हमसफर

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

साख में सुराख !

अन्ना के लिए अब चौकन्नेपन की जरूरत

आंदोलन का खर्च कहां से आया, जांच हो : दिग्विजय सिंह

केवल लोकपाल से भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होगा। - कपिल सिब्बल, केंद्रीय मंत्री
जितनी मर्जी हो लोकपाल बना लो भ्रष्टाचार बिल्कुल ही नहीं समाप्त होगा। जिसने भूख हड़ताल की है चाहे उसे लोकपाल बना दो तो भी कुछ नहीं होगा। - प्रकाश सिंह बादल, पंजाब के मुख्यमंत्री
आखिर संसद में तो आना ही है। - रामपाल यादव, समाजवादी पार्टी सुप्रीमो पुत्र सांसद
क्या हजारे महात्मा गांधी, जेपी या गौतम बुद्ध से भी बड़े हैं, जो राजनेताओं को बुरा बता रहे हैं। केवल राजनेताओं को कोसने से देश का सिस्टम नहीं बदल सकता। - अमर सिंह
भाजपा ने ही भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे पहले मुहिम छेड़ी थी– राजनाथ सिंह,वरिष्ठ भाजपा नेता
हाल के दिनों में नेताओं के खिलाफ जिस तरह से मुहिम चलाई जा रही है वह लोकतंत्र के खिलाफ है। नेताओं के खिलाफ जो लोग शक का वातावरण बना रहे हैं वह लोकतंत्र का अपमान कर रहे हैं। - आडवाणी
अगर नेता अपनी जिम्मेदारी अच्छी तरह से निभाते तो उन्हें आंदोलन करने की जरूरत नहीं पड़ती – अन्ना

हम बात शुरू करते हैं 10 अप्रैल 2011 को केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के उस बयान से जिसमें उन्होंने बिल पास कराने में भाजपा से पुरजोर सहयोग की अपील की है। उन्होंने कहा कि यदि विपक्ष सहयोग करता है तो संप्रग सरकार संसद के अगले सत्र में लोकपाल विधेयक पेश करने और पारित करने को तैयार है। संसद के अगले सत्र में लोकपाल विधेयक पारित करने की आडवाणी की मांग पर उन्होंने यह बात कही थी। उन्होंने कहा कि मैं वास्तव में इस सुझाव का स्वागत करता हूं। यदि वह (आडवाणी) अपने सदस्यों को राजी कर लेते हैं तो हमें इसे बिना स्थाई समिति के पास भेजे पारित करने में खुशी होगी। लेकिन किसी मंच से घोषणा करने के बदले यह सुनिश्चित करें कि लोकसभा और राज्यसभा में उनके सदस्य हमारे साथ सहयोग करें। यह उस कांग्रेस का स्वर है जिस कांग्रेस के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान की सफलता लोकतंत्र के लिए प्राणदायक है, बल्कि उसके लिए अब मसला हो गया है कि अभियान कैसे और क्यों सफल हुआ। आखिर अभियान में हुए खर्च की जांच की मांग क्यों।

लोकपाल विधेयक को नाकाफी माननेवाले मंत्री कपिल सिब्बल वाली सरकार में ही वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी यदि भाजपा से उम्मीद करते हैं कि वह बेखटके बिल को पारित कराने में आंख मूंद कर मदद करे तो यह उनका अबोध भोलापन ही होगा कि श्रेय की लड़ाई में वह (भाजपा) सबसे पीछे रहना कबूल ले। यह वही सिब्बल हैं जिन्हें आईटी मंत्री बनने के बाद 2 जी स्कैम में कुछ दीखा ही नहीं, आरोप फिजूल लगे। समिति में उनकी शिरकत एक सियासी एजेंडे को पूरा करने के लिए किया गया नहीं लगता है क्या।
अपनी सदिच्छा जो भाजपा यह बोल कर प्रकट कर रही हो कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम पहले उसी ने शुरू की थी और अन्ना का रुख लोकतंत्र विरोधी और लोकतंत्र के लिए अपमानजनक है। आडवाणी यह इसलिए कह रहे हैं क्योंकि उनके अनुसार सिर्फ नेता ही लोकतंत्र के वफादार सिपाही हैं और उन्हीं से लोकतंत्र की पहचान है। नेता का अपमान यानी लोकतंत्र का अपमान। क्या जिस अमर सिंह के वे धुर विरोधी हैं उनसे उनका सुर नहीं मिलता जो कहते हैं कि नेताओं को गाली देने से सिस्टम नहीं बदल सकता। यह रुख किस सियासी पार्टी से नहीं मिलता। तुर्रा यह कि कांग्रेस नुकसान की भरपाई इसी भाजपा के सहयोग की बदौलत करने की सोच रही है। सवाल यह है कि वह आडवाणी या भाजपा को नहीं जानते कि वह अन्ना के अभियान के प्रति क्या रुख रखते हैं। वे जानते हैं कि भाजपा मदद को सामने आ नहीं सकती तो क्यों न गेंद उसीके पाले में दे दें। आजमाना जरूरी ही था तो सरकार प्रारूप समिति में भाजपा के जिम्मेवार-समझदार कानूनविदों को जगह तो देकर देखती। आखिर पं. नेहरू ने संघ के श्यामाप्रसाद मुखर्जी को मंत्रिमंडल में रखा था या नहीं। यह अलग बात है कि उसी कांग्रेस पर उन्हें मार डालने के भी आरोप हैं।
समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो पुत्र सांसद अखिलेश यादव हों या राजद सांसद रघुवंश प्रसाद सिंह, वे इस बिल के संसद में आने का इंतजार कर रहे हैं। जैसे इसे पारित करना और लंबित करना उनके बस में हैं। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के तारीक अनवर व नवाब मलिक की खीझ तो फिर भी समझी जा सकती है कि अन्ना मसले पर विचार के लिए बने ग्रुप औफ मिनिस्टर से उनके सुप्रीमो को न सिर्फ इस्तीफा देना पड़ा था, बल्कि नौबत तो सरकार से इस्तीफे की मांग तक आ जाती। सियासी पार्टियों का दावा है कि वे एक अदना सा चुनाव लड़कर दिखा दें। जैसे लोकतंत्र पर भरोसा साबित करने के लिए चुनाव का बिल्ला लगाना जरूरी हो गया है। इस तरह तो सवा अरब की आबादी में लोकतंत्र पर सबसे अधिक भरोसा रखनेवालों में वे 300 करोड़पति और 150 अपराधी सबसे आगे आएंगे जो आज संसद में कुंडली मार कर बैठे हैं। जिस तंत्र ने पूंजीपति-अपराधी को संसद में आसानी से प्रवेश कराया है उस भ्रष्ट चुनाव प्रणाली पर उनका भरोसा उन्हें इतना लाऊड कर रहा है तो आश्चर्य क्या। अन्यथा क्या बिसात कि वे अन्ना को एक वार्ड का भी चुनाव लड़ने को ललकारते। ऐसा लगता है जैसे चुनाव रूपी ब्रह्मा ने रक्तबीजरूपी नेताओं को अमरता का वरदान दे दिया है और उनका खून भी कहीं गिरेगा तो वह सांसद-विधायक ही होगा। आखिर हो भी यही रहा है कि नेता पिता या पति के मर जाने पर पत्नी-पुत्र नेता चुन लिए जाते हैं। क्या वे नहीं जानते कि इस जनतंत्र में लोकप्रियता और चुनावी सामर्थ्य दोनों एक नहीं। जिन लोगों ने कलाम को दुबारा राष्ट्रपति बनने से रोका, उन्हीं की जमात ने शेषण जैसे व्यक्ति के लिए संसद में प्रवेश सपना कर दिया। क्या वे नहीं जानते कि करोड़ों दिलों पर राज करनेवाले सचिन किसी क्षेत्र विशेष से अपने दम पर कोई चुनाव शायद ही जीत पाएं जब तक कि इस राजनीति को वे गवारा न हों। क्या इस बिना पर उनकी हैसियत घट जाएगी। किसी टुच्चे नेता से भी वे गए-बीते हो जाएंगे। क्या 150 अपराधी-300 करोड़पति को संसद में पनाह देनेवाली यही राजनीति यदि चरित्र-साधना, अभियानी जुनून की हिफाजत का पैमाना इस चुनाव को बनाएगी। क्या वे बताएंगे कि इस चुनावी पैमाने पर कितने पद्म सम्मान और भारत रत्न दिए जाते हैं।
अभियान को व्यर्थ बतानेवाले यह बखूबी जानते हैं कि एकबार अन्ना अपने मुहिम में सफल हो गए तो पब्लिक उन्हें कहीं का नहीं छोड़ेगी। ऐसे में सुर्खाब के इस पर को उड़ने के पहले ही कतर दिया जाना चाहिए। यही कारण है कि विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए होनेवाली चर्चा की रिकार्डिंग के प्रस्ताव का विरोध किया गया है।
तात्कालिक सरोकारों में लिपटी सत्ता की राजनीति को इसका अंदाजा नहीं कि अन्ना को जनतंत्र के लिए नया खलनायक साबित करने की कोशिश उन्हें कितनी महंगी पड़ सकती है। अपने निकम्मेपन और सड़ांध को छिपाने के लिए की जा रही मरहमपट्टी और भी सड़ांध बढ़ाएगी। लेकिन यह जरूरी होगा कि अन्ना अभियान से लोगों को जोड़ने में सतर्कता बरतें और जवाबी वार से बचें। अन्यथा न जाने वाकपटु नेता किस शब्दजाल में उन्हें उलझाकर अभियान को मोड़ने या डाइल्यूट करने का काम करने लगें।
भ्रष्ट नेता, मंत्री, अधिकारी को फांसी पर चढ़ाए जाने की बात जिन्हें कड़वी लगी उनमें कोई नेता अकेले नहीं। योग गुरू स्वामी रामदेव को भी कम मिर्ची नहीं लगी। उन्हें लग रहा कि कालेधन की देश में वापसी और भ्रष्टाचार को लेकर उनका देश भर में छेड़ा गया अभियान फिस्स कर गया। करोड़ों भक्तों और योग विश्वासियों को उन्होंने अपनी जेब का सिक्का मान लिया था तभी तो उन्हें यह मुगालता हो गया था कि अब वे मुल्क पर छा जानेवाली पार्टी बनाकर सत्ता पर दुग्धधवल छवि के लोगों को बिठा देंगे। योग को लेकर जुटे सारे भक्त जैसे उनकी जेब के सिक्का हों बस उस जेब से इस जेब में डालना भर है। उन्हें यह समझना चाहिए कि लाखों की भीड़ एकत्र करनेवाले रामदेव ऐसा मंजर क्यों पैदा नहीं कर सके। स्वामीजी, दरअसल अपने शिविरों व दवा दुकानों में जानेवाले बीमार श्रद्धालुओं से कालेधन व भ्रष्टाचार विरोधी अभियान का संकल्प पत्र भरवा लेने से आंदोलन नहीं हो जाता। जिस योग को कहा जाता है कि यह चित्त-वृत्तियों का निरोध है (योगश्चित्तवृत्ति निरोधः- पतंजलि सूत्र) क्या उन्होंने सूत्र को इसी रूप में रहने दिया है? क्या सार्वजनिक स्थलों पर योग का प्रदर्शन कर वे भीड़ को ध्यान की ओर अग्रसर कर पा रहे हैं या यह काम वह अपनी सीडी से कर-करवा रहे हैं। क्या योग आसक्ति और लिप्तताएं पैदा करता है ! अपनी उम्र का सारा हिस्सा जिस किरण बेदी ने निर्लिप्त – निष्काम भाव से बेहद मर्यादित ढंग से जिम्मेवारियां निभाने में बिताया, कहीं भी कोई लस्ट नहीं रहा, न ही दिखा, उस किरण बेदी तक को असंतोष से भर भटकाने का प्रयास किया उन्होंने। लेकिन जब योगबाबा रामदेव उनसे प्रारूप समिति में शामिल नहीं किए जाने की कैफियत मांगते हैं तो क्या इसे उनमें आसक्ति-असंतोष-क्षोभ की किरण जगाने की कोशिश के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। साफ शब्दों में क्या नहीं कहें कि जो किरण उनके प्रति भी श्रद्धावान रहीं, उनकी नजर में उस श्रद्धा को खोने का काम नहीं कर रहे। यह तो उन किरण बेदी की श्रेष्ठता है कि उन्होंने कहा कि समिति में कौन शामिल होगा, नहीं होगा यह उनका मसला नहीं। यह तय करनेवाली वह कोई नहीं होतीं। उनका मकसद तो सिर्फ अभियान को मुकाम तक ले जाने का था, उसमें वह लगी रहीं। और काम उसी दिशा में हो रहा है। बाबा कहते हैं कि 121 करोड़ लोगों की श्रद्धा का सवाल है यह। जिस भ्रष्टाचार ने समाज में जड़ जमा ली है उस समस्या को बाबा कहते हैं कि यह सोशल प्राब्लम नहीं, पालिटिकल प्राब्लम है। क्या उनका इशारा इस ओर तो नहीं कि स्वैच्छिक संस्थाओं को इससे दूर रखा जाए। 
जो हवा बन रही है वह अन्ना की राह में नए झंझावात पैदा करने की कोशिश करनेवाली है। वे नहीं जानते कि क्षुद्र और टुच्चे तात्कालिक कारणों से अभियान में शामिल लोगों में यदि फूट डालने की कोशिश हुई तो संसद में बैठे 300 से अधिक करोड़पति और 150 से अधिक आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग क्या इसे आसानी से पचा लेंगे ? जो संविधान इतनी जटिलताओ को पोषित कर रहा है, उसके लिए बनी संविधान सभा का स्वरूप देखेंगे तो आपको आज की स्थिति का हस्र समझ में आ जाएगा। यह सभा उन प्रान्तीय विधानमंडल के सदस्यों से बनी थी, जिनका चुनाव देश की कुल वयस्क आबादी के मात्र 11.5 प्रतिशत हिस्से से बने निर्वाचक मण्डल से हुआ था। मुट्ठी भर चुने गये प्रतिनिधियों को छोड़ बाकी समृद्ध सामंतों-कुलीनों के नुमाइंदे थे। इनमें चुने गये नुमाइंदों के अलावे उसमें राजाओं-नवाबों के चुने गए नुमाइंदे भी थे। हमें तभी सोचना चाहिए था कि वे कैसा संविधान बनाएंगे। क्या आज की संसद इससे अलग है? क्या एक बार फिर संविधान पर  गौर करने का वक्त नहीं आ गया है। यह साबित करना होगा कि यह लड़ाई का एक अध्याय है पूरी किताब बाकी है। आमूल बदलाव की लड़ाई जब कभी भी होती है तो यथास्थितिवादियों के लिए यह बेहद असुविधाजनक वक्त होता है। जिस तरह शोषण बढ़ने पर सामंतों के प्रति क्षोभ-असंतोष को बड़े फलक पर संघनित-एकत्र होने का अवसर लाता है, कुछ उसी तरह बदलाव का प्रहार जितना कठोर होगा यथास्थितिवादियों में एकजुट होने की विकलता भी उतनी ही अधिक होगी। अपनी हैसियत और औकात को छोड़ अवाम के साथ होना उनके लिए आसान नहीं। यह शत्रु वर्ग को चिह्नित कर अभियान को जारी रखने का वक्त है और कठोर वक्त है। एक तरह से सत्ता पक्ष, विपक्ष सभी अपनी एकजुटता से अन्ना हजारो को मुगालते पालने से दूर रह अगली रणनीति बनाने को मजबूर कर रहे हैं।

अथ मुख्य आर्थिक सलाहकारोवाच -

अब थोड़ा हाकिमों के हलके में झांककर देख लेना दिलचस्प होगा कि उनपर क्या लोट रहा है। वे किस तरह इस अभियान को अभी से नाकाम करने की जुगत भिड़ाने में लगे हैं। वे बड़े ही साजिशन सोचते हैं कि आप निर्णय ही नहीं लेंगे तो गलती की संभावनाएं नहीं होगी। उनका मानना है कि आरटीआई और लोकपाल को प्रभावी बनाने के लिए व्यापक पैमाने पर प्रशासनिक सुधार को अंजाम देकर ही भ्रष्टाचार पर काबू पाया जा सकता है। भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु घूस को संस्थागत रूप देने की सलाह देते हैं। पिछले दिनों बिजनेस स्टैंडर्ड के साथ एक बातचीत में उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार संबधी कानूनों में उत्पीड़न के जरिए ली जानेवाली रिश्वत तथा प्रणालीगत रिश्वत में अंतर किया जाना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट करते हुए कहा कि आम नागरिकों को वैधानिक सेवा के एवज में ली गई रिश्वत ही उत्पीड़न वाली रिश्वत है। ये बातें तब सामने आ रही हैं जब अन्ना हजारे का अभियान अपने चरम पर है।
उन्होंने उदाहरण से इसे और स्पष्ट किया – देश के अनेक नागरिकों को ड्राइविंग लाइसेंस के लिए रिश्वत देनी होती है। यह रिश्वत नहीं देने पर भी लाइसेंस मिलेगा तो जरूर, पर अनावश्यक विलंब से। ऐसे मामले में कानून की प्रवर्तक संस्थाओं को श्री बसु की सलाह है कि रिश्वत देनेवाले को आरोपी के रूप में नहीं देखना चाहिए। इस बाबत उपचारात्मक उपायों पर विचार करना चाहिए। सिर्फ प्रणालीगत रिश्वत के मामलों में ही रिश्वत लेने और देनेवालों को आरोपी बनाना चाहिए। क्योंकि ऐसी रिश्वत से व्यवस्था को तोड़ने-मरोड़ने और वित्तीय अनुग्रह हासिल करने की कोशिश की जाती है। 

1 टिप्पणी:

  1. यह जनाकांक्षाओं से उपजी व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई है. भारत में ऐसी लड़ाई की अगुवाई के लिए हमेशा एक राजनैतिक संत की ज़रूरत पड़ती है. अन्ना हजारे उस भूमिका में आ चुके हैं. जनता उन्हें अपना नायक मान चुकी है. अब व्यवस्था के पोषकों की छटपटाहट स्वाभाविक है लेकिन जो परिवर्तन की आंधी करवट ले रही है उसे वे कबतक रोक सकेंगे...? जितनी कोशिश करेंगे उतनी ही रफ़्तार तेज़ होगी.
    ----देवेंद्र गौतम

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