हमसफर

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

डायरी के पन्ने से

मानवीय ऊष्मा को बचाने की व्यग्रता

चिड़िया की चिट्ठी आई है
आसमान में उड़ूंगी
और गाऊंगी पेड़ पर बैठकर
पेड़ की चिट्ठी आई है
सबको दूंगा छाया
फल-फूल और सुगंध
चिड़ियों को घोंसला बनाने के लिए
मौसम की चिट्ठी आई है
बहुत जल्दी लौटूंगा
तुम्हारे उधर लेकर वसंत को
आदमी की ऐसी ही चिट्ठी का इंतजार है मुझे
जो अभी तक नहीं मिली।

चिड़िया, पेड़, मौसम के जरिए जीवन में जिस मानवीय संलग्नता की कवि को प्रतीक्षा है उसमें धैर्य की जगह एक अकुलाहट है। आज से दस साल पूर्व कमलेश्वर संपादित गंगा में प्रकाशित उक्त चिट्ठी शीर्षक कविता के कवि कमलेश्वर साहू की यह अकुलाहट अपनी काव्ययात्रा में देशकाल में अपने स्पेस को और भी विस्तार प्रदान करती हुई सघन और तीव्र होकर प्रश्नाकुल हुई है। विडंबनाबोध तक पहुंचा उनका स्वर है –

प्रभु
कल किसी ने
शहर को जलाकर
राख कर दिया
आग लगानेवाले की प्रभु
रक्षा करना ताकि अगली बार
तुम्हारे घर में चोरी हो !
तुम्हारा खून हो !!
तुम्हारे घर में आग लगे।

धर्मपरायण मध्यवर्ग की धार्मिक विश्वासों के प्रति बदली हुई दृष्टि को कविता में इस खतरनाक तरीके से अर्जित करना हमारे समय के ही कवियों को गवारा होगा। यह अलग बात है कि संप्रेषण के उनके अंदाज में वह कशीदाकारी नहीं जो आलोचकों का ध्यान खींचती, आलोचना की छवियों, परंपरा और प्रतिमान की तलाश में खोये आलोचकों की निगाह यदि कमलेश्वर की कविता पर नहीं गई तो अकारण नहीं।
अच्छी कविताओं की एक विशेषता और अनिवार्य विशेषता उसकी सहज संबोध्यता, काव्यशास्त्री जिसे संप्रेषण और अभिव्यंजना कहते हैं। यह कमलेश्वर के यहां प्रचुरता के साथ है। उनकी कविता गर्भवती स्त्री, कच्चा दूध, आंगन, अच्छा दिन, दादी की गुल्लक हो या मां की याद, प्रांगण उसका आत्मीय होकर भी आत्मग्रस्त नहीं। यहां रिश्तों के बीच गुम हो रही मानवीय ऊष्मा को बचाने की अजब व्यग्रता है।
(19.04.1998)

भावी परंपरा
मुक्त और उदार जैसे साथ-साथ चलनेवाले शब्द सभ्यता के इस दौर तक आकर विपरीत ध्रूवों पर चले गए हैं। बाजार की मुक्ति के साथ समाज अनुदार होता गया। हाल यह है कि मुक्त बाजार के इस सर्वग्रासी दौर में शब्द के अलावे सभी ने अपने – अपने भोजन, वस्त्र और आवास तलाश लिए हैं। असुरक्षा-संशय का अधिकाधिक घटाटोप टंगा-घिरा है तो शब्द पर ही। कारण भी है। जहां हमारे शब्देतर सरोकार अधिकाधिक भौतिक होते हैं, वहीं शब्द के सरोकार केवल और केवल अभौतिक। विचित्र सा लगता है कि जब कहते हैं, इस दौर की कविताएं सभी दौरों की अपेक्षा लौकिक अधिक हुई हैं। काव्य रीतियां भी पनपीं, पर वह रीति काव्य में तब्दील होने से रहीं। क्योंकि शब्द के सरोकार अभौतिक गोते हुए भी लालसाएं लौकिक ही थीं।
मुक् बाजार ने हमारे सभी सरोकारों को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य दिया है। और यह भी तथ्य है कि जटिलतर होते जा रहे समाज की चुनौतियों से जूझने के लिए हम जितने ही बड़े परिप्रेक्ष्य में अपने को उतारते हैं या खड़ा पाते हैं, हमारी सीमाएं उतनी ही खुलकर सामने आती हैं। कहें कि हम उतनी ही बड़ी सीमाओं से साक्षात करते हैं। ऐसे में हमारे दौर के शब्दकर्म को अपनी सीमाओं से साक्षात होने का झटका झेलना पड़ा है।
जिस तरह सभी दौर की काव्य परंपराएं अपनी प्रस्थानकालीन प्रवृत्तियों का विकसित रूप व परिमार्जित स्वरूप हैं, उसी तरह भावी काव्य परंपरा की नींव का काम करेंगी कुछ युवतम कवियों समृद्ध रचनाशीलता। निलय उपाध्याय, कुमार अंबुज, विनय सौरभ, बद्री नारायण, एकांत आदि कुछ ऐसे ही नाम हैं। समय व सभ्यता के संकट व समाज की चुनौतियों से इनका साक्षात कैसा है व उसकी अभिव्यक्ति का स्थापत्य कैसा है, यह तय करेगा इनका काव्य विवेक। संवेदन तंत्र की जटिलता बढ़ी है, पर यदि लेखक उसके लिए अपेक्षित भावलीन व्यवस्था विकसित नहीं कर पता तो चीजें खंडित नजर आती हैं या एकरैखिक (सतही)। अभिव्यक्ति के किन औजारों का युवा रचनाशीलता कैसा इस्तेमाल कतरती है यह यथार्थ से उनके मुठभेड़ या रिश्ते से तय होना है। फिलहाल तो युवा रचनाशीलता को देखकर कहा जा सकता है कि यथार्थ से उनके सरोकार महज दर्शक के नहीं रहे। यथास्थिति से एक तरह का क्षोभ – असंतोष उनकी रचना को शांत और करुण नहीं नहीं रहने देता। सामाजिक बेहतरी के सपने, बाजारवादी व्यवस्था के घटाटोप में सामाजिक-सांस्कृतिक संकटों से जूझने की बेबसी से इनकी रचनाशीलता अछूती नहीं रहती। भाव-विचार का सांद्रण, वस्तुरूप की ताजगी और सबसे ऊपर सहजता और सूक्ष्मता को अपनी रचनाओं में साध रही यह पीढ़ी निश्चय ही कहीं की भी थाती हो सकती है।
(11.10.1998)

एक सजग यायावर
हिंदी के बाबा नागार्जुन, मैथिली के यात्री और मिथिला जनपद के वैद्यनाथ मिश्र। जीवन भर यायावरी की, देह छोड़ी अपने ठौर। स्वामी सहजानंद का किसान आंदोलन हो या लोकनायक का छात्र आंदोलन, सबमें मौजूद रहे। और इसी तरह वह वामपंथी आंदोलन की सांस्कृतिक एकता के प्रतिनिधि भी रहे। इस मौजूदगी में सदैव वैचारिक प्रतिबद्धता उनके साथ रही, पर जनता को पीछे छोड़कर पार्टी की विचारधारा नुमा डस्टबिन बनकर नहीं। जनपक्षधरता की प्रतिबद्धता अपनी पूरी उग्रता के साथ उनमें मौजूद थी, इसलिए ऐसा संभव हुआ। मुझे उनमें औरों की तरह विचलन नहीं दीखता तो इसीलिए। लोगों को कभी-कभी दीखनेवाला विचलन दरअसल यही जनपक्षधरता थी। यह जनपक्षधरता भारतीय समाज में रूढ़ नहीं। वह अपनी मूलवृत्तियों में वामपंथी तो थे, पर वामपंथ की रूढ़ियां उनके यहां नहीं थीं। क्योंकि प्रतिबद्धता जीवन से सीधे जीवन से जुड़ने नहीं देती। जीवन और व्यक्ति के बीच विचारधारा का हस्तक्षेप होता है, जबकि नागार्जुन के काव्य संसार में एक प्रत्यक्ष व सघन जीवनदर्शिता है। यही प्रत्यक्ष जीवनदर्शिता उन्हें अपनी वैचारिकता की पूरी निर्मम चीरफाड़ में मदद करती है, जो सनातनी वामपंथियों को गवारा नहीं। इसीलिए उन्होंने एक जगह कहा है - करूं मैं उद्दंडता के काम। यही है जो आभासी अराजकता का भेद खोलती है। इसके लिए उन्हें आक्षेपों का शिकार होना पड़ा है और उपेक्षाओं का भी। बावजूद इसके संघर्ष का विसर्जन कहीं नहीं हुआ है। जीवन से सीधे जुड़ने की यह अविरल विकलता है –
प्रिय मुझे है जलन
प्रिय संताप।
संघर्ष में टिके रहने का विकट जीवट निराला में भी ऐसा ही था –
कौन फिर मुझको वरेगा
जो न तू उस पथ मरेगा।
छात्र आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका में होने के बावजूद उसके हासिल से उनका मोहभंग भी हुआ और ‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने’ कहकर उन्होंने एक तरह से अपनी संलिप्तताओं पर भी करारा प्रहार किया। न तो उन्हें राजनीति का भटकाव गवारा था और न ही साहित्यिक भटकाव। वाम के नाम साहित्य की राजनीति करनेवाले प्रलेस तक को उन्होंने नहीं बख्शा था-

रहा उनके बीच मैं
था पतित मैं, नीच मैं।
दूर जाकर गिरा, बेबस उड़ा पतझड़ में।
धंस गया आकंठ कीचड़ में।

आत्मभर्त्सना की इस सीमा तक जाने के लिए जिस नैतिक बल व आत्मत्याग की जरूरत होती है, भला उसके प्रहारों को दूसरा कौन बर्दाश्त करता। यही कारण था कि राज्य के सबसे गंदे मोहल्ले में उचित देखरेख व इलाज के अभाव में वह तीन सालों से मृत्युशैया पर पड़े रहे। इस साल भले उनके जन्म दिन को उनके यहां पर्व की तरह मनाया गया, फिर भी कवि के लिए उसमें चिंता नदारद ही रही। क्या इस उत्सवधर्मी माहौल में यह समाज अपने अन्यायों पर आत्मचिंतन कर पाएगा।

(22.11.1998)

दीन-दुनिया को टटोलती कारुणिक पुकार

बड़े विचित्र तरीके से हिंदी कविता को इन दिनों दुर्भाग्यों और सौभाग्यों से गुजरना पड़ रहा है। दुर्भाग्य इस अर्थ में कि आलोचना इन दिनों अतिक्रमण हटाने के उस बुल्डोजर की तरह हो गई जो किसी आदेश-निदेश की यांत्रिकता से संचालित है, मानवीय विवेक से नहीं। और सौभाग्य इस अर्थ में कि सड़क से विस्थापित कविताओं में सभी तलछट ही नहीं। पिछले डेढ़ दशकों से सक्रिय कवि जयप्रकाश मिश्र की कविता से गुजरते हुए कहीं भी दृष्टि और संवेदना की वैसी फिसलन नहीं दीखती जिसे अनगढ़ शिल्प करार दिया जाए। कवि जयप्रकाश का ‘कविता का खूबसूरत संसार’ (कवि की ही शब्दावली में) खोये को बटरने के प्रयास से बना है। इसके साथ ही बने हुए के खोने की विकट आहट भी मौजूद है उनकी कविता में। आज जब चोट पर मरहम लगाने तक के लिए राजनीतिक चोंचलेबाजी देखने को मिलती है, वैसे में रचना – विरचना के दाब से गुजरते हुए उनकी कविता बड़े ही संयत व अराजनीतिक किस्म का भावतंत्र खड़ा करती है। सारतः यह कविता दीन-दुनिया को टटोलती एका कारुणिक पुकार है।
(दिसंबर 1998 का कोई दिन)

तन्मयता व तरलता के कवि राजेश

पूंजीवादी व्यवस्था के उत्तर आधुनिक चोंचले के रूप में बाजारवाद के रूप में इस दुनिया की नियति को हिंदी काव्यजगत ने इधर पकड़ने की अच्छी कोशिश की है। देखने की बात यह है कि जहां तन्मयता है वहां तरलता नही। क्योंकि चौंकन्नापन और संवेदनशीलता बहुधा एक साथ नहीं होते। यह चौंकन्नापन और तरलता दोनों ही राजेश जोशी में ही। यह उनकी शुरुआती रंगत का अद्यतन फैलाव है। ‘मिट्टी का चेहरा’ (1985) से लेकर ‘नेपथ्य में हंसी’ (1994) तक यह सूक्ष्म से होकर गहन और विस्तृत होती गई।
क्या यह सुनने को बैठा रहूं धरती पर
कि पालक मत खाओ ! मेथी मत खाओ !
मत खाओ हरी सब्जियां!
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मैं वहीं उगाऊंगा हरी सब्जियां और
तंदूर लगाऊंगा
देखना एक रात
मैं उड़ जाऊंगा
(मिट्टी का चेहरा)

कई बार बाजार जब चीजों से लद जाते हैं
समाज में पैदा होने लग जाते हैं
नए उपद्रव
- वस्तुओं के बारे में एक वक्तव्य (नेपथ्य में हंसी)

राजेश जोशी के यहां मौजूद स्थानीयता की रंगत को महज एक प्रतिबद्ध कवि के जीवंत मनानवीय लगाव का साक्ष्य (परमानंद श्रीवास्तव) भर नहीं कहा जा सकता है क्योंकि यहां प्रतिबद्धता के साथ एक काव्यचातुर्य भी है जिसके कारण उनके यहां फंतासी का काव्यविवेक दीखता है।

नदियों का नहीं
समु्द्रों का नहीं
पेड़-पहाड़ों का नहीं
बाजारों का है यह समय।

‘मिट्टी का चेहरा’ संग्रह की ‘आठ लफंगों और एक पागल औरत का गीत’ कविता जैसे भविष्य के समस्त काव्य संसार पर बाजार के दबाव को रिफ्लेक्ट कर रही हो। यह उदघोषणा जैसे विद्रोही कवि मायकोवस्की के उस घोषणापत्र की याद दिलाता है जो उन्होंने सुरुचि के गाल पर तमाचा शीर्षक से भविष्यवाद के घोषणापत्र के रूप में पेस किया था। (यह अलग बात है कि राजेश ने मायकोव्स्की की कविताओं का अनुवाद भी किया है और वह संग्रहाकार छपा है – पतलून पहना बादल नाम से)

कोई दस-बारह वर्ष पहले शंभूनाथ ने ‘परिवर्तन’ में ‘मिट्टी का चेहरा’ के संदर्भ में राजेश की काव्य प्रवृत्ति को आत्मगत जड़ता में हस्तक्षेप की व्यापक उत्कंठा के रूप में चिह्नित किया था तो अकारण नहीं। वीरेन डंगवाल के संदर्भ में मैंने साक्षात्कार और इंद्रप्रस्थ भारती में लिखा था कि सामयिक हुए बगैर सार्वकालिक नहीं हुआ जा सकता और स्थानीय हुए बगैर सार्वभौमिक नहीं। इसे यहां कह सकते हैं कि सरलता अर्जित किए बगैर वैशिष्ट्य हासिल नहीं हो सकता। आरंभिक दौर में जो स्थानीय रंगत विरल थी अब वह सांद्र व सूक्ष्म होकर और गहन व सघन हुई है जोशी के यहां। यही इनका वैशिष्ट्य है। क्योंकि जीवन को सूक्ष्मता और गहनता देखे बगैर स्थायी प्रभाव छोड़नेवाली जोशी जी जैसी कविताएं लिख पाना मुमकिन नहीं।
(13.12.1998)


हिंदी गद्य के कबीर के लिए

अक्खड़ता सादगी और साहस से आती है। भाषा में यह नैतिक चेतना कबीर से हिंदी गद्य को यदि मिली है तो वह काशीनाथ सिंह में देखने को मिलती है। कहानी हो या उपन्यास या फिर कथा रिपोर्ताज। कविता में चरित्रों की अमूर्तता और निर्वैयक्तिकता उसके फार्म की उपज है, पर कहानी में इसके होने का कारण यही नहीं। यहां विस्तार है, विवरण है और पर्याप्त अवसर भी। फिर भी एक हिचक है, और यदि कहानी में चलते – फिरते, रोजनामचा की आवाजाही हूबहू हो तो होठ बिचकाते हैं, लेकिन यह तबतक नहीं होता जब तक कि निर्मम बेलागपन न हो। दूसरों की तस्वीर साफ – साफ रखने के लिए अपनी जिस चीरफाड़ की जरूरत है व काशीनाथ सिंह में है। काशीनाथ सिंह (की रचनाशीलता) पर कुछ बोलने में सकुचाने के पीछे कदाचित वही सीमा आड़े आ जाती हो नामवर सिंह को भी। काशीनाथ पर कुछ भी लिखने-बोलने का मतलब है उन लोगों – समयों पर बोलना – लिखना, जिनके साथ सक्रिय सदेह रिश्ते हैं। कितने लोग बरत पाते हैं इस ईमानदार साहस को। सामाजिक संबंधों को परिभाषित करना लेखन है तो आलोचना भी इससे बरी नहीं। क्योंकि आलोचना भी एक रचना है, काशीनाथ का यह जुमला ही नहीं उनकी एक एक किताब का भी नाम है और आलोचना की रचनाधर्मिता को उनकी नजर से देखना भी। क्या सप्राण भाषा। जैसे श्रेष्ठ कवियों के प्राणवान गद्य।
‘’लालटेन हमारी चुप्पी को प्रकाशित कर रहा है’’ (आखिरी रात कहानी) से लेकर ‘’नियम विज्ञान के होते हैं जिंदगी के नहीं। जो जिंदगी को नियम से चलाते हैं वे चुतिया है। - संतवाणी ‘’ (संतों, असंतों और घोंघा वसंतों का अस्सी) जैसी अभिव्यक्तियों के बीच काशी के विकास की छाया देखी जा सकती है।
(24।10.2001)

दिल को सुकून रूह को आराम आ गया

कोलकाता की हिंदी जमात में जब नामवर के निमित्त के आयोजनों का सिलसिला, अलका सरावगी को साहित्य अकादमी के उपलक्ष्य में पार्टी का दौर चल रहा था, ठीक उसी समय हिंदी का विख्यात कथाकार इसराइल अनाम की तरह आखिरी सांसें गिन रहे थे।
साहित्य अकादमी पुरस्कार देने के निर्णय के अंतिम दौर में जब निर्णायक मंडली उधेड़बुन में रही होगी, ऐन तभी हिंदी के कथाकार इसराइल जिंदगी और मौत से जूझ रहे थे। कोलकाता की ही अलका सरावगी को पुरस्कृत किया जाना था, कोलकाता में ही साहित्य मेला लगा था और इसी बीच कोलकाता के एसएसकेएम अस्पताल में पड़े पिलिया से पीड़ित इसराइल की किसी को सुध नहीं थी। क्योंकर होगी। वे साहित्य के कोई सेलिब्रिटी भी तो नहीं थे। और सेलिब्रिटी तो मटियानी और नागार्जुन भी थे, पर किसे कितनी सुध रही। 12 दिसंबर 2001 से भरती होने के दो सप्ताह तक बीमारी से लंबी जद्दोजहद के बाद 26 दिसंबर की मध्याह्न रात उन्हें हम सबसे छीन कर ले गई।
बिहार के गोपालगंज जिले के एक छोटे से गांव मुहम्मदपुर से जब कोलकाता आए होंगे तब से भी कहीं अधिक अनजाने हो गए थे हिंदी जगत के लिए अपनी मौत के क्षणों में। पिता की तरह चटकल मजदूर के रूप में जीविका शुरू की, प शीघ्र ही अपनी साहित्यिक रुझान व मार्क्सवादी समझ के कारण बीटी रणदिवे और नीरेन घोष के प्रिय बन गए। अब इन्हें माकपा के मुखपत्र ‘स्वाधीनता’ का संपादक-प्रकाशक बना दिया गया तो वे आजीवन रहे। वे पार्टी के होलटाइमर थे। माकपा के जनवादी लेखक संघ के संस्थापकों में एक इसराइल जलेस की केंद्रीय समिति के सचिव तथा पश्चिम बंगाल इकाई के अध्यक्ष भी थे।
एक कथाकार के रूप में पश्चिम बंग हिंदी अकादमी, मध्य प्रदेश सरकार तथा बिहार सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया था। वामपंथी रुझान के कथाकारों में आमतौर पर मजदूर वर्ग को लेकर उनकी वर्गीय चेतना ईमानदार कम हमदर्द अधिक हो जाती है। गैरवाजिब भावुकता और उत्साह के अतिरेक के शिकार हो जाते हैं वे। पर इसराइल इससे अलग थे। इन्हीं विशेषताओं के मद्देनजर शिव कुमार मिश्र उन्हें शेखर जोशी के सिवा पहले कहानीकार मानते थे।
(दिसंबर 2001 का कोई दिन)

यह तो होता ही रहता है

थोक के भाव में लिखे हिंदी साहित्य के इतिहास शायद ही एक भी ग्रंथ हो, जिसने इतिहास लेखन की अकादमिक सीमाओं और मठाधीशी को त्यागा हो। यह परंपरा रामचंद्र शुक्ल से ही शुरू हो जाती है। हिंदी साहित्य मौलिक रूप से जितना ही समृद्ध और जीवंत है, उसका इतिहास लेखन उतना ही दुहराव व अनुकरण से भरा। हिंदी साहित्य के इतिहास लेखकों में अपने समकालीनों को लेकर पाई जानेवाली कुंठा ने उन्हें भले ही तात्कालिक आनंद दिया हो, तृप्ति दी है, पर हमेशा – हमेशा के लिए हिंदी जाति को उसके मूल संस्कार और वाजिब गौरव से काटा है। साहित्य स्रोत है और इतिहास परिप्रेक्ष्य, यह बात जानना इतिहास लेखकों के लिए जितना ही जरूरी, उससे कम जरूरी नहीं साहित्येतिहास लेखकों के लिए भी। लेकिन समाज से कटे लेखकों में मूल दृष्टि का ही अभाव नहींहोता, बल्कि स्रोत की विश्वसनीयता की परख भी नहीं होती। यह अकारण नहीं है। पारिवारिक सर्वेक्षण करने निकले लोगों के उस जत्थे की कल्पना कीजिए जो मोहल्ले की किसी बैठकी में शामिल होकर पूरे मोहल्ले या गांव के ब्योरे इकट्ठे कर लेता है। क्या सारा का सारा इतिहास लेखन इसी तरह बरता गया नहीं लगता है।
वास्तविक नायक तो मुख्यधारा के खिलाफ होने के कारण उपेक्षित और वंचित होता है विभिन्न प्रतिष्टानों की कृपा से। मुखालफत के साथ ही उसकी नियति अभिशप्त हो जाती है। इतिहास लेखक तो आक्रांत होता है सत्ता के तिलिस्म से या सफलता और लोकप्रियता से। दिनकर ने लेखक को इस ग्लानियुक्त कर्म से उबरने के लिए ही कदाचित लिखा था –
क्या जाने इतिहास बिचारा,
अंधा चकाचौंध का मारा।

(कलम आज उनकी जय बोल)।

अपने समय के घोर उपेक्षित जर्मन यहूदी लेखक वाल्ट बेंजामिन को ठौर के लिए ताजिंदगी भटकते-भागते रहना पड़ा और अंत में खुदकुशी का दामन थामना पड़ा। व्याख्याता बनने से वंचित कर दिए गए बेंजामिन के दर्शन और विचार का लोहा भले ही अब दुनिया में माना जाने लगा हो। स्पेन के गुमनाम कस्बे में उनकी कब्र पर उनकी ही एक पंक्ति खुदी है – ‘यशस्वी लोगों की बजाए अनाम लोगों की स्मृति को सम्मान दिना ज्यादा कठिन है।‘ इतिहास का निर्माण ऐसे लोगों की स्मृति में ही हुआ है। दिनकर सर्वनाम ‘उनकी’ बेंजामिन का अनाम लोग को ही रिप्लेस करता है। मुक्तिबोध का संघर्ष बेंजामिन से अलग नहीं। इतिहासकारों की वर्चस्ववादी सत्ता की प्रताड़ना की जो अजब पीड़ा बेंजामिन की इस उक्ति में है। वैसा ही कुछ हुआ हिंदी में मुक्तछंद प्रथम प्रयोक्ता महेश नारायण श्रीवास्तव के साथ। अमेरिकी कवि वाल्ट ह्विटमैन ने 1855 में छंद को तोड़कर ‘लीव्ज आफ ग्रास’ लाया तो उसके 15-16 सालों बाद महेश नारायण श्रीवास्तव ने हिंदी में वही उद्यम किया। जिस तरह वाल्ट ह्विटमैन की ‘लीव्ज आफ ग्रास’ को अपने दम पर उनके प्रायः सभी समकालीनों ने धज्जियां उड़ाईं, उसी तरह महेश नारायण श्रीवास्तव की मिश्र बंधु से लेकर डा. रामविलास शर्मा ने जी भर अनदेखी की। कविता के इन क्रांतिकारी अध्यायों की एक झलक साहित्य की वर्चस्ववादी सत्ता और उसकी निरंकुशता से मिल जाती है।
(22.02.2002)

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