हमसफर

सोमवार, 9 नवंबर 2015

वर्चुअल संसार के नायकों के लिए सबक


आज जिस असहिष्णुता को लेकर तांडव मचा हुआ है, उसकी जवाबदेही कहीं न कहीं मुल्क की बौद्धिक जमात की है. सवाल यह मौजूं नहीं है कि बीते दौर में उसने क्या किया और क्या नहीं किया. सवाल यह है कि राजनीति में विचार की अहमियत को वह अब भी नहीं समझना चाहता. यही कारण है कि विचार शून्य राजनीति में नायक की तरह उभरे नरेंद्र मोदी मीडिया ट्यूनर बने हुए हैं. इस इक्वलाइजर से वह जब जैसी जरूरत सुर-स्वर छेड़ते हैं. किस आवास को उभारना है, किसे दाबना है, इक्वलाइजर यही तो करता है. बिहार विधान सभा के चुनाव परिणाम ने जिस तरह बिहार के वोटर की परिपक्वता सामने आयी है, वह इन बोद्धिकों के लिए एक सबक है. ये पुरस्कार लौटानेवाले बौद्धिक मुल्क के समक्ष असहिष्णुता का एक कृत्रिम परदृश्य बनाने में लगे रहे. उन्हें दाल, तेल, गैस जैसे मसले से कोई सरोकार नहीं. आभासी दुनिया के नायक और कर ही क्या सकते हैं.
समय-समाज की बजाय अपनी मर्जी से बात करना पसंद करनेवाले मोदी भी लगभग एक आभासी संसार ही बना रहे हैं. इसीलिए मन की बात फैशन में भी आ गयी. दाल-तेल की कीमत भले ही मुल्क के गरीब के सहने से बाहर हो, पर बौद्धिकों के लिए यह सहिष्णुता के दायरे में है. आजादी के बाद से छात्र आंदोलन को छोड़ न तो भाषा, न रोटी, न शिक्षा और न ही सेहत को लेकर यह बौद्धिक जगत कभी उद्वेलित-आंदोलित हुआ. प्रधानमंत्री के खेल का ही नतीजा है कि आज दाल बहस के परिदृश्य के बाहर सर पटक रही है और बौद्धिक जमात असहिष्णुता का माला जप रही है.
ठीक इसी तरह हुआ था चार साल पहले. तहरीर चौक का मामला हुए थोड़े ही दिन हुआ था. मुल्क में टू जी के मामले में एक से खुलासे हो रहे थे और फिर मीडिया स्टार इसमें घिरने लगे थे. और तब लोकपाल को लेकर उद्धारकर्ता की तरह अण्णा हजारे का परिदृश्य में आगमन हुआ. देश के सौ से अधिक चैनल के संपादकों ने रातों-रात अम्णा हजारे के आंदोलन के कवरेज की रणनीति बनायी। और फिर चाह कर भी टू-जी के मामले में पत्रकारों की शिरकत का मामला दब गया तो दब गया. और तकदीर के उन सांढ़ों की प्रोन्नति होती चल गयी. बाद में उन्हीं में से एक महिला पत्रकार ने सियासी हस्ती को पकड़ लिया.

बहुत हो गयी मन की, अब जन की बात करें

नरेंद्र मोदी की राजनीतिक सफलता ने उन्हें भले ही विकास के गुजराती मॉडल की ब्रांडिंग का मौका दिया, लेकिन बिहार में महागंठबंधन ने इसकी कलई खोल कर रख दी. लोस चुनाव में जिस विकास को उन्होंने चुनावी मुद्दा बनाया था, बिहार विस चुनाव में दूर-दूर तक वह नहीं दिखा. गो-मांस के नाम पर वितंडा, नीतीश के डीएनए का सवाल, आरएसएस द्वारा छेड़े गये आरक्षण का जिन्न और जंगलराज पार्ट टू ने मिल कर जैसे बिहार की जनता को झुंझला दिया-झल्ला दिया. नीतीश के सुशासन को अपनी आंखों से देखनेवाले बिहारी मतदाता ने महंगाई से भटकानेवाले असहिष्णुता के मुद्दे को कीमत नहीं दी. भले ही देश भर के बुद्धिजीवी मीडिया ट्यूनर नरेंद्र मोदी के बहकावे में आकर असहिष्णुता का राग अलापते रहे और पब्लिक की पॉकेटमारी (दाल, पेट्रोल, गैस,...) से आंख मूंदे रहे. इसलिए कि महंगाई उनकी सहिष्णुता की हद में थी. लेकिन बिहार के लोगों ने पॉकेट में हाथ डालनेवाले के हाथ काट डालेंगे उन्हें भी नहीं पता था.

दरअसल ब्रांडिंग और इवेंट के भरमा दी गयी जनता की बदौलत दिल्ली की बादशाहत पाये नरेंद्र मोदी पर बहुत जल्द कामयाबी आवेग बन कर सवार हो गयी. बड़बोलापन उसी नशे से निकला है. यदि भाजपा के कैलाश विजयवर्गीय ने भाजपा के वरिष्ठ सांसद शत्रुघ्न सिन्हा की तुलना कुत्ते से की है तो आकस्मिक नहीं. हो सकता है यह हार से उपजी खीझ हो, पर है तो उसी पार्टी के नेता का बयान जिसके दुलारे नायक मोदी ने चुनाव से पूर्व डीएनए के दोष की बात की थी. साक्षी महाराज, भाजपा की सांसद साध्वी निरंजन ज्योति उसी घराने के हैं. सफलता के इसी नशे की उपज मन की बात है. जब जो जी में आये वह बोलेंगे. कितना भी जरूरी हो, जी नहीं तो जुबान नहीं खोलेेंगे.

सोमवार, 9 फ़रवरी 2015

मधु कोड़ा के हाल में आये जीतनराम मांझी

राजनीति की कौन सी तसवीर खींच रहे जीतन राम
मधु कोड़ा ने निर्दलीय विधायक की हैसियत से झारखंड में कांग्रेस के समर्थन से साल 2006 में सरकार बनायी थी. अभी जब बिहार के सीएम को जदयू ने पार्टी से निलंबित कर दिया है तो वह असंबद्ध विधायक की हैसियत के सीएम रह गये हैं. झारखंड में जो खेल कांग्रेस ने साल 2006 में किया था, वही खेल बिहार में भाजपा फिलहाल मांझी के कंधे पर बंदूक चलाकर कर रही है. भाजपा के खाद-पानी से ही मांझी के ख्वाब पल-बढ़ रहे हैं. कांग्रेस जो काम करती रही है, अब भाजपा उसी नक्शे कदम पर चलने का संकेत दे रही है. एक बार फिर साबित हुआ कि सत्ता का चरित्र एक होता है.

रविवार, 8 फ़रवरी 2015

राजनीति की अनुकंपा या सत्ता का अनुग्रह सबको नहीं पच पाता.

राजनीति की अनुकंपा या सत्ता का अनुग्रह सबको नहीं पच पाता. कम से कम बिहार में जीतन राम मांझी को देखकर तो ऐसा ही लगता है.
राजनीतिक बाध्यता हो या सत्ता का व्याकरण, जिस जंगल राज के खात्मे के लिए नीतीश जी को भाजपा का दामन थामने में ऐतराज नहीं हुआ, वही नीतीश मोदी लहर में अस्तित्व बचाने की लड़ाई में जंगल राज के उस राजा यानी लालू को कितनी देर तक अपने खूंटे से बांधे रख पायेंगे, इसमें शक है. लालू मोदी विरोध के झोंके में अपनी दमित आकांक्षाओं को भूल जायेंगे, इसकी भी बहुत कम उम्मीद है. इस विचार शून्य राजनीति में जहां राजनीति पूरी तरह बाजार की शरण में नतमस्तक है, वहां निष्ठा का कोई मतलब नहीं बचा. जीतन राम मांझी इसी की मिसाल हैं. यह तो नीतीश जी का मुगालता था कि उन्होंने भक्त के रूप में अपना भस्मासुर चुना था. यदि राबड़ी की जगह कोई और होता तो लालू का भी वही हस्र होता जो आज नीतीश का है. राजनीति की सोशल इंजीनियरिंग को भानेवाले लालू का सबसे बड़ा फैक्टर (पोलिटिकल यूएसपी भी) उनका मसखरापन था, पर अपने मसखरापन को भुनाते-भुनाते उन्होंने बिहार का बेड़ा गर्क कर दिया, विकास पुरुष नीतिश भी अपने अहं की तुष्टि के लिए बिहार को लगभग उसी जगह लाने पर तुले हैं.
यदि तथाकथित विकास पुरुष नीतीश को राजनीति की लड़ाई में सबकुछ जायज लगता है तो क्या वजह है कि लड़ाई के एक मुकाम पर जाकर लालू अपनी ताकत को किसी भी सियासी बाजार में भुना लें..साफ जाहिर है कि इस दृश्य का दृश्यांतर भी हो सकता है.

गुरुवार, 29 जनवरी 2015

आखिर वेदप्रकाश हमें छोड़ गया

                                         दिल को सुकन रूह को आराम आ गया                                                  मौत आ गयी कि दोस्त का पैगाम आ गया

लाइक, शेयर, पोस्ट में डूबे जमाने में संवेदनात्मक सरोकार की अपेक्षा नहीं की जा सकती. कोयलांचल के जुझारू और दिलेर पत्रकार वेद प्रकाश ओझा की मरणांतक स्थितियों से जूझने की खबर (पोस्ट) को फेसबुकिया दोस्तों के लाइक, शेयर तो मिले, पर नहीं मिली तो समाज की, मीडिया बिरादरी की दिलेरी. एक उम्मीद थी कि वापसी के लिए मौत से लड़ते वेद, चुनौतियों से जूझते परिवार के लिए अपना हाथ बढ़ाकर हम अपना कर्ज कुछ हलका कर सकते थे. कहीं-कहीं से उम्मीद भी जगी थी. उम्मीद पर दुनिया तो टिकी है, पर इस बेदिल दुनिया ने वेद की उम्मीद को तोड़ दिया. दो दिनों से अब-तब करते हुए 28 जनवरी 2015 की दोपहर चार बजे वह हमें कई बींधते सवालों के बीच छोड़ गया. हम फेसबुकिया साथी थोड़ा भी दिल रखते हों तो उसके द्वारा छोड़ गयी दुनिया में असहाय और बिखर रहे परिवार के लिए कुछ करने की सोचनी होगी.

हर फिक्र को दिलेरी से उड़ाता चला गया - हर फिक्र को दिलेरी से उड़ाते जाने की जैसे वेद को आदत पड़ गयी थी. दो दशक से उसे जाननेवाले हम साथियों ने उसे कभी गंभीर, गमगीन, फिक्रमंद नहीं देखा. ऐसा नहीं कि जिम्मेवारियों को वह नहीं समझता था. सारे पेशागत एसाइनमेंट को पूरा करते हुए उसने हमें जीवन को सहजता से जीना सिखाया. हममें जो भी सामर्थ्य, क्षमता हो उससे वेद की स्मृति में पुरस्कार या ट्रस्ट बनाने की जरूरत नहीं. वेद के इलाज में जेवर बेच चुकी पत्नी, उसके दो बेटों के लिए अंधकार होती इस दुनिया में एक मुट्ठी इजोत की जरूरत है. क्या हम ऐसा नहीं कर सकते कि झंझावातों में पड़े इस परिवार के लिए खड़ा होने की थोड़ी सी जगह (स्थितियां) जुटा सकें. हमें एकजुट होकर कुछ सोच कर करने की जरूरत है.

लाइक, शेयर, पोस्ट करनेवाले फेसबुकिया साथियों से एक पाकिस्तानी शायर के शेर के जरिये एक अपील -
करोड़ों क्यों नहीं लड़ते, फिलिस्तीं के लिए मिल कर
दुआओं से नहीं कटती, फकत जंजीर मौलाना.

...तो साथियो, अब दुआ से आगे चलकर कुछ करने के वक्त को हम साझा करें..

बुधवार, 28 जनवरी 2015

अभी नहीं जाऊंगा, सिन्हा जी क्या कहेंगे!

अविभाजित बिहार में विकास विद्यालय के बाद किसी निजी स्कूल ने यदि अपना परचम लहराया था तो वह था इंपीरियल स्कूल ऑफ लर्निंग, झरिया. सातवें दशक में बना यह स्कूल बाद में इंडियन स्कूल ऑफ लर्निंग, झरिया हुआ और आइएसएल के नाम से चर्चित और लोकप्रिय हुआ. इसके संस्थापक थे डॉ जेके सिन्हा, दुनिया में सर्वाधिक समय तक किसी शैक्षणिक संस्थान के प्रमुख रहने का रिकार्ड होल्डर रहे. यह सरस्वती पुत्र सरस्वती पूजा के दिन इस दुनिया से चल बसा. और गणतंत्र दिवस के दिन इनकी अंत्येष्टि धनबाद के गोविंदपुर में टुंडी रोड के किनारे खुदिया नदी के तट पर जब हो रही थी तो मैं भी वहां था. मैं दस सालों तक इस समूह के विद्यालय में बतौर पीजीटी रहा. यह रिपोर्ट इसी लिहाज से हम जैसे शिक्षकों की ओर से एक श्रद्धांजलि स्वरूप है.........................................मॉडरेटर
      
दिल को सुकून रूह को आराम आ गया, मौत आ गयी कि दोस्त का पैगाम आ गया
26 जनवरी का दिन. समय : रात्रि आठ बजे. स्थान : धनबाद के गोविंदपुर स्थित टुंडी रोड के किनारे खुदिया नदी का तट. मां सरस्वती की प्रतिमाओं का विसजर्न हो रहा था. वहीं बगल में प्रख्यात शिक्षाविद डॉ जेके सिन्हा का दाह-संस्कार चल रहा था. कुछ जा चुके थे. कुछ जाने को थे. ठंड से डरे कुछ जाने को बेताब थे. इन्हीं फुसफुसाहटों के बीच दो-चार शिक्षक-प्राचार्य डॉ सिन्हा के शुरुआती सहयोगियों में एक ‘एकेडमिक क्वेस्ट’ के उपाध्यक्ष एएल दास से बोल रहे थे : ‘सर चलेंगे नहीं?’ जलती लाश की लपटों की
 तरफ देख उन्होंने कहा : ‘नहीं. अभी नहीं जाऊंगा, सिन्हा जी क्या कहेंगे. बोलेंगे, बच्चू छोड़ कर चला गया.’ दरअसल, डॉ सिन्हा श्री दास को एकांत के क्षणों में बच्चू ही कहते थे. श्री दास के लिए स्व सिन्हा अब भी सिन्हा जी ही थे.
बनाया शिक्षा का समाज : हाउसिंग कॉलोनी स्थित मानकी मंदिर से निकली डॉ सिन्हा की शवयात्र उनकी कर्मस्थलियों से होते हुए खुदिया नदी पहुंची. स्कूल परिसरों में दहाड़ें मारकर रोतीं शिक्षिकाएं, सुबकते शिक्षक-सहकर्मियों ने करुण चादर तान दी थी. यह माहौल डॉ सिन्हा द्वारा बनाये गये समाज का अहसास करा रहे थे. आइएसएल झरिया, किड्स गार्डेन झरिया, शिशु विहार बस्ताकोला से होकर किड्स गार्डेन हीरापुर और फिर हाउसिंग कॉलोनी से आइएसएम एनेक्स के बाद खुदिया की ओर चली शवयात्र ने सैलाब का रूप ले लिया. विधायक, पूर्व विधायक व पूर्व मंत्री, अवकाश प्राप्त आइएएस अधिकारी, कॉलेज प्राचार्यो, सरकारी-गैरसरकारी स्कूलों के शिक्षक किसी को बुलाया नहीं गया था. जिसे भी जानकारी मिली सभी जुटते-जुड़ते गये. कुछ इसी तरह से डॉ जेके सिन्हा कोयलांचल के निजी विद्यालयों के बीच ताजिंदगी समन्वयक की भूमिका निभाते रहे. उन्हें जाननेवाले बताते हैं कि उन्होंने इसी तरह शिक्षा का समाज बनाया. कोयलांचल के 46 सीबीएसइ संबद्धता प्राप्त विद्यालयों के संगठन ‘सहोदय कंप्लेक्स’ तथा आइएसएल समूह के ‘एकेडमिक क्वेस्ट’ के अध्यक्ष पद पर रहे. 
शिक्षाविदों ने कहा
अद्भुत प्रशासनिक कौशल : राजकमल सरस्वती विद्या मंदिर के प्राचार्य फूल सिंह कह रहे थे : धनबाद के निजी स्कूलों के बीच जो सामंजस्य, सौहार्द सिन्हा साहब ने बनाया, वह उनके अद्भुत प्रशासनिक कौशल का नमूना था. धनबाद में आने के बाद उनके संपर्क में कब, कैसे आया, नहीं बता सकता. मुङो तो ऐसा लगता है कि मुङो उनका सर्वाधिक स्नेह मिला. 
..नजारा ही कुछ और होता : डीएवी धनबाद जोन के निदेशक तथा डीएवी कोयलानगर के प्राचार्य डॉ केसी श्रीवास्तव का बोलना था कि आठवें-नौवें दशक में सिन्हा साहब ने अविभाजित बिहार में सीबीएसइ संबद्धता प्राप्त पहले निजी स्कूल से कोयलांचल में जो मेयार बनाया था, वह बरकरार रहता तो आज धनबाद का नजारा ही कुछ और होता. डॉ सिन्हा ने कोयलांचल ही नहीं, वरन झारखंड-बिहार में एक शैक्षणिक वातावरण बनाया. 
अजब कौशल : एकेडमिक क्वेस्ट के उपाध्यक्ष एएल दास का कहना था कि डॉ सिन्हा ने अजब कौशल अर्जित किया था. उन्होंने जिस किसी भी चीज को छूआ, वह सोना हो गया. उनके विद्यालय से निकले छात्र और शिक्षक आज जहां भी हैं, वहां के गौरव व सम्मान हैं. उनके योगदान को हम शिक्षा के क्षेत्र में कोयलांचल के वैशिटय़ के रूप में रेखांकित कर सकते हैं. 
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का माहौल : आइएसएल भूली के प्राचार्य एसके सिंह का कहना है कि डॉ सिन्हा ने कोयलांचल में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का ऐसा सकारात्मक माहौल कायम किया, जिससे यहां शिक्षा का एक नया समाज बना. शैक्षणिक क्षेत्र में कोयलांचल को पहचान दिलाने में उनकी महती भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता. अपने योगदानों की बदौलत वे हमारे बीच जिंदा रहेंगे.
अब कौन होगा नंबर तेरह का प्रेमी
ज्योतिषी में 13 की संख्या को अपशकुन माना जाता है. नंबर तेरह यानी शनि. लेकिन डॉ सिन्हा के पास सभी गाड़ियों के नंबर 13 से अंत होते थे. पहली गाड़ी के तौर पर उन्होंने किसी छात्र के अभिभावक से बीएचआर या बीइआर 1013 नंबर का एक सेकेंड हैंड स्कूटर लिया था. फिर एंबेसडर कार ली 1013 ही, जिस नंबर को लोग अपशकुन मानते हैं, वक्त के साथ वह डॉ सिन्हा का पसंदीदा नंबर बनता गया. फिर तो 2013, 3013, 4013 और 5013 नंबर की कारों का तांता लगता गया.
..जब हेगड़े की पैरवी पर नहीं लिया एडमिशन
कर्नाटक के सीएम रहे रामकृष्ण हेगड़े ने एक बार झरिया के विधायक रहे सूर्यदेव सिंह से आइएसएल झरिया में किसी छात्र के एडमिशन के लिए कहा था. धनबाद कोयलांचल में वह दौर सूर्यदेव सिंह का था. हेगड़े ने सोचा होगा एक तो वह सीएम हैं और ऊपर से धनबाद में एसडी सिंह का जलवा. एसडी सिंह ने इसी भरोसे डॉ जेके सिन्हा से उस छात्र के एडमिशन की बाबत बात की. डॉ सिन्हा ने साफ शब्दों में कह दिया कि सारे फॉर्म बोर्ड जा चुके हैं. कोई गुंजाइश नहीं. अब यह समझा जा सकता है कि इन हालातों में डॉ सिन्हा को इस फैसले पर पहुंचना कितना चुनौतीपूर्ण रहा होगा. 

डॉ जितेंद्र कुमार सिन्हा : एक नजर में
जन्म : 5 फरवरी, 1942. गया (अब जहानाबाद) के नेहालपुर नामक ग्राम.
पिता : श्री देवनंदन प्रसाद. पेशे से प्रधानाध्यापक थे. माता मानकी देवी की अकाल मृत्यु ने जितेंद्र का बचपन व कैशोर्य छीन लिया. दिवंगत माता की स्मृति में ही डॉ़  सिन्हा ने, धनबाद की हाउसिंग कॉलोनी स्थित अपने आवास का नाम ‘मानकी मंदिर’.
शिक्षा : एम़ ए (हिंदी) प्रथम श्रेणी, मगध विश्वविद्यालय, गया.
शोध : राजा राधिका रमण और उनके उपन्यास. प्रख्यात हिंदी विद्वान स्व डॉ धर्मेंद्र ब्रह्मचारी शास्त्री के मार्गदर्शन में शोध पूरा किया.
सांगठनिक यात्र : सन् 1965 के उत्तरार्ध में, धनबाद आने के बाद यहां के हीरापुर में संचालित बीएन गिरि नामक शिक्षा शास्त्री के ‘कोलफील्ड स्कूल ऑफ एजुकेशन’ में डॉ सिन्हा को नौकरी मिल गयी. वह स्कूल अब भी संचालित है, पर आइएसएल की अपेक्षा बेहद छोटा. यहां उन्हें जगदंबा सिंह, डॉ देवेन्द्र सिंह, सुरेश मिश्र, हलधर प्रसाद चौबे, डिक्रूज फ्रांसिस जैसे मित्र मिल गये. यहीं से प्रेरित होकर डॉ सिन्हा ने झरिया के कतरास मोड़ में ‘इंपीरियल स्कूल ऑफ लर्निंग’ नामक विद्यालय की स्थापना की. अब तो आइएसएल नाम के स्कूलों का ग्रुप ‘एकेडमिक क्वेस्ट’ बन गया
 
 
 

बुधवार, 21 जनवरी 2015

हम वेद को जाते नहीं देख सकते, और आप..?

उमा
न्यूजमैनशिप के लिए ‘फायर ऑफ बेली’ (पेट की आग) जैसी तीव्रता और बेताबी की अपेक्षा करनेवाले कोयलांचल के पत्रकार वेद प्रकाश आज जिंदगी और मौत से जब जूझ रहे हैं तो कोयलांचल के बहुत कम साथी हैं जिन्हें वह याद आते हैं. करीब दो दशक पहले भारतीय खनि विद्यापीठ की निबंध प्रतियोगिता में उत्कृष्ट स्थान प्राप्त करने के बाद धनबाद के एक स्थानीय दैनिक ने अपने यहां काम करने का अवसर दिया. और यहीं से शुरू हुई उसकी पत्रकारिता.  
दस साल पहले ‘प्रभात खबर’ के धनबाद संस्करण में काम करते हुए गिरिडीह राइफल लूट कांड, महेंद्र सिंह हत्याकांड और भेलवाघाटी उग्रवादी घटना की रिपोर्टिग के लिए काम निबटाकर रात तीन बजे धनबाद से गिरिडीह जाना हम साथी भूल नहीं सकते. नक्सली वारदात की रिपोर्टिग के लिए गिरिडीह कूच करते समय किसी अंदेशा की बजाय तीर्थ की अनुभूति और एडवेंटर (साहसिक अभियान) का रोमांच उसके चेहरे पर हम देखते थे. यह जज्बा और जुनून ही था कि घातक हादसे से उबरने के बाद वेद उसी पुराने जोशो-खरोश के साथ रिपोर्टिग के अपने पुराने काम में जुत गये थे. भीतर ही भीतर मधुमेह, गुरदा की परेशानी से टूट रहे वेद के चेहरे पर कभी किसी ने थकान या उदासी नहीं देखी. अपोलो और एम्स का चक्कर लगा रहा. गैंग्रीन ने पीछा भी नहीं छोड़ा था कि फिर आ गये काम पर यह उम्मीद जताते हुए कि काम करते-करते सामान्य हो जायेंगे. पैर के अंगूठे का घाव सूखा भी नहीं था कि पट्टी बंधे पांव के साथ लंगड़ाते-लंगड़ाते धमक गये काम पर.  संपादक और दफ्तर के आग्रह के बावजूद यह हाल था. कभी हादसा तो कभी बीमारी के कारण बार-बार अस्पताल का चक्कर लगता रहा. हर बार थोड़ा ठीक होकर जिंदगी के लिए, हम सभी के लिए बची-खुची ऊर्जा जुटा कर और टूटती उम्मीद को छीन कर लाते रहे. लेकिन बार-बार किस्त-किस्त में बीमारियां भीतर ही भीतर उन्हें खाये जा रही थी. और हम थे कि खोखली होती उम्मीद से हौसला पा रहे थे कि हमारा वेद खुशी के सामानों के साथ लौट रहा है.
बिना किराये के कोई किसी मकान में कितने दिनों तक रह सकता है. लगभग यही हाल उसकी सेहत का होता रहा. शरीर अब सेहत का किराया देने में लगातार लाचार होता गया. कोयलांचल में जितनी मदद हो सकती थी मीडिया ने अलग-अलग क्षेत्रों से मदद जुटायी. उन्हें जिलाकर रखने में कोई कोताही नहीं की घर वालों ने. जहां इलाज में लाखों के मासिक खर्च आ रहे हों, वहां साजो-सामान जुटाने में उनके कुनबे, हमारे साथियों के दम टूटते जा रहे हैं. फिलहाल हमारा वेद कोलकाता के एक निजी अस्पताल सीएमआरआइ में जिंदगी और मौत से जूझ रहा है. फिर भी हमें उम्मीद है कि हमदर्द साथी उसे छोड़ना नहीं चाहेंगे. उस जिंदा दिल वेद को कौन यूं ही जाते देख सकता है. उम्मीद के जंगल में उस वेद को ढूंढ़ने की जी तोड़ कोशिश करें तो कुछ हो सकता है. वेद का हाल जानने के लिए उनकी पत्नी से 09431375334 पर संपर्क   किया जा सकता है. अगर आप हमारे वेद प्रकाश के लिए कुछ करना चाहते हैं तो उनके लिए वेद के खाते का ब्योरा हम यहां दे रहे हैं :
खाता सं. : एसबीआइ/ 30030181623
आइएफएससी कोड : एसबीआइएन 0001641
एमआइसीआर कोड : 8260002006
ब्रांच कोड : 001641