हमसफर

बुधवार, 20 अप्रैल 2016

फेसबुक के कोने से

समकालीन ज्वलंत मसलों को लेकर किये गये कुछ पोस्ट जिस पर हुई गर्मागर्म बहस या चर्चा ने एक वातावरण रचा, उसे अपने ब्लॉग में प्रतिक्रियाओं के साथ पेश कर रहा हूं
20 अक्तूबर 2015 का पोस्ट::::
पहले तो भाई मोनाज, लेखक जानें पुरस्कार क्या होता है. कहां से आपको यह भ्रमहो गया.गिरिजेश्वर जी, इनामों से जिसे प्रो्साहन मिलता होगा, मिले. पर अधिकांश पूरीतरह परसकारता की, लाल हरिजन शब्द को लौटाना चाहते हैं,आप कौन-सा लौटना देख रहे हैं. वास्तविक लेखन प्रतिरोध का लेखन होता है. और यहवाम लेखक ही कर सकते हैं. लेकिन आपने मुझमें कौन सा मोड़ देख लिया. मैंनेअसहमति के विवेक तथा लेखकीय स्वायत्तता को अभिव्यक्ति की आजादी के मतलब के रूपमें देखा है. तथा पूरे परिप्रेक्ष्य को अस्मिता के सवाल से जुड़ा पाया है.लेकिन जो दृश्य बन रहा है गिरिजेश्वर जी, आप बताइये कि इसमें लेखकीय अस्मिताका सवाल कहां है और राजनीति कहां. हमें समझना होगा कि यह प्रतिक्रिया किसराजनीति का संरक्षण-पोषण है. जहां मंगलेश डबराल और राजेश जोशी हैं, वहीं धुररूपवादी अशोक वाजपेयी भी खड़े हैं. यही नहीं, इन सबके वैचारिक पोषक-संरक्षकनामवर सिंह अकादमी पुरस्कार को वापस करनेवालों के धुर खिलाफ खड़े हैं और इनकेही छोटे भाई काशीनाथ सिंह पुरस्कार वापस करनेवालों में शामिल हैं.भाई गिरिजेश्वर जी, नहीं मालूम आप इतने आहत क्यों हैं. निरीह अकादमी का विरोधकरनेवालों म वे भी हैं जिन्हें सुब्रत राय को सहाराश्री कहने से परहेज नहींथा. और कोयले की कालिख से पुते ग्रुप की पत्रिका में कार्यकारी संपादक कीअफसरी कुर्सी तोड़ने में मजा आता था. गिरिजेश्वर भाई, थोड़ा ठहरकर विचार करेंकि क्या सरकार ने पुरस्कार के लिए इन्हें मनोनीत किया था या लेखकों-समीक्षकोंके आकलन के बाद इन्हें पुरस्कार के लायक माना गया था. अब आप समझें कि इस निरीहसंस्थान के सम्मान को लौटाकर वह अपनी बिरादरी के अनुमोदन को हिकारत से देख रहेहैं.गिरिजेश्वर जी, हो सकता हो आपके लिए अपने सारे एटैचमेंट के साथ भारत भवन कोभारत भारत बनानेवाले अशोक वाजपेयी महान लगते हों. लेकिन इतिहास में दर्ज तथ्यहै कि जिस वक्त भोपाल में गैस त्रासदी हुई उसके तत्काल बाद कवि सम्मेलन आयोजितकिया गया था. अशोक वाजपेयी ने सम्मेलन स्थगित करने के कुछ लोगों के सुझाव कोखारिज कर दिया यह कह कर कि मुर्दों के साथ कवि नहीं मरता. विरोध दर्ज करनेवालेइन नादान महानुभाव को मालूम नहीं था कि भारत भवन का फोर्ड फाउंडेशन से क्यारिश्ता है. इन महानुभाव को अज्ञेय बहुत भाते थे. अज्ञेय का कांग्रेस फॉरकल्चरल फ्रीडम से वास्ता तो दुनिया जानती है.मैंने इस टिप्पणी म कुछ कर दिया या मुझसे ऐसा क्या हो गया, जिससे मोनाज तथागिरिजेश्वर जी मुझे बदलता हुआ पा रहे हैं. लगता है वाम की दृष्टि भी कर्मकांडऔर प्रपंच से भरती जा रही है. उस पर एक नये कुलीनतावाद का आवरण चढ़ रहा है याकहें कि कुलीनतावाद पर वाम का वर्क चढ़ रहा है. खैर...

 प्रतिक्रियाएं-
Pratyush Chandra Mishra आप कह तो ठीके रहे हैं भाई जी पर जरा हंसुआ के बियाह में खुरपा के गीत हो गया है बस।और ई बतिया सबे जानता है।
Hari Prakash Latta
Hari Prakash Latta Like करना तो चाहता हूँ पर फिर आपके मित्र कहेंगे कि हमलोगों का गठबंधन हो गया है......फिर मैं तो आप साहित्यकार लोगों की जमात से भी नहीं हूँ.........पर लिखा आपने सटीक है
Girijeshwar Prasad
Girijeshwar Prasad Uma जी, “पुरस्कार राशि के सूद और सम्मान में इजाफे का क्या होगा....“ आपके पहले पोस्ट की पहली पंक्ति वह सब कुछ बता देती है,जो आपनके दिमाग में चल रहा है और वही आपके कलम की नोक होते हुए सबके सामने प्रकट हो जाता है। यह किसी वामपंथी या प्रतिरोध के लेखन की वकालत करने वाले की पंक्ति कत्तई नहीं लगती। यहां लगता है,उमानाथ लाल दास का नाम गलती से आ गया है,यह अरुण जेटलियों की टिप्पणी हो सकती है। यहाँ मैं अरुण जेटलियों एवं आपकी टिप्पणियों की तासिर को पकड़ने की कोशिश कर रहा हूँ।

धिक्कार है किसम्मान का पैसा रखते. सूद समेत लौटा देते. ..... ...लेकिन उनके लिए भी सवाल रह जाता कि पुरस्कार के बाद सम्मान में हुए इजाफे को कैसे वापस करते...” आप किसे धिक्कार रहे हैं ? आपने अभी तक उन्हें तो नहीं धिक्कारा,जो लोकतंत्र की हत्या करने पर तुले हुए हैं,अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खतरा बन गए है, विचारों और आचारों को अपने तरह से हाँकना चाह रहे हैं,और जो उनका आदेश मानने को तैयार नहीं,उन्हें मौत दी जा रही है। देश के माहौल को बिगाड़ने के खिलाफ तो आपके बोल नहीं फुटे। आपकी कलम नहीं चली। आपकी कलम चली तो उनके खिलाफ,जो देश के बिगड़ते माहौल में सत्ता प्रतिष्ठान की भूमिका से आतंकित होकर अपनी-अपनी मुट्ठियाँ हवा में लहरा रहे हैं। आपके लिए लोकतंत्र विरोधी और फासीवाद का परचम लहराने वाले विमर्श के विषय नहीं हैं। आप अरुण जेटलियों की तरह बाल की खाल निकाल रहे हैं। आपको फासीवादियों से तकलीफ नहीं है,आपको तकलीफ उसका विरोध करने वालों से है। यह मैं आपके पोस्ट के आधार पर कह रहा हूँ।
आपको यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि पुरस्कार लौटाना एक प्रतीकात्मक विरोध होता है। पुरस्कार लौटाना कोई तोप चलाना नहीं होता। परन्तु इसका असर कहीं ज्यादा प्रभावशाली होता है। पुरस्कार लौटाने को मैं इसी रुप में देखता हूँ। और,इस मामले में मैं अकेला नहीं हूँ। खबर आई है कि दुनिया के 150 देशों के लेखक भी पुरस्कार लौटाकर विरोध जताने वाले भारतीय लेखकों के साथ खड़े हो गए हैं।
आज जरुरत सामूहिक प्रतिरोध की है। प्रतिरोध के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। अलग-अलग लोग भी हो सकते हैं। लोगों के रंग-रुप से किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हमारा मकसद सामूहिक प्रतिरोध खड़ा करने की है। जो रंग-रुप,कद-काठी का सवाल उठाते हैं,वे फासीवादियों के पक्ष में खड़े हैं। मुर्गी पहले कि पहले अंडा - मैं इस तरह के सवालों को शातिराना समझता हूँ। ये कोई मासुम सवाल नहीं हैं। पुरस्कार पाकर लेखक सम्मानित होता है,या लेखक पहले अपनी लेखकीय छाप छोड़ता है,तब उसे पुरस्कार मिलता है ? जिन्हें पुरस्कार नहीं मिला,वे सम्मानित लेखक नहीं हैं ? वैसे,इस दौर में, मैं ऐसे सवालों को विमर्श के केन्द्र में लाना नहीं चाहता। ऐसा वे करते हैं,जिनकी मंशा प्रतिरोध के प्रयासों को हतोत्साहित करने की होती है।
पुरस्कार लौटाना साहित्य अकादमी का विरोध नहीं है। और न ही, यह बिरादरी के अनुमोदन को हिकारत से देखना है। आप संघियों की भाषा बोल रहे हैं। आप विचार करें,आप क्या बोल रहे हैं। क्यों आपको लाटा जी का समर्थन हासिल हो रहा है,क्या लाटा जी उमा जी हो गए हैं, या इसके उलट मामला है ? मैं आहत हूँ,क्योंकि एक वामपंथी परिचय वाले व्यक्ति पर संघ के प्रेत ने,लगता है,कब्जा कर लिया है। मैं कामना करता हूँ,आप प्रेतबाधा से जल्द मुक्त होंगे।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें