हमसफर

बुधवार, 1 सितंबर 2010

माओ के बाद

इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या, वर्ग चेतना, वर्ग संघर्ष और सर्वहारा का अधिनायकवाद जैसे सिद्धांतों पर प्रतिष्ठित मार्क्सवाद से दुनिया भर के मजदूरों को एक करने का आह्वान फूटता है। सही भी है। इनके शोषण उत्पीड़न की ज़ड़ में जिस सामंतवाद का खाद पानी है, उसीसे राज्य सत्ता विकसित हुई है। लेकिन क्या फटी और कमजोर आवाज पर ये एकजुट हो सकेंगे। किसी भी मुल्क में एक मार्क्सवादी पार्टी नहीं जिसे प्रातिनिधिकता हासिल हो। सभी मुल्कों की वामपंथी पार्टिय़ां बिखरी हुई हैं।
शोषण के कारकों को चिह्नित करते हुए मजदूर में चेतना लाने की बात करनेवाले यह बताएंगे कि उनकी चेतना कितनी प्रगतिशील है? जर्मनी से इंग्लैंड गए मार्क्स को वहां एंगेल्स मिलता है। रूस जाने पर उसे लेनिन मिलता (मिलते तो कई हैं, पर प्रतीक एक ही बन पाता है) है। चीन आने पर उसे माओ मिलता है। पर भारत आने पर उसे क्या मिलता है ? जिस एमएन राय को दूसरे कामिंटर्न में लेनिन के साथ काम करने का मौका मिलता है। जिसने भारतीय मार्क्सवादी पार्टी का बिरवा बोया था, उसे ही बर्दाश्त नहीं कर पाया। हमारे दौर के प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक कामरेड एके राय को उनकी पार्टी पचा नहीं पाई।
आखिर ऐसा क्या हुआ कि भारत में मार्क्सवाद के साथ कोई एक अनिवार्य नाम नहीं जुड़ पाया। भारतीय मार्क्सवाद के लिए सम्मान, भरोसे से दुनिया भर में प्रचलित कोई नाम नहीं मिलना क्या भारतीय यह वाम का अविकास तो नहीं ? जिस वर्गीय चेतना के विकास और पहचान से मार्क्सवाद के फलने-फूलने को खाद-पानी मिलता है, कहीं वही तो यहां सिरे से गायब नहीं ? जाति और वर्ग के द्वंद्व में उलझा वाम इसे कब सुलझा पाएगा ? मालथस के सिद्धांत को पानी पी-पीकर गाली देनेवाले वामपंथी कब अपने गिरेबान में झांकेंगे ? गैरकांग्रेसवाद से उपजा समाजवाद (लोहियावाद) जाति के द्वंद्वों में सिमटकर रह जाता है तो गैर भाजपावाद के लिए सेकुलरवादी एजेंडा को लेकर एकत्र वाम के पास इस्लामी आतंकवाद की काट में कोई जवाब नहीं है।
यदि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है तो क्या सत्ता हासिल करने के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर उग्रवामपंथियों की कोई भूमिका नहीं बचती है सिवाए हिंसा के? देखने की बात यह है कि इस उत्पात में जिसकी बलि होती है वह इस सत्ता प्रतिष्ठान में क्या हैसियत रखता है ? गिरिडीह के भेलवाघाटी-चिलखारी से लेकर असम-उड़ीसा-आंध्रप्रदेश के जंगलों व देहातों में मारे गए निरीह भोले ग्रामीण-आदिवासी सामंतवाद पोषित सत्ता प्रतिष्ठान में क्या हैसियत रखते थे ? इनके खात्मे से उनकी लड़ाई ने कौन सा मुकाम हासिल कर लिया। भ्रष्टाचार की शक्ल पिरामिड की होती है। ऊपर में बैठा एक आदमी नीचे की कतार के हजारों – लाखों को अपने प्रभाव में रखता है। क्या मुल्क के बड़े कारपोरेट घराने, भ्रष्ट मंत्री-नेता भ्रष्टाचार की इस कड़ी में कोई जगह नहीं रखते ? क्या उन उग्र कामरेडों (नक्सलियों) को इनसे कोई शिकायत नहीं। मारे गए महतो, गंझू, मंडल ही शोषण मूलक समाज के पोषक हैं और मुल्क के बड़े कारपोरेट घराने, भ्रष्ट मंत्री-नेता इनकी जागीर हैं। क्या इनके मारे जाने से मुल्क के बड़े कारपोरेट घराने, भ्रष्ट मंत्री-नेता की पकड़ सत्ता के विभिन्न मठों-पीठों पर ढ़ीली पड़ने लगी है ? कामरेड बताएं कि गृह मंत्री पी चिदंबरम के लालगढ़ चार अप्रैल 2010 के दौरे के बाद लालगढ़ (पश्चिम बंगाल) में दस जवान और पांच अप्रैल 2010 को दंतेवाड़ा (छत्तीसगढ़) में 76 जवानों की हत्या कर इस लड़ाई को कितना आसान कर लिया।
यह मानता हूं कि वर्गशत्रु के सफाए के बगैर समाज को संदेश देना आसान नहीं। पर सफाए का तौर तरीका अपने लोगों के बीच आतंक और अविश्वास बना रहा है या संवेदना के तार मजबूत हो रहे हैं। आखिर नक्सलबाड़ी के बाद से कामरेडों ने कितने शोषक कारपोरेट घरानों, भ्रष्ट मंत्रियों व बेईमान बड़े अफसर-नेताओं का सफाया किया है। क्या लड़ाई की उनकी प्रकृति से इसका अंदाजा मिलता है कि वे कैसे समाज के लिए, कैसे समाज की रचना के लिए विकल हैं। उस समाज के नागरिक कौन होंगे। कम से कम मारे जानेवाले निहत्थे, निरीह, भोले आदिवासी, ग्रामीण तो नहीं होंगे। वे जो समाज बसाएंगे वह किनके रहने-बसने के लिए होगा। आखिर उनके सपनों का कोई खाका तो होगा ?
ऐसे कामरेडों से जब भी मेरी बात होती है तो ऐसे सवालों पर वे लड़ाई को दो धड़े में बंटा बताते हैं। एक समझदारों की लड़ाई और दूसरा धड़ा गैरसमझदारों के हिस्से में बताते हैं। आखिर गैरसमझदारों पर उनका अंकुश नहीं, तो फिर आंदोलन को कहां ले जाना चाहते हैं।

मैं यह मानता हूं कि वर्गशत्रु के सफाए के लिए कई बार हथियार उठाना जरूरी हो जाता है और ऐसे में जब आप हमला करते हैं तो भीड़ गांधी बनकर आपको नहीं देखेगी, यह भी सच है। ऐसे में आत्मरक्षा में आपको आतंक फैलाना पड़ता है, क्यों आपको बचकर निकलना भी है। लेकिन ऐसा कैसे होगा कि जिस वर्गशत्रु को आपने निशाना बनाया है, वही चूक जाए। ऐसी चूक एक बार होगी, दो बार होगी। बार-बार नहीं होगी। और जब बार-बार होगी तो इस बिंदु पर सोचना होगा कि ऐसी चूक क्यों हो रही है ? कहीं यह योजना से ही बाहर तो नहीं या योजनाबद्धता की कमी तो नहीं? एक साम्राज्यवादी सेना की टुकड़ी जब किसी गैर मुल्क में हमले की योजना बनाती है तो इसके पूर्व वह एक गणना करती है कि एक शत्रु के सफाए से कितने नागरिक का नुकसान होगा। नागरिक नुकसान की एक सीमा उन्होंने तय कर रखी है। इस सीमा का आकलन सही हुआ तब तो वह हमला करती है, अन्यथा इसे वह मुल्तवी करती है। लेकिन समतामूलक समाज की स्थापना के लिए शोषण मुक्त करने की जंग में उतरे हमारे कामरेड अपने वर्गशत्रु और अपने लोगों के बीच कैसा फासला रखते हैं। अमूमन वे जिनसे रसद पानी लेते हैं उन्हीं जैसों का सफाया भी करते हैं। और रसद पानी भी आतंक के बल पर।
दूसरी बात खून-खराबे की इस लड़ाई के गुरिल्ले दस्ते में मारे-जानेवाले लोग महतो, गंझू, माझी जैसे निरीह ही होते हैं, मिश्रा, प्रसाद, झा, चक्रवर्ती नहीं होते। जो मारे जाते हैं उनके पैरों में हवाई चप्पल भी होती है तो फटी-पुरानी, टायर की। कपड़े भी होते हैं चिथड़े से कम नहीं। क्या इनकी शिक्षा मार्क्सवाद की कक्षा में हुई होती है। क्या वे विचारधारा की लड़ाई में शामिल लोग हैं या फिर कैरियर (रसद ढोनेवलाले, हथियार ढोनेवाले, ङथियार चलानेवाले), जिन्हें एवज में कुछ पैसे दे दिए जाते हैं।
शिक्षा को सलाम, विकास को सलाम – कुछ इलाकों में कामरेडों ने स़ड़क का निर्माण बाधित कर रखा है तो कुछ इलाकों में विद्यालय का निर्माण। कहीं-कहीं तो पूरे भवन को ही उड़ा दिया है। कहा जाता है लेवी के कारण। जड़ में जो भी हो। अभी लालगढ़ में हिंसा के अलावा लूट का भी जिक्र मिला है। क्या माओ ने ऐसे किसी भी आंदोलन के लिए एक भी शब्द कहा है ? माओ ने जो भी कहा है उन्हीं के शब्दों में हू ब हू देखिए और आत्ममंथन कीजिए। माओ की लाल किताब (माओ त्सेतुंग की संकलित रचनाएं) आपने पढ़ा और पढ़ाया भी होगा। भाग चार में अनुशासन के तीन मुख्य नियमों और ध्यान देने योग्य आठ बातों को फिर से जारी करने के बारे में चीनी जनमुक्ति सेना के जनरल हेडक्वार्टर की हिदायतें पेश हैं –

अनुशासन के तीन मुख्य नियम –
1) अपनी सभी कार्यवाहियों में आदेश का पालन करो।
2) आम जनता की एक सुई या एक टुकड़ा धागा तक न उठाओ।
3) दुश्मन से जब्त की हुई हर चीज को सार्वजनिक उपयोग के लिए जमा करा दो।

ध्यान देने योग्य आठ बातें इस प्रकार हैं –
1) नम्रता से बोलो।
2) जो कुछ खरीदो, उसकी ठीक-ठीक कीमत अदा करो और जो बेचो, उसकी ठीक-ठीक कीमत लो।
3) उधार ली हुई हर चीज को वापस लौटा दो।
4) हर ऐसी चीज की कीमत अदा करो जो तुमसे खराब हो गई हो।
5) जनता को न मारो और उसे अपश्बद न कहो।
6) फसल को नुकसान न पहुंचाओ।
7) महिलाओं से छेड़छाड़ न करो।
8) बंदियों के साथ बुरा बरताव न करो।

इन नियमों को कामरेड माओ ने दूसरे क्रांतिकारी गृहयुद्ध के दौरान चीनी मजदूर किसानों की लाल सेना के लिए तय किए थे। ये नियम लाल सेना के राजनीतिक कार्य के महत्वपूर्ण अंग थे और इन्होंने जनता की सैन्य शक्ति का निर्माण करने, सेना के भीतर पारस्परिक संबंधों सही ढंग से निभाने, आम जनता के साथ एकता कायम करने और बंदियों के प्रति जन सेना की सही नीति निर्धारित करने में महान भूमिका अदा की। कामरेड ने बेहद आग्रह के साथ अपने साथियों को इसके अनुपालन के लिए प्रभाव व विश्वास में लिया। उक्त बातों में उन्होंने दो बातों पर विशेष बल दिया – महिलाओं की नजर से बचकर नहाओ और बंदियों की जेबों की तलाशी न लो।
अब मेरे कामरेड भाइयों से आग्रह है कि इस आईने में अपने को देखें और कहें कि आज उन्होंने माओ को कहां ला रखा है !
(07.04.2010)

अब आप खुद ही देखें कि नेपाल में क्या हो रहा है। क्या नेपाल में पुष्पदहल कमल यानी कामरेड प्रचंड अपने माओवादी कामरेडों को हथियार समर्पण को मना पा रहे हैं।

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