हमसफर

शनिवार, 19 मार्च 2011

अस्मिताएं विलीन हो जाएंगी और बचेगा सिर्फ जीवन

ग्लोबल हो रही दुनिया में बाजार एमएनसी से पटते जा रहे हैं तो दूसरी ओर सहुलियत के जाल में लिपटे बाजार की नई-नई मोहक-हसीन अधीनताएं अस्मिताओं को निगलती जा रही है। बड़ी अर्थव्यवस्थाएं विकासशीलों को इस कदर लाचार कर दे रही हैं कि उनकी अस्मिताएं खुद ब खुद विलीन होती जाएंगी। बाजार के प्रभुत्व के सामने शेष सारे नीति-सिद्धांत क्षणभंगुर होते जा रहे हैं या उसके फार्मेट को तय कर रहे हैं। यह एक स्थिति है जो कुछ दिनों तक ही कायम रहनेवाली। लेकिन इस अवधि को ही जीवन का विस्तार माननेवाले यह भूल करेंगे कि बाजार को जीवन की नियति मान अपनी दिशा बदल लें।

भारत जैसे मुल्क में स्थिति दूसरी तरह से बदल रही है। राष्ट्र, धर्म-अध्यात्म, इतिहास, संस्कृति के प्रति बहुसंख्यकों के सहज अनुराग दुराग्रह में बदल जाएंगे। वे सारे अनुराग आजादी के बाद चुनावी रौ में क्रमशः पाखंड में बदलते जा रहे हैं, तो अल्पसंख्यकों में कट्टरता कवच बनती जा रही है। पाखंड पहले खुद के प्रति क्रूर और हिंस्र (तप-व्रत) बनाता है फिर वह समय-समाज के प्रति अनुत्तरदायी (संघ-मठ) बनाकर उसका अनिष्ट करने को तत्पर करता है। दूसरी ओर कट्टरता पहले समय-समाज के प्रति अनुत्तरदायित्व बनाकर (राष्ट्र नहीं, धर्म सर्वोपरि) फिर अंततः खुद का अनिष्ट (फिदायीन) करने को लालायित-प्रेरित-उत्साहित करती है।

आखिर ऐसा क्या है जो बाबरी मस्जिद को तोड़कर मिल जाएगा और ताजमहल कैसे इस मुल्क की अस्मिता पर चार चांद लगाता रहा है ? बाबरी मस्जिद को किसी भी कीमत पर हासिल करने की जिद पाले भक्तजनों में से कौन यह बताएगा कि ताजमहल को देखकर वह बर्बर हाथ क्यों नहीं दीखता जो हजारों अद्भुत कारीगरों के खून से सना है। आखिर यह किस कला के प्रति कैसा अऩुराग था जो प्रेम के आगोश में जाकर खूनी हो गया और हम अंधों को सिर्फ उत्कट प्रेम की मनोरम कल्पना का अद्भुत संसार ही नजर आता है। क्या यह ताजमहल हमें अपनों के प्रति उदासीन रखकर क्रूर और हिंस्र बने रहना तो नहीं सिखाता रहा है ? इस आड़ में पीड़कों-प्रताड़कों के प्रति विरोधी भावों का शमन भी तो हो जाता है। कला के प्रति अनुराग जो उत्कट प्रेम के प्रति श्रद्धांजलि में व्यक्त हुआ है, क्या सचमुच वह प्रेम था। क्या प्रेम की परिणति इतनी क्रूरता और हिंसा में होती है।

क्या वे कारीगर जो 20 हजार से अधिक की तादाद में थे उनका खून देसी सैलानियों के खून नहीं खौलाता तो संवेदना, समझदारी और राष्ट्रीयता को ले मर-मिटने की कसम खानेवालों को ढोंगी नहीं तो क्या कहा जा सकता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि अंग्रेजों को यह पसंद है तो हमें क्यों नहीं। अन्यथा हम जाहिल समझे जाएंगे। नहीं, ताजमहल को तेजोमहालय का विकृत रूप बताकर उसे मंदिर साबित करने की जिद (पीएन ओक Purushottam Nagesh Oak) पालनेवाले जैसे लोग भी तो थे। 1828 से 1835 के बीच दो बार जिस ताजमहल को नीलाम कर उसके कीमती पत्थरों, रत्नों, नगों को इंग्लैंड ले जाने की जिस कोशिश को उसी इंग्लैंड की जनता और संसद ने नाकाम कर दिया तो इस देश में फिरंगियों से बड़े दीवाने भी रहे हैं, तभी तो ऐसा ताजमहल इस मुल्क में बचा रहा है। तो इसका मतलब है कि उस मुल्क में बाबरी मस्जिद के जीर्णोद्धार की जिद फितुर ही रहे। संवेदना, करुणा, धर्मपरायणता, राष्ट्रभक्ति, ऐतिहासिक चेतना को भुलाने की भी ढेरों युक्तियां यहां मौजूद है। सारी मार को भूलकर उन महिमामंडित प्रहारों पर मुग्ध होते रहने के ढेरों आसार हैं यहां। जो घाव दिए उसे श्रृंगार का रूप देकर मनोरम बना दिया गया है। विकृति का भोग और भोग का बाजार !

बाबरी मस्जिद का मसला उठानेवालों के लिए तो यह भी एक मुद्दा होना चाहिए। दरअसल आजादी के बाद मुल्क में कोई भी पार्टी नहीं रही जिसके लिए नीति-सिद्धांत का कोई महत्व रहा। न्यूआंस वैल्यू (नुकसान करने की क्षमता) तय करता है कि वोट के बाजार में किसकी कितनी कीमत होगी। और यहीं से पार्टी अपने छद्म आवरण को अपना शरीर बताती है और हम रिझते रहते हैं उसके चोला पर।

क्या आपने कभी सोचा है कि भाजपा जैसी व्यापक जनाधार वाली पार्टी सांप्रदायिक और राष्ट्रद्रोहियों को पनाह देनेवाली पार्टियां सेकुलर कैसे हो गईं ? क्या ऐसा कहकर (कहनेवाले की जमात में राजनेता से लेकर कथित वाम लेखक, मीडियाकर्मी सभी शामिल हैं) कहीं मुल्क की बहुत बड़ी आबादी (भाजपा के मतदाता रहे हैं) को तो सांप्रदायिक नहीं ठहराया जा रहा ? आखिर भाजपा को सांप्रदायिक ठहराकर उसके मतदाता को ही तो यह तमगा दिया जाता है ! आखिर किसी पार्टी या संगठन या व्यक्ति को यह हक किसने दिया कि वह मुल्क के इतने बड़े अवाम के लिए इतनी बड़ी गाली दे ? और तुर्रा यह कि राष्ट्रीय गरिमा पर इस आघात से कहीं चूं तक नहीं होता। हमें समझना चाहिए कि किसी पार्टी का किसी विचारधारा - सिद्धांत से कोई सरोकार नहीं रहा। एक ही सिद्धांत और विचारधारा है और वह है वोट पर कब्जादारी। अन्यथा क्या कारण है कि 1991 में कांग्रेस नीत यूपीए सरकार में आए आर्थिक सुधार के नाम पर बाजारीकरण, भूमंडलीकरण, निजीकरण का सर्वाधिक मुखर विरोधी रहे मीडिया उसकी रखैल हो गया और एनडीए उसका पोषक। एनडीए सरकार में 1999 में पहली बार विनिवेश मंत्रालय बना था और बड़े लिक्खार अरुण शौरी उसके मंत्री बने थे। उस दौरान हुए विनिवेशों का आकलन बाकी है।

क्या सिर्फ दलित होने से रामविलास पासवान का जुर्म जुर्म नहीं रहा ! रुग्ण घोषित उर्वरक इकाइयों के पुनरुद्धार के नाम पर देश भर में जो खेल रामविलास पासवान ने खेला भोली जनता को देश भर में घूम-घूम कर छला और उर्वरक-रसायन-इस्पात मंत्रालय में रहकर चुनावी बाजार बनाने भर के लिए देशभर में विज्ञापन में पैसे लुटाए उसका अपना अलग ही किस्सा है। बरौनी में बंद खाद कारखाना के दुबारा खुलने के नाम पर उसका उदघाटन तक कर दिया। उस दौरान मीडिया भी उनकी मूत और थूक को बाजार का गंगाजल मानकर पीता रहा। (शौरी और पासवान के कार्यकाल की तफ्तीश कई स्पेक्ट्रम घोटालों का राजफाश करनेवाला साबित होगा।)

जितनी और जैसी घिनौनी और मारक स्थितियों में रहकर जीवन बचाकर चलना मुश्किल हो रहा है उसमें प्रतिरोधी चेतना जिस तरह संघनित होंगी उससे ऐसा लगता है जैसे बहुत जल्द मुल्क की अस्मिताओं का विलोप हो जाएगा। हम सिर्फ और सिर्फ मनुष्य बनकर रहना पसंद करेंगे। यह तथ्य है कि जिस तरह मनुष्य हमेशा नर और मादा बनकर नहीं जीता, उसी तरह वह हमेशा हिंदू-मुसलमान बनकर जीना पसंद नहीं करता और न ही हर पल उसके लिए हिंदुस्तानी-पाकिस्तानी-ब्रिटिश बनकर जीना मुनासिब होता है। उसकी इंद्रीय और चेतना के स्तर और विस्तार उसके इस स्वरूप को तय करते हैं कि किस पलड़े में उसका कितना हिस्सा बीतता है। और मनुष्य होने या मनुष्य बने रहने या मनुष्य के रूप में उसका विकास भी इसी से तय होता है। दरअसल जीवन इसलिए है कि संवेदना है। और इसीलिए सभ्यता है। हमें यह मुगालता छोड़ देनी चाहिए कि सभ्यता इसलिए है कि हमारे पास उन्नत अर्थव्यवस्था और हाई फाई टेकनोलाजी है। ये सब तो एक न एक दिन संकट ही रचते है या युद्ध और संघर्ष के रूप में या फिर हादसों के रूप में तबाही रचकर।

2 टिप्‍पणियां: