकासियन जैसी भाषाएं वहां भी हैं, पर भाषाई केंद्रीयता के सवाल पर भारतीय ग्रंथिया वहां नहीं। यहां तो कहने को नेताजी सुभाष चंद्र बोस से लेकर, गांधी, नेहरू और टैगोर तक को हिंदी की पक्षधरता के नाम पर कोट कर दिया जाता है, पर असलियत कौन नहीं जानता कि किसके मन में कितना हिंदी प्रेम था। डा. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या का नाम तो बहुत लिया जाता है, पर उन्होंने भी हिंदी को रोमन में लिखे जाने की वकालत की थी। आखिर भाषा को जब लिपि से ही काट दिया जाएगा तो ध्वनियों (फोनेटिक्स) का कोई राल बचेगा भी? क्या यह हिंदी को हिंदी के घर में घेर कर मारने का इंतजाम नहीं कहा जा सकता है। मैं समझता हूं कि यह बहस का विषय है, श्रद्धा का नहीं। पर भाषाई मामलों में सरलीकरण कभी भी हितकारी नहीं हुआ है। यह अलग बात है कि भाषाएं ऐसी भी हैं जो कई लिपियों में लिखी जाती हैं। पंजाबी का उदाहरण लें। इसे गुरुमुखी, देवनागरी व अरबी में लिखी जाती है। लेकिन यह हिंदी का कोई मानक नहीं होगा। यदि हिंदी ज्ञान व तकनीक की भाषा नहीं बन सकी है तो इसमें भाषा की तकनीकी सीमा आड़े आती है या हमारी नीचताएं-तुच्छताएं। भाषाविद तो इसकी लिपि और भाषा को वैज्ञानिक कहते नहीं अघाते। आखिर ऐसा क्यों हुआ है कि चीन ने चीनी भाषा में और रूस ने रूसी भाषा में वह सबकुछ अर्जित कर लिया है जिस पर किसी मुल्क का ज्ञान-विज्ञान गौरव कर सकता है। मैं फिर कहूंगा कि सभ्यता-संस्कृति की आदि जननी कहलाने का गौरव लूटनेवाले इस मुल्क को अपनी भाषा में नवजात और पिछड़े मुल्कों को देखना चाहिए कि वह कैसे वह सब अर्जित कर लिया है। भाषा की सीमा बताकर उसे आधुनिक दौर के लिए पिछड़ी भाषा करार देनेवाले निर्णायक भूमिका में बैठे लोगों का भाषा-साहित्य से कोई वास्ता नहीं। यह ठीक उसी तरह का मजाक है जैसे ढेरों रियलिटी शो में जुरी में बैठे लोगों को उस संबंधित विधा से दूर-दूर का वास्ता नहीं। आप क्या कहेंगे कि उड़ीसा के मानस साहू की टीम रेत की जिस सहकारी विधा में अनूठा प्रयोग कर रही है और वे लोग जो अद्भूत प्रभाव छोड़ रहे हैं वह दुर्लभ है, लेकिन इंडियाज खोज टैलेंट खोज -2 के फाईनल में जाने से उसे रोक लिया गया था। बाद में वाईल्ड कार्ड इंट्री से उन्हें मौका मिला। ऐसे कितने ही टेलेंट हंट रियलिटी शो चलते हैं जिनके जूरी को संबंधित विधाओं की एबीसी नहीं आती, बस सेलिब्रिटी हैं यही उनकी योग्यता है। कुछ इसी तरह का हैौ कि हिंदी के भाग्य विधाता जो बन बैठे हैं या जिन्हें बनाया गया है उनका भाषा-संस्कृति कर्म से कोई सरोकार नहीं। इसके लिए जो संसदीय समिति है उसके सदस्य इसके उदाहरण हैं।

खतरा हिंदी वालों से है
विदेशियों ने जिस गौरव और सम्मान के साथ जुड़ाव महसूस किया है और उसे अपनाया है, कहीं न कहीं उसका ही फल है कि 173 विदेशी विश्वविद्यालयों में उसकी पढ़ाई चल रही है। एक अमरीकी विश्वविद्यालय पेनसिल्वानिया विश्वविद्यालय में तो मैनेजमेंट के छात्रों के लिए हिंदी का पाठ्यक्रम अनिवार्य है। हिंदी का प्रचार-प्रसार में जिस तरह केरल ने मिसाल कायम की है, वह हिंदी प्रदेश में नहीं दिखती। अंतराष्ट्रीय प्रकाशकों की दिलचस्पी हिंदी में होने से लेकर से लेकर विश्व सिनेमा बाजार में हिंदी सिनेमा की पूछ और एमएनसी के लिए हिंदी का महत्व इस बात का सबूत है कि हिंदी का बाजार व्यापक हुआ है। बाजार इसलिए नहीं मिला है कि इसमें सरकार का कोई हाथ है। बाजार उसे मिलता है जिसका ‘मास’ होता है। और बाजार में पैठ किसी संरक्षण के जरिए नहीं बनती। भारत का चीनी उद्योग इसीलिए प्रभावित हुआ क्योंकि इसे सरकारी संरक्षण मिला हुआ था। जिस किसी भी उद्योग को सरकारी संरक्षण मिला होता है वह उन सहुलियतों और रियायतों के कारण खुली प्रतियोगिता का सामना नहीं कर पाता जिन्हें कंपीट कर बाजार में टिकना संभव है। सरकार को करना ही होता तो पहले विश्व हिंदी सम्मेलन से लेकर आज तक संयुक्त राष्ट्रसंघ में इसे स्थान दिलाने के नाम कोई भी पहल नहीं हुई, सिवाय इसके कि अपने कार्यकाल में अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र संघ को हिंदी में संबोधित किया। दुबारा कार्यकाल में राजग का कोआ प्रयास नहीं दीखा। हां मारीशस में हिंदी सचिवालय व वर्द्धा में अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय अस्तित्व में आ गया। हिंदी को जो जगह मिलनी है अपने भरोसे वह तो मिल ही रही है, पर व्यवस्था का सहकार जहां चाहिए वहां हम बेहद कमजोर पड़ जाते हैं। अपने मुल्क में ही इसे राष्ट्रभाषा बनाने के नाम पर विरोधियों की अपेक्षा हिंदीवाले ही अधिक बिखरे नजर आते हैं। चीन. जापान. रूस, चेक, हंगरी में विदेशी हिंदी विद्वानों ने हिंदी शिक्षण की एक सुदृढ़ परंपरा कायम कर दी है, पर उन्हें भी पीड़ा होती है घर में हिंदी को उपेक्षित देखकर। गुलाम भारत में केंद्रीयता के सवाल को लेकर रजवाड़ों में मनमुटाव व संघर्ष छिड़े रहते थे, पर विदेशी ताकत के समक्ष झुकने में उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। आखिर अपने बीच का कोई शिखर पर तो नहीं है, यह देखकर उन्हें तसल्ली होती थी। कुछ-कुछ आज उसी तरह भारत एक भाषायी गुलामी के उत्तर औपनिवेशिक दौर में है और हिंदी के मामले में भी वही हो रहा है। जिस बंबइया फिल्मों को हिंदी के प्रचार-प्रसार का श्रेय दिया जाता है, उसकी पटकथा से लेकर संवाद तक सभी कुछ रोमन में लिखे होते हैं। अमिताभ, प्रियंका, मनोज वाजपेयी, आशुतोष राणा जैसे उंगली पर गिने जानेवाले हैं जो अपने संवाद हिंदी में मांगते हैं। लेकिन इससे होता क्या है। इस बार (14 सितंबर 2010 के आसपास ) संसदीय राजभाषा समिति की बैठक का विरोध करनेवाले महानुभाव हलफनामा लेकर बता सकते हैं कि उन्होंने निजी स्तर पर इसका कितना भला किया है। हिंदी माध्यम के विद्यालयों में कितनों के बच्चे व आश्रितों की शिक्षा-दीक्षा हो रही है। आप विपक्ष में हों या सत्ता में, सत्ता पर प्रभाव कम नहीं हो जाता। आप रसूखवाले रहे हों तो आपका कोई काम नहीं रुकता। भाषा, देश, समाज की बात हो तो कन्नी काटने के लिए व्यवस्थागत कई सीमाएं दीखाने लग जाते हैं, लेकिन यही सीमा तब आड़े नहीं आती जब आपके निजी मसले होते हैं। सार्वजनिक जीवन से अर्जित निजी रसूख का इस्तेमाल तब क्यों नहीं होता। क्या सिर्फ इसका हलफनामा आप ले सकते हैं कि हिंदी संबंधित जिम्मेदारियों या ओहदों पर होते हुए आपने निजी स्तर पर हिंदी के लिए क्या किया है। और इसके जिम्मेदार क्षेत्रीय भाषा के लोग नहीं हिंदी वाले ही है। पर हिंदी की रोटी खानेवाले और हिंदी पट्टी से आनेवाली विभूतियों ने क्या किया है यह एक सोशल आडिट का विषय है। राजकोषीय व्यय पर पलनेवाले विभाग और उनके अधिकारियों ने अपनी कुर्सीगत जिम्मेवारियों को निबाहते हुए अपेक्षाओं-आकांक्षाओं को पूरा किया है इसके आकलन का समय आ गया है। कहा जा सकता है कि हिंदी को खतरा हिंदीवालों से है, हिंदी प्रेमियों से नहीं। जिन्होंने हिंदी को जीवन दे दिया है उनसे भी नहीं। यह एक खतरा है जिसके सामने अभी चुप हो गए, तो फिर यह भी हो सकता है कि हम गुंगे कर दिए जाएं।

बुधवार, 1 सितंबर 2010

माओ के बाद

इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या, वर्ग चेतना, वर्ग संघर्ष और सर्वहारा का अधिनायकवाद जैसे सिद्धांतों पर प्रतिष्ठित मार्क्सवाद से दुनिया भर के मजदूरों को एक करने का आह्वान फूटता है। सही भी है। इनके शोषण उत्पीड़न की ज़ड़ में जिस सामंतवाद का खाद पानी है, उसीसे राज्य सत्ता विकसित हुई है। लेकिन क्या फटी और कमजोर आवाज पर ये एकजुट हो सकेंगे। किसी भी मुल्क में एक मार्क्सवादी पार्टी नहीं जिसे प्रातिनिधिकता हासिल हो। सभी मुल्कों की वामपंथी पार्टिय़ां बिखरी हुई हैं।
शोषण के कारकों को चिह्नित करते हुए मजदूर में चेतना लाने की बात करनेवाले यह बताएंगे कि उनकी चेतना कितनी प्रगतिशील है? जर्मनी से इंग्लैंड गए मार्क्स को वहां एंगेल्स मिलता है। रूस जाने पर उसे लेनिन मिलता (मिलते तो कई हैं, पर प्रतीक एक ही बन पाता है) है। चीन आने पर उसे माओ मिलता है। पर भारत आने पर उसे क्या मिलता है ? जिस एमएन राय को दूसरे कामिंटर्न में लेनिन के साथ काम करने का मौका मिलता है। जिसने भारतीय मार्क्सवादी पार्टी का बिरवा बोया था, उसे ही बर्दाश्त नहीं कर पाया। हमारे दौर के प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक कामरेड एके राय को उनकी पार्टी पचा नहीं पाई।
आखिर ऐसा क्या हुआ कि भारत में मार्क्सवाद के साथ कोई एक अनिवार्य नाम नहीं जुड़ पाया। भारतीय मार्क्सवाद के लिए सम्मान, भरोसे से दुनिया भर में प्रचलित कोई नाम नहीं मिलना क्या भारतीय यह वाम का अविकास तो नहीं ? जिस वर्गीय चेतना के विकास और पहचान से मार्क्सवाद के फलने-फूलने को खाद-पानी मिलता है, कहीं वही तो यहां सिरे से गायब नहीं ? जाति और वर्ग के द्वंद्व में उलझा वाम इसे कब सुलझा पाएगा ? मालथस के सिद्धांत को पानी पी-पीकर गाली देनेवाले वामपंथी कब अपने गिरेबान में झांकेंगे ? गैरकांग्रेसवाद से उपजा समाजवाद (लोहियावाद) जाति के द्वंद्वों में सिमटकर रह जाता है तो गैर भाजपावाद के लिए सेकुलरवादी एजेंडा को लेकर एकत्र वाम के पास इस्लामी आतंकवाद की काट में कोई जवाब नहीं है।
यदि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है तो क्या सत्ता हासिल करने के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर उग्रवामपंथियों की कोई भूमिका नहीं बचती है सिवाए हिंसा के? देखने की बात यह है कि इस उत्पात में जिसकी बलि होती है वह इस सत्ता प्रतिष्ठान में क्या हैसियत रखता है ? गिरिडीह के भेलवाघाटी-चिलखारी से लेकर असम-उड़ीसा-आंध्रप्रदेश के जंगलों व देहातों में मारे गए निरीह भोले ग्रामीण-आदिवासी सामंतवाद पोषित सत्ता प्रतिष्ठान में क्या हैसियत रखते थे ? इनके खात्मे से उनकी लड़ाई ने कौन सा मुकाम हासिल कर लिया। भ्रष्टाचार की शक्ल पिरामिड की होती है। ऊपर में बैठा एक आदमी नीचे की कतार के हजारों – लाखों को अपने प्रभाव में रखता है। क्या मुल्क के बड़े कारपोरेट घराने, भ्रष्ट मंत्री-नेता भ्रष्टाचार की इस कड़ी में कोई जगह नहीं रखते ? क्या उन उग्र कामरेडों (नक्सलियों) को इनसे कोई शिकायत नहीं। मारे गए महतो, गंझू, मंडल ही शोषण मूलक समाज के पोषक हैं और मुल्क के बड़े कारपोरेट घराने, भ्रष्ट मंत्री-नेता इनकी जागीर हैं। क्या इनके मारे जाने से मुल्क के बड़े कारपोरेट घराने, भ्रष्ट मंत्री-नेता की पकड़ सत्ता के विभिन्न मठों-पीठों पर ढ़ीली पड़ने लगी है ? कामरेड बताएं कि गृह मंत्री पी चिदंबरम के लालगढ़ चार अप्रैल 2010 के दौरे के बाद लालगढ़ (पश्चिम बंगाल) में दस जवान और पांच अप्रैल 2010 को दंतेवाड़ा (छत्तीसगढ़) में 76 जवानों की हत्या कर इस लड़ाई को कितना आसान कर लिया।
यह मानता हूं कि वर्गशत्रु के सफाए के बगैर समाज को संदेश देना आसान नहीं। पर सफाए का तौर तरीका अपने लोगों के बीच आतंक और अविश्वास बना रहा है या संवेदना के तार मजबूत हो रहे हैं। आखिर नक्सलबाड़ी के बाद से कामरेडों ने कितने शोषक कारपोरेट घरानों, भ्रष्ट मंत्रियों व बेईमान बड़े अफसर-नेताओं का सफाया किया है। क्या लड़ाई की उनकी प्रकृति से इसका अंदाजा मिलता है कि वे कैसे समाज के लिए, कैसे समाज की रचना के लिए विकल हैं। उस समाज के नागरिक कौन होंगे। कम से कम मारे जानेवाले निहत्थे, निरीह, भोले आदिवासी, ग्रामीण तो नहीं होंगे। वे जो समाज बसाएंगे वह किनके रहने-बसने के लिए होगा। आखिर उनके सपनों का कोई खाका तो होगा ?
ऐसे कामरेडों से जब भी मेरी बात होती है तो ऐसे सवालों पर वे लड़ाई को दो धड़े में बंटा बताते हैं। एक समझदारों की लड़ाई और दूसरा धड़ा गैरसमझदारों के हिस्से में बताते हैं। आखिर गैरसमझदारों पर उनका अंकुश नहीं, तो फिर आंदोलन को कहां ले जाना चाहते हैं।

मैं यह मानता हूं कि वर्गशत्रु के सफाए के लिए कई बार हथियार उठाना जरूरी हो जाता है और ऐसे में जब आप हमला करते हैं तो भीड़ गांधी बनकर आपको नहीं देखेगी, यह भी सच है। ऐसे में आत्मरक्षा में आपको आतंक फैलाना पड़ता है, क्यों आपको बचकर निकलना भी है। लेकिन ऐसा कैसे होगा कि जिस वर्गशत्रु को आपने निशाना बनाया है, वही चूक जाए। ऐसी चूक एक बार होगी, दो बार होगी। बार-बार नहीं होगी। और जब बार-बार होगी तो इस बिंदु पर सोचना होगा कि ऐसी चूक क्यों हो रही है ? कहीं यह योजना से ही बाहर तो नहीं या योजनाबद्धता की कमी तो नहीं? एक साम्राज्यवादी सेना की टुकड़ी जब किसी गैर मुल्क में हमले की योजना बनाती है तो इसके पूर्व वह एक गणना करती है कि एक शत्रु के सफाए से कितने नागरिक का नुकसान होगा। नागरिक नुकसान की एक सीमा उन्होंने तय कर रखी है। इस सीमा का आकलन सही हुआ तब तो वह हमला करती है, अन्यथा इसे वह मुल्तवी करती है। लेकिन समतामूलक समाज की स्थापना के लिए शोषण मुक्त करने की जंग में उतरे हमारे कामरेड अपने वर्गशत्रु और अपने लोगों के बीच कैसा फासला रखते हैं। अमूमन वे जिनसे रसद पानी लेते हैं उन्हीं जैसों का सफाया भी करते हैं। और रसद पानी भी आतंक के बल पर।
दूसरी बात खून-खराबे की इस लड़ाई के गुरिल्ले दस्ते में मारे-जानेवाले लोग महतो, गंझू, माझी जैसे निरीह ही होते हैं, मिश्रा, प्रसाद, झा, चक्रवर्ती नहीं होते। जो मारे जाते हैं उनके पैरों में हवाई चप्पल भी होती है तो फटी-पुरानी, टायर की। कपड़े भी होते हैं चिथड़े से कम नहीं। क्या इनकी शिक्षा मार्क्सवाद की कक्षा में हुई होती है। क्या वे विचारधारा की लड़ाई में शामिल लोग हैं या फिर कैरियर (रसद ढोनेवलाले, हथियार ढोनेवाले, ङथियार चलानेवाले), जिन्हें एवज में कुछ पैसे दे दिए जाते हैं।
शिक्षा को सलाम, विकास को सलाम – कुछ इलाकों में कामरेडों ने स़ड़क का निर्माण बाधित कर रखा है तो कुछ इलाकों में विद्यालय का निर्माण। कहीं-कहीं तो पूरे भवन को ही उड़ा दिया है। कहा जाता है लेवी के कारण। जड़ में जो भी हो। अभी लालगढ़ में हिंसा के अलावा लूट का भी जिक्र मिला है। क्या माओ ने ऐसे किसी भी आंदोलन के लिए एक भी शब्द कहा है ? माओ ने जो भी कहा है उन्हीं के शब्दों में हू ब हू देखिए और आत्ममंथन कीजिए। माओ की लाल किताब (माओ त्सेतुंग की संकलित रचनाएं) आपने पढ़ा और पढ़ाया भी होगा। भाग चार में अनुशासन के तीन मुख्य नियमों और ध्यान देने योग्य आठ बातों को फिर से जारी करने के बारे में चीनी जनमुक्ति सेना के जनरल हेडक्वार्टर की हिदायतें पेश हैं –

अनुशासन के तीन मुख्य नियम –
1) अपनी सभी कार्यवाहियों में आदेश का पालन करो।
2) आम जनता की एक सुई या एक टुकड़ा धागा तक न उठाओ।
3) दुश्मन से जब्त की हुई हर चीज को सार्वजनिक उपयोग के लिए जमा करा दो।

ध्यान देने योग्य आठ बातें इस प्रकार हैं –
1) नम्रता से बोलो।
2) जो कुछ खरीदो, उसकी ठीक-ठीक कीमत अदा करो और जो बेचो, उसकी ठीक-ठीक कीमत लो।
3) उधार ली हुई हर चीज को वापस लौटा दो।
4) हर ऐसी चीज की कीमत अदा करो जो तुमसे खराब हो गई हो।
5) जनता को न मारो और उसे अपश्बद न कहो।
6) फसल को नुकसान न पहुंचाओ।
7) महिलाओं से छेड़छाड़ न करो।
8) बंदियों के साथ बुरा बरताव न करो।

इन नियमों को कामरेड माओ ने दूसरे क्रांतिकारी गृहयुद्ध के दौरान चीनी मजदूर किसानों की लाल सेना के लिए तय किए थे। ये नियम लाल सेना के राजनीतिक कार्य के महत्वपूर्ण अंग थे और इन्होंने जनता की सैन्य शक्ति का निर्माण करने, सेना के भीतर पारस्परिक संबंधों सही ढंग से निभाने, आम जनता के साथ एकता कायम करने और बंदियों के प्रति जन सेना की सही नीति निर्धारित करने में महान भूमिका अदा की। कामरेड ने बेहद आग्रह के साथ अपने साथियों को इसके अनुपालन के लिए प्रभाव व विश्वास में लिया। उक्त बातों में उन्होंने दो बातों पर विशेष बल दिया – महिलाओं की नजर से बचकर नहाओ और बंदियों की जेबों की तलाशी न लो।
अब मेरे कामरेड भाइयों से आग्रह है कि इस आईने में अपने को देखें और कहें कि आज उन्होंने माओ को कहां ला रखा है !
(07.04.2010)

अब आप खुद ही देखें कि नेपाल में क्या हो रहा है। क्या नेपाल में पुष्पदहल कमल यानी कामरेड प्रचंड अपने माओवादी कामरेडों को हथियार समर्पण को मना पा रहे हैं।