(सोचना-विचारना और फिर अभियानों में सहभागिता सामाजिक बदलाव के लिए जरूरी तो है, पर इसका असर एक माहौल के रूप में दीखना चाहिए। भाषण झाड़े जा रहे हैं, ब्लाग लिखे जा रहे हैं, साईट सजाए जा रहे हैं। अपने जैसे लोगों को / से पढ़ाया-लिखाया जा रहा है। दायरा बहुत सिमटा हुआ है। असहमतियों को लेकर सहिष्णुता यहां भी कम ही दिखती है। ऐसा लगता है कुछ मूल सवालों और जिज्ञासाओं को लेकर एक बहसतलब माहौल तैयार करना जरूरी है। इसके लिए माडरेटर ने आसानी से उपलब्ध माध्यम एसएमएस का सहारा लेना वाजिब और जरूरी समझकर एक पहल करने की कोशिश की है। )
नक्सल आंदोलन खेतिहार समुदाय में व्याप्त लंबे शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ असंतोष-आक्रोश से उपजा था। सत्ता प्रतिष्ठानों से ऐसे अन्याय के प्रतिकार की उम्मीद नहीं बची थी। जब निरपराध होकर भी राज्य सत्ता का निवाला बने तो हथियार उठाकर अपराधी की कतार में शामिल होना उन्हें शोषक तंत्र के सामने चुप रहने से कम खतरनाक लगा। विकासक्रम में इस लड़ाई की बेसलाईन आदिवासियों-दलितों के बीच सिमट गयी। दरअसल जो क्षेत्र विकास से दूर या अछूते रहे या रखे गए वहां शोषण की चक्की फ्रिक्शनलेस हो आसानी से चली। जंगलों या सुदूर पिछड़े इलाकों में इस आंदोलन के जाने का कारण एक तो यह था, दूसरे माओ की थियरी भी गांव से शहर की ओर बढ़ने की थी। शोषण व अन्याय को नियति न मानकर जिन्होंने सामाजिक व्यवस्था में उसकी वजह देखी, उनकी लड़ाई तो व्यवस्था के खिलाफ होगी ही। वर्गीय चेतना जगाते हुए वर्ग संघर्ष तक पहुंचने की जमीन उन्हीं इलाकों में उर्वर थी। सामाजिक चेतना से जुड़ाव के लिए आदिवासी-दलित होना जरूरी नहीं, सरोकार और संवेदनशीलता की जरूरत है। चारु मजूमदार, विनोद मिश्र, महेंद्र सिंह, कानू सान्याल आदिवासी तो नहीं थे, पर शोषण को सिस्टम में दोष का नतीजा मानते थे। वे इस आंदोलन को समर्पित थे तो इसीलिए कि बदलावकारी लड़ाई के व्यापक सरोकार से यह जुड़ा हुआ था। जातियों में सामाजिक बिखराव समतामूलक बदलाव की सोच को डाइल्यूट करते हुए इंटिग्रेट होने से रोकते हैं और आंदोलन को क्रांतिकारी तेवर अख्तियार नहीं करने देते। रूस में तो क्रांति की बजाए तख्तापलट की लड़ाई हुई। हां. चीन ने जरूर लड़ाई का जो माडल अपनाया वही क्रांति की वजह बनी।
दरअसल मुसलमान या तो नेशनलिस्ट हो सकते हैं या फिर एंटी नेशनलिस्ट हो सकते हैं। कट्टर देशभक्त भी रहे हैं और हैं। सिस्टम बदलने की ऐसी लड़ाई का हिस्सा वे कैसे हो सकते हैं जो सोच के सेट पैटर्न (यथास्थितिवाद) से बाहर नहीं झांक सकते। ये कहा जा सकता है कि वे कम्युनिस्ट तो हैं, लेकिन ऐसा इसलिए है कि इसमें उनके लिए कई सहूलियतें हैं। जैसे रा्ष्ट्रीयता के कुछ मान-मूल्यों के खिलाफ उनकी तुष्टि वहां हो पाती है। इस मुल्क में अल्पसंख्यक अराजकता को हवा देने के लिए कांग्रेस और वाम ने काफी हिफाजत से खुद को डिजाईन किया है। (तसलीमा के बहाने वाली टिप्पणी इसी ब्लाग में देखें। वैसे भी एक बार माओ के बाद वाली टिप्पणी देख लें।) बहस का हिस्सा यह हो सकता है कि ईसाई, पारसी, सिख भी तो नक्सली नहीं होते। दरअसल इनका फैलाव मुल्क में उस तरह नहीं है जिस तरह मुसलमानों का है। एक सिख, एक पारसी, एक ईसाई की जड़ उन समाजों में क्योंकर होगी जहां उनके सामाजिक सरोकार ही नहीं। लेकिन यह बात मुसलमानों पर लागू नहीं होती। वे मुल्क के इस छोर से उस छोर तक सभी बीहड़ से बीहड़ और कस्बाई इलाकों के वासी हैं।
और अब बहस का सवाल
सोचा है कभी मुसलमान नक्सली क्यों नहीं हुआ करते। जो हैं वे अपवाद है।
13 अगस्त 2010 को एसएमएस से मिले जवाब–
नहीं, लेकिन यह खोज की अच्छी दिशा है। क्या कारण है आप ही बताएं।
-कृष्णकांत, सचिव, अभिव्यक्ति फाउंडेशन, गिरिडीह (झारखंड)।
धार्मिक कट्टरता खुदा के विरुद्ध सोचने का हक नहीं देता। वह क्रांतिकारी होने से रोकता है। 90 फीसदी नक्सली आदिवासी है। हमला आदिवासी पर ज्यादा होगा तो मुसलमान क्यों नक्सली बनें।
पुष्पराज, पटना। (घुमंतू पत्रकार तथा नंदीग्राम डायरी के लेखक।)
क्यों।
विनोद सिंह, भाकपा माले विधायक, बगोदर, गिरिडीह (झारखंड) ।
दलित आदिवासी अधिक शोषित हैं। मुसलिम लेफ्टिस्ट हैं। टेररिस्ट भी हैं। नक्सली बीच का मामला है। अब एक सवाल यह भी है कि आदिवासी मुसलिम क्यों नहीं होता।
आप सही हो सकते हैं।
(कामरेड, जनजाति और आदिवासी एक ही हैं। और मुसलमान तो एक कौम है और आदिवासियों का अपना ही कौम है। हिंदू आदिवासी और ईसाई आदिवासी जैसा कुछ नहीं है। जिनका अंतरण हो गया है वे उस समुदाय से बाहर हो गए हैं।)
रामदेव विश्वबंधु, सामाजिक कार्यकर्ता, ग्राम स्वराज के झारखंड समन्वयक, गिरिडीह (झारखंड)।
मुसलमान लड़ाकू संस्कृति की उपज हैं। नक्सली वे होते हैं जो अपनी बात खुल कर नहीं कह सकते। इसलिए दलित नक्सली होते हैं। लादेन इंडिया में हो सकता है क्या।
आकाश खूंटी, झारखंडी भाषा-संस्कृति के सक्रिय कार्यकर्ता, खोरठा पत्रिका लुआठी के संपादक, बोकारो (झारखंड)।
अच्छा आयडिया।
संदीप भट्टाचार्य, एजीएम, बालासोर इस्पात एलायज, बालासोर (उड़ीसा)।
व्यापक रूप से नक्सली संघर्ष जनजातियों और आदिवासियों का आंदोलन है। मुसलमान ना तो जनजातियों में गिने जाते हैं और ना ही आदिवासियों में। वैसे भी मुसलमान जिहाद में विश्वास रखते हैं, ना कि किसी क्रांतिकारी आंदोलन में।आप सही फरमाते हैं भाई, नक्सल आंदोलन की शुरुआत जरूर पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से हुई और कानू सान्याल, चारु मजूमदार आम किसान थे, लेकिन ये शक पहले हुआ। उसकी प्रासंगिकता हम आज के दौर में कैसे देख सकते हैं? क्या कानू की आत्महत्या उनकी इस आंदोलन से पूरी तरह टूट जाने की कहानी नहीं कहती है। हथियार लिट्टे, आईएसआई से मिल रहे हैं? सरकार की और हमारी जिम्मेवारी भी तय होनी चाहिए।
मुसलमान नक्सली नहीं होते क्योंकि वो किसान कम और दस्तकार, जुलाहा, कसाई, चर्मकार और बिजनेसमैन ज्यादा थे। उनका संघर्ष ज्यादा व्यापक और सबके लिए ना होकर सिर्फ मुसलमानों के लिए होता है। सवाल ये नहीं कि किन आदर्शों, मुद्दों और आब्जेक्टिव्स पर नक्सल संघर्ष चल रहा है, सवाल ये है कि क्या वास्तव में ये प्रासंगिक हैं जब नक्सलियों को ...(अधूरा)
भूमि सुधार एक दिशाहीन सशस्त्र संघर्ष में कैसे बदला और जंगलों में क्यों फैला ? ये बड़े सवाल हैं। किसी आंदोलन का आगाज जो आज से कई द....(अधूरा)
(भाई जनजाति और आदिवासी एक ही हैं। और मुसलमान तो एक कौम है और आदिवासियों का अपना ही कौम है। हिंदू आदिवासी और ईसाई आदिवासी जैसा कुछ नहीं है। जिनका अंतरण हो गया है वे उस समुदाय से बाहर हो गए हैं।)
ध्यानेंद्रमणि त्रिपाठी, आईना (www.aaeenaa.blogspot.com), दिल्ली।
लड़ाई अब सिर्फ लेवी की है। झारखंड में सामाजिक अंतर्विरोध की कोई लड़ाई नहीं चल रही है। वर्गमित्र और वर्गशत्रु भी चिह्नित नहीं हैं। राजनीतिक नियंत्रण के अभाव में सशस्त्र दस्तों का अपराधीकरण हो चुका है। आंदोलन भटक चुका है।
उनके लिए आईएसआई है न ?
देवेंद्र गौतम, वरिष्ठ पत्रकार और नामचीन शायर,www.ghazal.blogspot.com रांची (झारखंड)।
( इस बार सभी टिप्पणी एसएमएस से।)
14 अगस्त 2010 को एसएमएस से मिले जवाब–
क्योंकि अल्लाह मियां की डायरी में नक्सलिज्म की चर्चा नहीं है।
रंजीत, सीनियर कापी एडिटर, पब्लिक एजेंडा, रांची (झारखंड) http://koshimani.blogspot.com
तिलक राज कपूर ने कहा…
"कभी मुसलमान नक्सली क्यों नहीं हुआ करते?" का उत्तर देने के पहले यह जानना जरूरी है कि नक्सली कौन होते हैं? क्या नक्सलवाद का कोई संबंध जाति धर्म अथवा संप्रदाय से है? क्या नक्सलवाद मात्र एक उत्तेजना का रूप है? क्या नक्सलवाद वास्तव में एक आंदोलन है? बहुत से प्रश्न हैं इसकी जड़ों में। वास्तव में नक्सलवाद की जड़ों में एक सोच है जो कभी शोषित सर्वहारा की रही होगी अब यह सोच नेतृत्व और नियंत्रित के बीच की बात रह गयी है। कुछ लोगों को लगता है कि जो हो रहा है वह ठीक नहीं है और उसे इस प्रकार बदला जा सकता है और वे यही सोच अन्य ऐसे लोगों में भर पाते हैं जो आज में इतने उलझे हुए हैं कि आने वाले कल के बारे में सोच ही नहीं सकते।
जब सभी प्रश्नों पर समग्र रूप से सोचा जायेगा तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि अन्य समुदायों की तरह बहुत से मुसल्मान स्वयं सक्षम हैं सोचने में और जीवन का मार्ग चुनने के लिये और जो नहीं हैं उनपर पूर्व से ही अन्य शक्तियों का कट्टर नियंत्रण है। खुली सोच वाला, किसी भी जाति संप्रदाय अथवा समुदाय से हो, नक्सली नहीं हो सकता। नकसली होने के लिये एक अलग ही मानसिकता चाहिये जो किसी में भी हो सकती है इसमें एक धर्म विशेष का संदर्भ उचित नहीं है।
१४ अगस्त २०१० ११:०७ अपराह्न
Gobar Pattee ने कहा…
कोई समुदाय या वर्ग क्यों नहीं नक्सली हुआ करते,यह कोई बहसतलब मुद्दा हो सकता है,मुझे नहीं लगता.ऐसे सवाल दूसरे वर्गों और समुदायों के बारे में भी पूछे जा सकते हैं.मसलन,आमतौर पर सवर्ण क्यों दलितों,आदिवासियों,पिछड़ों या गरीबों के किसी भी तरह के आंदोलन,चाहे नक्सवादी आंदोलन हो या सामाजिक न्याय का आंदोलन, के खिलाफ क्यों होता है ? दरअसल,कोई भी वर्ग या समुदाय पूरा का पूरा किसी एक विचारधारा अथवा आंदोलन का समर्थक या विरोधी नहीं हुआ करता.ऐसा नहीं है कि तमाम आदिवासी नक्सलवादी आंदोलन के साथा हैं.यह भी सच नहीं है कि सभी मुसलमान आतंकवादियों के जेहाद का समर्थन करते हैं.आप नहीं कह सकते कि सभी हिन्दू आर एस एस या भाजपा के समर्थक हैं.ऐसा भी नहीं है कि सभी हिन्दू अयोध्या में मस्जिद की जगह मंदिर चाहते हैं या सभी मुसलमान मस्जिद ही चाहते हैं.किसी का किसी विचारधारा अथवा आंदोलन के साथ होना य़ा न होना,कई नियामकों पर निर्भर करता है.सबसे प्रभावकारी परिस्थितियां होतीं हैं.परिस्थितियां सबसे पहले आदमी के मन को आंदोलित करती हैं.आदमी परिस्थितियों को बदलना चाहता है.लेकिन यहां भी जरुरी नहीं कि सभी का मन आंदोलित हो और यथास्थिति के खिलाफ उसके मन में उथल-पुथल मचे.यहां आदमी की व्यक्तिगत समझदारी उसे निर्णय लेने में सहायता करती है.अब समझदारी आती कहां से है ? कुछ मामलों में व्यक्ति की समझदारी उसके अंदर से आती है.कुछ मामलों में उसकी शिक्षा उसकी समझदारी को बढा़ती है.अब शिक्षा का मतलब क्या ? शिक्षा का मतलब यह नहीं कि आपके पास कितनी बड़ी डिग्री है.डिग्रियों का भी महत्व है,परन्तु डिग्रीधारी की समझदारी ही अव्वल हो,ऐसा भी नहीं है. बहुधा ऐसा देखा गया है कि एक पढ़ा-लिखा या डिग्रीधारी समस्याओं की जटिलताओं को उस स्तर तक नहीं समझ पाता है,जहां से समाधान का रास्ता निकल सकता है.परन्तु,एक अनपढ़ व्यक्ति भी दूर की कौड़ी ले आता है.ऐसा इसलिए कि उसके पास किताबी ज्ञान तो नहीं है,परन्तु उसका अनुभव संसार किसी भी डिग्री पर भारी पड़ता है.
नक्सलवाद नक्सलबाड़ी से चला तो बिहार में सबसे पहले शाहाबाद(अब भोजपुर) के सहार,संदेश और पीरो में अपना डेरा जमाया था.इसके मौजूं कारण भी थे.मध्य बिहार के इस इलाके में सामंतों का डंका बजता था.हरिजन और पिछड़ों का जीना दुभर था.देश तो आजाद हो गया था लेकिन ये सामंतो के गुलाम थे.इनका कोई सुनने वाला नहीं था.पंचायत से लेकर विधान सभा और संसद तक कहीं इनका कोई नहीं था.बिल्कुल असहाय.सामंतों के उत्पीड़न को अपनी नीयति मान चुके थे.इसके बावजूद,उनके बीच ऐसे लोग भी थे,जो अनपढ़ थे,लेकिन वे इस परिस्थिति को बदलना चाहते थे.वे भी आजादी चाहते थे.इसीलिए,जब नक्सलियों ने हरिजनों और पिछड़ों को विश्वास दिलाया कि वे उन्हें सामंतों की गुलामी से मुक्ति दिलाने में उनकी मदद करेंगे,तब दबे-कुचले लोगों ने नक्सलियों को हाथों-हाथ लिया था.उन्हें लगा कि चलो,कोई तो मिला जो उनकी मुक्ति की बात तो करता है. धीरे-धीरे विश्वास का दायरा बढ़ता गया और बिहार में नक्सलवादियों के सहारे हरिजनों ओर पिछड़ों को मुक्ति की राह दिखने लगी. बाद में इन्हें सामंतों से बहुत हद तक मुक्ति मिली.
यहां भी ऐसा नहीं था कि तमाम हरिजन और पिछड़े नक्सलवादी हो गए थे.और ऐसा भी नहीं कि तमाम सवर्ण सामंत और उत्पीड़क ही थे.आज भी छत्तीसगढ़ में कहा जाता है कि वहां के आदिवासी नक्सली हो गए हैं.लेकिन वहीं सलवाजुडुम में भी आदिवासी हीं है, जो नक्सलियों के खिलाफ बंदूक उठाए हुए हैं.
किसी व्यक्ति या समूह का किसी विचारधारा या आंदोलन के पक्ष या विपक्ष में होना परिस्थिति,परिवेश,संवेदनशीलता और विवेक पर भी निर्भर करता है.किसी बच्चे को जैसे माहौल में रखा जाएगा.बड़ा होकर वह वैसा ही करेगा.यदि किसी बच्चे को आर एस एस संचालित विद्यालय में डाल दिया जाए तो वह वहां से एक कट्टर संघी बनकर ही निकलेगा.इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बच्चा आदिवासी है ,हरिजन है या ब्राह्मण.
इसलिए किसी एक समुदाय पर सवाल नहीं उठाया जा सकता कि वह नक्सलवादी क्यों नहीं है या तालीबानी क्यों नहीं है या संघी क्यों नहीं है
-गिरिजेश्वर,मैथन,धनबाद..
१६ अगस्त २०१० ६:५३ पूर्वाह्न
aatmahanta ने कहा…
कामरेड, चीजों को थोड़ी दूरी बनाकर देखने से उसकी समग्रता समझ में आती है। मैं आपकी समझदारी पर सवाल नहीं खड़े करता, पर यह भी उतना ही सच है कि हम जहां तक देख सकें दुनिया वहीं तक नहीं होती। मैंने समुदाय-कौम की बात की है, जाति की नहीं। जाति तो मुसलमान में भी हैं और अन्यत्र भी। लेकिन कोई प्रवृत्ति जब किसी जाति विशेष में या कौम विशेष में बहुतायत से पाई जाए तो निश्चय ही यह विशेष अध्ययन को आमंत्रित करता है। कभी कोई बीमार अपने को बीमार नहीं कहना चाहता। पर डाक्टर के पास जाने से भी नहीं घबड़ाता। और रही बात बहस के लायक मुद्दा का तो किसी भी गंभीर मसले को अमूर्तता का लबादा ओढाकर उसे बहस के दायरे से खारिज किया जा सकता है। और बहस में शिरकत की जिम्मेवारी से बाहर से आ सकते हैं। क्या आपको नहीं लगता कि इस मामले में एक बहसतलब मसले को इसलिए खारिज किया जा रहा है कि वह किसी 'वाद' या पार्टी लाईन के खिलाफ पड़ती है।
कामरेड चीजों को उसके वास्तविक रंगों-आभा में देखने के लिए अपनी आंखों से चश्मा हमें आंखों से उतारना होगा। हो सकता है बहस का विषय किसी चश्मे को पहन कर तैयार किया गया हो, पर बहस में आकर ही इसे देखा जा सकता है। मेरा इरादा किसी कौम को नीचा दीखाना नहीं था, सिर्फ यह परखना था कि मेरी जिज्ञासा सचमुच बहसतलब है या नहीं, या बस सिरफिरापन?
"कभी मुसलमान नक्सली क्यों नहीं हुआ करते?" का उत्तर देने के पहले यह जानना जरूरी है कि नक्सली कौन होते हैं? क्या नक्सलवाद का कोई संबंध जाति धर्म अथवा संप्रदाय से है? क्या नक्सलवाद मात्र एक उत्तेजना का रूप है? क्या नक्सलवाद वास्तव में एक आंदोलन है? बहुत से प्रश्न हैं इसकी जड़ों में। वास्तव में नक्सलवाद की जड़ों में एक सोच है जो कभी शोषित सर्वहारा की रही होगी अब यह सोच नेतृत्व और नियंत्रित के बीच की बात रह गयी है। कुछ लोगों को लगता है कि जो हो रहा है वह ठीक नहीं है और उसे इस प्रकार बदला जा सकता है और वे यही सोच अन्य ऐसे लोगों में भर पाते हैं जो आज में इतने उलझे हुए हैं कि आने वाले कल के बारे में सोच ही नहीं सकते।
जवाब देंहटाएंजब सभी प्रश्नों पर समग्र रूप से सोचा जायेगा तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि अन्य समुदायों की तरह बहुत से मुसल्मान स्वयं सक्षम हैं सोचने में और जीवन का मार्ग चुनने के लिये और जो नहीं हैं उनपर पूर्व से ही अन्य शक्तियों का कट्टर नियंत्रण है। खुली सोच वाला, किसी भी जाति संप्रदाय अथवा समुदाय से हो, नक्सली नहीं हो सकता। नकसली होने के लिये एक अलग ही मानसिकता चाहिये जो किसी में भी हो सकती है इसमें एक धर्म विशेष का संदर्भ उचित नहीं है।
कोई समुदाय या वर्ग क्यों नहीं नक्सली हुआ करते,यह कोई बहसतलब मुद्दा हो सकता है,मुझे नहीं लगता.ऐसे सवाल दूसरे वर्गों और समुदायों के बारे में भी पूछे जा सकते हैं.मसलन,आमतौर पर सवर्ण क्यों दलितों,आदिवासियों,पिछड़ों या गरीबों के किसी भी तरह के आंदोलन,चाहे नक्सवादी आंदोलन हो या सामाजिक न्याय का आंदोलन, के खिलाफ क्यों होता है ? दरअसल,कोई भी वर्ग या समुदाय पूरा का पूरा किसी एक विचारधारा अथवा आंदोलन का समर्थक या विरोधी नहीं हुआ करता.ऐसा नहीं है कि तमाम आदिवासी नक्सलवादी आंदोलन के साथा हैं.यह भी सच नहीं है कि सभी मुसलमान आतंकवादियों के जेहाद का समर्थन करते हैं.आप नहीं कह सकते कि सभी हिन्दू आर एस एस या भाजपा के समर्थक हैं.ऐसा भी नहीं है कि सभी हिन्दू अयोध्या में मस्जिद की जगह मंदिर चाहते हैं या सभी मुसलमान मस्जिद ही चाहते हैं.किसी का किसी विचारधारा अथवा आंदोलन के साथ होना य़ा न होना,कई नियामकों पर निर्भर करता है.सबसे प्रभावकारी परिस्थितियां होतीं हैं.परिस्थितियां सबसे पहले आदमी के मन को आंदोलित करती हैं.आदमी परिस्थितियों को बदलना चाहता है.लेकिन यहां भी जरुरी नहीं कि सभी का मन आंदोलित हो और यथास्थिति के खिलाफ उसके मन में उथल-पुथल मचे.यहां आदमी की व्यक्तिगत समझदारी उसे निर्णय लेने में सहायता करती है.अब समझदारी आती कहां से है ? कुछ मामलों में व्यक्ति की समझदारी उसके अंदर से आती है.कुछ मामलों में उसकी शिक्षा उसकी समझदारी को बढा़ती है.अब शिक्षा का मतलब क्या ? शिक्षा का मतलब यह नहीं कि आपके पास कितनी बड़ी डिग्री है.डिग्रियों का भी महत्व है,परन्तु डिग्रीधारी की समझदारी ही अव्वल हो,ऐसा भी नहीं है. बहुधा ऐसा देखा गया है कि एक पढ़ा-लिखा या डिग्रीधारी समस्याओं की जटिलताओं को उस स्तर तक नहीं समझ पाता है,जहां से समाधान का रास्ता निकल सकता है.परन्तु,एक अनपढ़ व्यक्ति भी दूर की कौड़ी ले आता है.ऐसा इसलिए कि उसके पास किताबी ज्ञान तो नहीं है,परन्तु उसका अनुभव संसार किसी भी डिग्री पर भारी पड़ता है.
जवाब देंहटाएंनक्सलवाद नक्सलबाड़ी से चला तो बिहार में सबसे पहले शाहाबाद(अब भोजपुर) के सहार,संदेश और पीरो में अपना डेरा जमाया था.इसके मौजूं कारण भी थे.मध्य बिहार के इस इलाके में सामंतों का डंका बजता था.हरिजन और पिछड़ों का जीना दुभर था.देश तो आजाद हो गया था लेकिन ये सामंतो के गुलाम थे.इनका कोई सुनने वाला नहीं था.पंचायत से लेकर विधान सभा और संसद तक कहीं इनका कोई नहीं था.बिल्कुल असहाय.सामंतों के उत्पीड़न को अपनी नीयति मान चुके थे.इसके बावजूद,उनके बीच ऐसे लोग भी थे,जो अनपढ़ थे,लेकिन वे इस परिस्थिति को बदलना चाहते थे.वे भी आजादी चाहते थे.इसीलिए,जब नक्सलियों ने हरिजनों और पिछड़ों को विश्वास दिलाया कि वे उन्हें सामंतों की गुलामी से मुक्ति दिलाने में उनकी मदद करेंगे,तब दबे-कुचले लोगों ने नक्सलियों को हाथों-हाथ लिया था.उन्हें लगा कि चलो,कोई तो मिला जो उनकी मुक्ति की बात तो करता है. धीरे-धीरे विश्वास का दायरा बढ़ता गया और बिहार में नक्सलवादियों के सहारे हरिजनों ओर पिछड़ों को मुक्ति की राह दिखने लगी. बाद में इन्हें सामंतों से बहुत हद तक मुक्ति मिली.
यहां भी ऐसा नहीं था कि तमाम हरिजन और पिछड़े नक्सलवादी हो गए थे.और ऐसा भी नहीं कि तमाम सवर्ण सामंत और उत्पीड़क ही थे.आज भी छत्तीसगढ़ में कहा जाता है कि वहां के आदिवासी नक्सली हो गए हैं.लेकिन वहीं सलवाजुडुम में भी आदिवासी हीं है, जो नक्सलियों के खिलाफ बंदूक उठाए हुए हैं.
किसी व्यक्ति या समूह का किसी विचारधारा या आंदोलन के पक्ष या विपक्ष में होना परिस्थिति,परिवेश,संवेदनशीलता और विवेक पर भी निर्भर करता है.किसी बच्चे को जैसे माहौल में रखा जाएगा.बड़ा होकर वह वैसा ही करेगा.यदि किसी बच्चे को आर एस एस संचालित विद्यालय में डाल दिया जाए तो वह वहां से एक कट्टर संघी बनकर ही निकलेगा.इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बच्चा आदिवासी है ,हरिजन है या ब्राह्मण.
इसलिए किसी एक समुदाय पर सवाल नहीं उठाया जा सकता कि वह नक्सलवादी क्यों नहीं है या तालीबानी क्यों नहीं है या संघी क्यों नहीं है
-गिरिजेश्वर,मैथन,धनबाद..
कामरेड, चीजों को थोड़ी दूरी बनाकर देखने से उसकी समग्रता समझ में आती है। मैं आपकी समझदारी पर सवाल नहीं खड़े करता, पर यह भी उतना ही सच है कि हम जहां तक देख सकें दुनिया वहीं तक नहीं होती। मैंने समुदाय-कौम की बात की है, जाति की नहीं। जाति तो मुसलमान में भी हैं और अन्यत्र भी। लेकिन कोई प्रवृत्ति जब किसी जाति विशेष में या कौम विशेष में बहुतायत से पाई जाए तो निश्चय ही यह विशेष अध्ययन को आमंत्रित करता है। कभी कोई बीमार अपने को बीमार नहीं कहना चाहता। पर डाक्टर के पास जाने से भी नहीं घबड़ाता। और रही बात बहस के लायक मुद्दा का तो किसी भी गंभीर मसले को अमूर्तता का लबादा ओढाकर उसे बहस के दायरे से खारिज किया जा सकता है। और बहस में शिरकत की जिम्मेवारी से बाहर से आ सकते हैं। क्या आपको नहीं लगता कि इस मामले में एक बहसतलब मसले को इसलिए खारिज किया जा रहा है कि वह किसी 'वाद' या पार्टी लाईन के खिलाफ पड़ती है।
जवाब देंहटाएंकामरेड चीजों को उसके वास्तविक रंगों-आभा में देखने के लिए अपनी आंखों से चश्मा हमें आंखों से उतारना होगा। हो सकता है बहस का विषय किसी चश्मे को पहन कर तैयार किया गया हो, पर बहस में आकर ही इसे देखा जा सकता है। मेरा इरादा किसी कौम को नीचा दीखाना नहीं था, सिर्फ यह परखना था कि मेरी जिज्ञासा सचमुच बहसतलब है या नहीं, या बस सिरफिरापन?
मुझे नहीं लगता कि प्रस्तुत बहस का विषय निरर्थक या तर्कहीन है, जैसा कि ऊपर व्यक्त विचारों में कुछ मित्र कह रहे हैं। वह इसलिए कि यह एक सच है। यह एक आदर्श सोच हो सकती है कि सामाजिक प्रवृत्तियों-दुष्प्रवृत्तियों को धर्म, जाति, समुदाय के आधार पर नहीं देखनी चाहिए, लेकिन यह व्यवहारिक स्थिति नहीं हो सकती । आदर्श का आह्वान किया जाता है, आदर्श पर बहस नहीं हो सकती। बहस-मुहाबिसे तो उन्हीं मुद्दों पर होंगे, जो हमारे सामने प्रस्तुत हैं या मंडरा रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इस देश में नक्सलिज्म गंभीरतम मुद्दों में से एक है। और जब हम इसके तमाम पक्षों को खोलने की कोशिश करते हैं, तो यह बात स्वाभाविक रूप से सामने आती है कि आखिर किसी धर्म विशेष के लोग इसमें शामिल क्यों नहीं हैं। इससे यह कहां साबित होता है कि जो इसमें शामिल नहीं हैं, वे इसके विरोध में हैं। राजनीति और बौद्धिक बहस दो चीजें हैं। राजनीति बहुत-से कठोर सच को छिपाना चाहती है। यही कारण है कि हमारी राजनीति का ध्यान इस ओर नहीं है।
जवाब देंहटाएंक्या कोई यह दावा कर सकता है कि भारत में लोगों की सामूहिक सोच, चाल, चलन आदि भारतीय संविधान या भारतीय कानून के साये में विकसित होते हैं। यहां ज्यादातर लोगों की सोच और व्यक्तित्व, उसकी धार्मिक-सामाजिक-सामुदायिक मान्यताओं के संसर्ग में ही विकसित होते हैं। इसलिए चीजों को इस लिहाज से विश्लेषित कर उसके कारणों तक पहुंचना एक शुद्ध और ईमानदार बौद्धिक प्रयास है और इसमें कोई हानि भी नहीं है। यकीन मानिये, ऐसे विमर्श तब तक हानिकारक नहीं होते, जब तक वे राजनीतिक नहीं हो जाते। क्या उमा जी की कोई राजनीतिक पार्टी है ? यकीन मानिये देश में एक भी ऐसी पार्टी नहीं है, जो उमा जी जैसे लोगों को अपने साथ करने का चरित्र रखता हो।
सधन्यवाद
रंजीत