पिछले दिनों अपने फेसबुक वाल से कुछ जरूरी पोस्ट उस पर आयी प्रतिक्रियाओं के साथ अपलोड करना शुरू किया है. प्रतियाएं आमंत्रित है....
12 नवंबर 2015 का पोस्ट-वर्चुअल संसार के नायकों के लिए सबक
आज जिस असहिष्णुता को लेकर तांडव मचा हुआ है, उसकी जवाबदेही कहीं न कहीं मुल्क की बौद्धिक जमात की है. सवाल यह मौजूं नहीं है कि बीते दौर में उसने क्या किया और क्या नहीं किया. सवाल यह है कि राजनीति में विचार की अहमियत को वह अब भी नहीं समझना चाहता. यही कारण है कि विचार शून्य राजनीति में नायक की तरह उभरे नरेंद्र मोदी मीडिया ट्यूनर बने हुए हैं. इस इक्वलाइजर से वह जब जैसी जरूरत सुर-स्वर छेड़ते हैं. किस आवास को उभारना है, किसे दाबना है, इक्वलाइजर यही तो करता है. बिहार विधान सभा के चुनाव परिणाम ने जिस तरह बिहार के वोटर की परिपक्वता सामने आयी है, वह इन बोद्धिकों के लिए एक सबक है. ये पुरस्कार लौटानेवाले बौद्धिक मुल्क के समक्ष असहिष्णुता का एक कृत्रिम परदृश्य बनाने में लगे रहे. उन्हें दाल, तेल, गैस जैसे मसले से कोई सरोकार नहीं. आभासी दुनिया के नायक और कर ही क्या सकते हैं.समय-समाज की बजाय अपनी मर्जी से बात करना पसंद करनेवाले मोदी भी लगभग एक आभासी संसार ही बना रहे हैं. इसीलिए मन की बात फैशन में भी आ गयी. दाल-तेल की कीमत भले ही मुल्क के गरीब के सहने से बाहर हो, पर बौद्धिकों के लिए यह सहिष्णुता के दायरे में है.आजादी के बाद से छात्र आंदोलन को छोड़ न तो भाषा, न रोटी, न शिक्षा और न ही सेहत को लेकर यह बौद्धिक जगत कभी उद्वेलित-आंदोलित हुआ. प्रधानमंत्री के खेल का ही नतीजा है कि आज दाल बहस के परिदृश्य के बाहर सर पटक रही है और बौद्धिक जमात असहिष्णुता का माला जप रही है.ठीक इसी तरह हुआ था चार साल पहले. तहरीर चौक का मामला हुए थोड़े ही दिन हुआ था. मुल्क में टू जी के मामले में एक से खुलासे हो रहे थे और फिर मीडिया स्टार इसमें घिरने लगे थे. और तब लोकपाल को लेकर उद्धारकर्ता की तरह अण्णा हजारे का परिदृश्य में आगमन हुआ. देश के सौ से अधिक चैनल के संपादकों ने रातों-रात अम्णा हजारे के आंदोलन के कवरेज की रणनीति बनायी। और फिर चाह कर भी टू-जी के मामले में पत्रकारों की शिरकत का मामला दब गया तो दब गया. और तकदीर के उन सांढ़ों की प्रोन्नति होती चल गयी. बाद में उन्हीं में से एक महिला पत्रकार ने सियासी हस्ती को पकड़ लिया.
प्रतिक्रिया-
Rajesh Paul बहुत दिनों के बाद कोई निरपेक्ष विचार पढ़ने को मिला।आपके अगले पोस्ट की प्रतीक्षा मे।

कामरेड, चीजों को थोड़ी दूरी बनाकर देखने से उसकी समग्रता समझ में आती है. मैंआपकी समझदारी पर सवाल नहीं खड़े करता, पर यह भी उतना ही सच है कि हम जहां तकदेख सकें दुनिया वहीं तक नहीं होती.गिरिजेश्वर जी मैं समझ नहीं पा रहा कि कहां की खीझ कहां उतर रही है. न तो पुरस्कार आपके घर में गया और न ही किसी संगठन कीबात हो रही है. लेकिन प्यासे लोगों की तड़प जरूर है. और जब सुखाड़ होता है तोसभी प्यासे एक ही घाट से पानी पीते हैं. विरोध करनेवालों के सच पर आपको इतनाप्रेम क्यों उमड़ रहा है.
क्या आपको नहीं लगता कि इस मामले में एक बहसतलब मसले को इसलिए खारिज किया जारहा है कि वह किसी 'वाद' या पार्टी लाईन के खिलाफ पड़ती है. कामरेड चीजों कोउसके वास्तविक रंगों-आभा में देखने के लिए अपनी आंखों से हमें चश्मा उतारनाहोगा. कभी कोई बीमार अपने को बीमार नहीं कहना चाहता, पर डाक्टर के पास जाने सेभी नहीं घबराता. और रही बात बहस के लायक मुद्दा की तो किसी भी गंभीर मसले कोअमूर्तता का लबादा ओढाकर उसे बहस के रेंज से आसानी से बाहर किया जा सकता है.और बहस में शिरकत की जिम्मेवारी से बाहर से आ सकते हैं. क्या आपको नहीं लगताकि इस मामले में एक बहसतलब मसले को इसलिए खारिज किया जा रहा है कि वह किसी'वाद' या पार्टी लाईन के खिलाफ पड़ती है. आपसे कम मैं मार्क्सवाद को नहींचाहता. भले ही मैं किसी ऐसी पार्टी का सदस्य नहीं रहा. क्या भारतीय वामपंथ के सच को आप नहीं जानते कि जिस व्यक्ति ने भाकपा का गठन किया उसे पार्टी नेनिष्कासित कर दिया. वह एमएन राय ऐरा-गैरा नहीं थे. लेनिन के साथ उनकी थिसिस भी कांग्रेस में बहस के लिए रखी गयी थी.कामरेड चीजों को उसके वास्तविक रंगों-आभा में देखने के लिए अपनी आंखों सेचश्मा हमें आंखों से उतारना होगा. हो सकता है बहस का विषय किसी चश्मे को पहनकर तैयार किया गया हो, पर बहस में आकर ही इसे देखा जा सकता है.
-------- अब खास कर आपके लिए अपनी दो कविताएं पोस्ट कर रहा हूं. दोनों कविताएं कथादेशके जून 2011 वाले अंक में प्रकाशित हैं. हो सकता है इससे मेरी दृष्टि का पताचले. इसके अलावे पहल 92 में छपी मेरी दो कविताओं को देख सकते हैं. आपकी सुविधाके लिए उसका लिंक है-
http://pahalpatrika.com/frontcover/getdatabyid/28…पहल 93 के संपादकीय में इसका जिक्र भी देखें--
http://pahalpatrika.com/frontcover/getrecord/36और मैं क्या कह सकता हूं.....काबुल से बगदादकाबुल और बगदाद से खुली गाड़ीकहाँ रुकेगीयूएनओ के ढहते गुम्बद से आती है फुसफुसाहटबहुत भोले हैं वे जिन्हें इस गाड़ी काधुआँ दूसरे किसी देश के किसी प्रान्त के किसी गाँव में नहीं दिखताकुली का काम पा जाने के लालच में उस धुएँ का प्रदूषण नहीं दिखतानहीं जानते कि यह गाड़ीरेडियो वेव के वेग से चलती हैशायद यह धुआँ ही इतना छा गया कि पार का नजारा नहीं दिखता कमजोर आँखों कोवे नहीं जानतेकि यह गाड़ी पटरी पर नहीं चलती इसलिए जितना डर बैंकों के लुट जाने का हैउतनी ही आशंका खेत-खलिहानों के रौंदें जाने की भी हैकभी भी कुचली जा सकती है पेड़ के नीचे चलती पाठशालाऔर कभी भी पाँच सितारा होटल मिट्टी के ढेर में बदल सकता हैहारमोनियम और मृदंग पर हाँफते चौता औररघुपति राघव... कभी भी गुम हो सकते हैं इक्वलाइजर मेंऔर कभी भी जेनिफर लोपेज, ब्रिटनी स्पीयर बनती बालाएँ मिट सकती हैंखतरा जब एक जैसा हो हर जगहतो बचने के अलग-अलग रास्तेऔर भी खतरनाक हो जाते हैं.यह वक्तयह वक्तगोल-मटोल बात कर निकल जाने का नहीं.यह वक्तसभी व्यवस्था में झक-झक सफेद बने रहने का नहीं.सन्त और नादान बनकर साहित्य अकादमी बटोरने का भी वक्त नहीं है यह.ये बहुत नादान चतुर हैंजो किसी का नाम लेकर बात नहीं करतेकिसी पर उंगली उठाकर किसी का निशाना नहीं बनते.हमारे अभाग्यों और कष्टों का कारणकौन बतायेगा?उस पर उंगली उठानी ही होगीगाली देनी ही होगी.कालर पकड़ना ही होगासिर्फ प्रधानमंत्रियों-मुख्यमंत्रियों कोगाली देना काफी नहींहमारे कष्ट और अभाग्यों की शुरुआतहमारे प्रबन्धक से है, प्रशासक से हैहमारे मुखिया से है, विधायक से है, सांसद से हैहैड मास्टर से है, सम्पादक से हैडाक्टर से, इन्जीनियर से है.इन्हें कौन कर्मचारी, मतदाता, शिक्षक, पत्रकार, मरीजगाली देगा?कौन पकड़ेगा इनकी कालर?सड़क पर खदेड़ेगा इन्हें कौन?थानेदारों को जेल में ठूसेगा कौन?कौन सजा सुनाएगा न्यायाधीशों को?जब राष्ट्रपति को गाली देना आसान हो जाएइसका मतलब मुखिया का बेहद ताकतवर हो जाना हैयह वक्त है वही.कौन सिल रहा है इनकी जबान?कौन बोल रहा है इनकी जबान से?हम सभी जिस वक्त के सुअरबाड़े में रहते हैंवहाँ के गंधाते चरवाहे को ढूँढ़ना होगा.यह वक्तजनतंत्र को शौचालय बनानेवालों कोमाला से लादने का नहीं हैजनतंत्र के इस सार्वजनिक मूत्रालय मेंकोई अपने शब्द पकड़ कर कोई अपने फरमान लेकरकोई अपनी वर्दी लेकरतो कोई अपनी लाल बत्ती लेकरचला आता है मूतने.नंगे-भूखे मरनेवालों की भाषा वह नहींमहंगाई-बेकारी से बलात्कृत सपनोंके गर्भपात की वह भाषा नहींजिस भाषा में लिखकर कोईझटक ले जाता है अकादमीऔर कोई शिखर सम्मानउसकी कलम को कौन तोड़ेगा?जो गूंगों की स्याही सोख रहा हैजो फैला रहा है स्याही उनकी रातों मेंजो उनकी जबान से छेड़खानी करता है.कुर्सी को कुर्सी और लाठी को लाठीपैरवी को पैरवी और घूस को घूसहत्या को हत्या और लाल को लालनहीं कह सकनेवाली भाषाकवि की भाषा नहीं,वह बलात्कारी का स्वांग है.यह वक्तस्वांग करने वालों का नहीं उनके मेकअप खरोंचने का है.
प्रतिक्रिया-
Pratyush Chandra Mishra जी पढ़ चुके है।लेकिन आपका सवाल फिर भी ठीक नहीं लगा।सादर।संघियो की तरह सबूत की जरूरत नहीं।
Girijeshwar
Prasad उमा
जी, मेरी
खीझ सही जगह पर उतर रही है।
मेरी कमजोरी सिर्फ इतनी है
कि मैं छायवाद की कला नहीं
जानता। मुझे लट्ठमार भाषा ही
आती है। इसका न तो मुझे कोई
मलाल है और ना गुमान ही।......
आपकी
साहित्यिक छायावादी लेखन के
सामने मैं यही कहना चाहता हूँ
कि आप अभी भी प्रतिरोध की आवाज
के खिलाफ खड़े हैं। अभी तक
आपने फासीवादियों के खिलाफ
एक शब्द भी पोस्ट नहीं किया
है। मैं नहीं जानता,आप
किसी मजबूरी में हैं,या
यह आपका शगल है। मैंने आपके
बारे में जो भी विचार बनाया
है,वह
आपकी पिछले दो-एक
पोस्ट के कारण बना है। मुझे
आपके लेखन पर कोई सवाल नहीं
करना है। आपकी विचारधारा (जिसे
मैं पिछले पोस्ट के पहले तक
जानता था) के
बारे में मुझे कोई शंका नहीं
है। लेकिन वर्तमान मुझे शशंकित
अवश्य कर रहा है। मुझे खीझ इसी
बात का है। में अपनी शंका को
झुठलाना चाहता हूँ,लेकिन
अभी तक आपके पोस्ट से मुझे ऐसी
कोई दिलाशा नहीं मिली है।....
मैंने
(आपने
भी) मंडल
और कमंडल का दौर देखा है। मंडल
के लागू होने के बाद कई कॉमरे़ड
को अपने मूल में लौटते देखा
है। उनकी ललाट पर लाल बड़े
टीके के साथ खड़ी और हवा में
लहराती उनकी चुटिया फिर से
जीवंत हो चुके थे। और आज भी वे
उसी कमंडल के साथ हैं। उनके
जनवाद और मार्क्सवाद को ध्वस्त
होते मैंने काफी करीब से देखा
है। इसलिए,मेरा
मन अब लगभग मान चुका है कि भारत
के मार्क्सवादी,जनवादी
और समाजवादी खुद को न तो डि-कास्ट
कर पाए हैं और न डि-क्लास।
यह दोनों उनके अंदर जीवित रहते
हैं। खासकर,भारतीय
जातिवादी व्यवस्था में उच्च
कहे जाने वाले लोगों में यह
बात होती है। मैं कुछ अपवादों
से इनकार नहीं करता। समग्रता
में देखें,तो
सच यही है। इस कारण भी मेरे
अंदर रोष और अफसोस दोनों है।
अफसोस इस बात का कि एक अच्छे
मार्क्सवादी-जनवादी
का कायांतर हो रहा है। मेरा
एक मित्र मुझ से दूर जा रहा
है। बस।
Hari
Prakash Latta हाँ
भाई उमा जी ,
मित्रों
की सलाह मानिये अब कम्युनिस्ट
पार्टी के कार्ड होल्डर बन
ही जाइये क्योंकि रूस ,
चाइना
सहित सभी कम्युनिस्ट देशों
में विरोध व्यक्त करने के सभी
रास्ते खुले हैँ और अभिव्यक्ति
की भी पूरी आजादी है.......वे
लाखों लोग तो यूँही मारे गए
थे या साइबेरिया की जेलों में
बंद कर दिए थे......और
कई लेखक ,
पत्रकार
, नेता
और वैज्ञानिक तो ब्रिटेन
अमेरिका में यूँ ही शरण लेने
चले गए थे........अरे
देखा नहीं आपने जब इस देश में
आपातकाल लगा था और अभिव्यक्ति
की आजादी सहित सभी मौलिक अधिकार
छीन लीये थे तब इन वामपंथी
कार्ड होल्डरों ने कितना
ज़बर्दस्त आंदोलन खड़ा किया
था........विरोधस्वरूप
इन्हौनें देश की सभी जेलों
को भर दिया था........इन्ही
के आंदोलन से इमरजेंसी हटी
थी.......सच्चा
कम्युनिस्ट वही होता है जो
19 वीं
सदी के मार्क्स और लेनिन की
कही बातों अक्षरसह् जिन्दगी
भर चिपका रहे.......वे
अनेक देश जो अब कम्युनिज्म
से अलग हों गए हैं या अपने देश
की आवश्यकता के हिसाब से संशोधित
कम्युनिज्म को अपना लिया है
वे सब तो नकली है.........और
एक बात गरीब ,
मजदुर
, किसान
के अधिकृत हितैषी तभी माने
जायेंगे जब इनके कार्ड होल्डर
हों.......और
किसी से मित्रता भी तभी हो
सकती है जब वो उसी राजनैतिक
विचारधारा का हो यानि मित्रता
के लिए एक मात्र पैमाना सामान
राजनैतिक विचारधारा हो अन्यथा
दोस्ती ख़तम #
प्रगतिशीलता
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· Reply
· 1
· October
21, 2015 at 2:28pm · Edited
Girijeshwar
Prasad जी
लाटा जी, आपातकाल
एवं इंदिरा गाँधी की तानाशाही
के खिलाफ वामपंथियों ने आंदोलन
किया था,जेल
भी गए थे।उनमें लेखक और पत्रकार
भी शामिल थे। कृपया जानकारी
कर लें। और यह भी पता कर लें
कि आपातकाल के बारे में संघ
की क्या राय थी। वैसे,
यह छुपा
हुआ तथ्य नहीं है क...See
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Hari
Prakash Latta आपातकाल
का इतिहास सभी को ज्ञात
है.......शायद
दलीय निष्ठा के कारण आप स्वीकार
नहीं करना चाहते हैं फिर भी
मुझे संतोष है कि रूस और चाइना
पर आपने मौन सहमति दी
है........मार्क्स
और लेनिन के अनुयायिओं की
चिंता मैं क्यों करू ?
मैं तो
उन्हें आइना दिखा रहा हूँ........और
संघ को तो selective
secularism वाले
भरपूर धरातल उपलब्ध करा ही
दे रहे है
Girijeshwar
Prasad आपातकाल
के समय संघ प्रमुूख की भूमिका
के बारे में बातें नहीं करेंगे
? इंदिरा
गांधी के साथ समझौता और .....
चलिए,ठीक
है,वह
आपकी दुखती रग है,उस
पर बात नहीं करते हैं।मार्क्स,लेनिन,रुस-चीन
के बारे में इतना ही कहना
चाहूँगा कि कोई है आपके पास
मार्क्स और लेनिन ...See
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Hari
Prakash Latta हंसी
आ रही है ....लिखित
इतिहास साक्षी है कि आपातकाल
का व्यापक और सार्वजनिक विरोध
सबसे ज्यादा संघ और अकाली दल
ने किया था......75
से लेकर
77 तक
लगातार प्रदर्शन कर लगभग डेढ
लाख कार्यकर्ताओं ने गिरफ्तारी
दी.......लगता
है kbg के
सूत्रों ने ही आपको बताया
होग...See
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Girijeshwar
Prasad मासुम
बच्चों की हत्या के पीछे आपसी
रंजिश बता कर उसे जस्टीफाई
करने की कोशिश। वाह क्या राम
राज के नमूने हैं।वैसे रणवीर
सेना से लेकर फरीदाबाद तक की
सेना,कुछ
भी अलग नहीं है। वैसे,बेवकूफ
तो वे लोग हैं,जो
आपसे उम्मीदें पाल रखी
हैं।.....खुश
होईए न,तीन
राज्य में बचे हैं। पूरा देश
आपके हाथों में है,उसे
फूँक डालिए। दूनिया थूक रही
है,तो
थूके,क्या
फर्क पड़ता है।
Hari
Prakash Latta दुनिया
नहीं थूक रही......एक
खूंटे से बंधे जड़तावादी लोग
अपनी खीज मिटाने के लिए झूट
और फरेब का सहारा लेकर आसमान
की और थूकने का प्रयास कर रहे
है .....परिणाम
सब को मालूम है......इति
Ajay
Singh · Friends with Pradip
Suman and 10
others
Batyen Raho ! Dattey Raho !! Jabtak
sarvnash na ho jaye !! You can change the constitution, not the
genetic Nature of humankind, though changes are the essential part of
Natural process. Please let us look forward for an "unanimous
conclusion", to amend the past for the bright future of our
oncoming generation.
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