हमसफर

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

टिप्पणियों से

औचित्य

सामाजिक चिंताओं अपेक्षाओं से मुक्त संस्कृतिकर्म अंततः वायवी होकर विलास में तब्दील हो जाते हैं। कला की स्वायत्ता के नाम पर भी इस हद को लांघने की इजाजत नहीं होनी चाहिए। और धर्म जैसी नाजुक चीजों से छेड़छाड़ तो तभी संभव है जब वह अपनी गलित संलग्नताओं, संलिप्तताओं व संकीर्णताओं से उबरने के लिए आत्मसंघर्ष को हम स्वीकारें। मकबर फिदा हुसैन की मिथकों से छेड़छाड़ की पुरानी शगल रही है। टोटलिटी में देखने से स्पष्ट होता है कि यह कला की स्वच्छंदता नहीं, यह उनकी स्वेच्छाचारिता और स्वैर है।
आजकल जिसके औचित्य को सिद्ध करने के लिए पेशेवर नैतिकता प्रोफेशनल मोरेलिटी को ढाल की तरह इस्तेमाल किया जाता है, कला भी इसी हथियार का इस्तेमाल करने लगी है। जब वह विकृतियों को ढोने का डस्टबिन बनना स्वीकार कर लेती है तो उसकी बाध्यता हो जाती है अपने वायवी सरोकारों की रक्षा करना।
एमएफ हुसैन यूं ही ‘माधुरी फिदा हुसैन’ नहीं बने। अपनी कला के लिए जिन सरोकारो के निष्कर्ष से वह ‘माधुरी सौंदर्य शास्त्र’ तक पहुंचते हैं, वही कला को मित्तलों की वाल पेंटिंग बनना मंजूर कर सकते हैं। दीवार की पपड़ियों जितनी जिस कला की उम्र हो वह यदि कौड़ियों के लिए अपनी कला को समर्पित करे, तो उसकी सामाजिक अपेक्षाएं कैसी भी हों इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। संस्कृतिकर्म यदि साधना नहीं बने तो हमारे संस्कार को परिमार्जित करने की क्षमता उसमें नहीं आती। और जब कलाकार तक के संस्कार परिमार्जित न हों तो उससे उच्चतर जीवन मूल्यों की निष्ठा की अपेक्षा ही फिजूल है।
कोई मंदिर में प्रवेश करते समय चप्पल यूं ही नहीं खोल देता है, यह सांसारिक लालसाओं, लिप्तताओं, संलग्नताओं से मुक्ति की उसकी भौतिक चेष्टा है. जो प्रतीकवत है। लेकिन अस्सी साला हुसौन कला की साधना करते – करते फूहड़ प्रतिमाओं के सान्निध्य से अपने को धन्य मानने लगें तो कला की खैरियत नहीं।
कला की इस दुर्दशा पर जहां बुद्धिजीवियों व संस्कृतिकर्मियों को उत्तेजित होना चाहिए था, वहां राजनीति को शिरकत करनी पड़ी। और शिवसेना का यह हस्तक्षेप बुरा लगता है तो सिर्फ इसलिए कि ‘समाज’ के उस तबका का चुप रहना, निष्क्रिय रहना हमें बुरा नहीं लगा। राजनीति यूं ही सर्वग्रासी नहीं बनी। सबने मिलकर उसके लिए माकूल अवसर बनाए। यही कारण है कि सत्ता का समीकरण बना रही राजनीति किसी भी विवाद का राजनीतिकरण करने से बाज नहीं आती। यह समय है इन्हीं तथाकथित प्रबुद्धों के छद्म आभिजात्य के प्रपंचों, तिलिस्मों को जानने-गुनने का।
हुसैन ने जब मिथकों का उपहास उड़ाया तो उनकी यह विलास दृष्टि इस्लामी गलित मिथकों-परंपराओं के गुहांधकारों में क्यों नहीं गई ? वहां भी कई गलित परंपराएं- संस्कार आज भी पूरी ताकत के साथ मौजूद हैं। वहां हुसैन की निगाह नहीं जाती। वह भारतीयों की सहिष्णुता, उदारता का बाजारू इस्तेमाल की मंशा कला में प्रयोग (उपभोग) करते हैं। उन्होंने जब ‘सरस्वती’ के साथ ऐसा सलूका किया था तब भी हाय-तौबा मचा था, लेकिन माफीनामे का राग तब सुनने में नहीं आया। लेकिन उन्होंने आज यदि ‘सीता’ के साथ बदसलूकी को कबूला है और माफी मांगी है तो तो इसमें कहीं भी कलाकार के सामाजिक धर्म के नाते नहीं, बस एक बाजारू दबाब सक्रिय था। ‘माधुरी’ केंद्रित अपनी फिल्म गजगामिनी की शूटिंग ठप पड़ी थी शिवसेना की बंदिशों से। और उनकी माफी से शूटिंग का वह बंद द्वार खुल गया। जीवन की परिवर्तनशील सरोकारों से जुड़कर कला क्या ऐसी ही क्रांतिधर्मी चेतना से युक्त होगी, जिसकी कोई सामाजिक अपेक्षाएं न हों। हो तो बस व्यक्तिगत स्वेच्छाचारी लालसाएं और बर्बर कुंठाओं का विस्फोट।


(1995 में बिहार आब्जर्वर के लिए लिखी टिप्पणी)

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