हमसफर

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

कविता की कुलीनता के खिलाफ


(जानकीपुल पर प्रमोद कुमार तिवारी की कविता सितुही भर समय पढ़ने के बाद)

यह कविता का गंवईपन नहीं, जो प्रमोद कुमार तिवारी रच रहे हैं। गौण होते जीवन जीवन प्रसंगों, वह भी ग्राम्य, को फोकस में रखकर कविता का स्थापत्य खड़ा करना एक तरह से कविता के कुलीनतंत्र के खिलाफ खड़ा होना है। इस कुलीनतंत्र के बाहर बहुत माल-असबाब पड़ा है, जो हमसे छूटता जा रहा है या छोड़ा जा रहा है। वह भदेस उसी तरह हमसे छूटता या दूर होता जा रहा है जिससे सितुहे जितना समय पाने की लालसा घर करती है। अन्यत्र यही लालसा प्रकट हुई है - फुर्र से उड़ जाता समय (ठेलुआ)
स्वाभाविक है कि इस इरादतन उपक्रम से कविता का लालित्य, साहित्य का अभिजात समृद्ध होता है। आवारा पूंजी की केलिक्रीड़ा ने जिस आदमखोर बाजारवाद का मोहक ताना-बाना रचा, साहित्य का यह कुलीनतंत्र उसीसे उपकृत होने के लिए उसके आगे-पीछे लार टपकाता फिर रहा है। प्रमोद जी आपकी कविता का सारा ताना-बाना उस भदेसपन पर खड़ा है जिसके सामने हर तरह का संकट है। सिर्फ काव्यभाषा के लिए जो गांवों की ओर रुख करते हैं,कहीं न कहीं वे भी उस पूंजीवादी तंत्र के सम्मुख नतमस्तक करते हैं कविता को। हमें बेहद खुशी है कि आपके यहां समय का वह खूंखार अंतविर्रोध पूरे काव्य विवेक के साथ तार-तार हो रहा है।
अब नहीं डरता मैं जानवरों से
पर समझदार होना शायद
डर के नए विकल्प खोलना है
मेरे गांव का अक्खड़ जवान भोलुआ
जिसने एक नामी गुंडे को धो डाला था
कल मरियल जमींदार के जूते खा रहा था...
कुलीनता का तकाजा था कि - कल मरियल जमींदार के जूते खा रहा था - जैसा नजारा नहीं आता। बहुत आसानी से एक फार्मूलाबद्ध आदर्शवाद की आभा खड़ी कर दी जाती - इंकलाब जिंदाबाद की शैली में। लेकिन बहुस्तरीय यथार्थ से जूझता - विकसित होता जीवनबोध ही यह काव्यसाहस अर्जित कर सकता है कि कुलीनतंत्र पूछे - बता तेरी (रजा) पॉलिटिक्स क्या है। आपकी कविता तनकर इसका जवाब दे सकने माद्दा रचेगी।

अब उत्तरसंरचनावादी खोजें कि विखंडन किसका हुआ। देरिदा के यहां विखंडन का दरस पानेवाले को निराला की कविता - लोहे का स्वाद- में विखंडन नहीं दीखा तो किसकी गलती। आप भी देखिए निराला के यहां विखंडन -
शब्द किस तरह कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए आदमी को पढ़ो...
भाई गिरा हुआ आदमी आप किसको कहेंगे? पतित को ही ना, लेकिन यहां पर गिरा हुआ आदमी - पद दलित, दबा-कुचला है। हुआ ना अर्थ की एक पूरी परंपरा का विखंडन। अब आप आइए गिरे हुए आदमी को देखो नहीं पढ़ो कहते हैं निराला। यह पाश्चात्य काव्यशास्त्र से आया हुआ ट्रांसफर्ड एपिथेट है। तो प्रमोद जी लगे रहिए, कविता के अंतवादियों और उत्तरवादियों के लिए आप एक मुकम्मल जवाब होंगे। विमर्श का एक वातावरण तभी बनेगा जब आप इस रास्ते पर बढ़ते जाएंगे, बाजार में जानेवाले मोहक रास्तों की ओर नहीं जाएंगे। हमें भरोसा है कि सही रास्ता गलत ठिकानों पर नहीं जाता और गलत रास्ते कभी सही जगह नहीं जाते। फिलहाल तो इतना ही।
आप चाहें तो मेरे ब्लॉग पर आ सकते हैं -

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें