तसलीमा के बहाने
नंदीग्राम हादसे के बाद आल इंडिया माइनारिटी फोरम का फरमान और कोलकाता से तसलीमा के निष्कासन को कैसे समझा जाए ? क्या यह ठीक उसी तरह नहीं जैसे जार्ज ने अमरिका बनाम ईराक की लड़ाई में दुनिया को धमकाया था यह कहकर कि ईराक-बनाम अमेरिका में जो उनके साथ खड़ा नहीं वह आंतंकवादी है ? पश्चिम बंगाल सरकार झुकी भी। क्या भारतीय इस्लामी कट्टरता की कठपुतली नहीं? क्या यह मान लिया जाए कि भारतीय वामपंथ अपनी उम्र के आठवें दशक तक आते-आते सठिया गया और उसके पास अपने लाड़ले इस्लामी कट्टरता को पुचकारने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। आखिर लेखक भरोसा बदलावकारी ताकतों पर है या फिर वह प्रतिक्रियावादियों की अनुकंपा पर हैं। अश्लील प्रसंगों से चर्चित और कट्टरता को तार-तार करते अंश से विवादित ‘द्विखंडिता’ से तसलीमा को उन अंशों को आखिरकार अल्पसंख्यक महानुभावों के दबाव और आतंक में आकर निकालने को राजी हो गई और तर्क दिया कि शांति का माहौल बनाने के लिए उन्होंने ऐसा किया। क्या वह लज्जा का दूसरा पाठ लिखेंगी ? कोलकाता को स्थाई ठिकाना माननेवाली तसलीमा जब (कोलकाता से निकलकर) भारत को अपना ठिकाना मानने लगीं तो क्या यह नहीं माना जाए कि राजमार्ग, राष्ट्रीय मार्ग से यह रास्ता अब अंतरराष्ट्रीय रास्तों से मिलकर बांग्लादेश जाने के लिए पगडंडी तो निकाल रही हैं ? लेकिन तसलीमा को इसकी तनिक भी चिंता नहीं कि ऐसा करके उसने अपने पक्ष में खड़े मानवीय सरोकारों से जुड़े मानवाधिकार की रक्षा के लिए आंदोलन के मुंह पर कालिख तो नहीं पोत रही हैं? विवादास्पद अंश प्रतिबंध मुक्त करने के लिए दो-दो बार कोलकाता उच्च न्यायालय गए मानवाधिकारवादी सुजत भद्र कौन है, तसलीमा ने यह जानना नहीं चाहा ? तसलीमा के इस पूरे अध्याय से भारतीय वाम का चेहरा वामपंथी लेखक संगठनों की हवाबाजी कहां गई ? भारतीय वाम का क्रांतिकारी परचम देखना हो तो भारत छोड़कर खाड़ी देश में रह रहे एमएफ हुसैन और बांग्लादेश छोड़कर भारत में रहने की जिद पर अड़ी तसलीमा के कंटेक्स्ट में इस टेक्स्ट को देखना होगा। कल्पना की उड़ान और कला की स्वायत्तता की वकालत करते हुए हुसैन के पक्ष में खड़े होनेवालों को क्यों नहीं दिखता कि हुसैन की कूंचियां हिंदू देवियों के कूच-नितंब पर क्यों फिरती हैं ? अपने मुहम्मद व पैगंबरों की खोहों में जाकर उसके रंग क्यों सूख जाते हैं ? या कूंचियां ही सूख जाती हैं ? प्रताड़ना और शोषण का चित्रण करते हुए इस्लामी कट्टरता और सामंती जकड़न में कराहती आवाजें क्यों नहीं उनके कानों तक पहुंचती हैं ? इस्लामी कट्टरता और सामंती खोहों को कलम से आलोकित करनेवाली कलम से तस्लीमा की यौन उच्छृंखलताएं क्यों नहीं दिखती भारतीय जनवादी वाम लेखक संघों को ? क्या यह संस्कृतिकर्म के नाम पर फलने फूलनेवाली ऐय्याशी में हिस्सेदारी की चाहत तो नहीं। आखिर कौन उनकी जबान को सिलता है जो जबान कभी विभूतिनारायण राय से लेकर एमएफ हुसेन तक को संरक्षण की वकालत करती है।
भारतीय वामपंथ के आंचल में ठौर पाए वामपंथी लेखकों को ऐसे मसलों पर सांप सूंघ लेता है। वामपंथ की चालाकियां उनकी धूर्त्तता का सहारा बनती हैं। माकूल जवाब तलाशने में उन्हें दगाबाज बनना पड़ेगा और कुछ तो बनते भी हैं। उसके भटकाव व बिखराव के सूत्र को पकड़ने के लिए समूचेपन में जाना होगा, जो इनकी फितरत में नहीं।
(02 दिसंबर 2007)
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