हमसफर

सोमवार, 21 अक्तूबर 2024

तुम्हारे खतों से पस्त एकाकी कैद

 साल 2018-19 के किसी दिन भाई पुष्पराज ने नागपुर सेंट्रल जेल से जीएन साईंबाबा की अंग्रेजी में लिखी एक कविता अनुवाद के लिए उपलब्ध करायी. उसी समय अनुवाद किया था. भाई पुष्पराज ने अपने फेसबुक वाल पर इसे पोस्ट भी किया था ... प्रासंगिकता देखते हुए उनके निधन के बाद वह अनुवाद फिर प्रस्तुत है .....

तुम्हारे खतों से पस्त एकाकी कैद
-प्रो.जी .एन साईं बाबा
(जेल से लिखा गया प्रेम पत्र)
मैं तुम्हारा पत्र पढ़ता हूँ
टूटे हुए दिल के झरोखे से बहते हुए
अपने खून की चमक में
अपनी कोठरी के अंधकार में
मैं तुम्हारा संदेश पढ़ता हूँ
घसीटे हुए अक्षरों के घेरे पर नजदीक से टकटकी लगाये
जो तुम्हारी ऊंगलियों से झरे हैं
पंक्तियों और शब्दों के बीच उम्मीद
मैं तुम्हारी अभिव्यक्तियाँ पढ़ता हूँ
तुम्हारे चेहरे की रेखाओं में
जो तुम्हारे प्रेम की स्याही से लिपटी हुई है
तुम्हारे पत्रों में
तुम्हारे अहसास की महक है
एक-एक लफ्ज
मेरे भूखे मन के
लाखों संदेश सुनाते हैं
हां, मेरा प्यार
तुम्हारे घसीटे हुए अक्षर मुझे पसंद हैं
जो कंप्यूटर से मुद्रित कागज़ नहीं हैं
वे तुम्हारी तरह बोलते हैं
तुम्हारी तरह बर्ताव करते हैं
तुम्हारी तरह हाव-भाव प्रकट करते हैं
जैसे बोलते समय तुम्हारे हाथ
मैं तुम्हारे अलिखित शब्दों को सहेजता हूं
तकिया के बिना अपने सर के नीचे
प्रतिबंध से बच जाते हैं
अपनी बंद आंखों के सामने
अपनी आत्मा की मेज पर फैलाकर पढ़ता हूँ
एकाकीपन की कैद के मकसद को
मैं पस्त करता हूं
तुम्हारे प्रेमपूर्ण अक्षरों में
खुद को डुबोकर...
(अनु. उमा)

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

                   शुभम श्री : हिंदी कविता का क्वथनांक

कविता की जिस जमीन पर चरवाहे आलोचकों ने कवियों को बैल की तरह जोता, उस जमीन को कोई उन शास्त्री चरवाहों की परवाह किये बगैर ताम (कोड़) दे तो यह कहां से बरदाश्त होगा. कविता की कुलीन परंपरा में एक अज्ञात कुल-शील को लोग (लोक नहीं) आसानी से बैठने की जगह (आसन) नहीं दे सकते हैं. साठ के दशक में अमरिका में कनफेशनल पोएम की गूंज मुझे सुनाई पड़ती है शुभम श्री के यहां. वीमन लीब का नारा देनेवालियों ने सड़क पर अंतःवस्त्र जलाना शुरू किया था. कविताओं में खुल कर इन पर चरचा होती थी. कविता के इस नये झोंके से भदेस हिंदी के समलिंगी, हस्तमैथुन शास्त्री चरवाहों को अपनी धोती के उड़ने का खतरा दिखता है. और बहस करते हैं जैसे शुभमश्री ने उनकी निरीह षोडशी कविता का शीलहरण कर लिया.
देखिए शुभम की कविता -मेरे हॉस्टल के सफाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन फेंकने से इनकार कर दिया है-की बानगी

मुझे पता है ये बेहद कमजोर कविता है
मासिक चक्र से गुजरती औरत की तरह
पर क्या करूँ

मुझे समझ नहीं आता कि
वीर्य को धारण करनेवाले अंतर्वस्त्र
क्यों शान से अलगनी पर जगह पाते हैं
धुलते ही 'पवित्र' हो जाते हैं
और किसी गुमनाम कोने में
फेंक दिए जाते हैं

क्या यह एनी सेक्सटन और सिल्विया प्लाथ के उद्दाम ताप से हटकर है..तय करें.

कविता के पुरुषवादी ढांचे और सामाजिक कुलीनता की दीवारों के साथ एक साथ यह छेड़छाड़ इतनी जल्द बरदाश्त नहीं होगी. समय लगेगा झेलने में. तब तक हो सकता है शुभमश्री भी शायद संभल जाये.  भारतीय स्त्री जिन घरों में रहती है उसकी दीवारें बहुत ही अदृश्य होती हैं. इन अदृश्य दीवारों से बने ये घर असुरक्षा, अंदेशा, अनिश्चय से भरते हैं स्त्रियों को. और इनमें से कोई जब शुभम बन कर खड़ी होती है तो कितनी लहकती होगी पुरुषों की, समझ सकते हैं...
पहली बार जब निराला के जरिये कविता की काया टूटती नजर आयी, तो यह हिंदी कविता संसार था जिसने उन्हें बहुत सहजता से नहीं लिया था. काव्य संसार में दो गज जमीन के लिए एड़ी-चोटी एक करनी पड़ी थी. जहां कविता के स्वरूप में छंद पादो तु वेदस्य जैसी धारणा अपना पांव जमाये हुए थी, वहां कविता के स्वरूप के साथ निराला का छेड़छाड़ शास्त्रियों के लिए नागवार था. उनके बाद मुक्तबोध ने हिंदी कविता को उसके कुलीनताबोध से बाहर लाया. लेकिन यह हिंदी कविता का मेल्टिंग प्वाइंट था. मेल्टिंग प्वाइंट पर द्रव के अवयव (अंतराणविक बल) ढीले पड़ते हैं. निराला और मुक्तिबोध की कविता कवितात्व उसके अवयवों के छद्म को तोड़ती है.  जुही की कली और कुकुरमुत्ता को बेहद हिकारत भरी नजरों से देखते थे तब के शास्त्री. रबड़छंद कह कर मजाक उड़ाया जाता था. काव्यबोध की जिस कुलीनता का छद्म तार-तार हो रहा था इस मेल्टिंग प्वाइंट पर,  धूमिल की कविता की ब्वाइलिंग प्वाइंट पर सारे काव्य तत्व विघटित हो जाते हैं. और राजकमल चौधरी के यहां आकर तो जैसे सारी सामाजिक व साहित्यिक वर्जनाएं, कविता के गलित मूल्य-आदर्श कमजोर पड़कर छिटक कर दूर हो जाते हैं. नौवें दशक तक आकर आलोकधन्वा इस ब्वायलिंग प्वाइंट को मेंटेन करते हैं. और सहस्त्राब्दी के दूसरे दशक तक आते-आते शुभम श्री हिंदी कविता को उसके पूरे ब्वायलिंग प्वाइंट पर ले जाती हैं. जिस जगह आकर सामाजिक मर्यादा कविता की मर्यादा का पर्याय बन जाती है वह कविता पर अभिजात का शासन है. शुभम श्री को लेकर हिंदी में मौजूद भिन्न स्वर का सबसे बड़ा एक कारण तो यह है कि काव्यरूढ़ियों के अभ्यस्त ढेरो कवि-आलोचक हिंदी के एनपीए (गैर कार्यशील पूंजी, डूबा हुआ कर्ज) साबित हो जाते हैं. भला इस स्थिति को कौन मंजूर कर सकता है. 

शुक्रवार, 8 जुलाई 2016

नहीं रहीं माया मैम

एक एनाउंसमेंट बाकी रह गया मैम

आज सुबह-सुबह बेटी को स्कूल से लौटा देख कर माजरा नहीं समझा। पूछने पर पता चला कि माया मैम नहीं रहीं. और इसी के साथ स्मृति की घिरनी में माइक पकड़े -प्यारे बच्चो- बोलतीं माया मैम की रील घूमने लगी. .
दो दशक से ऊपर हो गये उनसे परिचय को। शुरू के दस साल हम कोयलांचल के प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थान आइएसएल, सरायढेला में शिक्षक रहे। बाद के दस साल वह डीएवी कोयलानगर में रहीं. मैं ढेरों जगह का चक्कर काटकर झारखंड सरकार के अनुदानित इंटर कॉलेज में आ गया. फिर भी गाहे-बगाहे भेंट जारी रही. इस बार वह मेरे बच्चों के अभिभावक के रूप में थीं. पर भेंट के दौरान वही लगाव.
जब तक आइएसएल, सरायढेला में रहा, स्कूल का कोई ओकेजन नहीं जब उन्हें एनाउंसर के डायस पर नहीं पाया। एक शालीन मद्धम आवाज में आगंतुकों के स्वागत की जरूरी औपचारिकता के तत्काल बाद एक स्नेहिल मुस्कान भरी आवाज में प्यारे बच्चो कहती. एक संस्कृत शिक्षिका की हिंदी बेहतर हो सकती है, लेकिन अंगरेजी भी उतनी ही प्रभावी। यह उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि का असर था। उनके पिता धनबाद के प्रतिष्ठित अंग्रेजी शिक्षक हुआ करते थे। वैसे वह केंद्रीय अस्पताल में स्टोर इंचार्ज थे। कभी-कभी संचालन में सहयोग के लिए मेरी स्क्रिप्ट होती थी। झरिया विधायक संजीव सिंह तब दूसरी या तीसरी कक्षा में पढ़ते थे। आज जब सूचना मिली मैम तो मैं अपनी पत्नी दीपिका से आपके एनाउंसमेंट का जिक्र कर रहा था। मैम आपको अंतिम बार देखने जाते वक्त शैलेन्द्र सर भी इसी का जिक्र कर रहे थे।
डीएवी से डीएवी तक : तीन दशक पूर्व उन्होंने डीएवी बालिका विद्यालय , धनबाद से शिक्षण पेशे की शुरुआत की थी. इसके बाद वह आइएसएल सरायढेला आ गयीं. फिर विद्यालय प्रबंधन में बदलाव के बाद वरीय शिक्षक इधर से उधर गये. इसी दौरान करीब वर्ष 2002 के आसपास वह डीएवी चली गयीं.
कर्मठ और सौम्य : इधर-उधर से मिली जानकारियों के मुताबिक उनकी निजी जिंदगी भारी उथल-पुथल से भरी रही. दांपत्य सफल नहीं रहा. पर मुझे कभी याद नहीं कि किसी ने कभी उनका चेहरा म्लान देखा हो या तनावग्रस्त. सौम्य मुस्कान हमेशा. घर में ट्यूशन, बच्चों को तैयार करना फिर स्कूल की ड्यूटी. किसी से कोई शिकवा-शिकायत नहीं.
शिक्षक का सम्मान ः इस बात को करीब दो दशक हो गये होंगे. मैं टेन डी में हिंदी की कक्षा लेता था. एक बार किसी वजह से पूरी क्लास को मैंने सजा के रूप में सभी छात्र को मार पड़ी थी. दूसरे दिन लगभग दर्जन भर छात्रों के हाथ में पट्टी, क्रेप बैंडेज, प्लास्टर बंधे थे. इसमें माया मैम का पुत्र रोहित भी था. पूछने पर मैम ने कहा कि कल छात्रों को आपने पनिश किया था. बस इतना ही. इसके सिवा शिकायत के एक बोल नहीं.

रवीश कुमार के नाम खुला पत्र


मैं कभी न तो एमजे का प्रशंसक रहा और न ही रवीश जी आपका कायल. सात जुलाई 2016 को बुधवार को एनडीटीवी की साइट पर -एमजे अकबर के नाम रवीश कुमार का पत्र- पढ़ कर कुछ बातों का कोलाज मन के पन्ने पर उभरने लगा. रवीश जी, जब पत्रकार ही अखबार के मालिक होते थे तब की बात और थी. तब के मूल्य, सरोकार, प्रतिबद्धताएं और प्राथमिकताएं अलग थीं. लेकिन तब भी अपनी तरह की ज्यादतियां थीं. अब जबकि मीडिया में पूंजी का अच्छा-खासा प्रवेश हो गया है. उसके सारे गुण-दोष भी पीछे-पीछे आ गये. मीडिया का कारपोरेटीकरण हो गया है तो परिप्रेक्ष्य के इस बदलाव का कुछ तो असर होगा ही. वही असर है जिसने पत्रकारिता की प्राथमिकताएं बदल डालीं. उसके सारे नखदंत नोंच डाले गये हैं. उदारीकरण की स्तुतियां और आरतियां किस घराने ने नहीं उतारीं. चैनलों का अपना तरीका अलग हो सकता है, पर सब एक ही घाट पर पानी पीते हैं.
एमजे पहले शख्स नहीं जिन्होंने अखबार-राजनीति में आवाजाही की. पर आपका हाहाकार जरूर नया है. इस शगल के चलते उन्होंने भी मीडिया की बड़ी-बड़ी नौकरियां छोड़ीं. सियासत के दांव हारने पर मीडिया की नयी पारी की जलालतें भी झेलीं. रवीश जी हम लोगों को भी कष्ट हुआ था जब उनसे भी पहले उदयन शर्मा ने चुनाव की खातिर रविवार की पत्रकारिता छोड़ी थी. फिर तो वह गायब ही हो गये. संतोष भारतीय का किस्सा तो पुराना ही हो चुका है. वेद प्रताप वैदिक को कौन भूलेगा. टाइम्स ऑफ इंडिया की हिंदी पत्रिकाओं को उन्होंने ही खरीदा था. उनकी राजनीतिक गलबांही तो अभी-अभी तक चरचा में थी. उनकी विद्वत्ता की धाक लोग मानते हैं. और रवीश जी, बिहार के लोग सियासी मोह के कारण आपको भी नहीं भुला पायेंगे. बिहार के गत चुनाव में पूर्वी चंपारण के गोविंदगंज से अपने भाई बीके पांडेय को टिकट दिलवाने के लिए आपने एड़ी-चोटी एक कर दी थी. कांग्रेस ने टिकट दे तो दिया, पर जीत सुनिश्चित करने का दांव अभी बाकी था. सो नीतीश जी का टांका काम आया. छह बार से जिस परिवार के लोग विधायक बनते आ रहे थे. उसी घर से थीं मीना द्विवेदी. वह दो बार लगातार जदयू से विधायक थी. उनका टिकट काट दिया गया. और इस तरह जीत का रास्ता साफ हो गया. इस पर आप क्या कहेंगे.

बुधवार, 20 अप्रैल 2016

फेसबुक के कोने से

पिछले दिनों अपने फेसबुक वाल से कुछ जरूरी पोस्ट उस पर आयी प्रतिक्रियाओं के साथ अपलोड करना शुरू किया है. प्रतियाएं आमंत्रित है....

12 नवंबर 2015 का पोस्ट-
वर्चुअल संसार के नायकों के लिए सबक
आज जिस असहिष्णुता को लेकर तांडव मचा हुआ है, उसकी जवाबदेही कहीं न कहीं मुल्क की बौद्धिक जमात की है. सवाल यह मौजूं नहीं है कि बीते दौर में उसने क्या किया और क्या नहीं किया. सवाल यह है कि राजनीति में विचार की अहमियत को वह अब भी नहीं समझना चाहता. यही कारण है कि विचार शून्य राजनीति में नायक की तरह उभरे नरेंद्र मोदी मीडिया ट्यूनर बने हुए हैं. इस इक्वलाइजर से वह जब जैसी जरूरत सुर-स्वर छेड़ते हैं. किस आवास को उभारना है, किसे दाबना है, इक्वलाइजर यही तो करता है. बिहार विधान सभा के चुनाव परिणाम ने जिस तरह बिहार के वोटर की परिपक्वता सामने आयी है, वह इन बोद्धिकों के लिए एक सबक है. ये पुरस्कार लौटानेवाले बौद्धिक मुल्क के समक्ष असहिष्णुता का एक कृत्रिम परदृश्य बनाने में लगे रहे. उन्हें दाल, तेल, गैस जैसे मसले से कोई सरोकार नहीं. आभासी दुनिया के नायक और कर ही क्या सकते हैं.समय-समाज की बजाय अपनी मर्जी से बात करना पसंद करनेवाले मोदी भी लगभग एक आभासी संसार ही बना रहे हैं. इसीलिए मन की बात फैशन में भी आ गयी. दाल-तेल की कीमत भले ही मुल्क के गरीब के सहने से बाहर हो, पर बौद्धिकों के लिए यह सहिष्णुता के दायरे में है.आजादी के बाद से छात्र आंदोलन को छोड़ न तो भाषा, न रोटी, न शिक्षा और न ही सेहत को लेकर यह बौद्धिक जगत कभी उद्वेलित-आंदोलित हुआ. प्रधानमंत्री के खेल का ही नतीजा है कि आज दाल बहस के परिदृश्य के बाहर सर पटक रही है और बौद्धिक जमात असहिष्णुता का माला जप रही है.ठीक इसी तरह हुआ था चार साल पहले. तहरीर चौक का मामला हुए थोड़े ही दिन हुआ था. मुल्क में टू जी के मामले में एक से खुलासे हो रहे थे और फिर मीडिया स्टार इसमें घिरने लगे थे. और तब लोकपाल को लेकर उद्धारकर्ता की तरह अण्णा हजारे का परिदृश्य में आगमन हुआ. देश के सौ से अधिक चैनल के संपादकों ने रातों-रात अम्णा हजारे के आंदोलन के कवरेज की रणनीति बनायी। और फिर चाह कर भी टू-जी के मामले में पत्रकारों की शिरकत का मामला दब गया तो दब गया. और तकदीर के उन सांढ़ों की प्रोन्नति होती चल गयी. बाद में उन्हीं में से एक महिला पत्रकार ने सियासी हस्ती को पकड़ लिया.

प्रतिक्रिया-
Rajesh Paul बहुत दिनों के बाद कोई निरपेक्ष विचार पढ़ने को मिला।आपके अगले पोस्ट की प्रतीक्षा मे।
Umanath Lal DasUmanath Lal Das दरअसल जब वन मन शो होता है तो वह मन की मर्जी करता ही है। फिर वही जन की जगह मन की बात करता है,जन की नहीं।।।।
 21 अक्तूबर 2015 का पोस्ट--
कामरेड, चीजों को थोड़ी दूरी बनाकर देखने से उसकी समग्रता समझ में आती है. मैंआपकी समझदारी पर सवाल नहीं खड़े करता, पर यह भी उतना ही सच है कि हम जहां तकदेख सकें दुनिया वहीं तक नहीं होती.गिरिजेश्वर जी मैं समझ नहीं पा रहा कि कहां की खीझ कहां उतर रही है. न तो पुरस्कार आपके घर में गया और न ही किसी संगठन कीबात हो रही है. लेकिन प्यासे लोगों की तड़प जरूर है. और जब सुखाड़ होता है तोसभी प्यासे एक ही घाट से पानी पीते हैं. विरोध करनेवालों के सच पर आपको इतनाप्रेम क्यों उमड़ रहा है.
क्या आपको नहीं लगता कि इस मामले में एक बहसतलब मसले को इसलिए खारिज किया जारहा है कि वह किसी 'वाद' या पार्टी लाईन के खिलाफ पड़ती है. कामरेड चीजों कोउसके वास्तविक रंगों-आभा में देखने के लिए अपनी आंखों से हमें चश्मा उतारनाहोगा. कभी कोई बीमार अपने को बीमार नहीं कहना चाहता, पर डाक्टर के पास जाने सेभी नहीं घबराता. और रही बात बहस के लायक मुद्दा की तो किसी भी गंभीर मसले कोअमूर्तता का लबादा ओढाकर उसे बहस के रेंज से आसानी से बाहर किया जा सकता है.और बहस में शिरकत की जिम्मेवारी से बाहर से आ सकते हैं. क्या आपको नहीं लगताकि इस मामले में एक बहसतलब मसले को इसलिए खारिज किया जा रहा है कि वह किसी'वाद' या पार्टी लाईन के खिलाफ पड़ती है. आपसे कम मैं मार्क्सवाद को नहींचाहता. भले ही मैं किसी ऐसी पार्टी का सदस्य नहीं रहा. क्या भारतीय वामपंथ के सच को आप नहीं जानते कि जिस व्यक्ति ने भाकपा का गठन किया उसे पार्टी नेनिष्कासित कर दिया. वह एमएन राय ऐरा-गैरा नहीं थे. लेनिन के साथ उनकी थिसिस भी कांग्रेस में बहस के लिए रखी गयी थी.कामरेड चीजों को उसके वास्तविक रंगों-आभा में देखने के लिए अपनी आंखों सेचश्मा हमें आंखों से उतारना होगा. हो सकता है बहस का विषय किसी चश्मे को पहनकर तैयार किया गया हो, पर बहस में आकर ही इसे देखा जा सकता है.
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अब खास कर आपके लिए अपनी दो कविताएं पोस्ट कर रहा हूं. दोनों कविताएं कथादेशके जून 2011 वाले अंक में प्रकाशित हैं. हो सकता है इससे मेरी दृष्टि का पताचले. इसके अलावे पहल 92 में छपी मेरी दो कविताओं को देख सकते हैं. आपकी सुविधाके लिए उसका लिंक है-
http://pahalpatrika.com/frontcover/getdatabyid/28…
पहल 93 के संपादकीय में इसका जिक्र भी देखें--
http://pahalpatrika.com/frontcover/getrecord/36
और मैं क्या कह सकता हूं.....काबुल से बगदादकाबुल और बगदाद से खुली गाड़ीकहाँ रुकेगीयूएनओ के ढहते गुम्बद से आती है फुसफुसाहटबहुत भोले हैं वे जिन्हें इस गाड़ी काधुआँ दूसरे किसी देश के किसी प्रान्त के किसी गाँव में नहीं दिखताकुली का काम पा जाने के लालच में उस धुएँ का प्रदूषण नहीं दिखतानहीं जानते कि यह गाड़ीरेडियो वेव के वेग से चलती हैशायद यह धुआँ ही इतना छा गया कि पार का नजारा नहीं दिखता कमजोर आँखों कोवे नहीं जानतेकि यह गाड़ी पटरी पर नहीं चलती इसलिए जितना डर बैंकों के लुट जाने का हैउतनी ही आशंका खेत-खलिहानों के रौंदें जाने की भी हैकभी भी कुचली जा सकती है पेड़ के नीचे चलती पाठशालाऔर कभी भी पाँच सितारा होटल मिट्टी के ढेर में बदल सकता हैहारमोनियम और मृदंग पर हाँफते चौता औररघुपति राघव... कभी भी गुम हो सकते हैं इक्वलाइजर मेंऔर कभी भी जेनिफर लोपेज, ब्रिटनी स्पीयर बनती बालाएँ मिट सकती हैंखतरा जब एक जैसा हो हर जगहतो बचने के अलग-अलग रास्तेऔर भी खतरनाक हो जाते हैं.यह वक्तयह वक्तगोल-मटोल बात कर निकल जाने का नहीं.यह वक्तसभी व्यवस्था में झक-झक सफेद बने रहने का नहीं.सन्त और नादान बनकर साहित्य अकादमी बटोरने का भी वक्त नहीं है यह.ये बहुत नादान चतुर हैंजो किसी का नाम लेकर बात नहीं करतेकिसी पर उंगली उठाकर किसी का निशाना नहीं बनते.हमारे अभाग्यों और कष्टों का कारणकौन बतायेगा?उस पर उंगली उठानी ही होगीगाली देनी ही होगी.कालर पकड़ना ही होगासिर्फ प्रधानमंत्रियों-मुख्यमंत्रियों कोगाली देना काफी नहींहमारे कष्ट और अभाग्यों की शुरुआतहमारे प्रबन्धक से है, प्रशासक से हैहमारे मुखिया से है, विधायक से है, सांसद से हैहैड मास्टर से है, सम्पादक से हैडाक्टर से, इन्जीनियर से है.इन्हें कौन कर्मचारी, मतदाता, शिक्षक, पत्रकार, मरीजगाली देगा?कौन पकड़ेगा इनकी कालर?सड़क पर खदेड़ेगा इन्हें कौन?थानेदारों को जेल में ठूसेगा कौन?कौन सजा सुनाएगा न्यायाधीशों को?जब राष्ट्रपति को गाली देना आसान हो जाएइसका मतलब मुखिया का बेहद ताकतवर हो जाना हैयह वक्त है वही.कौन सिल रहा है इनकी जबान?कौन बोल रहा है इनकी जबान से?हम सभी जिस वक्त के सुअरबाड़े में रहते हैंवहाँ के गंधाते चरवाहे को ढूँढ़ना होगा.यह वक्तजनतंत्र को शौचालय बनानेवालों कोमाला से लादने का नहीं हैजनतंत्र के इस सार्वजनिक मूत्रालय मेंकोई अपने शब्द पकड़ कर कोई अपने फरमान लेकरकोई अपनी वर्दी लेकरतो कोई अपनी लाल बत्ती लेकरचला आता है मूतने.नंगे-भूखे मरनेवालों की भाषा वह नहींमहंगाई-बेकारी से बलात्कृत सपनोंके गर्भपात की वह भाषा नहींजिस भाषा में लिखकर कोईझटक ले जाता है अकादमीऔर कोई शिखर सम्मानउसकी कलम को कौन तोड़ेगा?जो गूंगों की स्याही सोख रहा हैजो फैला रहा है स्याही उनकी रातों मेंजो उनकी जबान से छेड़खानी करता है.कुर्सी को कुर्सी और लाठी को लाठीपैरवी को पैरवी और घूस को घूसहत्या को हत्या और लाल को लालनहीं कह सकनेवाली भाषाकवि की भाषा नहीं,वह बलात्कारी का स्वांग है.यह वक्तस्वांग करने वालों का नहीं उनके मेकअप खरोंचने का है.

प्रतिक्रिया-
 Pratyush Chandra Mishra जी पढ़ चुके है।लेकिन आपका सवाल फिर भी ठीक नहीं लगा।सादर।संघियो की तरह सबूत की जरूरत नहीं।
Girijeshwar Prasad
Girijeshwar Prasad उमा जी, मेरी खीझ सही जगह पर उतर रही है। मेरी कमजोरी सिर्फ इतनी है कि मैं छायवाद की कला नहीं जानता। मुझे लट्ठमार भाषा ही आती है। इसका न तो मुझे कोई मलाल है और ना गुमान ही।...... आपकी साहित्यिक छायावादी लेखन के सामने मैं यही कहना चाहता हूँ कि आप अभी भी प्रतिरोध की आवाज के खिलाफ खड़े हैं। अभी तक आपने फासीवादियों के खिलाफ एक शब्द भी पोस्ट नहीं किया है। मैं नहीं जानता,आप किसी मजबूरी में हैं,या यह आपका शगल है। मैंने आपके बारे में जो भी विचार बनाया है,वह आपकी पिछले दो-एक पोस्ट के कारण बना है। मुझे आपके लेखन पर कोई सवाल नहीं करना है। आपकी विचारधारा (जिसे मैं पिछले पोस्ट के पहले तक जानता था) के बारे में मुझे कोई शंका नहीं है। लेकिन वर्तमान मुझे शशंकित अवश्य कर रहा है। मुझे खीझ इसी बात का है। में अपनी शंका को झुठलाना चाहता हूँ,लेकिन अभी तक आपके पोस्ट से मुझे ऐसी कोई दिलाशा नहीं मिली है।.... मैंने (आपने भी) मंडल और कमंडल का दौर देखा है। मंडल के लागू होने के बाद कई कॉमरे़ड को अपने मूल में लौटते देखा है। उनकी ललाट पर लाल बड़े टीके के साथ खड़ी और हवा में लहराती उनकी चुटिया फिर से जीवंत हो चुके थे। और आज भी वे उसी कमंडल के साथ हैं। उनके जनवाद और मार्क्सवाद को ध्वस्त होते मैंने काफी करीब से देखा है। इसलिए,मेरा मन अब लगभग मान चुका है कि भारत के मार्क्सवादी,जनवादी और समाजवादी खुद को न तो डि-कास्ट कर पाए हैं और न डि-क्लास। यह दोनों उनके अंदर जीवित रहते हैं। खासकर,भारतीय जातिवादी व्यवस्था में उच्च कहे जाने वाले लोगों में यह बात होती है। मैं कुछ अपवादों से इनकार नहीं करता। समग्रता में देखें,तो सच यही है। इस कारण भी मेरे अंदर रोष और अफसोस दोनों है। अफसोस इस बात का कि एक अच्छे मार्क्सवादी-जनवादी का कायांतर हो रहा है। मेरा एक मित्र मुझ से दूर जा रहा है। बस।
Hari Prakash Latta
Hari Prakash Latta हाँ भाई उमा जी , मित्रों की सलाह मानिये अब कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर बन ही जाइये क्योंकि रूस , चाइना सहित सभी कम्युनिस्ट देशों में विरोध व्यक्त करने के सभी रास्ते खुले हैँ और अभिव्यक्ति की भी पूरी आजादी है.......वे लाखों लोग तो यूँही मारे गए थे या साइबेरिया की जेलों में बंद कर दिए थे......और कई लेखक , पत्रकार , नेता और वैज्ञानिक तो ब्रिटेन अमेरिका में यूँ ही शरण लेने चले गए थे........अरे देखा नहीं आपने जब इस देश में आपातकाल लगा था और अभिव्यक्ति की आजादी सहित सभी मौलिक अधिकार छीन लीये थे तब इन वामपंथी कार्ड होल्डरों ने कितना ज़बर्दस्त आंदोलन खड़ा किया था........विरोधस्वरूप इन्हौनें देश की सभी जेलों को भर दिया था........इन्ही के आंदोलन से इमरजेंसी हटी थी.......सच्चा कम्युनिस्ट वही होता है जो 19 वीं सदी के मार्क्स और लेनिन की कही बातों अक्षरसह् जिन्दगी भर चिपका रहे.......वे अनेक देश जो अब कम्युनिज्म से अलग हों गए हैं या अपने देश की आवश्यकता के हिसाब से संशोधित कम्युनिज्म को अपना लिया है वे सब तो नकली है.........और एक बात गरीब , मजदुर , किसान के अधिकृत हितैषी तभी माने जायेंगे जब इनके कार्ड होल्डर हों.......और किसी से मित्रता भी तभी हो सकती है जब वो उसी राजनैतिक विचारधारा का हो यानि मित्रता के लिए एक मात्र पैमाना सामान राजनैतिक विचारधारा हो अन्यथा दोस्ती ख़तम # प्रगतिशीलता
Girijeshwar Prasad
Girijeshwar Prasad जी लाटा जी, आपातकाल एवं इंदिरा गाँधी की तानाशाही के खिलाफ वामपंथियों ने आंदोलन किया था,जेल भी गए थे।उनमें लेखक और पत्रकार भी शामिल थे। कृपया जानकारी कर लें। और यह भी पता कर लें कि आपातकाल के बारे में संघ की क्या राय थी। वैसे, यह छुपा हुआ तथ्य नहीं है क...See More
Hari Prakash Latta
Hari Prakash Latta आपातकाल का इतिहास सभी को ज्ञात है.......शायद दलीय निष्ठा के कारण आप स्वीकार नहीं करना चाहते हैं फिर भी मुझे संतोष है कि रूस और चाइना पर आपने मौन सहमति दी है........मार्क्स और लेनिन के अनुयायिओं की चिंता मैं क्यों करू ? मैं तो उन्हें आइना दिखा रहा हूँ........और संघ को तो selective secularism वाले भरपूर धरातल उपलब्ध करा ही दे रहे है
Girijeshwar Prasad
Girijeshwar Prasad आपातकाल के समय संघ प्रमुूख की भूमिका के बारे में बातें नहीं करेंगे ? इंदिरा गांधी के साथ समझौता और ..... चलिए,ठीक है,वह आपकी दुखती रग है,उस पर बात नहीं करते हैं।मार्क्स,लेनिन,रुस-चीन के बारे में इतना ही कहना चाहूँगा कि कोई है आपके पास मार्क्स और लेनिन ...See More
Hari Prakash Latta
Hari Prakash Latta हंसी आ रही है ....लिखित इतिहास साक्षी है कि आपातकाल का व्यापक और सार्वजनिक विरोध सबसे ज्यादा संघ और अकाली दल ने किया था......75 से लेकर 77 तक लगातार प्रदर्शन कर लगभग डेढ लाख कार्यकर्ताओं ने गिरफ्तारी दी.......लगता है kbg के सूत्रों ने ही आपको बताया होग...See More
Girijeshwar Prasad
Girijeshwar Prasad मासुम बच्चों की हत्या के पीछे आपसी रंजिश बता कर उसे जस्टीफाई करने की कोशिश। वाह क्या राम राज के नमूने हैं।वैसे रणवीर सेना से लेकर फरीदाबाद तक की सेना,कुछ भी अलग नहीं है। वैसे,बेवकूफ तो वे लोग हैं,जो आपसे उम्मीदें पाल रखी हैं।.....खुश होईए न,तीन राज्य में बचे हैं। पूरा देश आपके हाथों में है,उसे फूँक डालिए। दूनिया थूक रही है,तो थूके,क्या फर्क पड़ता है।
Hari Prakash Latta
Hari Prakash Latta दुनिया नहीं थूक रही......एक खूंटे से बंधे जड़तावादी लोग अपनी खीज मिटाने के लिए झूट और फरेब का सहारा लेकर आसमान की और थूकने का प्रयास कर रहे है .....परिणाम सब को मालूम है......इति
Ajay Singh
Ajay Singh · Friends with Pradip Suman and 10 others
Batyen Raho ! Dattey Raho !! Jabtak sarvnash na ho jaye !! You can change the constitution, not the genetic Nature of humankind, though changes are the essential part of Natural process. Please let us look forward for an "unanimous conclusion", to amend the past for the bright future of our oncoming generation.

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10 नवंबर 2015 का पोस्ट

नरेंद्र मोदी की राजनीतिक सफलता ने उन्हें भले ही विकास के गुजराती मॉडल कीब्रांडिंग का मौका दिया, लेकिन बिहार में महागंठबंधन ने इसकी कलई खोल कर रखदी. लोस चुनाव में जिस विकास को उन्होंने चुनावी मुद्दा बनाया था, बिहार विसचुनाव में दूर-दूर तक वह नहीं दिखा. गो-मांस के नाम पर वितंडा, नीतीश के डीएनएका सवाल, आरएसएस द्वारा छेड़े गये आरक्षण का जिन्न और जंगलराज पार्ट टू ने मिलकर जैसे बिहार की जनता को झुंझला दिया-झल्ला दिया. नीतीश के सुशासन को अपनीआंखों से देखनेवाले बिहारी मतदाता ने महंगाई से भटकानेवाले असहिष्णुता केमुद्दे को कीमत नहीं दी. भले ही देश भर के बुद्धिजीवी मीडिया ट्यूनर नरेंद्रमोदी के बहकावे में आकर असहिष्णुता का राग अलापते रहे और पब्लिक की पॉकेटमारी(दाल, पेट्रोल, गैस,...) से आंख मूंदे रहे. इसलिए कि महंगाई उनकी सहिष्णुता कीहद में थी. लेकिन बिहार के लोगों ने पॉकेट में हाथ डालनेवाले के हाथ काटडालेंगे उन्हें भी नहीं पता था.: दरअसल ब्रांडिंग और इवेंट के भरमा दी गयी जनता की बदौलत दिल्ली की बादशाहतपाये नरेंद्र मोदी पर बहुत जल्द कामयाबी आवेग बन कर सवार हो गयी. बड़बोलापनउसी नशे से निकला है. यदि भाजपा क कैलाश विजयवर्गीय ने भाजपा के वरिष्ठ सांसदशत्रुघ्न सिन्हा की तुलना कुत्ते से की है तो आकस्मिक नहीं. हो सकता है यह हारसे उपजी खीझ हो, पर है तो उसी पार्टी के नेता का बयान जिसके दुलारे नायक मोदीने चुनाव से पूर्व डीएनए के दोष की बात की थी. साक्षी महाराज, भाजपा की सांसदसाध्वी निरंजन ज्योति उसी घराने के हैं. सफलता के इसी नशे की उपज मन की बातहै. जब जो जी में आये वह बोलेंगे. कितना भी जरूरी हो, जी नहीं तो जुबान नहीं खोलेेंगे

प्रतिक्रिया-
Shubham Singh unarguably, event management can't win u elections every time u go in battle field, though it did in loksabha bt tht too, there wz sheer dissatisfaction among mass due to UPA regime. ruling party at centre must understand, people have voted them in pow...See More
Pramod Pandey
Pramod Pandey Sirji zindagi main jisne thokar nahi khai usne zindagi nahi jee,Jo hua accha hua yahi sochte hain,
Nikhil Kumar Das
Nikhil Kumar Das Is election me Modi pravachan bhi dete aur muft me daal bhi dete tab bhi BJP ko itni hi seat milti kyunki bihar me vote aur beti apne hi jaat walon ko dete hain.

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समकालीन ज्वलंत मसलों को लेकर किये गये कुछ पोस्ट जिस पर हुई गर्मागर्म बहस या चर्चा ने एक वातावरण रचा, उसे अपने ब्लॉग में प्रतिक्रियाओं के साथ पेश कर रहा हूं
20 अक्तूबर 2015 का पोस्ट::::
पहले तो भाई मोनाज, लेखक जानें पुरस्कार क्या होता है. कहां से आपको यह भ्रमहो गया.गिरिजेश्वर जी, इनामों से जिसे प्रो्साहन मिलता होगा, मिले. पर अधिकांश पूरीतरह परसकारता की, लाल हरिजन शब्द को लौटाना चाहते हैं,आप कौन-सा लौटना देख रहे हैं. वास्तविक लेखन प्रतिरोध का लेखन होता है. और यहवाम लेखक ही कर सकते हैं. लेकिन आपने मुझमें कौन सा मोड़ देख लिया. मैंनेअसहमति के विवेक तथा लेखकीय स्वायत्तता को अभिव्यक्ति की आजादी के मतलब के रूपमें देखा है. तथा पूरे परिप्रेक्ष्य को अस्मिता के सवाल से जुड़ा पाया है.लेकिन जो दृश्य बन रहा है गिरिजेश्वर जी, आप बताइये कि इसमें लेखकीय अस्मिताका सवाल कहां है और राजनीति कहां. हमें समझना होगा कि यह प्रतिक्रिया किसराजनीति का संरक्षण-पोषण है. जहां मंगलेश डबराल और राजेश जोशी हैं, वहीं धुररूपवादी अशोक वाजपेयी भी खड़े हैं. यही नहीं, इन सबके वैचारिक पोषक-संरक्षकनामवर सिंह अकादमी पुरस्कार को वापस करनेवालों के धुर खिलाफ खड़े हैं और इनकेही छोटे भाई काशीनाथ सिंह पुरस्कार वापस करनेवालों में शामिल हैं.भाई गिरिजेश्वर जी, नहीं मालूम आप इतने आहत क्यों हैं. निरीह अकादमी का विरोधकरनेवालों म वे भी हैं जिन्हें सुब्रत राय को सहाराश्री कहने से परहेज नहींथा. और कोयले की कालिख से पुते ग्रुप की पत्रिका में कार्यकारी संपादक कीअफसरी कुर्सी तोड़ने में मजा आता था. गिरिजेश्वर भाई, थोड़ा ठहरकर विचार करेंकि क्या सरकार ने पुरस्कार के लिए इन्हें मनोनीत किया था या लेखकों-समीक्षकोंके आकलन के बाद इन्हें पुरस्कार के लायक माना गया था. अब आप समझें कि इस निरीहसंस्थान के सम्मान को लौटाकर वह अपनी बिरादरी के अनुमोदन को हिकारत से देख रहेहैं.गिरिजेश्वर जी, हो सकता हो आपके लिए अपने सारे एटैचमेंट के साथ भारत भवन कोभारत भारत बनानेवाले अशोक वाजपेयी महान लगते हों. लेकिन इतिहास में दर्ज तथ्यहै कि जिस वक्त भोपाल में गैस त्रासदी हुई उसके तत्काल बाद कवि सम्मेलन आयोजितकिया गया था. अशोक वाजपेयी ने सम्मेलन स्थगित करने के कुछ लोगों के सुझाव कोखारिज कर दिया यह कह कर कि मुर्दों के साथ कवि नहीं मरता. विरोध दर्ज करनेवालेइन नादान महानुभाव को मालूम नहीं था कि भारत भवन का फोर्ड फाउंडेशन से क्यारिश्ता है. इन महानुभाव को अज्ञेय बहुत भाते थे. अज्ञेय का कांग्रेस फॉरकल्चरल फ्रीडम से वास्ता तो दुनिया जानती है.मैंने इस टिप्पणी म कुछ कर दिया या मुझसे ऐसा क्या हो गया, जिससे मोनाज तथागिरिजेश्वर जी मुझे बदलता हुआ पा रहे हैं. लगता है वाम की दृष्टि भी कर्मकांडऔर प्रपंच से भरती जा रही है. उस पर एक नये कुलीनतावाद का आवरण चढ़ रहा है याकहें कि कुलीनतावाद पर वाम का वर्क चढ़ रहा है. खैर...

 प्रतिक्रियाएं-
Pratyush Chandra Mishra आप कह तो ठीके रहे हैं भाई जी पर जरा हंसुआ के बियाह में खुरपा के गीत हो गया है बस।और ई बतिया सबे जानता है।
Hari Prakash Latta
Hari Prakash Latta Like करना तो चाहता हूँ पर फिर आपके मित्र कहेंगे कि हमलोगों का गठबंधन हो गया है......फिर मैं तो आप साहित्यकार लोगों की जमात से भी नहीं हूँ.........पर लिखा आपने सटीक है
Girijeshwar Prasad
Girijeshwar Prasad Uma जी, “पुरस्कार राशि के सूद और सम्मान में इजाफे का क्या होगा....“ आपके पहले पोस्ट की पहली पंक्ति वह सब कुछ बता देती है,जो आपनके दिमाग में चल रहा है और वही आपके कलम की नोक होते हुए सबके सामने प्रकट हो जाता है। यह किसी वामपंथी या प्रतिरोध के लेखन की वकालत करने वाले की पंक्ति कत्तई नहीं लगती। यहां लगता है,उमानाथ लाल दास का नाम गलती से आ गया है,यह अरुण जेटलियों की टिप्पणी हो सकती है। यहाँ मैं अरुण जेटलियों एवं आपकी टिप्पणियों की तासिर को पकड़ने की कोशिश कर रहा हूँ।

धिक्कार है किसम्मान का पैसा रखते. सूद समेत लौटा देते. ..... ...लेकिन उनके लिए भी सवाल रह जाता कि पुरस्कार के बाद सम्मान में हुए इजाफे को कैसे वापस करते...” आप किसे धिक्कार रहे हैं ? आपने अभी तक उन्हें तो नहीं धिक्कारा,जो लोकतंत्र की हत्या करने पर तुले हुए हैं,अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खतरा बन गए है, विचारों और आचारों को अपने तरह से हाँकना चाह रहे हैं,और जो उनका आदेश मानने को तैयार नहीं,उन्हें मौत दी जा रही है। देश के माहौल को बिगाड़ने के खिलाफ तो आपके बोल नहीं फुटे। आपकी कलम नहीं चली। आपकी कलम चली तो उनके खिलाफ,जो देश के बिगड़ते माहौल में सत्ता प्रतिष्ठान की भूमिका से आतंकित होकर अपनी-अपनी मुट्ठियाँ हवा में लहरा रहे हैं। आपके लिए लोकतंत्र विरोधी और फासीवाद का परचम लहराने वाले विमर्श के विषय नहीं हैं। आप अरुण जेटलियों की तरह बाल की खाल निकाल रहे हैं। आपको फासीवादियों से तकलीफ नहीं है,आपको तकलीफ उसका विरोध करने वालों से है। यह मैं आपके पोस्ट के आधार पर कह रहा हूँ।
आपको यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि पुरस्कार लौटाना एक प्रतीकात्मक विरोध होता है। पुरस्कार लौटाना कोई तोप चलाना नहीं होता। परन्तु इसका असर कहीं ज्यादा प्रभावशाली होता है। पुरस्कार लौटाने को मैं इसी रुप में देखता हूँ। और,इस मामले में मैं अकेला नहीं हूँ। खबर आई है कि दुनिया के 150 देशों के लेखक भी पुरस्कार लौटाकर विरोध जताने वाले भारतीय लेखकों के साथ खड़े हो गए हैं।
आज जरुरत सामूहिक प्रतिरोध की है। प्रतिरोध के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। अलग-अलग लोग भी हो सकते हैं। लोगों के रंग-रुप से किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हमारा मकसद सामूहिक प्रतिरोध खड़ा करने की है। जो रंग-रुप,कद-काठी का सवाल उठाते हैं,वे फासीवादियों के पक्ष में खड़े हैं। मुर्गी पहले कि पहले अंडा - मैं इस तरह के सवालों को शातिराना समझता हूँ। ये कोई मासुम सवाल नहीं हैं। पुरस्कार पाकर लेखक सम्मानित होता है,या लेखक पहले अपनी लेखकीय छाप छोड़ता है,तब उसे पुरस्कार मिलता है ? जिन्हें पुरस्कार नहीं मिला,वे सम्मानित लेखक नहीं हैं ? वैसे,इस दौर में, मैं ऐसे सवालों को विमर्श के केन्द्र में लाना नहीं चाहता। ऐसा वे करते हैं,जिनकी मंशा प्रतिरोध के प्रयासों को हतोत्साहित करने की होती है।
पुरस्कार लौटाना साहित्य अकादमी का विरोध नहीं है। और न ही, यह बिरादरी के अनुमोदन को हिकारत से देखना है। आप संघियों की भाषा बोल रहे हैं। आप विचार करें,आप क्या बोल रहे हैं। क्यों आपको लाटा जी का समर्थन हासिल हो रहा है,क्या लाटा जी उमा जी हो गए हैं, या इसके उलट मामला है ? मैं आहत हूँ,क्योंकि एक वामपंथी परिचय वाले व्यक्ति पर संघ के प्रेत ने,लगता है,कब्जा कर लिया है। मैं कामना करता हूँ,आप प्रेतबाधा से जल्द मुक्त होंगे।

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समकालीन ज्वलंत मसलों को लेकर किये गये कुछ पोस्ट जिस पर हुई गर्मागर्म बहस या चर्चा ने एक वातावरण रचा, उसे अपने ब्लॉग में प्रतिक्रियाओं के साथ पेश कर रहा हूं


 19 अक्तूबर 2015 का पोस्ट:::

सवालों से घिरा विरोध और तसलीमा का सवाललेखकों द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार का लौटाना लगातार जारी है. एक नाम छूटगया था. उर्दू शायर मुनव्वर राणा का. वह भी शामिल हो गये चर्चास्पद नामों में.पर इस अभियान में भयंकर बिखराव है. विरोध करनेवालों की भले ही बड़ी जमात-फौजबनती जा रही हो, पर सत्ता पक्ष (वर्ग शत्रु) लेखकीय अस्मिता का मजाक बनाता जारहा है. इसकी वजह बिखराव भरे विरोध में निहित है. पुरस्कार वापसी एक ऐसीभेंड़चाल हो गयी जिसमें पुराने-प्रगाढ़ रूपवादी और प्रगतिशील एक जगह खड़े हैं.हो सकता है इन सबका मेल नया रंग पैदा करे.बिखराव भरे विरोध का मतलब क्या है. क्या पुरस्कार वापसी मूल्यों कीप्रतिबद्धता से उपजा विरोध है या राजनीति प्रेरित विरोध. सवालों से घिरे इसविरोध को असहमति माना जाये या खास वैचारिक प्रपंच-कर्मकांड का पिछलग्गूपन. जिसतरह दुनिया के मजदूरों एक हो का नारा लगानेवाली पार्टियां आपस में बिखरी हुईहैं और अपना मकसद साधने में वर्गशत्रु को आसानी देती है. लगभग यही रुख है विकटहो रहे सांप्रदायिक सरोकारों के दौर में बढ़ती असहिष्णुता के विरोध का. असहमतिकी आजादी जनतंत्र की प्राणवायु है और इसकी रक्षा करना लेखक से बढ़िया कोई नहींजानता. लेकिन इन महान लेखकों को देखना चाहिए कि जिस संस्थान का वे जैसा विरोधजता रहे हैं, वह विरोध असहमति की सीमा को लांघ कर कहीं असहिष्णुता की जद मेंतो नहीं जा रहा. उन्हें बताना चाहिए कि आखिर यह संस्थान इस नृशंस परिस्थिति कादोषी कैसे है. क्योंकि अवार्ड के अपमान की ध्वनि यही है. जहां तक अकादमी केस्टैंड का सवाल है तो संस्थान के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने साहित्यअकादमी की वेबसाइट पर इस संदर्भ में बतौर अपना पक्ष एक टिप्पणी पोस्ट कर दीहै. साइट के मुख्य पृष्ठ पर ही अध्यक्ष, साहित्य अकादेमी की लेखकों सेअपील-प्रो. एम. एम. कलबुर्गी के सम्मान में श्रद्धांजलि- नाम से एक पोस्ट है.पाठकों की सुविधा के लिए यहां लिंक दिया जा रहा है -http://sahitya-akademi.gov.in/sahit…/…/appeal_h-12-10-15.pdf. येविरोध करनेवाले लेखक एक लेखक (अध्यक्ष) से और क्या चाहते हैं, वह पद त्यागदें. इनमें किस लेखक ने असहमतिस्वरूप सरकारी सेवा के दौरान अपनी नौकरी छोड़ीथी. वह कहेंगे ऐसी स्थिति ही कहां आयी थी. हां, न तो बाबरी मसजिद का कांड हुआ,न भोपाल गैस त्रासदी, न निर्भया कांड और न ही कोई बड़ा हादसा, जिससेलेखक समुदाय की नाक या दिल जुड़ सके. लेकिन शैलेश मटियानी, नागार्जुन,त्रिलोचन जैसे बड़े लेखकों का दुःखद अंत. उनके अंत में लेखकीय समुदाय कीबेदिली बेतरह सामने आयी थी. लेकिन यह तो घर की बात है. इस बार पुरस्कार वापिसीकी भीड़ में यह जरूर हुआ कि इनमें वैसे जीनियस लेखक भी शामिल हैं जिन्हेंविजिटिंग प्रोफेसर होकर एक भी लेक्चर एटेंड करना ठीक नहीं लगा. अंत मेंविश्वविद्यालय से उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया.विरोध के इन पैरोकारों को तसलीमा नसरीन के टके से सवाल का जवाब देना चाहिए. इनलेखकों के सामने उनका सवाल है कि जब वे प्रताड़ित थे, तो भारत के तमाम लेखककहां थे.अकादमी पुरस्कार लौटानेवालों की जमात तब भी थी जब दकियानूसी इसलामी संगठनों कोमनाने के लिए पश्चिम बंगाल से तसलीमा को निकाला जा रहा था. सिंगूर पर समर्थनपाने के लिए एक महिला, लेखक को दरबदर किया जाना भी उन्हें मंजूर था. भारतीयलेखकों से मिले असहयोग पर वह तब चुप थीं, पर लेखकों द्वारा अकादमी के मुखरविरोध ने उनके जख्म को हरा कर दिया है. व्यथित तसलीमा यदि भारतीय लेखकों कोदोहरे मानदंड का कहती हैं तो इन लेखकों को बगलें झांकने के बजाय अपने भीतर झांकना चाहिए. प्रगतिशील भारतीय लेखकों का वाम खतरनाक मैनरिज्म का शिकार है.इन सेकुलरों का सीधा फार्मूला है हिंदू सांप्रदायिकता का विरोध जघन्यअल्पसंख्यक कट्टरता की रक्षा करते हुए. ये ही लोग हैं जो अल्पसंख्यक उग्रकट्टरता की रक्षा में मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं. वामपंथ की चालाकियांप्रगतिशीलों-सेकुलरों की धूर्तता की ढाल बन जाती है. पाकिस्तान की उग्र इसलामीकट्टरपंथ और भारत का प्रगतिशील बौद्धिक तबका करीब-क

प्रतिक्रिया-

Marutrin Sahitya Patrika सुक्ष्मता और निषपक्क्षता से आपने विष्लेशण किया. हम आहत हो रहे है.
आहत पुरस्कार


अब हम किसे ध्रुव तारा मानकर आगे बढ़ेंगे !
कई ध्रुव तारें * एक एक कर टूट -टूट विखरते जा रहे हैं
तारों को टुटने पर मजबुर करने वाले हत्यारों
के खिलाफ हम रोष से भरे जा रहे हैं.
सरकार की चुप्पी भी हमें सता रही है.
मगर हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं.
आसमान को सितारों से विहीन होता देख
हम छटपटा रहे हैं.
उन्हें रोकने की कोशिश में हम
हाथ पैर , न तैरना जानने वालों सा
बहती तेज धार में मार रहे हैं.
और पानी से निकले भींगे पंछी-सा
आसमान में उड़ने की कोशिश कर रहे हैं.
डूबते- उतरते चट्टानों की मार खाते
न जाने हम कितने घायल होते जा रहे हैं
वे लोग हमें राजनीति का पिछल्लगू बता रहे हैं
जो स्वयं राजनीति के पीछे- पीछे चल रहे हैं.
मगर हमें घायल होने की चिंता नहीं है
हम तो यही सोच -सोच कर आहत हुए जा रहे हैं कि
हमारे बच्चे अब कभी नहीं कहेंगे कि
मैं भी एक दिन साहित्य अकाडेमी
पाने वाला लेखक बनुँगा . और
पुरस्कार स्वयं आहत हो कहता है-
अब मैं अपने पैरों पर खड़ा कैसे हो पाऊँगा?
(*ध्रुव तारा को बहुवचन बनाना पड़ा क्यों कि सारे पुरस्कार पाप्त लेखक ध्रुव तारा ही हैं)
- सत्य प्रकाश (१९-१०-२०१५)