हमसफर

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

डायरी के पन्ने से

सम्मान
विकास का अर्थशास्त्र में दुनिया का लोहा मनवानेवाले 64 वर्षीय अमर्त्य सेन को अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा भारत के लिए आह्लादकारी तो है ही, यह पूंजीवादी देश को दिया गया एक जवाब भी है जो मनुष्यमात्र के लिए उपलब्धि है। समाज कल्याण के क्षेत्र में श्री सेन के अर्थशास्त्रीय अध्ययन से गरीबी और भूख के आर्थिक तंत्र की जो गहरी समझ विकसित हो रही थी उसे और नजर अंदाज किया जाना संभव नहीं था। कल्याणकारी राज्य की संकल्पना तो थी, पर उसके लिए अर्थशास्त्र
नहीं था। निश्चय ही विकासात्मक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में किए गए कार्य के कारण श्री सेन के पुरस्कृत किए जाने से स्वतः ही कल्याणकारी अर्थशास्त्र को मान्यता मिल जाती है।
इतिहास, दर्शनशास्त्र के साथ अर्थशास्त्र के विद्वान श्री अमर्त्य सेन की दावेदारी पहले से ही नोबल पुरस्कार के लिए दस्तक दे रही थी। वर्ष 1995-96 में ही उन्हें पुरस्कार दिए जाने की जोर-शोर से चर्चा चल रही थी। कहा जा सकता है कि उन्हें पुरस्कार दिए जाने में देर ही हुई। उनके सिद्धांतों व स्थापनाओं को गरीब व पिछड़े मुल्कों में पहले ही अमल में लाया जाने लगा था। यही उनके कामों की असल मान्यता भी थी। पर नोबल पुरस्कार मिल जाने से श्री सेन के अध्ययन के लिए पश्चिमी जगत में व्यापक स्वीकार की स्थिति बनी है। पुरस्कार इसका भी प्रमाण है।
गरीबी किसी मुल्क विशेष की समस्या नहीं, यह एक मानव स्थिति है जो हर कहीं संभव है जैसे अखाल के लिए जरूरी नहीं कि खाद्यान्न की उपज में कमी ही एक वजह हो। जहां से खाद्यान्न के निर्यात हुए वहां भी अकाल पड़ा था। इसलिए श्री सेन के अध्ययन की महत्ता इसी में है कि यह सभी मुल्कों और अर्थव्यवस्थाओं के लिए समान रूप से उपादेय है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा भी है कि किसी समाज या अर्थव्यवस्था में हो रहे परिवर्तनों का आकलन केवल समृद्ध वर्ग को आधार बनाकर करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी है। इसके लिए गरीबों को भी देखना होगा। स्पष्ट है कि उनका आशय आर्थिक नीतियों में वंचितों को और वंचित करने के प्रतिरोध से है। जैसे एशियाई समाज की चेतना प्रतिरोध की चेतना है, उसी तरह श्री सेन के अध्ययन को प्रतिरोध का अर्थशास्त्र कहा जा सकता है।
जब विश्व भर में रीगन और थैचर की तूती बोलती थी, उस दौर में श्री सेन ‘रीगन-थैचर अर्थनीति
’ का जमकर और खुलकर विरोध किया था और इस काम में दुनिया भर के अर्थशास्त्रियों में श्री सेन अकेले थे। बाजार को सौ फीसदी खुले क्षेत्र को सौंपने की वकालत का उन्होंने सदैव मुखर विरोध किया। यह विरोध केवल विरोध के लिए विरोध होता तो उनके अध्ययन के निष्कर्षों की पुष्टि वैश्विक स्थितियों ने नहीं की होती। यह श्री सेन की प्रतिरोधी चेतना ही थी जो गरीबी, अपढ़, बेकारी बहुल समाज की प्राणशक्ति होती है। इसे श्री सेन ने अर्थशास्त्र के क्षेत्र में ले जाकर प्रतिष्ठित किया।
श्री सेन का अध्ययन अध्ययन के लिए अध्ययन नहीं था। यदि ऐसा होता तो उनके निष्कर्ष, स्थापनाएं उपभोक्तावादी नृशंस बाजार के उपकरण भर रह जाते। पर श्री सेन का एक रचनात्मक मकसद था, एक सार्थक कार्यक्रम था। अकाल और दुर्भिक्ष की विकट और एकांतिक समझदारी ने वह औरों की तरह संवेदनहीन ज्ञान के क्षेत्र में नहीं गए। यह निकटता ज्ञानात्मक संवेदन थी, जो अंततः संवेदनात्मक ज्ञान में तब्दील हुआ। यही कारण है कि गरीबी की कारक शक्तियां और गरीबी उन्मूलन के उपाय खोजने में उन्होंने अपनी जिंदगी लगा दी। यह नोबल सचमुच में अल्फ्रेड नोबल के मूल्यों और आदर्शों के सम्मान में इजाफा करता है।
(16.10.1998, एक हिंदी अखबार के संपादकीय टिप्पणी के रूप में लिखा गया।)

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