ग्लैड्सन डुंगडुंग
(“उलगुलान का सौदा” नाम की किताब से चर्चित हुए ग्लैड्सन डुंगडुंग की कहानी से जनजातीय उत्पीड़न और विस्थापन का दर्द जाना जा सकता है। आवारा राजनीति और निर्बंध विकास के गल्ले से विस्थापन की पीड़ा नहीं सुनी जा सकती है। इसे विस्थापन के खिलाफ लड़नेवालों से जाना जा सकता है। यह वही सच है जिसे निराला ने ‘लोहे का स्वाद’ मे कहा है –
दुर्भाग्यवश, उनमें से 17 लोगों के लिए अपनी तरह की यह आखिरी बैठक साबित हुई। क्षेत्र से माओवादियों के खात्मे के नाम पर तैनात सीआरपीएफ की कोब्रा बटालियन व छत्तीसगढ़ पुलिस ने ग्रामीणों को चारों तरफ से घेरकर उन्हें कोई संकेत दिए बगैर अंधाधुंध गोलियां चला दीं। फलस्वरूप उनमें से 16 को छाती, सिर और शरीर के दूसरे भागों पर गोलियां लगीं और घटनास्थल पर ही उन्होंने दम तोड़ दिया तथा एक को दूसरी सुबह क्रूरतापूर्वक मार डाला। सुरक्षाबलों ने 18 नृशंस माओवादियों को मौत के घाट उतारने का दावा किया है और इस मौके को उन्होंने नक्सलविरोधी अभियान की एक बड़ी कामयाबी के जश्न के रूप में मनाया। इसी तरह केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने भी दावा किया कि सुरक्षाबलों ने छत्तीसगढ़ में शीर्ष नक्सल नेताओं को भून डाला और मुठभेड़ पर सवाल उठते ही उन्होंने सफाई देने की कोशिश की।
हालांकि, टीवी चेनलों और अखबारों में मुठभेड़ की ब्रेकिंग न्यूज चलने के साथ ही कहानी पूरी तरह से झूठी लगने लगी। तत्काल ही सभी के दिमाग में एक सवाल कौंध गया कि सीआरपीएफ कैंप से बमुश्किल तीन किमी की दूरी पर स्थित गांव में 18 शीर्ष माओवादी कैसे बैठक कर सकते हैं? अंततः बीजापुर मुठभेड़ की सचाई का खुलासा हो ही गया। छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के खिलाफ राज्यपोषित अपराध की अथक रिपोर्टिंग करनेवाले जांबाज पत्रकार अमन सेठी के प्रयास से एक बार फिर सुरक्षाबल के शीर्ष अधिकारियों, छत्तीसगढ़ सरकार व केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम की झूठ खुलकर सामने आ गई। उनकी रिपोर्ट के अनुसार, सुरक्षाबलों ने ग्रामीणों की शांतिपूर्ण जुटान पर गोलियां दागी। 12-15 वर्ष के पांच बच्चों समेत 20 ग्रामीण मारे गए और चार लड़कियों के साथ बदसलूकी की गई। खबर का सार यही था कि उस दिन उस गांव में कोई माओवादी नहीं था। आगामी बीजोत्सव को ले विचार-विमर्श के मद्देनजर सभी ग्रामीण एकत्र हुए थे, जब सुरक्षाबलों ने उनपर गोलियां चलाईं, जिसके परिणामस्वरूप पांच बच्चों समेत 20 ग्रामीण मारे गए।
(“उलगुलान का सौदा” नाम की किताब से चर्चित हुए ग्लैड्सन डुंगडुंग की कहानी से जनजातीय उत्पीड़न और विस्थापन का दर्द जाना जा सकता है। आवारा राजनीति और निर्बंध विकास के गल्ले से विस्थापन की पीड़ा नहीं सुनी जा सकती है। इसे विस्थापन के खिलाफ लड़नेवालों से जाना जा सकता है। यह वही सच है जिसे निराला ने ‘लोहे का स्वाद’ मे कहा है –
लोहे का स्वाद
उस लुहार से नहीं
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुंह में लगाम है।
नीचे दिया जा रहा पत्र उन्होंने छत्तीसगढ़ के बीजापुर
जिले के कोट्टेगुडा में आततायी राज्यसत्ता के सीआरपीएफ बर्बरता के बाद 10 जुलाई
2012 को केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम को लिखा था। आसपास के तीन गांवों से आए
ग्रामीण आगामी बीजोत्सव के आयोजन के लिए बैठक कर रहे थे। हिंदी मे उल्था कर इसे यहां दिया जा रहा है। डुंगडुंग झारखंड ह्यूमन राइट्स मूवमेंट (जेएचआरएम) के महासचिव है। लगातार पुलिस अत्याचार तथा जनजातीय मसलों पर लिख-बोल रहे हैं। 33 वर्षीय यह आदिवासी युवा योजना आयोग की उपसमिति का सदस्य है। ग्लैडसन डुंगडुंग देश के चर्चित
मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं।
- मोडरेटर।)
गृहमंत्री पी चिदंबरम के नाम ग्लैडसन डुंगडुंग का खुला पत्र
जुलाई 10, 2012
ग्लैडसन डुंगडुंग
झारखंडमिरर.ओआरजी
आदिवासी प्रकृति के साथ ही जीते और प्रकृति के साथ ही मरते
हैं। वे अति प्राकृतिक ईश्वर में विशावस करते हैं, इसीलिए सभी अवसरों पर वे
प्रकृति की पूजा करते हैं। आदिवासियों की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से कृषि और वन पर
निर्भर है, वह भी सर्वथा वर्षा पर आश्रित। इसीलिए खेती से पहले और बाद में ग्रामीण
एकत्र होकर अपने अति प्राकृतिक ईश्वर की प्रार्थना करते हैं। इन आदिवासी समुदायों
की सर्वथा सर्वसम्मति पर आधारित अपनी जनतांत्रिक व्यवस्था भी है, जो व्यवहारतः
ग्रामीण आयोजनों में दीखती है। इसी क्रम में छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिला के
कोट्टागुडा गांव में कोट्टागुडा, सरकेगुडा और राजपेंटा के ग्रामीण दिनांक 28 जून
2012 को परंपरागत उत्सव ‘बीजपेंडुम’ (बीजोत्सव) के
आयोजन की योजना के मकसद से एकत्र हुए थे, ताकि उत्सव आयोजित करने के बाद वे अपने
खेतों में बीज बोना शुरू कर सकें क्योंकि क्षेत्र में मौनसून आ चुका है।
दुर्भाग्यवश, उनमें से 17 लोगों के लिए अपनी तरह की यह आखिरी बैठक साबित हुई। क्षेत्र से माओवादियों के खात्मे के नाम पर तैनात सीआरपीएफ की कोब्रा बटालियन व छत्तीसगढ़ पुलिस ने ग्रामीणों को चारों तरफ से घेरकर उन्हें कोई संकेत दिए बगैर अंधाधुंध गोलियां चला दीं। फलस्वरूप उनमें से 16 को छाती, सिर और शरीर के दूसरे भागों पर गोलियां लगीं और घटनास्थल पर ही उन्होंने दम तोड़ दिया तथा एक को दूसरी सुबह क्रूरतापूर्वक मार डाला। सुरक्षाबलों ने 18 नृशंस माओवादियों को मौत के घाट उतारने का दावा किया है और इस मौके को उन्होंने नक्सलविरोधी अभियान की एक बड़ी कामयाबी के जश्न के रूप में मनाया। इसी तरह केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने भी दावा किया कि सुरक्षाबलों ने छत्तीसगढ़ में शीर्ष नक्सल नेताओं को भून डाला और मुठभेड़ पर सवाल उठते ही उन्होंने सफाई देने की कोशिश की।
हालांकि, टीवी चेनलों और अखबारों में मुठभेड़ की ब्रेकिंग न्यूज चलने के साथ ही कहानी पूरी तरह से झूठी लगने लगी। तत्काल ही सभी के दिमाग में एक सवाल कौंध गया कि सीआरपीएफ कैंप से बमुश्किल तीन किमी की दूरी पर स्थित गांव में 18 शीर्ष माओवादी कैसे बैठक कर सकते हैं? अंततः बीजापुर मुठभेड़ की सचाई का खुलासा हो ही गया। छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के खिलाफ राज्यपोषित अपराध की अथक रिपोर्टिंग करनेवाले जांबाज पत्रकार अमन सेठी के प्रयास से एक बार फिर सुरक्षाबल के शीर्ष अधिकारियों, छत्तीसगढ़ सरकार व केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम की झूठ खुलकर सामने आ गई। उनकी रिपोर्ट के अनुसार, सुरक्षाबलों ने ग्रामीणों की शांतिपूर्ण जुटान पर गोलियां दागी। 12-15 वर्ष के पांच बच्चों समेत 20 ग्रामीण मारे गए और चार लड़कियों के साथ बदसलूकी की गई। खबर का सार यही था कि उस दिन उस गांव में कोई माओवादी नहीं था। आगामी बीजोत्सव को ले विचार-विमर्श के मद्देनजर सभी ग्रामीण एकत्र हुए थे, जब सुरक्षाबलों ने उनपर गोलियां चलाईं, जिसके परिणामस्वरूप पांच बच्चों समेत 20 ग्रामीण मारे गए।
3 तथा 4 जुलाई 2012 को जेपी राव, कोपा
गुंजम तथा डा. नंदिनी सुंदर के तीन सदस्यीय तथ्यान्वेषी दल द्वारा कोट्टागुडा,
सरकेगुडा तथा लिंगागिरि गांवों के दौरा के बाद की रिपोर्ट ने और भी दहलानेवाले
तथ्यों का खुलासा किया। रिपोर्ट के अनुसार इन गांवों पर 2005 में सलवा जुड़ुम
मिलिशिया द्वारा हमले हुए थे तथा तीनों गांवों के लगभग सभी घर फूंक दिए गए थे।
फलस्वरूप सभी ग्रामीण आंध्र प्रदेश पलायन कर गए थे और वर्ष 2009 में ही फिर अपने
गांव आ सके। सुरक्षाबलों ने दुबारा उनपर हमला कर 7 नाबालिग समेत 17 लोगों को मार
डाला। इसके अलावे 9 ग्रामीण जख्मी हुए और पांच महिलाओं के साथ मारपीट और बदसलूकी
गई।
पोल-पट्टी खुलने के बाद केंद्रीय गृहमंत्री तथा ‘आपरेशन ग्रीन हंट’ के शिल्पकार पी चिदंबरम ने निर्दोष ग्रामीणों की
हत्या पर ‘गहरा शोक’ जताया। एक हठभरा सवाल रह जाता है कि 17
आदिवासियों की नृशंस हत्या पर ‘खेद’ कह देना भर काफी
है क्या ? दूसरा, कि इस
मामले में राजनीतिक दलों खासकर विपक्षी पार्टी भाजपा चुप क्यों है ? क्या 17 निर्दोष गैर आदिवासियों की
जघन्य हत्या पर वह ऐसा ही सलूक करतीं ? कांग्रेस शासित
राज्य में ऐसी ही घटना होने पर क्या भाजपा चुप रह जाती ? बेगुनाह आदिवासियों के नरसंहार के लिए
कौन जिम्मेवार है ? क्या पी चिदंबरम
इसके लिए जिम्मेवार नहीं हैं जो क्षेत्र से माओवादियों के खात्मे के नाम पर वर्ष
2009 से सुरक्षाबलों की तैनाती करते रहे हैं ?
सीआरपीएफ महानिदेशक विजय कुमार यह कह कर
बेशर्मी से सुरक्षाबलों के आपराधिक कृत्य का औचित्य सिद्ध करते हैं कि यह जानना
नामुमकिन था कि उस रात वे (सुरक्षा बल) गोलियां किन पर चला रहे थे। आगे वह कहते
हैं कि वह क्षेत्र एक ‘बड़ा ही रहस्यमय
संसार’ है, जहां कौन नक्सल है और कौन नहीं यह
चिह्नित कर पाना नामुमकिन है। इसलिए यह सवाल उठाया जा सकता है कि उन ग्रामीणों को
सुरक्षाबलों ने क्यों भूना जिनको लेकर वे आश्वस्त नहीं थे कि वे कौन हैं ? किसने उन्हें बेगुनाह ग्रामीणों पर गोली
चलाने का हुक्म दिया ? क्या सुरक्षाबल
महज शक के बिना पर किसी पर भी गोली चला सकते हैं ? घटना की जांच के लिए नियुक्त एसडीएम
कुरुवंशी ग्रामीणों से पूछते हैं कि उन्होंने रात को बैठक क्यों की ? वे (कुरुवंशी) गांव भी नहीं जाते हैं और
अपने दफ्तर में ही ग्रामीणों को बुलाते हैं, जो स्पष्टतः इंगित करता है कि राज्य
का इरादा न सिर्फ आदिवासियों को न्याय में देर करना है, बल्कि यह भी स्पष्ट है कि उनके
खिलाफ राज्यपोषित अपराध जारी रहेगा।
तहलका संपादक शोमा चौधरी ने अपने स्तंभ ‘एडिटर कट’ में बेहद
महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है कि बस्तर का जीवन इतना सस्ता क्यों है ? इस सवाल का सीधा सादा जवाब है कि चुंकि
भारतीय राज्य अमूमन यह विश्वास करता है कि देशभर में जंगल में रहनेवाले आदिवासी
माओवादी या नक्सली हैं, जो कि ‘निवेश के वातावरण’ के लिए सबसे बड़ी
चुनौती है। भारत के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह इसके नागरिकों के
प्रति संवैधानिक दायित्व की अपेक्षा हमेशा ही ‘निवेश के वातावरण’ को लेकर परेशान
रहते हैं। दरअसल भारतीय राज्य ने किसी भी कीमत पर आदिवासी क्षेत्रों के संसाधनों
पर कब्जादारी करने का तय कर लिया है, जो कि भारत के महाशक्ति बनने का मार्ग
प्रशस्त करेगा। इसीलिए विकास और प्रगति के नाम पर जल, जंगल, जमीन और अन्य संसाधन
भारतीय राज्य को सौंपने से इनकार कर चुके आदिवासियों की हत्या करने के लिए वन
क्षेत्रों में सुरक्षाबलों की तैनाती की गई है।
हालांकि, जैसे ही हम फर्जी मुठभेड़ पर सवाल उठाते हैं, तो
हम से प्रतिप्रश्न किया जाता है कि माओवादियों द्वारा सुरक्षाबलों की हत्या पर हम
चुप क्यों रहते हैं ? इस सवाल का जवाब
दूसरे सवाल में मिल सकता है, जब गत साठ सालों में जिन जंगलों में वे नहीं पहुंच
सके, तो उन जंगलों में अब भारतीय राज्य सुरक्षा बलों को क्यों भेज रहा है ? क्या ग्रामीणों की सुरक्षा के लिए या
फिर खनिज की लूट को आसान करने के लिए ? यदि भारतीय जनता
की सुरक्षा के लिए सुरक्षाबलों को वहां भेज जाता है तो फिर वही सुरक्षा बल बेगुनाह ग्रामीणों की रक्षा के बजाए उनकी हत्या, उनका
उत्पीड़न व महिलाओं से बलात्कार क्यों करता है ? आखिर किसकी सुरक्षा के लिए वनों में सुरक्षा बल तैनात किए
जाते हैं ? क्या सच यह नहीं
है कि वनक्षेत्रों में सुरक्षाबलों की तैनाती जनता को बचाने की बजाए कारपोरेट हित
की रक्षा के लिए की जाती है ?
बौद्धिक तर्क चाहे जो भी हो, लेकिन सचाई
है कि वर्ष 2009 के बाद नक्सलविरोधी अभियान के नाम पर देश भर में सैकड़ों बेगुनाह
नागरिकों की हत्या की गई है, लेकिन आज तक एक भी प्रमुख जांच नहीं बैठी। इसलिए
कारपोरेट गृहमंत्री पी चिदंबरम को हर हाल में इस्तीफा दे देना चाहिए, सारतः
क्योंकि छत्तीसगढ़ के कोट्टागुडा, सरकेगुडा और राजपेंटा के बेगुनाह 17 आदिवासियों
समेत सभी बेगुनाह ग्रामीणों की जघन्य हत्या के एकमात्र जिम्मेवार वे ही हैं। पी
चिदंबरम से सवाल पूछा जाना चाहिए कि 17 बेगुनाह लोगों की बेशकीमती जान ले लेने के
बाद ‘खेद’ भर कह देना काफी है क्या ? क्या नक्सलविरोधी अभियान के नाम पर देश
भर में हुए फर्जी मुठभेड़ों के मामलों में वे सीबीआई जांच करवाएंगे ? और क्या बेगुनाह नागरिकों की हत्या करने
के लिए वे शीर्ष सैन्य अधिकारियों को दंडित करेंगे या फिर इस जुर्म से रियायत पर
मस्ती करने देंगे ? याद रखिए, पर चिदंबरम
साहब हिरन आपके ही दरवाजे रुकेगा!
वाहियात यह वित्तमंत्री, गृहमंत्री भी फेल है |
जवाब देंहटाएंकीमत मत पूछो निर्दोषों, जान तुम्हारी खेल है-
यह लुन्गीवाला मिल लूटे, राजा रानी साथ में
संसद में स्थान नहीं है, सही जगह तो जेल है ||
आप की चर्चा यहाँ भी है-
जवाब देंहटाएंhttp://dineshkidillagi.blogspot.in/2012/08/blog-post_3630.html