हमसफर

गुरुवार, 31 मार्च 2011

कितनों की बलि चाहिए मनरेगा ?

रामदेव विश्वबंधु


(दलित विमर्श, पंचायती राज व चुनाव सुधार के लिए फकीराना अंदाज में यायावर बने फिरनेवाले रामदेव जी लगातार अपने निजी जीवन को असहाय करने में लगे हैं। देश भर में घूम-घूम कर मंचों-अभियानों में शिरकत से उनका जी नहीं भरता। फिलहाल विश्वबंधु ग्राम स्वराज अभियान के प्रदेश संयोजन का भार संभालते हैं। किसी विषय पर बुलवाने के लिए आपका एक आग्रह काफी होगा, पर सालों रटते रहने पर एक पन्ना भी वे लिखकर नहीं देनेवाले। पलामू में नरेगा के सोशल आडिट के फलस्वरूप ग्राम स्वराज अभियान के कार्यकर्ता नियामत को उस नेक्सस की बलि चढ़ जानी पड़ी जो तंत्र पोषित है। इस पर लिखने के लिए माडरेटर के अड़ जाने पर उनके सामने कोई विकल्प नहीं था। हालांकि यह राइट अप मेल पर पांच मार्च 2011 को ही हाजिर था। अब जाकर यह तय हुआ कि इसे समधर्मियों को शेयर कने दिया जाए। यह आलेख आत्महंता को मिलने के बाद नौ मार्च को प्रभात खबर में छपा। टिप्पणी आमंत्रित है।)

आखिर कितने लोगों की बलि लेकर मनरेगा अपनी मंजिल पहुंचेगा। मजदूरी मांगने पर मजबूरों की पिटाई होती है। देर से मजदूरी के भुगतान के सवाल पर कभी-कभी मजदूर को आत्मदाह करना होता है। सामाजिक अंकेक्षण की प्रक्रिया जो मनरेगा को जवाबदेह और पारदर्शी बनाती है, इस प्रक्रिया से भी बिचौलियों-ठेकेदारों का मीटर उठता है। अधिकारियों-कर्मचारियों के कान खड़े हो जाते हैं। जमीनी कार्यकर्ता जो ग्रामीणों को योजनाओं की जानकारी एवं कानूनी बात बताते हैं, उन्हें ठेकेदारों द्वारा कहा जाता है कि ये लोग बरगला रहे हैं। इनकी भाषा में यह बरगलाना है तो हमारी भाषा में जन जागरूकता और जन शिक्षण।

शोषण-दमन, भ्रष्टाचार और सरकारी अनियमितता को उजागर करने पर इस दस वर्षीय राज्य में लोगों को मौत के घाट उतार दिया जाता है। ग्राम स्वराज अभियान और प्रो. ज्यां द्रेज के सहयोगी रहे ललित मेहता की 14 मई 2006 को बेरहमी से पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी। ठीक यही हस्र हुआ लातेहार जिला के मनिका प्रखंड के जेरुवा के नियामत का। ग्राम स्वराज अभियान के जमीनी और समर्पित कार्यकर्ता भूखन-नियामत की जोड़ी में से एक नियामत अंसारी को मार्च 2011 की शाम नक्सली उनके गांव से उठाकर ले गए और बेरहमी से पीट-पीटकर उनकी हत्या कर दी। यह घटना अचानक नहीं घटी। तीन साल पहले से ही ठेकेदारों और नक्सलियों की ओर से जान से मार देने की धमकी दी जा रही थी। 16 अक्टूबर 2008 को भी उन्हें घेरा गया था। 2 साल पहले वन विभाग ने भूखन-नियामत पर झूठा मुकदमा कर दिया था। इससे उन्हें एक सप्ताह जेल में ही रहना पड़ा था। पिछले साल अगस्त माह में नक्सलियों ने भूखन-नियामत के घरों पर ताला जड़ दिया था। कई बार इन दोनों को धमकी मिली थी। कई बार भागकर जान बचानी पड़ी। सरकार और पूरे प्रशासनिक हलके को इसकी जानकारी है, परंतु कोई कार्रवाई नहीं की गई। दरअसल माफिया, ठेकेदार, अधिकारियों और नक्सलियों का गठजोड़ सरकार के नियंत्रण से बाहर है। वे जो चाहते हैं, वही होता है।

सवाल यह उठता है कि भ्रष्टाचार, शोषण और अनियमितता के खिलाफ कौन बोलेगा। जो बोलता है उसे मौत की नींद सुला दी जाती है। ग्राम स्वराज अभियान के कार्यकर्ता गांव-गांव जाकर मनरेगा लागू करने और सामाजिक सिुरक्षा योजनाओं का सामाजिक अंकेक्षण आदि काम करते रहते हैं। यही बिचौलियों, ठेकेदारों को नागवार गुजरता है। पिछले साल से ही धमकी देनेवाले ठेकेदारों के नाम प्रशासन को बता दिया गया था, परंतु अंत-अंत कर कार्रवाई नहीं हुई थी। नियामत के रिश्तेदार की ओर से की गई प्राथमिकी में नामजद अभियुक्तों में अबतक सिर्फ एक ही अभियुक्त की गिरफ्तारी हुई है। अब यह जगजाहिर हो रहा है कि नक्सली भी ठेकेदारों से लेवी लेकर उस हिसाब से काम करते हैं। आखिर नक्सलियों का सिद्धांत क्या है, वे क्या चाहते हैं ? ठेकेदारों-बिचौलियों का राज या कानून का राज ?  गरीब, ग्रामीण, सामाजिक कार्यकर्ता अपने गांव के लोगों को शिक्षित करता है। योजनाओं को विधिवत लागू करने का प्रशिक्षण देता है। उसे पैसे लेकर उठा लिया जाता है। एक तरह से नक्सली भी एक तरह के ठेकेदार ही हो गए हैं। यह ठीक है कि पलामू प्रमंडल में नक्सलियों के कई ग्रुप हैं। वे आपस के जानी दुश्मन हैं। पैसे के खेल और बंदरबांट ने सभी को अपने आगोश में ले लिया है। आखिर अब कौन सा मुंह लेकर जनता के बीच जाएंगे ? फ्रांसिस इंदवार और बिहार में मारे गए टेटे का कसूर क्या था ? आनेवाले दिनों में नक्सलियों को इन सवालों से दो-चार होना होगा। नियामत का कसूर क्या था? यदि कसूर था तो उसे जनता के सामने लाया क्यूं नहीं? नियामत की हत्या लोकतंत्र की हत्या है। विकास, अमन पसंद करनेवालों की ख्वाहिश ही हत्या है। सरकार को, प्रशासन को जवाब देना होगा। जनता को अपनी चुप्पी तोड़नी होगी। शायद यदि हूल (क्रांति) हो तो ये ठेकेदार बने नक्सली क्या करेंगे? इस हत्या ने सामाजिक कार्यकर्ताओं के मनोबल को तोड़ने की कोशिश है। शासन-प्रशासन यह जान ले कि ग्राम स्वराज अभियान के और भी कार्यकर्ता शहीदी जत्थे में शामिल होने को तैयार हैं। सूची भी दी जा सकती है।

(यह ठीक है कि नियामत जैसे लोग जनतंत्र की ताकत हैं तो नक्सलवाद भी तो जनतंत्र विरोधी नहीं है। व्यवस्था विरोध का मतलब कतई जनतंत्र विरोध से नहीं लेना चाहिए। जहां तक नियामत जैसे निरीह-भोले सामाजिक कार्यकर्ता की हत्या से उजागर हुई दुरभिसंधि का सवाल है तो यह नक्सलवाद में आए भटकाव का संकेत है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह भटकाव नक्सलवाद का अंदरूनी संकट है और वहां भी इस पर शिद्दत से कामरेड सोच रहे हैं। अंतर्विरोधों से नहीं उबरने पर छोटा घाव भी कैंसर बन सकता है, इसे हमारे कामरेड बखूबी समझते हैं। इस नाते पूरे नकस्लवादी आंदोलन को कठघरे में नहीं लिया जा सकता है। -मोडरेटर)

लेखक से r_vishwabandhu@yahoo.co.in तथा 09334363559 पर जाकर संपर्क साधा जा सकता है।

वर्चुअल स्पेस की पत्रकारिता में जन की हैसियत

पुष्पराज

(एक हैं पुष्पराज। जेएनयू में प्रो. रह चुके प्रो. ईश्वरी प्रसाद की उधारी से कहें तो घुमंतू पत्रकार। कुलदीप नैयर उन्हें प्रतिबद्धता और साहस से भरा मानते हैं तो प्रभाष जोशी उन्हें पत्रकारिता को सामाजिक बदलाव की दुधारी तलवार माननेवाले पत्रकारों की खत्म हो रही प्रजाति मानते थे। नामवर उन्हें खबरों के संसार का अपना संजय घोषित कर चुके हैं। हां, भारतीय पत्रकारिता में तेवर और तमीज, धार और धारा को जिंदा रखने की जद्दोजहद कर रहे हैं पुष्पराज। कहना नहीं होगा कि पत्रकारिता की जिस मिशनरी धार को मठाधीशी सरोकारों या सत्ताओं को साधने में खत्म किया जा रहा है, पुष्पराज उसके झंडाबरदार हैं। सिंगुर-नंदीग्राम को जीने-भोगने के बाद नंदीग्राम डायरी नाम से एक किताब भी पेगुइन बुक्स से आ चुकी है। काफी चर्चा में रही। दंडकारण्य से लेकर नंदीग्राम और सिंगूर से लेकर मड़वन (मुजफ्फपुर का वह गांव जहां एस्बेस्टस कारखाने के विरोध में आंदोलन उठा) तक में उन्हें आप पा सकते हैं। वर्चुअल स्पेस की पत्रकारिता की सीमाएं हैं, पर सहुलियतें और खूबियां भी हैं। हमें सरोकारों को ऊपर रखकर माध्यम की सहुलियतों व खूबियों से ही वास्ता रखना (रणनीतिक तौर पर) चाहिए। कई बार गरमागरम बहस हो चुकी है उनसे। किसी सिलसिलें में साल 2009 में कुछ दिनों के लिए हम जमिंदोज थे, तब भी। इत्तफाक क्या कहिए कि डीवीसी घोटाला का कंटेंट भी हमारी बहसों-मुबाहसों के जिक्र में था। और देखता हूं कि इसके कुछ ही दिन बाद मियां खरामां-खरामां हाजिर हैं परदफाश डाट काम लेकर। मेरे लिए चकित और खुश होने के अवसर से ज्यादा यह सोचने का मौका है। मैं चाहूंगा कि हमारे साथी उनकी इस नई पेशकश को देखें और टिप्पणी दें- )

सवाल यह है कि पैदल भारत की पत्रकारिता करनेवाले एक कलम मजदूर को वर्चुअल स्पेस की पत्रकारिता जैसे चमत्कृत (चमत्कारी) विषय पर किस तरह सोचना चाहिए। जिस इलाके से आप दूर रहते हैं, उसके बारे में बहुत कम जानकारी रखते हैं। हमने वर्चुअल माध्यम को कल तक इंटरनेट की धमनियों से होकर प्रकट होनेवाली वेबपत्रकारिता की तरह देखा है। हिंदी में ‘वर्चुअल स्पेस की पत्रकारिता’ के कई अर्थ सामने आए हैं। काल्पनिक यथार्थ की पत्रकारिता, करीब-करीब लगभग वैसा ही जैसा वर्णित, परंतु पूर्णतः नहीं की पत्रकारिता। एक युवा पत्रकार ने आभासी दुनिया की पत्रकारिता कहा। आग का एक गोला देखने में अग्निपुंज, हाथ में लिया तो कुछ भी नहीं। खुशबू का एक टुकड़ा, उठाया तो कुछ भी नहीं। पानी से भरा घड़ा, प्यास बढ़ी तो न ही घड़ा, न ही पानी। इस विषय के वास्तविक अर्थ के अनुकूल ही मैंने इसे शुरू से देखा है।

मैं अपने विषय से जुड़ी जानकारी जुटाने के लिए यदा-कदा इंटरनेट का उपयोग जरूर कर रहा हूं, पर मेरे पास 15 वर्षों की पत्रकारिता से इतनी कमाई संचित नहीं हो पाई कि मैं एक कंप्यूटर खरीद सकूं। मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि मेरे पास कंप्यूटर उपलब्ध हो जाए तब भी मैं इस माध्यम से अपने देश के सबसे कमजोर के हक में कुछ भी नहीं कर पाऊंगा। बाजार में उपलब्ध साइबर कैफे के भरोसे काम करना बहुत खर्चीला है। एक घंटा इंटरनेट उपयोग करने का खर्च एक वक्त का भोजन या आधा लीटर दूध के बराबर है। बहुत ही मुश्किल से अपने लिए छपने की जगह ले पाना, बहुत कम पैसे में जीवन जीने की जतन करने वाला हिंदी का एक कलम मजदूर अपना पेट काटकर इंटरनेट सेवा तो प्राप्त नहीं करेगा ना। जो मेरे लिए युक्तिसंगत नहीं है, उस माध्यम से आप देश के आम जन की पत्रकारिता का दावा किस तरह कर सकते हैं। इस माध्यम से एक खास वर्ग का इंटरटेनमेंट हो सकता है, जनहित की पत्रकारिता कतई नहीं।
2009 के मई माह में मैंने केंद्र सरकार के एक प्रतिष्ठित मंत्रालय की देखरेख में, देश के सबसे बड़े औद्योगिक घराने की शिरकत से हुए घोटाले के विरुद्ध ‘परदाफाश डाट ब्लागस्पाट’ नामक एक ब्लाग मित्रों की मदद से बनाया। हमारी समझ थी कि देश की मुख्यधारा की मीडिया जिस मुद्दे को अछूत मान रही है, एक ब्लाग के रूप में प्रकट होने से मुद्दा अपना रास्ता ले लेगा। इस ब्लाग का अंग्रेजी रूपांतरण स्कैम डाट काम के नाम से आया। हिंदी ब्लाग पर मुश्किल से 20 पाठकों की प्रतिक्रिया आई। भारतीय ब्लागरों की दुनिया में लगभग सभी बड़े सरताजों के पास ईमेल लिक मेल भेजे गए थे। इनमें कई मीडिया प्रतिष्ठानों के रायबहादुर भी थे। परदाफाश ब्लाग के सामने आने से परदा नहीं उठा। 5 हजार करोड़ की भ्रष्टाचारिणी दुल्हन परदे के भीतर ही रह गई। हमने हार नहीं मान ली। यह एक अनुभव था। भारतीय ब्लागरों के मुद्दे अलग हैं। वे सब बुद्धिजीवी हैं, पर अपनी सुविधा के विवेक से अपने किस्म की बहसें छेड़ते हैं। हम मानते हैं, जितना समय, शक्ति, भरोसा हमने ब्लाग पर खर्च किया, इतने में हम हजार पुस्तिका तो जरूर छापकर बांट सकते थे। हम पर्चा बांटकर भी हजारों लोगों से संवाद कर सकते थे।
जिस माध्यम से अपनी बात रखते हुए आप मूल्य, नीति-नैतिकता और जन की उपेक्षा करते हैं, उस माध्यम के बारे में मगजमारी का नतीजा क्या होगा। पहली बार एक अंग्रेजी अखबार के वेबसाईट पर अपनी तस्वीर, अपनी लिखाई को देखकर मैं भी चकित हुआ था। लेकिन अपने लिखे को सीसे पर चमकते हुए रंगीन छटाओं में देखने का लुत्फ किस तरह की आत्ममुग्धता है। इस माध्यम ने लिखने वालों को लिखने के लिए कागज, कलम-स्याही के मूल रिश्ते से अलग करने की कोशिश की है। हम यंत्र के साथ एकाकार होकर यांत्रिक हो सकते हैं, मानवीय कदापि नहीं। यांत्रिक मानस का विवेक साहित्य, संस्कृति, पत्रकारिता के एक-एक आइकान को खारिज करने में लगे तो क्या यंत्र अपनी सुविधा के नए आइकान तैयार कर लेगा।
ब्लाग-वेबसाइट की दुनिया के कर्ताधर्ता इस माध्यम को प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया के समानांतर वैकल्पिक मीडिया की तरह पेश कर रहे हैं। दावों के अपने तर्क हो सकते हैं। लेकिन जिस माध्यम को समूह नहीं व्यक्ति संचालित करता है, उसमें व्यक्ति के निजी स्वार्थ, व्यक्तिगत कुंठा, अपनी आकाक्षाएं ज्यादा प्रबल हो जाती हैं। मानवीय गरिमा की छाती पर प्रोफेशनल यश का भूत सवार होना घातक है। हिंदी के ज्यादातर ब्लाग यशोकामियों के, यशाखेट के अड्डे साबित हो रहे हैं। कुछ ब्लागों ने भारतीय पत्रकारिता के आईकान प्रभाष जोशी के खिलाफ हजार-हजार बार ब्राह्मण-ब्राह्मण का शोर मचाया। ब्राह्मण की कोख से पैदा होना अगर अपराध था तो क्या उन्हें इस अपराधबोध में आत्महत्या कर लेनी चाहिए थी। किसी भी भारतीय नागरिक को जाति सूचक संज्ञा से संबोधित करना सभ्य भारतीय समाज की परंपरा नहीं नहीं हो सकती तो भारतीय अपराध संहिता में संवैधानिक अपराध है। दरअसल वर्चुअल स्पेस में इतनी सहूलियत है कि आप झांककर देख लीजिये कोई बीमार तड़प रहा है और उसकी असहाय स्थिति में हाथ लगाये बिना, उन्ही हाथो से कोई मेल चस्पां कर दीजिए। .ऐसे में वर्चुअल स्पेस से फैलते अमानुषिक संस्कृति पर बहस भी ठीकाने नहीं लग सकती। नामवर सिंह महान या घंटा... की वोटिंग कराई गई। घंटा का देशज मतलब घंटी नहीं, शरीर का खास हिस्सा है, जिसे हूबहू लिखना इस समय असंगत होगा। एक ब्लागर ने एक विद्रोही कवि को नीचा दिखाने के लिए लिखा - वे पहले गोली दागते थे, अब मूत रहे हैं। ब्लागरों ने पत्रकारिता और साहित्य के आईकानों को गालियां देकर चर्चा में आने की खूब कोशिशें कीं। नामे-नाम कि कुनामे नाम, ऐसे ब्लागरों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई नहीं होने से वे ज्यादा ताकत से गंदगी फैलाते रहे।
ब्लागरों की भीड़ में कुछ ब्लाग ऐसे भी हैं, जिनसे पत्रकारिता की दुनिया की अंतर्कथाएं बाहर आ रही हैं। भड़ास4मीडिया मीडिया महकमे की खबर के लिए लोकप्रिय हुआ है। ब्वाइस आफ जर्नलिस्ट की भूमिका सकारात्मक है। स्टार पत्रकार पुण्यप्रकाश वाजपेयी और जाने-माने कथाकार उदय प्रकाश का ब्लाग सम्मान के साथ पढ़ा जा रहा है। पूंजी घरानों की पूंजी से नियंत्रित मीडिया ने जिस सत्य को दबाने की कोशिश की है, उसे इस वर्चुअल स्पेस से कहने की कोशिश तब सार्थक हो सकती है, जब भारत का हर आदमी साक्षर हो जाए। हर साक्षर गरीबी रेखा से ऊपर उठ चुका हो। हर भारतीय नागरिक के पास अपने हिस्से का स्पेस, वर्चुअल दुनिया में उतना ही उपलब्ध हो, जितना कि मीडिया घोषित किसी महानायक अमिताभ बच्चन के लिए। क्या इस मायावी लोक में सबसे अंतिम आदमी और सबसे अगले आदमी के कद को एक तरह देखने की कोशिश कभी की जाएगी ?

शनिवार, 19 मार्च 2011

अस्मिताएं विलीन हो जाएंगी और बचेगा सिर्फ जीवन

ग्लोबल हो रही दुनिया में बाजार एमएनसी से पटते जा रहे हैं तो दूसरी ओर सहुलियत के जाल में लिपटे बाजार की नई-नई मोहक-हसीन अधीनताएं अस्मिताओं को निगलती जा रही है। बड़ी अर्थव्यवस्थाएं विकासशीलों को इस कदर लाचार कर दे रही हैं कि उनकी अस्मिताएं खुद ब खुद विलीन होती जाएंगी। बाजार के प्रभुत्व के सामने शेष सारे नीति-सिद्धांत क्षणभंगुर होते जा रहे हैं या उसके फार्मेट को तय कर रहे हैं। यह एक स्थिति है जो कुछ दिनों तक ही कायम रहनेवाली। लेकिन इस अवधि को ही जीवन का विस्तार माननेवाले यह भूल करेंगे कि बाजार को जीवन की नियति मान अपनी दिशा बदल लें।

भारत जैसे मुल्क में स्थिति दूसरी तरह से बदल रही है। राष्ट्र, धर्म-अध्यात्म, इतिहास, संस्कृति के प्रति बहुसंख्यकों के सहज अनुराग दुराग्रह में बदल जाएंगे। वे सारे अनुराग आजादी के बाद चुनावी रौ में क्रमशः पाखंड में बदलते जा रहे हैं, तो अल्पसंख्यकों में कट्टरता कवच बनती जा रही है। पाखंड पहले खुद के प्रति क्रूर और हिंस्र (तप-व्रत) बनाता है फिर वह समय-समाज के प्रति अनुत्तरदायी (संघ-मठ) बनाकर उसका अनिष्ट करने को तत्पर करता है। दूसरी ओर कट्टरता पहले समय-समाज के प्रति अनुत्तरदायित्व बनाकर (राष्ट्र नहीं, धर्म सर्वोपरि) फिर अंततः खुद का अनिष्ट (फिदायीन) करने को लालायित-प्रेरित-उत्साहित करती है।

आखिर ऐसा क्या है जो बाबरी मस्जिद को तोड़कर मिल जाएगा और ताजमहल कैसे इस मुल्क की अस्मिता पर चार चांद लगाता रहा है ? बाबरी मस्जिद को किसी भी कीमत पर हासिल करने की जिद पाले भक्तजनों में से कौन यह बताएगा कि ताजमहल को देखकर वह बर्बर हाथ क्यों नहीं दीखता जो हजारों अद्भुत कारीगरों के खून से सना है। आखिर यह किस कला के प्रति कैसा अऩुराग था जो प्रेम के आगोश में जाकर खूनी हो गया और हम अंधों को सिर्फ उत्कट प्रेम की मनोरम कल्पना का अद्भुत संसार ही नजर आता है। क्या यह ताजमहल हमें अपनों के प्रति उदासीन रखकर क्रूर और हिंस्र बने रहना तो नहीं सिखाता रहा है ? इस आड़ में पीड़कों-प्रताड़कों के प्रति विरोधी भावों का शमन भी तो हो जाता है। कला के प्रति अनुराग जो उत्कट प्रेम के प्रति श्रद्धांजलि में व्यक्त हुआ है, क्या सचमुच वह प्रेम था। क्या प्रेम की परिणति इतनी क्रूरता और हिंसा में होती है।

क्या वे कारीगर जो 20 हजार से अधिक की तादाद में थे उनका खून देसी सैलानियों के खून नहीं खौलाता तो संवेदना, समझदारी और राष्ट्रीयता को ले मर-मिटने की कसम खानेवालों को ढोंगी नहीं तो क्या कहा जा सकता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि अंग्रेजों को यह पसंद है तो हमें क्यों नहीं। अन्यथा हम जाहिल समझे जाएंगे। नहीं, ताजमहल को तेजोमहालय का विकृत रूप बताकर उसे मंदिर साबित करने की जिद (पीएन ओक Purushottam Nagesh Oak) पालनेवाले जैसे लोग भी तो थे। 1828 से 1835 के बीच दो बार जिस ताजमहल को नीलाम कर उसके कीमती पत्थरों, रत्नों, नगों को इंग्लैंड ले जाने की जिस कोशिश को उसी इंग्लैंड की जनता और संसद ने नाकाम कर दिया तो इस देश में फिरंगियों से बड़े दीवाने भी रहे हैं, तभी तो ऐसा ताजमहल इस मुल्क में बचा रहा है। तो इसका मतलब है कि उस मुल्क में बाबरी मस्जिद के जीर्णोद्धार की जिद फितुर ही रहे। संवेदना, करुणा, धर्मपरायणता, राष्ट्रभक्ति, ऐतिहासिक चेतना को भुलाने की भी ढेरों युक्तियां यहां मौजूद है। सारी मार को भूलकर उन महिमामंडित प्रहारों पर मुग्ध होते रहने के ढेरों आसार हैं यहां। जो घाव दिए उसे श्रृंगार का रूप देकर मनोरम बना दिया गया है। विकृति का भोग और भोग का बाजार !

बाबरी मस्जिद का मसला उठानेवालों के लिए तो यह भी एक मुद्दा होना चाहिए। दरअसल आजादी के बाद मुल्क में कोई भी पार्टी नहीं रही जिसके लिए नीति-सिद्धांत का कोई महत्व रहा। न्यूआंस वैल्यू (नुकसान करने की क्षमता) तय करता है कि वोट के बाजार में किसकी कितनी कीमत होगी। और यहीं से पार्टी अपने छद्म आवरण को अपना शरीर बताती है और हम रिझते रहते हैं उसके चोला पर।

क्या आपने कभी सोचा है कि भाजपा जैसी व्यापक जनाधार वाली पार्टी सांप्रदायिक और राष्ट्रद्रोहियों को पनाह देनेवाली पार्टियां सेकुलर कैसे हो गईं ? क्या ऐसा कहकर (कहनेवाले की जमात में राजनेता से लेकर कथित वाम लेखक, मीडियाकर्मी सभी शामिल हैं) कहीं मुल्क की बहुत बड़ी आबादी (भाजपा के मतदाता रहे हैं) को तो सांप्रदायिक नहीं ठहराया जा रहा ? आखिर भाजपा को सांप्रदायिक ठहराकर उसके मतदाता को ही तो यह तमगा दिया जाता है ! आखिर किसी पार्टी या संगठन या व्यक्ति को यह हक किसने दिया कि वह मुल्क के इतने बड़े अवाम के लिए इतनी बड़ी गाली दे ? और तुर्रा यह कि राष्ट्रीय गरिमा पर इस आघात से कहीं चूं तक नहीं होता। हमें समझना चाहिए कि किसी पार्टी का किसी विचारधारा - सिद्धांत से कोई सरोकार नहीं रहा। एक ही सिद्धांत और विचारधारा है और वह है वोट पर कब्जादारी। अन्यथा क्या कारण है कि 1991 में कांग्रेस नीत यूपीए सरकार में आए आर्थिक सुधार के नाम पर बाजारीकरण, भूमंडलीकरण, निजीकरण का सर्वाधिक मुखर विरोधी रहे मीडिया उसकी रखैल हो गया और एनडीए उसका पोषक। एनडीए सरकार में 1999 में पहली बार विनिवेश मंत्रालय बना था और बड़े लिक्खार अरुण शौरी उसके मंत्री बने थे। उस दौरान हुए विनिवेशों का आकलन बाकी है।

क्या सिर्फ दलित होने से रामविलास पासवान का जुर्म जुर्म नहीं रहा ! रुग्ण घोषित उर्वरक इकाइयों के पुनरुद्धार के नाम पर देश भर में जो खेल रामविलास पासवान ने खेला भोली जनता को देश भर में घूम-घूम कर छला और उर्वरक-रसायन-इस्पात मंत्रालय में रहकर चुनावी बाजार बनाने भर के लिए देशभर में विज्ञापन में पैसे लुटाए उसका अपना अलग ही किस्सा है। बरौनी में बंद खाद कारखाना के दुबारा खुलने के नाम पर उसका उदघाटन तक कर दिया। उस दौरान मीडिया भी उनकी मूत और थूक को बाजार का गंगाजल मानकर पीता रहा। (शौरी और पासवान के कार्यकाल की तफ्तीश कई स्पेक्ट्रम घोटालों का राजफाश करनेवाला साबित होगा।)

जितनी और जैसी घिनौनी और मारक स्थितियों में रहकर जीवन बचाकर चलना मुश्किल हो रहा है उसमें प्रतिरोधी चेतना जिस तरह संघनित होंगी उससे ऐसा लगता है जैसे बहुत जल्द मुल्क की अस्मिताओं का विलोप हो जाएगा। हम सिर्फ और सिर्फ मनुष्य बनकर रहना पसंद करेंगे। यह तथ्य है कि जिस तरह मनुष्य हमेशा नर और मादा बनकर नहीं जीता, उसी तरह वह हमेशा हिंदू-मुसलमान बनकर जीना पसंद नहीं करता और न ही हर पल उसके लिए हिंदुस्तानी-पाकिस्तानी-ब्रिटिश बनकर जीना मुनासिब होता है। उसकी इंद्रीय और चेतना के स्तर और विस्तार उसके इस स्वरूप को तय करते हैं कि किस पलड़े में उसका कितना हिस्सा बीतता है। और मनुष्य होने या मनुष्य बने रहने या मनुष्य के रूप में उसका विकास भी इसी से तय होता है। दरअसल जीवन इसलिए है कि संवेदना है। और इसीलिए सभ्यता है। हमें यह मुगालता छोड़ देनी चाहिए कि सभ्यता इसलिए है कि हमारे पास उन्नत अर्थव्यवस्था और हाई फाई टेकनोलाजी है। ये सब तो एक न एक दिन संकट ही रचते है या युद्ध और संघर्ष के रूप में या फिर हादसों के रूप में तबाही रचकर।

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

मुल्क को सर्वाधिक नुकसान आजादी और संविधान से

यह मुल्क कब आजाद हुआ ? कोई बच्चा इसका उत्तर नहीं दे तो कहेंगे कि वह अभी बड़ा नहीं हुआ। किशोर जब इसका उत्तर नहीं दे तो कहते हैं कि उसका जीके अभी कमजोर है। कोई युवक इस सवाल पर चुप रहे तो कहेंगे कि उसे देश-दुनिया की खबर ही नहीं, तो कौन सी जिम्मेवारी के प्रति वह इंसाफ करेगा। और जब एक प्रबुद्ध इसका उत्तर न दे तो आप क्या कहेंगे ? यही न कि वह पाकपरस्त है, पश्चिमी आबोहवा में रंगा है, आतंकी है-नक्सली है। कोसने के लिए आपकी झोली में ढेरों अलफाज होंगे। मैं कहूंगा कि यदि यह मुल्क 15 अगस्त 1947 को आजाद कहा जाता है तो मेरा सवाल है कि यह गुलाम ही कब हुआ था ? सनातनियों की शाश्वतता की शब्दावली में नहीं कि अजर-अमर आत्मा किसी के अधीन नहीं होती। आभासी पराधीनता तो एक चोला है जो देश-दुनिया के हिसाब से बदलता है। यह आत्मा कभी अमरीका में तो कभी अफगानिस्तान में, कभी हिंदु्स्तान में तो कभी अजरबैजान में चोला धारण करती रहती है। इसलिए इसकी कोई धरती नहीं और यह कहीं की नागरिक नहीं। हे अज्ञानी, जड़मति सुजान ! आत्मा को परिधि में खींचकर ब्रह्म को सिकोड़ते क्यों हो ? नहीं। मेरा कहना यह नहीं। मैं कहता हूं कि क्या भारत कहलानेवाली धरती यही है। और यही है तो शेष भूखंड कहां चले गए। अबतक सभी अनुष्ठानों में ‘भारतवर्षे, भरतखंडे’ का वह भूखंड कहां गया जिसकी अर्चना अनायास अभी भी घरों में होती है। कब-कब किन्होंने गुलाम बनाया और कौन गुलाम बने ? क्या वे आक्रांता अब इस भूखंड से चले गए ? कब-कब यह भूखंड आजाद हुआ और कौन आजाद हुए या कौन आजाद किए गए ? जिनके लिए आजादियां थीं क्या उन्हें नसीब हुईं ? गुलामी-आजादी की बात होगी तो पूरे संदर्भ और परिप्रेक्ष्य में। आजादी को परिभाषित करने के कोई देशकाल और उसके मानक तो होंगे ?क्या आर्य हमलावर नहीं थे ? तुर्क और तातार क्या थे ? सिर्फ अंग्रेजों ने ही इसे गुलाम बनाया था? गांधी को क्या हक कि वह फिरंगी को तो भगाए और शेष हमलावरों का घर घोषित कर दे इसे ? क्या यह घर उनका था ?आखिर फिरंगी को भगाने और शेष को बसाने का हक उन्हें किसने दिया ? भगत सिंह ने अपना जीवन क्यूं कुर्बान किया ? भगत सिंह को फांसी पर चढ़ाए जाने के (23 मार्च 1931 को) छह दिन बाद गांधी जी ने यंग इंडिया में अपने एक लेख से जता दिया था कि भारतीय भगत सिंह को कैसे लें। अंश है......भगत सिंह जीना नहीं चाहते थे। उन्होंने माफी मांगने से इनकार कर दिया। यहां तक कि अपील भी दाखिल नहीं की।...उन्होंने असहायता के चलते और अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए हिंसा का सहारा लिया। भगत सिंह ने लिखा था, “मुझे युद्ध करते हुए गिरफ्तार किया गया है। मेरे लिए फांसी का फंदा कोई मतलब नहीं। मुझे तोप के मुंह में रखकर उड़ा दो।” इन नायकों ने मौत के डर को जीत लिया था। आइये हम उनकी बहादुरी को शत्-शत् प्रणाम करें। लेकिन हमें उनके काम की नकल नहीं करनी चाहिए।...हमें कभी भी उनकी गतिविधियों का प्रतिपालन नहीं करना चाहिए। अब मैं कहता हूं कि अंग्रेज यही तो चाहते थे। फांसी से उनकी मुक्ति के लिए दो लाख नागरिकों ने अपील की थी और दूर क्यों जाएं, इसके लिए कांग्रेस का भारी अंदरूनी दबाव भी था। इस सबके बावजूद इस मसले से उदासीन रहते हुए अहिंसक गांधी का रुख उनके प्रति क्रूर-कठोर ही बना रहा। वहीं सुभाष ने फांसी के दिन शहादत को सलाम करने के लिए दिल्ली में जनसभा तक की। कहा तो जाता है कि इस सभा को रुकवाने के लिए इरविन ने गांधी को पत्र भी लिखा था। आखिर गांधी का प्रभाव और रुख देखकर ही तो पत्र लिखा होगा इरविन ने। और नेता जी सुभाष को देश निकाला क्यों झेलना पड़ा या जिस मुल्क की आजादी के लिए सबकुछ न्यौच्छावर किया उसी मुल्क के आजाद होने पर वहीं उन्हें छद्मवेशी होकर क्यों रहना पड़ा ? क्या स्वतंत्रता संग्राम इनसे परिभाषित नहीं होता ? संग्राम में ताकतवर होते गए इन सेनानियों की ऐसी उपेक्षा से ही स्वतंत्रता के मान-मूल्यों को उपर ले जाया जा सकता है क्या ? थोड़ा ठहरकर आप आजादी की भगत सिंह की परिकल्पना पहले आप देखें –हम यह स्पष्ट घोषणा करें कि लड़ाई जारी है। और यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी, जब तक हिन्दुस्‍तान के मेहनतकश इंसानों और यहाँ की प्राकृतिक सम्पदा का कुछ चुने हुए लोगों द्वारा शोषण किया जाता रहेगा। ये शोषक केवल ब्रिटिश पूँजीपति भी हो सकते हैं, ब्रिटिश और हिन्दुस्‍तानी एक साथ भी हो सकते हैं, और केवल हिन्दुस्‍तानी भी। शोषण का यह घिनौना काम ब्रिटिश और हिन्दुस्‍तानी अफसरशाही मिलकर भी कर सकती है, और केवल हिन्दुस्‍तानी अफसरशाही भी कर सकती है। इनमें कोई फर्क नहीं है। यदि तुम्हारी सरकार हिन्दुस्‍तान के नेताओं को लालच देकर अपने में मिला लेती है, और थोड़े समय के लिए हमारे आंदोलन का उत्‍साह कम भी हो जाता है, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि हिन्दुस्‍तानी आंदोलन और क्रांतिकारी पार्टी लड़ाई के गहरे अँधियारे में एक बार फिर अपने-आपको अकेला पाती है, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लड़ाई फिर भी जारी रहेगी। लड़ाई फिर से नये उत्‍साह के साथ, पहले से ज्यादा मुखरता और दृढ़ता के साथ लड़ी जाएगी। लड़ाई तबतक लड़ी जाएगी, जबतक सोशलिस्ट रिपब्लिक की स्थापना नहीं हो जाती। लड़ाई तब तक लड़ी जाएगी, जब तक हम इस समाज व्यवस्था को बदल कर एक नयी समाज व्यवस्था नहीं बना लेते। ऐसी समाज व्यवस्था, जिसमें सारी जनता खुशहाल होगी, और हर तरह का शोषण खत्‍म हो जाएगा। एक ऐसी समाज व्यवस्था, जहाँ हम इंसानियत को एक सच्ची और हमेशा कायम रहने वाली शांति के दौर में ले जाएँगे……… पूँजीवादी और साम्राज्यवादी शोषण के दिन अब जल्द ही खत्‍म होंगे। यह लड़ाई न हमसे शुरू हुई है, न हमारे साथ खत्‍म हो जाएगी। इतिहास के इस दौर में, समाज व्यवस्था के इस विकृत परिप्रेक्ष्‍य में, इस लड़ाई को होने से कोई नहीं रोक सकता। हमारा यह छोटा सा बलिदान, बलिदानों की श्रृंखला में एक कड़ी होगा। यह श्रृंखला मि. दास के अतुलनीय बलिदान, कॉमरेड भगवतीचरण की मर्मांतक कुर्बानी और चंद्रशेखर आजाद के भव्य मृत्युवरण से सुशोभित है। (फांसी पर चढ़ने के दिन 20 मार्च 1931 से तीन दिन पहले भगत सिंह द्वारा पंजाब के गवर्नर को लिखे पत्र का अंश)भगत सिंह ने क्यों कहा था कि कांग्रेस का आंदोलन आख़िर में एक समझौते में तब्दील हो जाएगा। और कि कांग्रेस की लड़ाई 16 आने में एक आने की लड़ाई है और वह भी उसे नसीब नहीं होगी। क्या वह कांग्रेस ऐसे भगत सिंह व सुभाष की आजादी की अवधारणा को पुख्ता करने की भूल करेगी ? गांधी के चेलों ने उन्हें अजर-अमर रखने को इन जैसे सेनानियों को फेल साबित करने के लिए कई मोर्चे खोल रखे हैं।साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल... क्या है ।याजन गण मन अधिनायक जय हो भारत भाग्य विधाता... के माध्यम से ब्रिटिश आक्रांता को आक्रांता ही न रहने देना चाह रहे हों तो फिर किसकी गुलामी, किसकी आजादी !ऐसा लगता है कि आजादी की लड़ाई का केंद्र प्रवृत्ति से लड़ने की बजाए रंग और लोग से लड़ना तक नहीं रह गया था। प्रवृत्ति से लड़ाई होती तो अंग्रेज भी जाते और अंग्रेजियत भी। इसीलिए गुलाम करने और रखने की प्रवृत्तियां नित सशक्त होती गईं। इसीलिए गुलामी का बैक्टीरिया हर बार रंग-भेस-भेद बदलकर और ताकतवर होकर अजेय अंदाज में अवतरित होता रहा और हमें मुरीद बनाता रहा। आईआईएम के स्नातक और अंग्रेजी उपन्यास जगत में तहलका की तरह प्रवेश करनेवाले चेतन भगत की मानें तो अंग्रेजी भाषा नहीं एक कौशल है। (धनबाद के आईएसएम में मैनेजमेंट फेयर में अतिथि वक्ता के रूप में अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा था।) आखिर किसने कहा कि हिंदी या बांग्ला या उर्दू भषा कौशल नहीं है। बढ़ईगीरी भी कौशल है और अभिव्यक्ति कला भी कौशल है। लेकिन भगत जी के भीतर का वह संक्रमण बोल रहा है जो गुलामी का बैक्टीरिया ही है। और अंत में इसका समाहार ‘दुनिया के पूंजीपति एक हो’ (भूमंडलीकरण) में हो जाता है। जब ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ का नारा बुलंद हुआ था, तब तो हम छद्मवेषी हो गए थे। सोवियत रूस सा समाज चाहते थे और अमरीका सी अर्थव्यवस्था। दोनों ही धारा साम्राज्य के विस्तार की अलग धारा थी। व्यक्ति स्वातंत्र्य की तुष्टि जिसमें होगी, अंततः वही काम होगा। व्यक्ति आजादी चाहता है और अपने अस्तित्व और भविष्य के लिए समाज को संगठन की जरूरत होती है। आखिर राष्ट्र से छिटका हुआ समाज और समाज से दूर होते परिवार ही जब विघटित हो रहे तो अब तो सिर्फ व्यक्ति के विघटन की बारी है, जो कि शुरू हो चुकी है। हम अपने मताधिकार का प्रयोग जैसे करते हैं, वह तो यही दर्शाता है। ऐसा लगता है गुलाम रहने की प्रवृत्ति यहां की मूल और सहज वृत्ति है। स्वाभाविक संवेग-वृत्तियों के खिलाफ चलकर किसी अभियान को अधिक देर और दूर तक नहीं ले जाया जा सकता है। जर्मनी का एकीकरण, सोवियत संघ का विघटन, थ्येनआनमन चौक से होते हुए चीन का रूपांतरण, मिस्र में होस्नी मुबारक का तख्तापलट, लिबिया में गद्दाफी के खिलाफ बगावत आदि-आदि इसी के तो उदाहरण हैं। लेकिन भारत का उदाहरण अलग है। हर लड़ाई के बाद बाद वह एक गुलामी से दूसरी गुलामी में प्रवेश करता रहा है। या कहें कि नई (नाजुक, कमसीन, हसीन) गुलामियों के लिए वह लड़ाइयां लड़ता रहा है। सोवियत संघ का विघटन हुआ, पर यहां पश्चिम बंगाल में बोडोलैंड की मांग अनसुनी रह गई। और अब तो वहां के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने खुलेआम कह डाला है कि उनकी मांग कभी नहीं पूरी होनेवाली। दूसरी ओर भारत में नक्सलवाद (माओवाद) को राज्य विरोधी – व्यवस्था विरोधी कहनेवाले मार्क्सवादी नेपाल में माओवाद की चरणवंदना करते हैं।इस देश में संग्रामियों का दमन करनेवालों और स्वतंत्रता संग्राम के विरोधियों का सम्मान हुआ तो क्या हुआ। आजादी के बाद से गठित सभी मंत्रिमंडल में कौन पूजे गए ? क्या सबके सब स्वतंत्रता की आत्मा की रक्षा करनेवाले थे ? अब जरा भारतीय संघ के सेकुलर ढांचे में दलितों के मसीहा कहे जानेवाले बाबा साहब भीम राव अंबेडकर के उच्चाशयों को देखें : -हिन्दू मुस्लिम एकता एक अंसभव कार्य हैं भारत से समस्त मुसलमानों को पाकिस्तान भेजना और हिन्दुओं को वहां से बुलाना ही एक हल है । यदि यूनान तुर्की और बुल्गारिया जैसे कम साधनों वाले छोटे छोटे देश यह कर सकते हैं तो हमारे लिए कोई कठिनाई नहीं । साम्प्रदायिक शांति हेतु अदला बदली के इस महत्वपूर्ण कार्य को न अपनाना अत्यंत उपहासास्पद होगा । विभाजन के बाद भी भारत में साम्प्रदायिक समस्या बनी रहेगी । पाकिस्तान में रुके हुए अल्पसंख्यक हिन्दुओं की सुरक्षा कैसे होगी ? मुसलमानों के लिए हिन्दू काफिर सम्मान के योग्य नहीं है । मुसलमान की भातृ भावना केवल मुसमलमानों के लिए है । कुरान गैर मुसलमानों को मित्र बनाने का विरोधी है , इसीलिए हिन्दू सिर्फ घृणा और शत्रुता के योग्य है । मुसलामनों के निष्ठा भी केवल मुस्लिम देश के प्रति होती है । इस्लाम सच्चे मुसलमानो हेतु भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना निकट संबधी मानने की आज्ञा नहीं देता । संभवतः यही कारण था कि मौलाना मौहम्मद अली जैसे भारतीय मुसलमान भी अपेन शरीर को भारत की अपेक्षा येरूसलम में दफनाना अधिक पसन्द किया । कांग्रेस में मुसलमानों की स्थिति एक साम्प्रदायिक चौकी जैसी है । गुण्डागर्दी मुस्लिम राजनीति का एक स्थापित तरीका हो गया है । इस्लामी कानून समान सुधार के विरोधी हैं । धर्म निरपेक्षता को नहीं मानते । मुस्लिम कानूनों के अनुसार भारत हिन्दुओं और मुसलमानों की समान मातृभूमि नहीं हो सकती । वे भारत जैसे गैर मुस्लिम देश को इस्लामिक देश बनाने में जिहाद आतंकवाद का संकोच नहीं करते । (डा अंबेडकर सम्पूर्ण वाग्मय , खण्ड १५१)गुलाम देश में रियासतों के रहमोकरम पर पढ़ाई, अंग्रेजी हुकूमत की नौकरी और दलितों के उद्धार (कदाचित एक पृथक दलितिस्तान) के लिए नित नई लड़ाई छेड़नेवाले भीमराव अंबेदकर को भारतीय संघ के सेकुलर ढांचे पर इस तरह का प्रहार करने के बावजूद कैसे और किन अर्थों में सेनानी माना जाए, जिसने कभी भी हथकड़ी में जकड़े किसी बंदी तक से भेंट भी नहीं की ? राजा भोज के वंशज साहबजादा सिंह के पुत्र बाबू वीर कुंवर सिंह जिनके सभी नाते-रिश्तेदार नामी जागीरदार रहे और जिनके नामों से ही सामंतवाद की बू दीखती है, आखिर कैसे संग्रामी हो गए। यह बात पल्ले नहीं पड़ती कि 80 साल की उम्र में स्वतंत्रता संग्राम की कमान ले लड़ाई में कैसे कूदे। 80 साल की उम्र तक ऐसा उग्र सेनानी फिरंगियों की नजर से कैसे बचा रहा ? क्या किसी भी गुलाम देश में लड़ाकू योद्धा को इतनी लंबी उम्र मिल सकती है ? हां, मिलती है नेल्सन मंडेला की तरह जेल में सड़ते रहकर या फिर एक सिद्धांत के तहत आंदोलन को नर्म – नाजुक स्तर पर रखने के लिए बड़ी आबादी को अपने पीछे पागल बना रखने के लिए महात्मा गांधी जैसों को बाहर रखकर। या फिर दलाई लामा की तरह दर ब बदर रहने की नियति झेलकर।विलय के सिद्धांत के खात्मे के लक्ष्मीबाई के आग्रह के साथ अंग्रेज हुकूमत को यह प्रस्ताव कि वे ऐसा करते हैं तो 1857 के संग्राम में वह (झांसी की रानी) उनके साथ होगी। यदि ये लोग संग्रामी थे तो एक पल के लिए ठहरकर सोचना होगा कि फिर नेताजी सुभाष और भगत सिंह क्या कर रहे थे। आजादी और शहादत की इसी सोशल मैपिंग का नतीजा है कि आज गली-चौराहे ऐसे ‘शहीदों’ के नाम सुपुर्द कर दिए गए हैं जो या तो गैंगवार में या किसी सियासी रंजिश में मारे गए या फिर मुठभेड़ में मारे गए माफिया सरगना थे। होना तो यह चाहिए था कि स्वतंत्रता संग्राम से अर्जित मान-मूल्यों की गरिमा या मर्यादा से खिलवाड़ करते इस शहीद-शहीद खेल को प्रतिबंधित करते हुए शहीद शब्द का दुरुपयोग राष्ट्रीय मर्यादा और गरिमा के विरुद्ध अपराध घोषित किया जाता। एक वाकया है कि एक बार औरंगाबाद के नगर भवन में अंग्रेजों की गोली से छलनी हुए शहीद की प्रतिमा प्रमुखता के साथ लगाए जाने के प्रस्ताव आया था। औरंगाबाद इस शहीद का गृह जिला था। बाद में नगर भवन में बिहार के मुख्यमंत्री रहे अनुग्रह नारायण सिंह की प्रतिमा केंद्रीय स्थल पर लगाई गई और शहीद की प्रतिमा एक कोने में लगा दी गई। शहीद की एक प्रतिमा शहर के रमेश चौक पर लगी है। दोनों ही स्थानों पर प्रतिमाएं धूल-धूसरित है। जिला के ओबरा के खरांटी में सालों पहले बना स्मारक अब उपेक्षित है। गोह प्रखंड में चौक पर स्थापित इनकी एक प्रतिमा गाड़ियों के धक्के से क्षतिग्रस्त हो गई है। यह शहीद और कोई नहीं बिहार सचिवालय पर स्थापित जिन सात शहीदों की प्रतिमा है, उन्हीं में सबसे छोटे जगतपति सिन्हा हैं। गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन के प्रभाव में पटना में 11 अगस्त 1942 की सुबह सचिवालय पर सात सेनानियों की जो टोली तिरंगा फहराते हुए जिलाधीश डब्ल्यू जी आर्थर के हुक्म पर हुई फायरिंग में शहीद हुई थी, उसी टोली के सबसे छोटे सदस्य ये थे। यह तो है शहीदों को हमारे समय-समाज का नमन !
यह आजादी ही है जिसने हमें गैर जिम्मेवार होकर गौरव हासिल करना सिखाया। किसी भी चीज की वास्तविक कीमत अदा किए बिना उसे हासिल करने की जिद पूरी होने लगे तो आप गैरजिम्मेवार नहीं तो क्या बनेंगे। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने बखूबी इसका ख्याल किया ! आखिर यह भी गौर करना होगा कि संविधान सभा उन प्रान्तीय विधानमण्डल के सदस्यों से बनी थी, जिनका चुनाव देश की कुल वयस्क आबादी के मात्र 11.5 प्रतिशत हिस्से से बने निर्वाचक मण्डल से हुआ मुट्ठी भर चुने गये प्रतिनिधियों को छोड़ बाकी सम्पत्तिशाली कुलीनों के प्रतिनिधि थे। इनमें चुने गये प्रतिनिधियों के अतिरिक्त उसमें राजाओं-नवाबों के मनोनीत प्रतिनिधि थे। ऐसे संविधान से हम क्यों यह अपेक्षा कर लेते हैं कि वह भगत सिंह के सपनों के अनुसार सोशलिस्ट रिपब्लिक यानी 42 वें संशोधन के मुताबिक समाजवादी गणतंत्र हो। क्या संविधान सभा की प्रकृति ऐसी थी कि संविधान की आत्मा में यह समाहित हो सके। 2004 के चुनावों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले 128 लोग सांसद चुने गए थे जबकि 2009 में यह संख्या 150 हो गई। इसी तरह 2009 की लोकसभा में 300 करोड़पति सांसद आए हैं, जबकि 2004 की लोकसभा में ऐसे 154 सांसद थे। क्या यह एकबारगी हो गया।
जिम्मेवारी के बोध से कटे भारतीयों में कर्तव्य की रही-सही चेतना को कुंद करने का सार्थक प्रयास हुआ इसके माध्यम से। संविधान में मौलिक अधिकारों का उल्लेख तो हुआ, पर यह अधिकार कुछ कर्तव्यों के निर्वाह से हासिल होते हैं यह बताने की जरूरत नहीं। पाबंदी नहीं। अधिकार के लिए याचिकाएं असंख्य पड़ीं। नए-नए अधिकारों का सृजन हुआ। आरटीआई, काम का अधिकार, आरटीई। लेकिन कर्तव्य ? सिर्फ आप इस धऱती पर जनम गए हों। बस्स। संविधान बनने के 26 सालों बाद शासकीय गरज से संविधान के 42 वें संशोधन में एक अध्याय के रूप में मूल कर्तव्य जोड़े गए। पहली बार अधिकारों से छेड़छाड़ हुई। इतने और ऐसे संशोधन के पैकेज लाया गया कि यह संशोधन मिनी संविधान कहा जाने लगा। यह अलग बात है कि 1978 में 44 वें संशोधन से बहुत कुछ निरस्त कर दिए गए। पहली बार संविधान को खिलौने की औकात में लाने की कोशिश हुई। क्या सेनानियों ने आजादी का जो हक दिया उसे यूं ही कुर्बानियों को भूल जाने के लिए। सामान्य बातचीत में और अपने करीब डेढ़ दशक की पत्रकारिता और अध्यापन के अनुभव में राजनीति शास्त्र का एक भी व्याख्याता, सामाजिक अध्ययन का एक भी शिक्षक, एक भी सामाजिक कार्यकता, कोई अधिकारी या नेता नहीं मिला जिसे बखूबी इसका पता हो या दस कर्तव्यों को सिलसिलेवार गिना दें। ऐसा एकबारगी नहीं हुआ। अधिकारवाद कहीं न कहीं भोगवाद में उत्स पाता है और जिसकी जड़ बर्बरता में होती है, वह हमारे जीन में है। कोई भी गलत रास्ता सही जगह नहीं जाता। और यही कारण है कि कर्तव्यबोध की इस क्षति ने देश में नागरिक बोध को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है। राज्य का कर्तव्य नागरिक का अधिकार और नागरिक का कर्तव्य राज्य का अधिकार। लेकिन व्यवस्था की उदासीनताओं और कुछ हमारे भीतर की जीन ने संगिठत लड़ाई को कभी परिवर्तनकारी आंदोलन (छात्र आंदोलन) या समांतर व्यवस्था के लिए (नक्सलवाद) सक्रिय किया है। भद्रजन की भाषा में एक रिएक्टर के रूप में प्रकट होता है तो दूसरा एटम बम के रूप में। दरअसल जो क्षेत्र विकास से दूर या अछूते रहे या रखे गए वहां शोषण की चक्की फ्रिक्शनलेस हो आसानी से चली। जंगलों या सुदूर पिछड़े इलाकों में इस आंदोलन के जाने का कारण एक तो यह था, दूसरे माओ की थियरी भी गांव से शहर की ओर बढ़ने की थी। शोषण व अन्याय को नियति न मानकर जिन्होंने सामाजिक व्यवस्था में उसकी वजह देखी, उनकी लड़ाई तो व्यवस्था के खिलाफ होगी ही। विकास से लगातार उपेक्षित रखे गए या रखे जा रहे ऐसे उपेक्षितों का दंश संताप, क्षोभ, पीड़ा के गह्वर में जाकर क्या उन्हें संत रहने देगा। ऐसी अपेक्षा है तो फिर ...भारत में होनेवाली कुल मौतों में 8.1 प्रतिशत मौत डायरिया से होती है। डायरिया का एकमात्र कारण जलप्रदूषण है। इस डायरिया से वही तबका आक्रांत होता है जो कामगार-दिहाड़ी है। एक बार डायरिया हुआ तो कम से कम सप्ताह भर की छुट्टी। अब इसे बीपीएल के मानव दिवस से गुणा करके देखें कि जीडीपी का कितना नुकसान है। स्वास्थ्य पर प्रतिव्यक्ति व्यय 119 डालर जो कि दुनिया में सबसे कम है। और संयुक्त राष्ट्र संघ का आकलन है कि स्वास्थ्य पर खर्च की वजह से हर साल 2 प्रतिशत यानी 24 लाख लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। आखिर कष्ट का यह कंडेसेशन समाज को कहां ले जाएगा। क्या यह शोक-संताप क्षोभ का हिस्सा से बचा रह जाता होगा।क्या इसका जवाब किसी के पास है कि अपराध/भ्रष्टाचार में बढ़ोत्तरी का कारण सिर्फ राजनीति और कानून की पोंगापंथी या आम नागरिक की भी उतनी ही भागीदारी भी है ? नागरिक उदासीनता से बननेवाले वैक्यूम आखिर कुछ तो लेकर आएगा। राजनीति का अपराधीकरण और नैतिक मूल्यों में गिरावट को जीवन व्यवहार का हिस्सा बना लेने के कारण अपराध का समाजीकरण (पुण्यप्रकाश वाजपेयी का टर्म) जिस तरह हुआ है, उस सबकी जड़ में कहीं न कहीं नागरिक बोध की क्षति प्रमुख है। इसे क्या कहेंगे कि संसद के दोनों सदनों में आजादी के बाद से अब तक लगातार आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों का जमावड़ा बढ़ता जा रहा है। 1952 में संपन्न पहले आम चुनाव से लेकर अब तक के 15 आम चुनावों में भ्रष्टाचार एक मुद्दा रहा, पर 1989 को छोड़ कभी भी यह मुद्दा चुनाव प्रभावशाली नहीं रहा। इसका मतलब ही यह है कि जनमानस को इस मसले पर कोई भी पार्टी मोटिवेट नहीं कर सकी तो इसलिए कि जनतांत्रिक संस्थाओं व जनमानस दोनों ही ओर आग बराबर लगी हुई है। क्या ऐसा लगता है कि बाबा रामदेव द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाया जा रहा अभियान अपने मुकाम तक पहुंचेगा ? जिस संविधान प्रदत्त तंत्र की अधीनता के कारण 74 का आंदोलन, शेषण द्वारा छेड़ा गया चुनाव सुधार का अभियान आदि-आदि फिस्स कर गए लगभग वही हस्र इनके अभियान का होगा। अरुणाचल प्रदेश से कांग्रेस के सांसद निनाग ईरिंग ने जिस तरह बाबा रामदेव के साथ अभद्राचरण किया वह हस्र का छोटा नमूना है। आखिर रिफ्लेक्स एक्शन की तरह कांग्रेस के दिग्विजय सिंह का जो रुख रहा वह कहीं न कहीं रामदेव के अभियान के प्रति नाराजगी भी दर्शाता है। जिस गरीब जनता के मुल्क के 70 लाख करोड़ रुपए विदेशी बैंकों में जमा हों वह क्यों नहीं यूनाइटेड नेशन कन्वेंशन अंगेस्ट करप्शन (यूएनसीएसी) का अनुमोदन करता है। इस आशय से संबंधित
संयुक्त राष्ट्र के संकल्प पर एक दस्तखत के सिवा 2005 के बाद सरकार ने इस मामले में कोई पहल नहीं की। यही तो वह मनोरचना है जो इच्छाशक्ति को दर्शाता है।
कहीं न कहीं नागरिक बोध का नुकसान हमारी जीवनशैली को प्रभावित करती है, फिर व्यवहार का पैटर्न उस गिरफ्त में आता है और फिर पूरी की पूरी व्यवस्था इसका निवाला बन जाती है। कई व्यवहार से रिवाज तथा रिवाजों से विधि और फिर विधि के तानेबाने से संविधान फिर पूरी व्यवस्था बनती है। थूक फेकने से लेकर ट्रैफिक नियम व दफ्तरों में अपनी सुविधा के लिए बाबुओं के साथ डीलिंग। यह सब क्या है। एक समांतर व्यवस्था ही तो। ...