भड़ास 4 मीडिया पर साईट के कर्ताधर्ता यशवंत ने 10 अगस्त 2010 के अपने पोस्ट में जिस तरह राघवेंद्र जी के भास्कर ज्वाइन करने पर भड़ास निकाली है, उससे लगता है उनका निवाला छिन गया, अन्यथा कोई कारण नहीं कि एक वस्तुनिष्ठ मुद्दे को निहायत निजी खुन्नस भरे अंदाज में पेश किया है – ‘एक संपादक की बेवफाई’ शीषक से। वैसे भी यशवंत जी की इस पत्रकारिता का जवाब निकलना चाहिए। महानगरों में बैठे ब्लागर और साइटकार इसमें कुछ नहीं कर सकते। मैं इस मसले को लेकर पाठकों की राय आमंत्रित करता हूं। ऐसी छापामार पत्रकारिता के खिलाफ एक माहौल बनना चाहिए।
नहीं मालूम यशवंत जी कौन सी पत्रकारिता कर रहे हैं। क्या मकसद है और कोई मर्यादा भी है या नहीं इस छापामार पत्रकारिता का। कम से कम खबरों के बीच छूट रहे स्पेस की अंतर्कथाओं को तो गुनते। आपको पत्रकारों की पैरोकारी करनी है या प्रबंधन का पक्ष रखना है कुछ भी स्पष्ट नहीं। गुस्ताखी के साथ यह बात कहनी पड़ रही है। पत्रकारिता की खुफियागीरी या सेंधमारी से कौन सी पत्रकारिता क्या हासिल कर लेगी। आखिर ऐसी रिपोर्टो-प्रतिक्रियाओं की जिम्मेवारी कौन वहन करेगा जो अनाम छपती हैं। आखिर कौन सी पत्रकारिता को वे बढ़ावा दे रहे हैं।
कुछ दिनों पहले जिस हरिवंश जी और प्रभात खबर की जमकर खिचाई यशवंत जी ने की थी, 10 अगस्त के उक्त पोस्ट में उन्हें डिफेंड करने के लिए अपने हिसाब से एक पत्रकार को नंगा करने की कोशिश की। नहीं मालूम, पत्रकार बिरादरी के लिए यशवंत जी ने कितना क्या किया है, पर राघवेंद्र हैं कि प्रभात खबर से बाहर होकर उन्होंने उनका साथ निभाने के अपराध में जिन लोगों को बेघर किया गया उनके लिए अपने निहायत निजी जीवन को संकट में डालकर जी-जान लगाई। यह अलग बात है कि फिनांसर कमजोर निकला और पत्रिका अधिक नहीं चल सकी। इन पंक्तियों को लिखनेवाला प्रभात खबर से निकाला नहीं गया था, पर अनप्रोफेशनल एटीच्यूड के प्रति मुख्यालय की संपादकीय लापरवाही से आजीज आकर प्रभात खबर की नौकरी छोड़ी। राघवेंद्र जी के छोड़ने के बाद की बात है यह। फिर उनके साथ उनकी पत्रिका में हो लिया। पत्रिका से उनकी रुखसती के बाद मैंने पत्रिका चलाई और अपनी असहायता और दुर्दशाओं से पीडि़त होकर पत्रिका में राघवेंद्र जी के खिलाफ छापा भी। हरिवंश जी के प्रति मेरी श्रद्धा कभी कमी नहीं। प्रभात खबर को छो़ड़ने के बाद दुबारा मुझे बुलाकर मेरी परीक्षा (लिखित के साथ हर तरह की) ली गई। और परीक्षा उस व्यक्ति ने ली जो कभी मेरे समांतर कलकत्ते में था। बहुत छिछोरे अंदाज में वह (जिसने हरिवंश जी के बेतहाशा भरोसे को तोड़ा) मुझे अन्यत्र भेजने को तैयार हो गए। मैं नहीं गया। फिर हरिवंश जी के बुलावे पर मैं गया और क्विंटल भर की आश्वस्ति-प्रशस्ति लेकर लौटा। इस बार उन महोदय को हिदायत दी गई कि इस बार यह (मैं) हाथ से जाए नहीं। जहां भी दो, प्रभारी बनाकर दो। लेकिन सज्जन को मुझसे न जाने कौन सी खुन्नस थी, उन्होंने कोई रुकावट डाल दी।
मैं यह सब इसलिए बोल रहा हूं कि मैं राघवेंद्र जी का दलाल नहीं और हरिवंश जी का अंधभक्त नहीं। देश में क्षेत्रीय पत्रकारिता के मान-मूल्य रचनेवालों में बहुत ऊपर हैं वह। पर हरिवंश जी ने जिन चार-पांच पत्रकारों को सींचा, वे सब आज उनके साथ नहीं। नहीं मालूम यह सेलेक्शन का दोष है या...आज मैं सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय हूं, खुश हूं। मीडिया में वापसी नहीं चाहता।
प्रभात खबर की दूसरी पारी से पहले राघवेंद्र जी को कम से कम तीन बार आफर मिल चुके थे। लेकिन अपनी तरह की धार की पत्रकारिता (आक्रामकता का) करने वाले राघवेंद्र जी को अपने लायक माहौल बनता नहीं दीखा। उनकी खासियत को उनके विरोधी खेमे के पत्रकार भी कबूलते हैं कि बिहार-झारखंड में इस मजबूती के साथ अपनी पत्रकार टोली-बिरादरी का साथ देनेवाला कोई और नहीं। प्रभात खबर को जो छवि और प्रसार उस दौर में मिला फिर वह सपना रहा। उसके बाद से धनबाद संस्करण में चार साल में छह प्रभारी-संपादक आ गए। रही बात प्रभात खबर छोड़कर चुपके-चुपके भास्कर जाने की, तो यह आपके भड़ास में नहीं समाया हो, पर वे भास्कर की प्राथमिकता में बहुत दिनों से थे। और क्षेत्र में लोग यह जानते थे। उच्च पदों पर आसीन लोगों की फजीहत अखबारों में किस तरह हो रही है इसे यशवंत जी बखूबी जान रहे हैं। दर्जनों उदाहरण है कि प्रावधान के बावजूद बगैर पूर्व सूचना के मुअत्तली की नोटिस थमा दी जा रही है। यदि प्रोफेशनलिज्म की भाषा में यह टेकनिकल स्किल है और तर्क है कि बाजार में उपलब्ध बेस्ट आप्शन से वह वंचित क्यों रहे। तो यह व्यक्ति के तौर पर पत्रकार भी हक मिलना चाहिए। यह प्रतिष्ठान के लिए तो चलेगा, पर एक पत्रकार जब अपने भविष्य को लेकर ऐसा कोई फैसला लेता है तो क्यों नागवार हो जाता है? एक अखबार के लिए संपादक या पत्रकार का आप्शन पाना मुश्किल नहीं, पर एक संपादक या पत्रकार के लिए अखबार का आप्शन ढूंढ लेना बहुत मुश्किल है। ऐसे में न्यायसंगत क्या है। यदि राघवेंद्र जी बताकर चले जाते तो प्रतिबद्धता और ईमानदारी बची रह जाती और बिना बताए चले गए तो सारी प्रतिबद्धता और ईमानदारी पल भर में छूमंतर हो गई। यह कैसी छुईमुई शुचिता है। दरअसल बाजार में निष्ठा का कोई मोल नहीं है। जिस कारपोरेट हथकंडा से पत्रकारीय बिरादरी को उजाड़ा जा रहा है, उसके खिलाफ खड़े नहीं हुए तो किस जगह खड़े हो उजाड़ का नजारा देखेंगे, वह भी नहीं मिलेगी। लड़ाई में बने रहने के लिए सर्वाइल का सवाल बड़ा है। इसे समझना होगा। यह मैं हरिवंश जी के विरोध में नहीं कह रहा। वह एक पत्रकार के दर्द को जिस तरह समझ रहे हैं बहुत कम लोग होंगे इसे समझनेवाले। वे बाजारवाद के दौर में वे खुद बदलाव की बात व अपेक्षा करते हैं। यह दुष्कर और क्रूर हो रहे तंत्र के खिलाफ खड़े होने की बात है। आखिर आप इतने सशक्त नहीं कि खुलकर लड़ने की स्थिति हो। आप इतने ताकतवर नहीं कि कंपनी से लड़कर सौ पत्रकार को रोजी रोटी दिला दें। आखिर कोई रास्ता तो निकालना ही होगा। किसी को आगे आना ही होगा। धारा के खिलाफ चलनेवाले गाली खाएंगे ही। यदि अखबार कहता है कि उसे कुछ पता नहीं था तो यह उसका भोलापन है। और भोलेपन का कोई जवाब नहीं।
आज कितने संपादक हैं जो प्रभात खबर की प्रिंटलाईन में हरिवंश जी धार को कुंद करने का काम कर रहे हैं और और निरंतर उसके मान मूल्यों को गिराने का काम कर रहे हैं। कोई माफिया के महिमामंडन में सपरिवार प्रभात खबर के पन्ने रंग रहा है तो कोई प्रभात खबर से बनी साख की सीढ़ी से खेल का खेल कर रहा है। वह भी सपरिवार। सूचना आयोग में जगह पाने में कैसे के लिए घराना काम आता है और कैसे किसी को हतोत्साहित किया गया, किसी से छिपा नहीं रहा। इसके दर्जनों उदाहरण हैं। हर तरह की दलाली में संलग्न हैं। शायद यशवंत जी भी जान रहे हों।
यशवंत जी इसमें क्या जायज होना चाहिए आप चुनें। किसी जमाने के नामचीन पत्रकार विनोद कुमार, दिग्गज शायरों के साथ मंच शेयर करनेवाले और कमलेश्वर की ‘गंगा’ पत्रिका में अंधविश्वास को गंगास्नान करानेवाले अच्छे-खासे पत्रकार देवेंद्र गौतम, नवोदित जुझारू पत्रकार दीपक शर्मा, धनबाद के नामचीन खेल पत्रकार विजय सिन्हा का कौन सा दोष था कि उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। और किसी ने अकुशल प्रबंधन की मनमानी पर ब्रेक नहीं लगाई। प्रबंधकीय या संपादकीय स्वेच्छाचारिता के कारण जब दर्जनों पत्रकार सड़क पर आ जाते हैं तो आप किसी प्रबंधन को इस अंदाज में कोसते हैं? राघवेंद्र जी के संदर्भ में आपने जिस भाषा का इस्तेमाल किया है, वह कहीं से शालीन नहीं कही जा सकती। हां, ऐसे रुख से एक खेमा को खुश जरूर किया जा सकता है। लेकिन इसका हासिल क्या होगा। किस पत्रकारीय सरोकार को बल मिलेगा ?
आपने सही सवाल उठाया है.यशवंत जी जैसे लोग कौन सी पत्रकारिता कर रहे हैं,शायद उन्हें भी पता नहीं हो.वैसे भी भड़ास बहुधा तर्कपूर्ण नहीं होता.कुछ बोलना है,बोल डालो.कुछ लिखना है,लिख मारो.बस.हासिल क्या हो रहा है ,किसे हो रहा है,पता नहीं,फिर भी भड़ास निकाले जा रहे हैं.
जवाब देंहटाएंराघवेन्द्र जी पर जो भड़ास निकाली गई है,उसका कोई जस्टिफिकेशन नहीं है.आपने ठीक है टिप्पणी की है.
-गिरिजेश्वर