हमसफर

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

डायरी के पन्ने से

तसलीमा के बहाने
नंदीग्राम हादसे के बाद आल इंडिया माइनारिटी फोरम का फरमान और कोलकाता से तसलीमा के निष्कासन को कैसे समझा जाए ? क्या यह ठीक उसी तरह नहीं जैसे जार्ज ने अमरिका बनाम ईराक की लड़ाई में दुनिया को धमकाया था यह कहकर कि ईराक-बनाम अमेरिका में जो उनके साथ खड़ा नहीं वह आंतंकवादी है ? पश्चिम बंगाल सरकार झुकी भी। क्या भारतीय इस्लामी कट्टरता की कठपुतली नहीं? क्या यह मान लिया जाए कि भारतीय वामपंथ अपनी उम्र के आठवें दशक तक आते-आते सठिया गया और उसके पास अपने लाड़ले इस्लामी कट्टरता को पुचकारने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। आखिर लेखक भरोसा बदलावकारी ताकतों पर है या फिर वह प्रतिक्रियावादियों की अनुकंपा पर हैं। अश्लील प्रसंगों से चर्चित और कट्टरता को तार-तार करते अंश से विवादित ‘द्विखंडिता’ से तसलीमा को उन अंशों को आखिरकार अल्पसंख्यक महानुभावों के दबाव और आतंक में आकर निकालने को राजी हो गई और तर्क दिया कि शांति का माहौल बनाने के लिए उन्होंने ऐसा किया। क्या वह लज्जा का दूसरा पाठ लिखेंगी ? कोलकाता को स्थाई ठिकाना माननेवाली तसलीमा जब (कोलकाता से निकलकर) भारत को अपना ठिकाना मानने लगीं तो क्या यह नहीं माना जाए कि राजमार्ग, राष्ट्रीय मार्ग से यह रास्ता अब अंतरराष्ट्रीय रास्तों से मिलकर बांग्लादेश जाने के लिए पगडंडी तो निकाल रही हैं ? लेकिन तसलीमा को इसकी तनिक भी चिंता नहीं कि ऐसा करके उसने अपने पक्ष में खड़े मानवीय सरोकारों से जुड़े मानवाधिकार की रक्षा के लिए आंदोलन के मुंह पर कालिख तो नहीं पोत रही हैं? विवादास्पद अंश प्रतिबंध मुक्त करने के लिए दो-दो बार कोलकाता उच्च न्यायालय गए मानवाधिकारवादी सुजत भद्र कौन है, तसलीमा ने यह जानना नहीं चाहा ? तसलीमा के इस पूरे अध्याय से भारतीय वाम का चेहरा वामपंथी लेखक संगठनों की हवाबाजी कहां गई ? भारतीय वाम का क्रांतिकारी परचम देखना हो तो भारत छोड़कर खाड़ी देश में रह रहे एमएफ हुसैन और बांग्लादेश छोड़कर भारत में रहने की जिद पर अड़ी तसलीमा के कंटेक्स्ट में इस टेक्स्ट को देखना होगा। कल्पना की उड़ान और कला की स्वायत्तता की वकालत करते हुए हुसैन के पक्ष में खड़े होनेवालों को क्यों नहीं दिखता कि हुसैन की कूंचियां हिंदू देवियों के कूच-नितंब पर क्यों फिरती हैं ? अपने मुहम्मद व पैगंबरों की खोहों में जाकर उसके रंग क्यों सूख जाते हैं ? या कूंचियां ही सूख जाती हैं ? प्रताड़ना और शोषण का चित्रण करते हुए इस्लामी कट्टरता और सामंती जकड़न में कराहती आवाजें क्यों नहीं उनके कानों तक पहुंचती हैं ? इस्लामी कट्टरता और सामंती खोहों को कलम से आलोकित करनेवाली कलम से तस्लीमा की यौन उच्छृंखलताएं क्यों नहीं दिखती भारतीय जनवादी वाम लेखक संघों को ? क्या यह संस्कृतिकर्म के नाम पर फलने फूलनेवाली ऐय्याशी में हिस्सेदारी की चाहत तो नहीं। आखिर कौन उनकी जबान को सिलता है जो जबान कभी विभूतिनारायण राय से लेकर एमएफ हुसेन तक को संरक्षण की वकालत करती है।
भारतीय वामपंथ के आंचल में ठौर पाए वामपंथी लेखकों को ऐसे मसलों पर सांप सूंघ लेता है। वामपंथ की चालाकियां उनकी धूर्त्तता का सहारा बनती हैं। माकूल जवाब तलाशने में उन्हें दगाबाज बनना पड़ेगा और कुछ तो बनते भी हैं। उसके भटकाव व बिखराव के सूत्र को पकड़ने के लिए समूचेपन में जाना होगा, जो इनकी फितरत में नहीं।
(02 दिसंबर 2007)

डायरी के पन्ने से

आलोक के बहाने

दुनिया रोज बनती है पर सबकी नजर गई होगी। इसकी समीक्षाओं पर भी। क्या ऐसा नहीं लगता कि आलोकधन्वा का रचनाकर्म एक खतरनाक दौर से गुजर रहा है। जिस लंबे तप और संघर्ष के बाद व्यक्तित्व का तेज उनकी कविता को एक काव्यमूल्य के रूप में मिला था, वह क्रमशः भोथर होने लगा है। वामपंथ का पतित गठजोड़ प्रकृति से सर्वहमति का स्वर अपनाने की विवशता या स्वाभाविकता की तरह भी घटित हुआ माना जा सकता है।
राजनीतिक लंपटता और टुच्चेपन की नागरिक स्वीकृति के पीछे प्रबुद्ध वर्ग के गलत इस्तेमाल का भी हाथ है इसमें। अपनी सुविधा और साध के लिए प्रबु्द्ध वर्ग को यह जरूर मंजूर है। यह वर्ग अपना गलत इस्तेमाल होने देता है राजनीतिक लंपटताओं का वैधानिक औचित्य सिद्ध करने में। जो काव्य मुहावरा आलोक ने अर्जित किया था, उसे वह एकबारगी छिन्न-भिन्न नहीं हुआ। इसके लिए उनकी अपनी जीवन स्थितियां व जीवनसंघर्ष के बीच लालसाओं का प्रभुत्व भी जिम्मेवार है। लेकिन बदलाव के इस परिप्रेक्ष्य पर ऊंगली रखने की बजाए ललित कार्तिकेय इसे दृष्टि-अंतर्वस्तु, रूप और शैली की सुखद संगति के रूप में देखते हैं। श्री कार्तिकेय को इसमें न कोई द्वंद्व न कोई दरार दिखती है (जनसत्ता के 23 मई 1998 के अंक में श्री कार्तिकेय की समीक्षा साधारण की आदिम महत्ता) दूसरी ओर परमानंद श्रीवास्तव हैं जो इसे विचलन नहीं मानते, बल्कि आलोकधन्वा की कविता से वाजिब अपेक्षा को उनकी जिम्मेदारी के बजाए काव्याभिरुचि की तानाशाही या वामपंथ की सांस्कृतिक क्रांति के भीतर नवउपभोक्तावाद की सुगबुगाहट । यह सिर्फ आलोक का विचलन नहीं, बल्कि समग्र वामपंथ का खतरनाक दौर भी है, जिसे श्री श्रीवास्तव सभ्यता विमर्श कहकर खुश हो लेते हैं। परमानंद श्रीवास्तव को जिस तरह सांस्कृतिक मानवीय विमर्श की ताकत पर भरोसा है तो उन्हें यह भी देखना चाहिए कि इस देश में कैसे गैरकांग्रेसवाद की लड़ाई पिछड़ा-दलित में बिखर गई और और सामाजिक न्याय के लिए खड़ी लड़ाई भ्रष्टाचार का जवाब नहीं ढूंढ़ सकी और खास किस्म का संप्रदायवाद को रच बैठा। बिखराव को समेटने की प्रवृत्ति की कमी कैसे गैर भाजपावाद की उपज वामपंथी उग्रता में होती है। अंतर्विरोध को पाटने में नाकाम तीसरी ताकत हमेशा बिखरकर अपने ही खिलाफ खड़ी होती रही।
एक भी समीक्षा ऐसी नहीं दिखी जिसे आलोक के उन्नत काव्याकाश में जीवनदृष्टि की वक्रता दिखी। 70 के दशक में छह कविताएं, 80 के दशक में तीन कविताएं, 90 के दशक में 32 कविताएं। यह समझने और ताड़ने का मसला है कि उर्वरता और बंजरपन का कुछ न कुछ रिश्ता (निर्णायक) जरूर ही प्रगल्भता व मितभाषिता से है जो उनके जीवन सरोकारों में क्रमशः खुलती चली गई। उनकी संलग्नताओं में बदलाव व विस्तार की दिशा इसकी सबूत है, लेकिन टिप्पणियां हैं कि खुशामद ही करती हैं।
क्या आज पाश होते तो उनका भी यही हस्र होता ? मुझे लगता है कि ऐसा नहीं होता। ऐसा इसलिए कि जिस समाज के वह थे उसके मूल संस्कारों को तिलांजलि देकर ही वह कम्यूनिस्ट हुए। आखिर कहीं न कहीं तो धर्म के विरुद्ध खड़ा होना ही होगा। क्योंकि इन्हीं संस्कारों में संक्रमण के कीटाणु हैं। संस्कारों को तिलांजलि देने का मतलब असामाजिक होना कत्तई नहीं। सामाजिक बेहतरी के सुखद सपने और बदलाव की आग उनमें हमेशा जीवित रही। यह सिर्फ उनके साथ की बात नहीं। प्रो. वरावरा राव व क्रांतिकारी गायक गायक को देखा जा सकता है जो अपनी वृत्तियों और सरोकारों में हमारे सामने अविचल खड़े हैं। आलोक का अंधकार कहीं न कहीं हिंदी पट्टी की नियतियों व नियंताओं से भी जुड़ा है। यह अंधकार हिंदी पट्टी की राजनीतिक चेना से उपजा है, जहां सामंती समाज के अवशेष से अभी भी मोह और आकर्षण बचा है। कम्यूनिस्टों का जातिवादी रुझान (झुकाव) और क्या है ? यही कारण है कि आज नंदीग्राम और सिंगूर पर प्रो. वरावरा राव की कविता चिंगारी तो उगलती है और गदर की आवाज में धधक बची हुई है। यह तय है कि पाश भी निस्तेज नहीं होते। क्या ‘गोली दागो पोस्टर’ और ‘जनता का आदमी’ की कविता की आग का दरिया नंदीग्राम और सिंगूर तक आते-आते सूख नहीं गई ? क्या कवि खुद इसके नैरंतर्य को नंदीग्राम में नहीं ढूंढ़े ? या तुलसी और सूर की तरह सारी परिस्थितियों में जैसे पाठ तैयार कर लिए जाते हैं क्या उसी तरह आलोक का जीवंत पक्ष जाने बगैर एक पाठ रिड्यूस कर दिया जाए ? क्या मान लिया जाए कि वे आज कविता के जीवंत परिप्रेक्ष्य से उसी तरह गायब हैं जैसे बच्चन मरने से 20 साल पहले या त्रिलोचन अभी मंद पड़े हैं (चाहे कारण जो भी हो)। कहीं एक बार फिर हमें वाम के विचलन का यह संक्रमण पैदा करने वाले समाज में ही ढूंढ़ना होगा।

(जून-जुलाई 1998 में मदन कश्यप को लिखे पत्र के आधार पर)