सवाल
यह भी है कि ‘हिंदी-चूषक’ मीडिया, राजनीति और संस्कृति की सत्ताओं में बैठे लोग इस सबके लिए क्या
कर रहे हैं? जो भी दबाव या आग्रह है वह जबान के फैलाव के
कारण, भाषा के आत्मसम्मान के कारण नहीं। यह हिंदीभाषी प्रदेश के श्रमविस्तार से
संभव हुआ है। सिस्टम के साथ उसकी अनुकूलता (कंपैटिबिलटी) के कारण नहीं। इसलिए जब दबाव निहायत ही
बाजार का होगा तो उसकी फलश्रुतियां भी उसी की शक्लोसूरत में आएंगी न। यही कारण है
कि भाषा के प्रति उनका कोई गंभीर सलूक नहीं दीखता। बाजार की हसीन गोद में बैठकर
पूंजी की केलिक्रीड़ा और अटखेली को उत्तेजक बनाने का काम कर रहे हैं मीडिया और
फिल्म के हिंदी चूषक हिंदी से छेड़छाड़ और बलात्कार कर। (ये न तो हिंदी के हैं और
न ही किसी और भाषा के। यह तो भाषा मात्र के साथ दुर्व्यवहार है। अन्यथा वे ऐसा
सलूक करते ही क्यों।) ये गुलाम हिंदी चूषक एक बोली की तरह भी भाषा को नहीं बरतते
हैं। एक उथलापन है पूरे परिदृश्य में। यह सारा का सारा परिदृश्य उत्साह नहीं
जगाता, एक गंभीर चिंता का विषय है।
कहते हैं आज हिंदी का बाजार अरबों का है। हां, बाजार उसे मिलता है जिसका ‘मास’ होता है। और बाजार में पैठ किसी संरक्षण के जरिए नहीं बनती, स्पर्द्धा से मिलती है। हिंदी को जो जगह मिलनी है, अपने भरोसे, अपने
संघर्षों से वह तो मिल ही रही है, पर व्यवस्था का सहकार जहां
चाहिए, वहां हम बेहद कमजोर पड़ जाते हैं। अपने मुल्क में ही इसे राष्ट्रभाषा बनाने
के नाम पर विरोधियों की अपेक्षा हिंदीवाले (हिंदी जनपद अधिक) ही अधिक बिखरे नजर
आते हैं। चीन. जापान. रूस, चेक, हंगरी में विदेशी हिंदी विद्वानों ने हिंदी शिक्षण
की एक सुदृढ़ परंपरा कायम की है, पर उन्हें भी पीड़ा होती है हिंदी के घर में हिंदी को उपेक्षित देखकर। ऐसा
लगता है जैसे भारत हिंदी का स्वाभाविक घर नहीं।
दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग के ''गांधी
ग्राम'', सैंडटन कन्वेंशन सेंटर, दूसरा तल, मौड
स्ट्रीट, सैंडटन-2196, में गत 22-24 सितंबर 2012 को संपन्न विश्व हिंदी सम्मेलन में
यूएनओ में हिंदी को जगह दिलाने के लिए बजटीय प्रावधान आदि को लेकर कई ऐलान हुए।
औपचारिक धारणा है कि इसके लिए लॉबिंग करनी होगी। ऐसे में बेहद दिलचस्प होगा यह
जानना कि जिन विदेशी विद्वानों को इस आयोजन में सम्मानित किया गया है, उनके
हिंदीगत सरोकार कैसे हैं। हिंदी को लेकर विकसित हो रही वैश्विक समझदारी क्या है, इनसे
जान सकते हैं। इस बाबत दो विदेशी विद्वानों आस्ट्रेलियाई डा. पीटर गेरार्ड फ्रेडलांडर व चेक
डा. दागमार मारकोवा से संपर्क मुमकिन हुआ।

डा. पीटर का
मानना है कि जहाँ भी भारतीय मूल के लोग रहते हैं वहां हिन्दी एक अंतर्राष्ट्रीय संम्पर्क भाषा बन गई है,। हिंदी के प्रति उनका अनुराग और
श्रद्धा तो हम भारतीयों के लिए प्रेरक है। वे कहते हैं कि जब दुनियादारी की बातें करनी हो तो लोग अँग्रेज़ी में बात करते हैं, लेकिन दिल की बातें करने के लिए हिन्दी, स्वाभाविक भाषा है। इस भारतीय भाषा में बात करना ज़्यादा सहज महसूस होता है। डा. पीटर की इस
अनुभूति को जानकर सहज ही पिछले दिनों सामने आया वह शोध ध्यान में आ जाता है जिसके अनुसार ’हिंदी
भाषी अंग्रेजी बोलने की बजाए ‘हिंदी’ बोलकर अधिक सहज और तनावमुक्त रह सकते हैं‘। पराई मिट्टी
में बसा हिंदी प्रेम कितना वैज्ञानिक और अनुरागपूर्ण है।
वे कहते हैं कि हिन्दी एक परिवर्तनशील भाषा है और यह उसकी सक्षमता है कि दूसरी भाषाओं के शब्द आत्मसात कर अपनी ताकत को और भी बढ़ा
लेती है। पहले हिन्दी ने फ़ारसी और अरबी
को अपनाया, अब अँग्रेज़ी की बारी है। हाँ और यह
भी सोचिए कि अब हिन्दी सबसे सशक्त समाचार पत्रों और टीवी का माध्यम बन गई है। उनकी धारणा है कि हिन्दी दुनिया की सबसे बड़ी भाषाओं में न सिर्फ बनी रहेगी, बल्कि आगे भी बढ़ेगी। हिंदी की समस्या पर उनका कहना है कि समय के साथ चलना चाहिए। इसके लिए सीखने और सिखाने के लिए पर्याप्त संसाधन की जरूरत है। इसके साथ-साथ अँग्रेज़ी का प्रचलन अब भारत में बहुत बढ़ गया है, फिर भी सिर्फ दस प्रतिशत लोग अँग्रेज़ी बोलते हैं। उनका आग्रह है कि हिन्दी को आम
लोगों से जुड़े रहने के लिए इसे और भी सशक्त बनाना होगा। इसलिए ऐसी हिन्दी
अपनानी चाहिए जिसके शब्दभंडार आम बोलियों पर आधारित हो। इसके लिए वे शुचितावादियों
से हटकर शुद्ध हिन्दी से
कुछ दूरी बनाकर रहने का आग्रह करते हैं। वे कहते
हैं हमें हिन्दी को आकर्षक बनाना
चाहिए, शुद्ध नहीं। यूएनओ में हिंदी की मान्यता के
लिए भावी प्रयासों की बाबत उनका मानना है कि इससे हिंदी के मार्ग के रोड़ों का कोई सीधा सम्बंध तो नहीं है। संभव है इससे सबकी भलाई हो, पर उनकी अभिलाषा है कि यूएन में हिन्दी की जगह हो और हिन्दी में लोग यूएन में बोल सकें।
हिंदी की चेक विदूषी डा. डा.
दागमार मारकोवा का हिंदी से जुड़ाव संयोगवश हुआ। 18 साल की उम्र में आगे पढने का सवाल आया। तभी संयोगवश भारत
के बारे में कुछ पुस्तकें हाथ आ गयीं। और फिर
उन्होंने हिंदी पढ़ने का निश्चय कर
लिया। और तब से हिंदी से उनका दिल लगा हुआ है। जहां तक हिंदी के
वैश्विक परिदृश्य की बात है तो वे फिलहाल इस वक्त को इसके लिए प्रासंगिक नहीं
समझतीं। पहले हिंदी को अपने देश में उसकी जगह मिलनी चाहिए। फिर संयुक्त राष्ट्र संगठन की बात की जा सकती है। गहरे खेद के साथ वे कहती हैं कि पश्चिम में रहनेवाले भारतीय अक्सर हिंदी भूल जाते हैं। डा. दागमार जोर देकर कहती हैं कि पहले हिंदी भारत में अपनी जगह
बनाए तभी विश्व की बात की जा सकेगी। वे
कहती हैं कि हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह तो मनाया जाता है, लेकिन जब “मेरे son की age seventeen years है “ जैसा वाक्य सुनने में आता है तो दुख होता है। हिंदी
की समस्या उन्हें उसकी घरेलू परिस्थितियों में दीखती है। उनका आशय हिंदी का ग्रंथियों,
कुंठाओं से उबर कर घर में मजबूत हालत में आने से है। वे मानती हैं कि अँग्रेज़ी बहुत काम आती है, लेकिन Hinglish
नहीं। वे कहती हैं कि जहाँ तक मुझे मालूम है तो जिन देशों की
भाषाएँ हिंदी जैसी विकसित हैं उन देशों में से किसी में भी अपमी भाषा अँग्रेज़ी फ़्रेंच आदि से इतनी नहीं दबीं जितनी भारत
में।(ई-मेल के द्वारा लेखक की प्रश्नावली का विदेशी विद्वानों से मिले जवाब के आधार पर।)