शुभम श्री : हिंदी कविता का क्वथनांक
कविता की जिस जमीन पर चरवाहे आलोचकों ने कवियों को बैल की तरह जोता, उस जमीन को कोई उन शास्त्री चरवाहों की परवाह किये बगैर ताम (कोड़) दे तो यह कहां से बरदाश्त होगा. कविता की कुलीन परंपरा में एक अज्ञात कुल-शील को लोग (लोक नहीं) आसानी से बैठने की जगह (आसन) नहीं दे सकते हैं. साठ के दशक में अमरिका में कनफेशनल पोएम की गूंज मुझे सुनाई पड़ती है शुभम श्री के यहां. वीमन लीब का नारा देनेवालियों ने सड़क पर अंतःवस्त्र जलाना शुरू किया था. कविताओं में खुल कर इन पर चरचा होती थी. कविता के इस नये झोंके से भदेस हिंदी के समलिंगी, हस्तमैथुन शास्त्री चरवाहों को अपनी धोती के उड़ने का खतरा दिखता है. और बहस करते हैं जैसे शुभमश्री ने उनकी निरीह षोडशी कविता का शीलहरण कर लिया.देखिए शुभम की कविता -मेरे हॉस्टल के सफाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन फेंकने से इनकार कर दिया है-की बानगी
मुझे पता है ये बेहद कमजोर कविता है
मासिक चक्र से गुजरती औरत की तरह
पर क्या करूँ
मुझे समझ नहीं आता कि
वीर्य को धारण करनेवाले अंतर्वस्त्र
क्यों शान से अलगनी पर जगह पाते हैं
धुलते ही 'पवित्र' हो जाते हैं
और किसी गुमनाम कोने में
फेंक दिए जाते हैं
क्या यह एनी सेक्सटन और सिल्विया प्लाथ के उद्दाम ताप से हटकर है..तय करें.
कविता के पुरुषवादी ढांचे और सामाजिक कुलीनता की दीवारों के साथ एक साथ यह छेड़छाड़ इतनी जल्द बरदाश्त नहीं होगी. समय लगेगा झेलने में. तब तक हो सकता है शुभमश्री भी शायद संभल जाये. भारतीय स्त्री जिन घरों में रहती है उसकी दीवारें बहुत ही अदृश्य होती हैं. इन अदृश्य दीवारों से बने ये घर असुरक्षा, अंदेशा, अनिश्चय से भरते हैं स्त्रियों को. और इनमें से कोई जब शुभम बन कर खड़ी होती है तो कितनी लहकती होगी पुरुषों की, समझ सकते हैं...
पहली बार जब निराला के जरिये कविता की काया टूटती नजर आयी, तो यह हिंदी कविता संसार था जिसने उन्हें बहुत सहजता से नहीं लिया था. काव्य संसार में दो गज जमीन के लिए एड़ी-चोटी एक करनी पड़ी थी. जहां कविता के स्वरूप में छंद पादो तु वेदस्य जैसी धारणा अपना पांव जमाये हुए थी, वहां कविता के स्वरूप के साथ निराला का छेड़छाड़ शास्त्रियों के लिए नागवार था. उनके बाद मुक्तबोध ने हिंदी कविता को उसके कुलीनताबोध से बाहर लाया. लेकिन यह हिंदी कविता का मेल्टिंग प्वाइंट था. मेल्टिंग प्वाइंट पर द्रव के अवयव (अंतराणविक बल) ढीले पड़ते हैं. निराला और मुक्तिबोध की कविता कवितात्व उसके अवयवों के छद्म को तोड़ती है. जुही की कली और कुकुरमुत्ता को बेहद हिकारत भरी नजरों से देखते थे तब के शास्त्री. रबड़छंद कह कर मजाक उड़ाया जाता था. काव्यबोध की जिस कुलीनता का छद्म तार-तार हो रहा था इस मेल्टिंग प्वाइंट पर, धूमिल की कविता की ब्वाइलिंग प्वाइंट पर सारे काव्य तत्व विघटित हो जाते हैं. और राजकमल चौधरी के यहां आकर तो जैसे सारी सामाजिक व साहित्यिक वर्जनाएं, कविता के गलित मूल्य-आदर्श कमजोर पड़कर छिटक कर दूर हो जाते हैं. नौवें दशक तक आकर आलोकधन्वा इस ब्वायलिंग प्वाइंट को मेंटेन करते हैं. और सहस्त्राब्दी के दूसरे दशक तक आते-आते शुभम श्री हिंदी कविता को उसके पूरे ब्वायलिंग प्वाइंट पर ले जाती हैं. जिस जगह आकर सामाजिक मर्यादा कविता की मर्यादा का पर्याय बन जाती है वह कविता पर अभिजात का शासन है. शुभम श्री को लेकर हिंदी में मौजूद भिन्न स्वर का सबसे बड़ा एक कारण तो यह है कि काव्यरूढ़ियों के अभ्यस्त ढेरो कवि-आलोचक हिंदी के एनपीए (गैर कार्यशील पूंजी, डूबा हुआ कर्ज) साबित हो जाते हैं. भला इस स्थिति को कौन मंजूर कर सकता है.
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