हमसफर

गुरुवार, 29 जनवरी 2015

आखिर वेदप्रकाश हमें छोड़ गया

                                         दिल को सुकन रूह को आराम आ गया                                                  मौत आ गयी कि दोस्त का पैगाम आ गया

लाइक, शेयर, पोस्ट में डूबे जमाने में संवेदनात्मक सरोकार की अपेक्षा नहीं की जा सकती. कोयलांचल के जुझारू और दिलेर पत्रकार वेद प्रकाश ओझा की मरणांतक स्थितियों से जूझने की खबर (पोस्ट) को फेसबुकिया दोस्तों के लाइक, शेयर तो मिले, पर नहीं मिली तो समाज की, मीडिया बिरादरी की दिलेरी. एक उम्मीद थी कि वापसी के लिए मौत से लड़ते वेद, चुनौतियों से जूझते परिवार के लिए अपना हाथ बढ़ाकर हम अपना कर्ज कुछ हलका कर सकते थे. कहीं-कहीं से उम्मीद भी जगी थी. उम्मीद पर दुनिया तो टिकी है, पर इस बेदिल दुनिया ने वेद की उम्मीद को तोड़ दिया. दो दिनों से अब-तब करते हुए 28 जनवरी 2015 की दोपहर चार बजे वह हमें कई बींधते सवालों के बीच छोड़ गया. हम फेसबुकिया साथी थोड़ा भी दिल रखते हों तो उसके द्वारा छोड़ गयी दुनिया में असहाय और बिखर रहे परिवार के लिए कुछ करने की सोचनी होगी.

हर फिक्र को दिलेरी से उड़ाता चला गया - हर फिक्र को दिलेरी से उड़ाते जाने की जैसे वेद को आदत पड़ गयी थी. दो दशक से उसे जाननेवाले हम साथियों ने उसे कभी गंभीर, गमगीन, फिक्रमंद नहीं देखा. ऐसा नहीं कि जिम्मेवारियों को वह नहीं समझता था. सारे पेशागत एसाइनमेंट को पूरा करते हुए उसने हमें जीवन को सहजता से जीना सिखाया. हममें जो भी सामर्थ्य, क्षमता हो उससे वेद की स्मृति में पुरस्कार या ट्रस्ट बनाने की जरूरत नहीं. वेद के इलाज में जेवर बेच चुकी पत्नी, उसके दो बेटों के लिए अंधकार होती इस दुनिया में एक मुट्ठी इजोत की जरूरत है. क्या हम ऐसा नहीं कर सकते कि झंझावातों में पड़े इस परिवार के लिए खड़ा होने की थोड़ी सी जगह (स्थितियां) जुटा सकें. हमें एकजुट होकर कुछ सोच कर करने की जरूरत है.

लाइक, शेयर, पोस्ट करनेवाले फेसबुकिया साथियों से एक पाकिस्तानी शायर के शेर के जरिये एक अपील -
करोड़ों क्यों नहीं लड़ते, फिलिस्तीं के लिए मिल कर
दुआओं से नहीं कटती, फकत जंजीर मौलाना.

...तो साथियो, अब दुआ से आगे चलकर कुछ करने के वक्त को हम साझा करें..

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